बौद्ध ग्रंथ ‘धम्मपद’ में तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्ति
का स्वरूप / कृष्ण कुमार साह
शोध-सार
प्रस्तुत
शोध आलेख में प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथ धम्मपद का सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से
अध्ययन किया गया है। शोध आलेख में सर्वप्रथम बौद्ध साहित्य कासंक्षेप में परिचय
प्रस्तुत किया गया है तत्पश्चात्,
धम्मपद का सामान्य परिचय दिया गया
है, जिसमें धम्मपद के अर्थ को स्पष्ट करते हुए उसके संकलन एवं रचनकाल
पर विशेष चर्चा की गई है। धम्मपद की शिक्षा एवं गाथा कहने के स्थान का वर्णन किया
गया है। इसके बाद तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था के स्वरूप का उल्लेख
किया है। तत्कालीन समाज में प्रचलित वर्णव्यवस्था, दास प्रथा, स्त्री
की दशा, पारिवारिक संबंध, खाद्य सामग्री,
धार्मिक मान्यताओं आदि को धम्मपद के
गाथाओं के माध्यम से उजागर किया गया है। अंत में शोध के निष्कर्ष में तत्कालीन
सामाजिक व्यवस्था को वर्तमान समाज से जोड़ने का प्रयास किया गया है। अतः प्रस्तुत
शोध बुद्ध कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था को उजागर करता है।
बीज-शब्द : बौद्ध साहित्य, त्रिपिटक, निकाय, धम्मपद, अर्थ, रचनाकाल, संकलन, सामाजिक पक्ष, सांस्कृतिक पक्ष, वर्ण व्यवस्था, दास प्रथा, स्त्री की दशा, पारिवारिक संबंध, सिक्का, आभूषण, प्रसाधन, खाद्य सामग्री, धार्मिक मान्यताओं, संस्कार, वर्तमान पक्ष आदि।
मूल आलेख
भारतीय
समाज एवं हिन्दी साहित्य के विकास में बौद्ध साहित्य का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
बौद्धकाल केवल धार्मिक या आध्यात्मिक चिंतन से ही नहीं अपितु सामाजिक एवं
सांस्कृतिक दृष्टियों से भी क्रांतिकारी युग था। आर्य संस्कृति या हिंदू जीवन की
रूढ़ियों, बाह्याडम्बरों और विश्वासों का खंडन करते हुए बुद्ध ने अपने विचार
स्वतंत्र रूप से स्थापित किये। बुद्ध के अनुयायियों ने उनकी उक्तियों का
प्रचार-प्रसार धार्मिक साहित्य लिखकर किया,
साथ ही विभिन्न संघों एवं विहारों
का निर्माण कराया। बुद्ध द्वारा प्रस्तुत किए गये विचार बाद में दर्शनशास्त्र, तर्कशास्त्र
तथा नीतिशास्त्र के रूप में विकसित हुए। उनके विचार इतने अधिक प्रभावशाली थे कि
शीघ्रता के साथ ये धर्म, दर्शन,
साधना और संस्कृति के क्षेत्र में
विश्व के अनेक हिस्सों में फैल गये। अधिक से अधिक लोगों तक ये विचार पहुँच सके
इसके लिए इन विचारों के आधार पर धार्मिक साहित्य की रचना हुई। तत्कालीन समय की
जनभाषा पालि थी। बौद्ध अनुयायियों ने इस जनभाषा में धार्मिक साहित्य की रचना की।
साहित्य में पालि के प्रयोग के कारण पालि क्रमशः व्याकरणबद्ध होती गई। तत्कालीन
समय में पालि भाषा संस्कृत की तरह व्याकरणबद्ध होकर धर्म-दर्शन एवं तर्क आधारित
साहित्य का सृजन करती है। पालि धर्म एवं दर्शन को प्रस्तुत करने वाले ग्रंथों को
ही ‘त्रिपिटक’ कहा गया। त्रिपिटक वस्तुतः कोई स्वतंत्र ग्रंथ न होकर पालि बौद्ध
धर्म एवं दर्शन की पुस्तकों का एक समूह है,
जिसे विषय के आधार पर सुत्तपिटक, विनयपिटक, अभिधम्मपिटक
में विभाजित किया गया है। इन पिटकों में सुत्तपिटक के पाँच निकाय – दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुक्तनिकाय, