दक्षिण-पूर्व एशिया मे प्राचीन भारत के
सांस्कृतिक साम्राज्य का समीक्षात्मक अध्ययन
(कला के विविध आयामों के विशेष सन्दर्भ में) / डॉ. प्रशान्त कुमार / गौरव सिंह)
व्यापार एवं धर्म की सम्पदा ने भारत एवं दक्षिण पूर्व
एशिया के सम्बन्धों को प्रगाढ़ बनाया। परिणामस्वरूप वहां अनेक भारतीय सांस्कृतिक
उपनिवेश अस्तित्व में आये। जिनकी भाषा, संस्कृति, शासनविधि, धर्म
तथा कला सभी का कलेवर भारतीय है। इस क्षेत्र में प्रायः सभी राज्यों में हिन्दू
मन्दिरों, मठों, बौद्ध
विहारों, स्तूपों तथा चैत्यों के अवशेष बड़ी
मात्रा में विद्यमान हैं। जिनमें से अंकोरवाट का मन्दिर, बोरोबुदूर
का स्तूप, आनन्द पैगोडा, प्रम्बनन
मन्दिर, नाथ्लौंग क्योंग मन्दिर, नानपाया
मन्दिर, जावा का चण्डी कलसन का प्राचीन मन्दिर, दिएंग
का चण्डी भीम मन्दिर, चण्डी सरी, चण्डी
सेबू, लर जोग्रंग के मन्दिर, माइसोन
घाटी के मन्दिर, दोंग-दुओंग के मन्दिर, बायोन
का मन्दिर इत्यादि प्रमुख उदाहरण हैं। दक्षिण पूर्व एशिया की स्थापत्य कला तथा
मूर्तिकला की न सिर्फ विषयवस्तु केवल भारतीय है बल्कि निर्माण शैली तथा निर्माण
सामग्री के अवयव भी भारतीय अनुकरण ही प्रतीत होते हैं। विशेषतया कम्बोडिया, जावा, चम्पा
एवं बाली के कलावशेष भारतीय गुप्त, पल्लव
एवं चालुक्य कला पर आधारित हैं। प्रस्तुत शोधपत्र में दक्षिण पूर्व एशिया में कला
के विविध आयामों (स्थापत्य कला, मूर्तिकला, लेखन
कला आदि) के माध्यम से प्राचीन भारत के सांस्कृतिक साम्राज्य का समीक्षात्मक
अध्ययन प्रस्तुत किया जायेगा।
बीज शब्द - भारतीय
संस्कृति, दक्षिण-पूर्व एशिया , मूर्तिकला, लेखनकला।
मूल आलेख –
प्राचीन भारत के शक्तिशाली महान सम्राटों ने मात्र
शस्त्रों के माध्यम से साम्राज्य विस्तार की नीति को महत्ता प्रदान नहीं की। महान
अशोक ने विशाल भूखण्ड, शक्तिशाली सेना एवं संसाधनों का स्वामी
होते हुए भी युद्ध विजय की नीति का परित्याग कर धम्म विजय की नीति को अपनाया।
वास्तव में भारत के सांस्कृतिक साम्राज्य के विस्तार का पहला पग महान सम्राट अशोक
ने ही बढ़ाया। जब उन्होंने विभिन्न संस्कृति वाहकों को दक्षिण एशिया, चीन, मध्य
एशिया, पूर्वी एशिया इत्यादि सभी भागों में
भेजा। भारत से पूर्व की ओर के प्रदेशों में बौद्ध स्थविर और भिक्षु धर्म प्रचार के
लिए गये थे। तीसरी सदी ईस्वी पूर्व तक इन देशों में किसी उन्नत सभ्यता का विकास
नहीं हुआ था। भारत के धर्मप्रचारकों ने जहाँ इन देशों में अपने धर्म का प्रचार
किया, वहाँ साथ ही सभ्यता के मार्ग पर उन्हें
अग्रसर किया। इस परम्परा का निर्वहन महान गुप्त शासकों ने भी किया तथा भारतीय
सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की पराकाष्ठा चोल शासन में प्राप्त हेाती है। जब पराक्रमी
चोल राजाओं ने दक्षिण-पूर्व एशिया के विभिन्न देशों एवं द्वीपों को अपने आधिपत्य
में लिया और भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति
एवं कला का वहाँ पर व्यापक प्रचार किया। भारत के पूर्व में बर्मा, मलेशिया, इण्डोनेशिया, श्यामदेश, कम्बोडिया, लाओस, वियतनाम
और फिलीपींस आदि देशों में न केवल भारतीय धर्म एवं संस्कृति का प्रचार करने लोग
गये थे अपितु महान भारतीय सम्राटों ने इन स्थानों पर कितने ही उपनिवेशों की
स्थापना की थी। इसी कारण ये स्थान भारतीय संस्कृति के रंग में पूर्णतः रंग गये और
वर्तमान समय में भी इनमें भारतीय संस्कृति की छाप देखी जा सकती है।
स्थापत्य एवं मूर्तिकला पर भारतीय प्रभाव -
इन्डोनेशिया क्षेत्र में जावा ही एक ऐसा द्वीप है जहां
प्राचीन मन्दिर और चैत्य इस समय भी विद्यमान हैं। शैलेन्द्र साम्राज्य की राजधानी
श्रीविजय सुमात्रा में थी और कलाया प्रायद्वीप में अनेक समृद्ध भारतीय राज्य
प्राचीन समय में विद्यमान थे। संभवतः इनमें भी अनेक विशाल मन्दिरों और चैत्यों का
निर्माण किया गया होगा, जिनके अवशेष मात्र ही वर्तमान समय में प्राप्त होते हैं।
जबकि जावा के प्राचीन मंदिर एवं चैत्य अभी भी सुरक्षित हैं। मध्य जावा में स्थित
दिएंग के पठार पर यहां के सर्वप्राचीन मंदिर पाये जाते हैं, जिनका निर्माण काल 7-8वीं
सदी है। इन मन्दिरों को पाण्डव मन्दिरों के नाम से जाना जाता है जिनकी कुल संख्या
आठ है। इन मन्दिरों में तथा इनके समीप विष्णु, शिव, ब्रह्मा, गणेश
एवं दुर्गा आदि हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाएं मिलती हैं। अनेकों प्रतिमाओं में
देवों के साथ उनके वाहनों को भी प्रदर्शित किया गया है। स्थापत्य की दृष्टि से
दिएंग के मन्दिरों की साम्यता गुप्त कालीन भारतीय मंदिरों से प्रतीत होती है।
गुप्तकालीन भारतीय मन्दिर आकार में छोटे, समतल
छत वाले हैं जिनमें कालांतर में विकसित होकर शिखर का प्रयोग भी मिलता है। इनके
गर्भगृह में प्रतिष्ठित प्रतिमा के केवल पूजन निमित्त आकार-प्रकार निर्मित थे। उस
स्थान पर उपासक जनता के सभास्थल का सर्वथा अभाव था।1 दिएंग
के मन्दिरों के गर्भगृह में भी केवल एक-एक प्रवेश द्वार है और मन्दिरों के ऊपर की
छत चौरस है जो ऊपर की ओर छोटी होती जाती है। मन्दिरों के अलंकरण हेतु अत्यन्त
सुन्दर और कलात्मक प्रतिमाओं का प्रयोग किया गया है।2
शैलेन्द्र राजाओं ने जावा में अनेक बौद्ध चैत्यों तथा
स्तूपों का निर्माण करवाया था। इनमें से चण्डी कालसन का चैत्य सर्वाधिक पुराना है।
इस चैत्य से मिले 778 ई. के अभिलेख के विवरण से यह ज्ञात
होता है कि यह चैत्य शैलेन्द्र राजा ने देवी तारा के लिए बनवाया था। अभिलेख में
कालस गांव के बौद्ध संघ को दान में दिये जाने का उल्लेख है। इसीलिए यह चैत्य चण्डी
कालसन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। चैत्य के अवशेषों की संरचना को देखकर प्रतीत होता
है कि इसका निर्माण आठवीं सदी में हुआ था। यह चैत्य एक चौकोर चबूतरे पर स्थित है।
इसके मुख्य द्वार के ऊपर विशाल कीर्तिमुख का अंकन किया गया है, जिसके
मुख से पांच कमल निकल रहे हैं। द्वार पर बहुत सी सुन्दर मूर्तियां अंकित हैं। जहां
से छत आरम्भ होती है, वहां बुद्ध की मूर्तियां पंक्ति में बनी हुई हैं। इनमें चार
ध्यानी बुद्धों- अक्षोम्य, रत्नसम्भव, अमिताभ
और अमोघसिद्धि की मूर्तियां मिलती हैं।
इसके साथ ही 250
मन्दिरों का एक मन्दिर समूह भी जावा में प्राप्त होता है जिसे चण्डी सेवू के
मन्दिर के नाम से जाना जाता है। इन सभी मन्दिरों का निर्माण किसी एक ही व्यक्ति
द्वारा नहीं करवाया गया था। ऐसी परम्परा भारतीय गुप्तकालीन एवं प्रतिहार कालीन
मन्दिरों में देखने को मिलती है, जहां
मन्दिर समूहों का निर्माण किसी एक व्यक्ति द्वारा न करवा कर अनेक व्यक्तियों के
दान दिये जाने से हुआ हो। चण्डी कालसन, चण्डी
सरी और चण्डी सेवू के मन्दिर मध्य जावा की प्रम्बनन घाटी में स्थित हैं।
जावा स्थित केदू के मैदान में भी प्राचीन मन्दिरों के
ध्वंसावशेष विद्यमान हैं। ये सभी मन्दिर आठवीं सदी के हैं तथा इनका सम्बन्ध बौद्ध
एवं पौराणिक दोनों ही पक्षों से है। यहां स्थित प्रमुख मंदिरों में चण्डी मेन्दुत
तथा चण्डी पवान के मन्दिर प्रमुख हैं, जिनका निर्माण एक ऊंचे चबूतरे पर किया गया
है। मन्दिर की दीवारों पर सुन्दर मूर्ति पंक्तियां हैं, जिनमें
मध्य की मूर्तिपंक्ति के उत्तर-पूर्व में पद्मासना अष्टभुजा देवी की मूर्ति है। इस
देवी के दोनों ओर प्रभामण्डित दो मनुष्य मूर्तियां हैं, जिनके
एक हाथ में कमल और दूसरे में चक्र है। देवी के दायें वाले हाथों में शंख, वज्र, बिल्व
तथा माला है, और बाएँ वाले हाथ में परशु, अंकुश, पुस्तक
वस्तुएं हैं। ये सभी प्रतीक भारतीय प्रतिमा विज्ञान के प्रतीकों से तादात्म्य रखते
हैं।
काम्बुज (कम्बोडिया) में विकसित हुई स्थापत्य एवं मूर्तिकला
का विकास धीरे-धीरे हुआ और भारतीयों ने उसे बहुत प्रभावित किया। एक अनुश्रुति के
अनुसार भारतीय ब्राह्मण कौडिन्य द्वारा यहां की राजकुमारी सोमा से विवाह किया गया
तथा फूनान में अपना राज्य प्रारम्भ किया।3 जो
भारतीय उपनिवेशक प्राचीन काल में कम्बोडिया के क्षेत्र में जाकर बसे थे, वे
अपने धर्म, भाषा आदि के साथ अपनी वास्तु एवं
स्थापत्य कलाओं को भी अपने साथ ले गये थे, और
उन्होंने उसी के अनुसार वहां मन्दिरों आदि का निर्माण किया था। यहां के प्रारम्भिक
मन्दिर छोटे-छोटे हैं और गोल न होकर या तो वर्गाकार हैं और या आयताकार। इनके बीच
में गर्भगृह है, जिनमें शिवलिंग या देवमूर्ति की
प्रतिष्ठापना की जाती थी। गर्भगृह के चारों ओर प्रायः प्रदक्षिणा पथ होता था।
मन्दिर की छत पर शिखर का भी निर्माण किया गया है, जो ऊपर
की ओर संकरा होता जाता है। मन्दिर की भित्तियों पर मूर्तियों व चित्रावलियों को
उत्कीर्ण नहीं किया गया है, पर
दीवार के बाहरी ओर जो ईंटें लगायी गई हैं उनमें से अनेक ईंटों पर विविध प्रकार के
अलंकरण किये गये हैं।4 इस
प्रकार की विशेषताएं भारतीय इतिहास में गुप्तकालीन मन्दिरों में प्राप्त होती हैं।
गुप्तकालीन छठी सदी के मंदिरों में शिखर का प्रादुर्भाव हुआ था। इस श्रेणी में
कानपुर स्थित भीतरगांव का मन्दिर तथा देवगढ़ का दशावतार मन्दिर प्रसिद्ध है।5 साथ
ही गुप्तकाल का सबसे प्रसिद्ध प्रयोग ईंटों द्वारा मन्दिरों का निर्माण किया जाना
था। भीतरगांव का मन्दिर सुन्दर अलंकृत ईंटों द्वारा निर्मित विख्यात मन्दिर है।6
मन्दिरों के द्वारों के ऊपर प्रायः पत्थर के लिन्टल हैं, जिन पर
मकर आकृतियां बनायी गई हें। दीवारों के बाहरी ओर जिन अलंकृत ईंटों का प्रयोग किया
गया है, उन पर प्रायः प्रासाद की आकृति उत्कीर्ण
हैं, जो सम्भवतः मन्दिर की ही अपनी अनुकृति हैं। छत और दीवारों
के बीच में प्रायः बाहर की ओर निकली हुई कार्निस है, जिस पर
देवी-देवताओं के शीर्ष बने हैं। नक्कासी की हुई या उत्कीर्ण की गई ईंटें इन
मन्दिरों की एक ऐसी विशेषता है, जो
भारत में गुप्तयुग के मन्दिरों में भी पायी जाती है।7
कम्बोडिया स्थित बयंग के मन्दिर का निर्माण इसी परम्परानुसार हुआ है। इसके
अतिरिक्त सम्बोर तथा अन्यत्र कुछ ऐसे भी मन्दिर हैं जिनका निर्माण पूर्णतः पत्थरों
के द्वारा किया गया है। यह एक आयताकार भवन है, जिसकी
दीवारें बिलकुल सादी है। पर उसमें जो चौकोर स्तम्भ बनाये गये हैं वे नक्काशीदार
हैं। मन्दिर की छत सपाट है और एक विशाल शिला से बनाई गई है। छत के चारों ओर आगे की
तरफ बढ़ा हुआ कार्निस है, जिस पर
देवताओं के शीर्ष बने हुए हैं। गुप्तयुग के भारत में भी अनेक मन्दिरों में इस शैली
का प्रयेाग किया गया है। सम्बोर के समीप हंचेई का मन्दिर भी पत्थरों से निर्मित है
और उसके प्रवेशद्वार के लिन्टल पर चतुर्भुज अनन्तशयन की प्रतिमा उत्कीर्ण की गई
है। इसकी छत भी चपटी है। बयंग और सम्बोर के मन्दिर प्रायः वैसे ही हैं जैसे भारतीय
गुप्तकालीन मन्दिर हैं। इन पर भारतीय स्थापत्य कला का इतना अधिक प्रभाव है कि प्रतीत
होता है इन्हें उन शिल्पियों द्वारा ही बनाया गया हो जिन्हें भारतीय उपनिवेशक अपने
साथ कम्बोडिया ले गये हों। प्रतीत होता है कि आठवीं सदी एवं उससे पूर्व बनने वाले
मन्दिर विशुद्ध रूप से भारतीय थे। जबकि इनके बाद नवीं से बारहवीं सदी की कला पर
ख्मेर प्रभाव को देखा जा सकता है।8
काम्बुज देश के प्राचीन मंदिरों एवं भवनों की तुलना में
वहां की प्राचीन मूर्तियों पर भारतीय प्रभाव और भी अधिक स्पष्ट रूप से देखा जा
सकता है। आठवीं सदी से पूर्व की जो मूर्तियां कम्बोडिया क्षेत्र से मिली हैं, वे
गुप्त युग की भारतीय मूर्तिर्यों से साम्यता रखती हैं। इस काल की मूर्तियों में
आंखे पूरी तरह से खुली हुई हैं, ओठों
पर हल्की सी मुस्कान है और वस्त्र ऐसे कलात्मक ढंग से बनाए गए हैं कि उनकी
चुन्नटें सुन्दर रूप से उभरी हुई हैं। गुप्तकाल की मूर्तियों में भी ये ही बातें
पाई जाती हैं। कम्बोडिया की इन प्राचीन मूर्तियों में सम्बोर के समीप प्रसद अन्देत
से उपलब्ध हरिहर की एक मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जो इस
युग की मूर्तिकला का उत्तम उदाहरण है। ख्मेर काल में विकसित होने वाली मूर्तिकला
पर भी भारतीय प्रभाव अनवरत बना रहा। वेशभूषा, अलंकरण
तथा कथानक के चित्रण में इन भित्तियों को विभिूषित करने के लिए जो चित्र अंकित
किये गये, उनके लिए रामायण, महाभारत
तथा पुराणों की कथाओं का आश्रय लिया गया, क्योंकि
ये कथानक काम्बुज देश की संस्कृति के भी उसी प्रकार से अंग थे, जैसे
कि भारत की संस्कृति के थे। यहां से पौराणिक देवी-देवताओं की मूर्तियां बहुत अधिक
संख्या में मिलती हैं। काम्बुज के लोग शैव धर्मानुयायी थे, अतः
शिव की मूर्तियां वहां सबसे अधिक संख्या में बनीं। शिव की मूर्तियां बैठी और खड़ी
दोनों ही अवस्थाओं में हैं। शिव की मानव रूप की प्रतिमाओं के साथ-साथ काम्बुज में
अनेकों शिवलिंग भी मिलते हैं जिन्हें पूजा के लिए विभिन्न मन्दिरों में स्थापित
किया गया था। इसके साथ ही ब्रह्मा एवं विष्णु की भी अनेक चतुर्भुजी प्रतिमाओं की
प्राप्ति यहां से होती हैं। मजूमदार महोदय के अनुसार काम्बुज देश में विकसित हुई
मूर्तिकला की मूलात्मा गुप्तकालीन भारतीय कला ही थी, जो कि
तत्कालीन दोनों ही देशों के मध्य की घनिष्टता का परिचायक भी है।9
रॉबर्ट डलेट द्वारा व्याख्यायित की गई एक बुद्ध प्रतिमा इस प्रसंग हेतु उपयुक्त है
जो कि कोम्पोन स्पूर जिले से प्राप्त हुई है। उनके अनुसार यह मूर्ति गुप्तकालीन
सारनाथ की मूर्तिकला से साम्यता रखती है।10
वर्तमान समय में जो प्रदेश दक्षिणी वियतनाम में स्थित हैं
प्रायः वे ही प्राचीन काल में चम्पा के हिन्दू या भारतीय राज्य के अन्तर्गत थे।
चम्पा पर धर्म, संस्कृति एवं कला में भारतीय प्रभाव को
यहां पर भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यद्यपि यहां पर काम्बुज तथा जावा के
समान विशाल कलावषेशो का अभाव है तथापि ईंटों से निर्मित अनेक स्थापत्यावशेष यहां
के माइसोन, पो-नगर और दोंग दुओंग स्थानों से मिले
हैं। माइसोन में तीस से ज्यादा मन्दिरों के अवशेष मिलते हैं। जिनका निर्माण एक
ऊंचे चबूतरे पर किया गया था। मन्दिर तक पहुंचने के लिए पश्चिम की ओर सीढ़ियों का
निर्माण किया गया था। माइसोन के मन्दिर मुख्यता शैव सम्प्रदाय के हैं और उनमें शिव
के साथ-साथ गणेश, उमा तथा स्कन्द की भी मूर्तियां हैं।
कतिपय मन्दिरों में पौराणिक हिन्दू धर्म के अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों की भी
सत्ता है। पो-नगर में प्राप्त मन्दिरों की संख्या छह है, जिनका सम्बन्ध पौराणिक
हिन्दू धर्म से है और इनमें शिव तथा उनसे सम्बद्ध देवी-देवताओं की मूर्तियां
प्रतिष्ठापित हैं। चम्पा के सभी मन्दिर एक समान नहीं हैं, उनमें
बहुत सी भिन्नताएं हैं। पर भिन्नताओं के होते हुए भी उनमें कतिपय तत्व एक सदृश है।
उनके निर्माण के लिए ईंटों का प्रयोग किया गया है तथा द्वारों, लिन्टल
तथा कानिष के लिए पत्थरों का प्रयोग किया गया है।11 यहां
पर भी मन्दिरों का निर्माण ऊंचे धरातल पर किया गया था। प्रायः मन्दिर वर्गाकार हैं
और उनकी ऊंचाई-लम्बाई-चौड़ाई की तुलना में अधिक हैं।12
मन्दिरों के गर्भगृह में केवल एक द्वार है, जो
प्रायः पूर्व की ओर है। शेष तीन दीवारों में आलों के रूप में नकली द्वार बनाये गये
हैं। इन आलों में पूजा के लिए दीप रखे जाते थे और मूर्ति को गर्भगृह के मध्य भाग
में प्रतिष्ठापित किया गया था। गर्भगृह की आंतरिक भित्तियां अपेक्षाकृत सादी मिलती
हैं किन्तु इन पर विशेष प्रकार की पॉलिस मिलती है।13 इसी
प्रकार द्वार के ऊपर के लिन्टल के प्रस्तर पर भी सुन्दर चित्र उत्कीर्ण किये गये
हैं। गर्भगृह और उसके सामने के ओसारा जिस धरातल पर बने होते हैं, वह
चारों ओर की भूमि से छह फीट के लगभग् ऊंचा होता है, अतः उस
तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां बनायी जाती हैं, जो
ओसारे के बाह्य द्वार तक पहुंचती है। मन्दिर की छत पिरामिड के समान बनी है, जो
नीचे से ऊपर की ओर छोटी होती जाती है। पिरामिड की आकृति की इस छत में प्रायः तीन
मंजिले हैं। प्रत्येक मंजिल के चारों कोनों पर चार बुर्ज बने रहते हैं, जो
स्वयं मन्दिर की आकृति के होते हैं। सबसे ऊपर एक शिखर बनाया जाता है, जिसका
निचला भाग कमल के समान और ऊपर वाला भाग आग की लौ जैसा बनाया जाता है। मन्दिर के
बहिरंग को अलंकृत करने के लिए पंख फैलाये हुए हंसों, मकरों
और अप्सराओं आदि की प्रतिमाओं को पत्थर पर उत्कीर्ण किया गया है। ईंटों द्वारा
निर्मित इन मन्दिरों में जो प्रस्तर खण्ड प्रयुक्त हुए हैं, वे
प्रायः सब भी लताओं, पत्र-पुष्पों और विविध प्रकार के अन्य
दृश्यों से विभूषित हैं।
चम्पा के मन्दिरों पर अनेक मंजिलों वाली ऐसी छतें बनाने की
प्रथा थी जो नीचे की तुलना में ऊपर की ओर लगातार छोटी होती जाती थी, वह
सम्भवतः भारत की द्रविड़ शैली से ली गई थी। सातवीं सदी में निर्मित मामल्लपुरम् के
रथमन्दिरों और कांजीवरम् तथा बादामी के मन्दिरों की छतें भी प्रायः इसी ढंग की है।
मामल्लपुरम् के धर्मराज रथ,अर्जुन
रथ आदि मन्दिरों की छतों की यदि चम्पा के बहुरथ संख्यक मन्दिरों की छतों से तुलना
की जाए, तो उनमें सादृश्य दिखाई देगा। धर्मराज
शिव का मन्दिर है, जिसे अत्यन्तकामपल्लवेश्वर भी कहते हैं।
चम्पा के शम्भु भद्रेश्वर सदृश कितने ही मन्दिरों के नाम भी इसी ढंग के हैं।14 पल्लव
राजाओं द्वारा अपने राम पर स्वनिर्मित मंदिरों के नाम रखने की प्रथा का चम्पा में
भी अनुकरण किया गया है। भारत के जो उपनिवेशक चम्पा में जाकर बसे थे, वे
भारत की भाषा, शासन व्यवस्था और धर्म के समान भारत की
कला को भी अपने नये देश में ले गये थे।
चम्पा से मिली कलाकृतियों में प्राचीन मूर्तियां भी शामिल
हैं, जिनसे इस देश की मूर्ति निर्माण कला एवं उस पर भारतीय
प्रभाव का विश्लेषण किया जा सकता है। यहां से शिव की दो मानवाकार खड़ी मूर्तियां
माइसोन से मिली हैं, जो प्रायः एक जैसी हैं। इनमें शरीर के
विविध अंग भली-भांति संतुलित हैं और मुख मण्डल पर प्रसन्नता का भाव अभिलक्षित है।
शिव की एक मूर्ति नृत्य मुद्रा में भी उपलब्ध हुई है। उनके एक हाथ में त्रिशूल है
तथा दूसरा हाथ खण्डित अवस्था में है। कानों में कुण्डल, भुजाओं
में भुजबन्द, हाथों में कंगन, वक्षस्थल
पर माला तथा पैरों में नुपुर हैं। उन्होंने सिर पर ऊंचा मुकुट धारण किया हुआ है, जो
मालाओं से अलंकृत है। शिव की अनेक प्रतिमाएं ध्यानावस्था में बैठै हुए भी मिलती हैं, जिनमें
सिर पर जटामुकुट का अंकन भी देखा जा सकता है। इस प्रकार की शिव मूर्तियां उत्तर
भारत में प्राप्त होने वाली गुप्तकालीन शिवमूर्तियों के समान ही बनाई गई थीं।
यद्यपि इन मूर्तियों के मुखमण्डल की बनावट पर चम्पा देश का प्रभाव भी स्पष्ट देखा
जा सकता है तथापि अलंकरण एवं आभरण की दृष्टि से किया गया समस्त कार्य भारतीय
शिल्पियों द्वारा ही किया गया प्रतीत होता है। माइसोन के एक मन्दिर में बाह्य भाग
पर शेषशायी विष्णु की मूर्ति बनाई गई है। शेषनाग को शैय्या बनाकर विष्णु लेटे हुए
हैं। उनकी नाभि से कमल निकल रहा है, जिस पर
ब्रह्मा विराजमान हैं। चम्पा से विष्णु की स्थानक प्रतिमाएं भी मिलती हैं।
चतुर्भुज विष्णु के दायीं ओर के दो हाथों में से एक ऊपर की ओर उठा हुआ है और दूसरा
आगे की ओर छाती पर था, जो खण्डित हो चुका है। बायें हाथ टूटे
हुए हैं। सिर पर मुकुट हैं, जिसका
ऊपरी भाग आमलक की तरह का है। मुखमण्डल पर गम्भीरता है, भौंहे
कमानीदार और परस्पर मिली हुई हैं। शरीर के अधोभाग पर जो वस्त्र है वह धोती के सदृश
हैं और कमर पर वह एक चौड़ी पेटी से बंधा हुआ है। चम्पा में बुद्ध तथा बोधिसत्वों की
मूर्तियां भी मिलती हैं, जो
प्रायः भग्न दशा में हैं। चम्पा में बुद्ध तथा बोधिसत्वों आदि की भी मूर्तियां
उपलब्ध हुई हैं परन्तु इनकी संख्या उतनी नहीं है जितनी कि पौराणिक देवी-देवताओं की
मिलती हैं। बुद्ध की अनेक प्रतिमाएं दोंग-दुओंग में पद्मासन में बैठै हुए मिलती
हैं। सिर के बाल घुंघराले हैं, जैसा
कि प्रायः भारत की बुद्ध मूर्तियों में होते हैं। पर इस मूर्ति में वह सौन्दर्य
एवं कलात्मकता नहीं हैं जो भारत की बुद्ध मूर्तियों में पायी जाती हैं।
लेखन कला पर भारतीय प्रभाव -
जावा, काम्बुज, चम्पा
आदि दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के पुराने भग्नावशेषों में सैकड़ों हजारों मूर्तियां
और उनके खण्ड विद्यमान हैं, जो
वहां पौराणिक हिन्दू धर्म के व्यापक प्रचार के स्पष्ट प्रमाण हैं। जिस प्रकार भारत
में राजा, राजकुल के व्यक्ति तथा संभ्रान्त लोग
मन्दिरों के निर्माण तथा उनका व्यय चलाने के लिए दान दिया करते थे, ऐसी ही
परम्परा काम्बुज में भी विद्यमान थी। वहां के बहुसंख्यक अभिलेखों में उच्च वर्ग के
व्यक्तियों द्वारा देवमूर्तियों के प्रतिष्ठापित किये जाने तथा उनके लिए किये गये
दान का ही उल्लेख हैं। हिन्दू धर्म के प्रचार के कारण यहां वेद, वेदांग, इतिहास-पुराण, दर्शन
आदि प्राचीन भारतीय साहित्य का भी भलि-भांति अध्ययन-अध्यापन होता था। जावा के समान
ही काम्बुज देश में भी राजवंशावली को जानने के लिए कोई साहित्यिक विवरण प्राप्त
नहीं होता है। यहां से प्राप्त बहुसंख्यक अभिलेखों के माध्यम से ही यहां की सभ्यता
एवं संस्कृति के अतीत की जानकारी प्राप्त होती हैं। यहां से प्राप्त अभिलेखों में
संस्कृत भाषा का प्रयोग मिलता है। यह भाषा शुद्ध है और उसमें पाणिनी की
अष्टाध्यायी और पतंजलि के महाभाष्य में प्रतिपादित व्याकरण सम्बन्धी नियमों का
पालन किया गया है। इसका कारण यह है कि भारत के समान काम्बुज में राजा यशोवर्मा के
विषय में तो यह भी कहा गया है कि उसने महाभाष्य की व्याख्या भी की थी।15 भारत
में हुए तुर्क आक्रमण के कारण यहां प्राचीन भारतीय संस्कृति के विकास में बाधा
उत्पन्न हो गयी थी, इस घटनाक्रम के बाद दक्षिण-पूर्व एशिया
से भारतीय सम्बन्ध उतने प्रगाढ़ न रह पाये। जिस कारण काम्बुज आदि देशों से प्राप्त
इस समय के लेखों में प्राचीन भारतीय संस्कृत व्याकरण के नियमों का लोप होता चला
गया। तथापि यह कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र में उत्कीर्ण अभिलेखों में लेखन कला
के तौर पर भारतीय परम्परा का अनुसरण किया गया था एवं यह क्षेत्र प्रत्यक्ष रूप से
भारतीय प्रभाव में था।
निष्कर्ष –
इस प्रकार कहा जा सकता है कि दक्षिण पूर्व एशिया में विकसित हुई संस्कृति एवं सभ्यता के विकास में भारतीय संस्कृति के विभिन्न तत्वों का प्रचुर योगदान रहा। कला के विविध आयामों में भी हम भारतीय संस्कृति के विभिन्न तत्वों का समावेश दक्षिण-पूर्व एशिया में देख सकते हैं। भारत में चैत्य-विहारों के निर्माण से लेकर मन्दिर निर्माण एवं भव्य मूर्तिकला का अनुकरण करते हुए पूर्व के इन देशोंमें भी मूर्तिकला का विकास हुआ। प्रमुख भारतीय देवता ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश आदि की मूर्तियों का अंकन भी यहां पर किया गया। जिस प्रकार भारत में चोलकालीन कलाकारों ने शिव की नृत्य मुद्रा में मूर्तियों का निर्माण किया ठीक उसी प्रकार से चम्पा राज्य में भी शिव की नृत्यरत मूर्तियों की प्राप्ति हुई है। मूर्तियों के सौन्दर्य पक्ष में भारतीयता की झलक स्पष्ट देखने को मिलती है। भारत मे धारण किये जाने वाले विभिन्न आभूषण कुण्डल, भुजबन्ध, कंगन, मालाएं एवं नूपुर आदि का अंकन यहाँ की मूर्तियों में भी भली-भांति देखने को मिलता है। इसके साथ ही दिएंग में बनाये गये मंदिर भारत में निर्मित गुप्तकालीन मंदिरों से विशेष साम्यता प्रदर्शित करते हैं। जावा में शैलेन्द्र राजाओं द्वारा अनेक बौद्ध चैत्यों एवं स्तूपों का निर्माण करवाया गया था। जावा में आज भी प्राचीन मन्दिरों के ध्वंसावशेष विद्यमान हैं, जिनमें बौद्ध एवं पौराणिक दोनों ही पक्षों के विभिन्न सांस्कृतिक पहलू देखने को मिलते हैं। अभिलेखों की लेखन परम्परा में भी पूर्वी देशोंने भारतीय परम्परा का ही अनुसरण किया। अभिलेखों में प्रयुक्त भाषा प्राचीन भारतीय वैयाकरणों द्वारा प्रतिपादित व्याकरण के सिद्धान्तों से आबद्ध मिलती है।
सन्दर्भ -
1. वासुदेव
उपाध्याय : प्राचीन भारतीय स्तूप, गुहा
एवं मन्दिर,बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी, पटना, 1972,पृ. 207
2. सत्यकेतु
विद्यालंकार : दक्षिण पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति, श्री
सरस्वती सदन, नई दिल्ली,पंचम
संस्कारण,1991,पृ.
106-107
3. ए.के. कुमारस्वामी
: हिस्ट्री ऑफ इण्डियन एण्ड इण्डोनेशियन आर्ट,
एडवर्ड गोल्डस्टन, लंदन, 1927,पृ. 180
4. सत्यकेतु
विद्यालंकार :पूर्वोक्त,पृ. 212
5. वासुदेव
उपाध्याय :पूर्वोक्त, पृ. 209
6. वासुदेव
उपाध्याय : गुप्त साम्राज्य का इतिहास, द्वितीय
खण्ड, इण्डियन प्रेस (पब्लिेकेषंस) प्राइवेट
लिमिटेड, इलाहाबाद, तृतीय
संस्करण,1970, पृ. 230
7. सत्यकेतु
विद्यालंकार :पूर्वोक्त, पृ. 212
8. ए.के. कुमारस्वामी
:पूर्वोक्त, पृ. 181
9. आर.सी मजूमदार
:एन एंशियण्ट हिन्दू कॉलोनी इन कम्बोडिया, युनिवर्सिटी
ऑफ मद्रास, 1944, पृ. 43
10. वही
11. आर.सी.
मजूमदार :एंशियण्ट इण्डियन कोलोनीज़ इन द फार ईस्टचम्पा(प्रथम
भाग),द पंजाब संस्कृत बुक डिपो, लाहौर,
1927, पृ. 239
12. वही, पृ. 236
13. वही, पृ. 237
14. सत्यकेतु
विद्यालंकार :पूर्वोक्त, पृ. 274
15. वही, पृ. 204
गौरव सिंह, शोध छात्र
प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग,
गुरुकुल कांगड़ी समविश्वविद्यालय, हरिद्वार, उत्तराखण्ड
gaurav.uk.08@gmail.com, 9557386642
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021, चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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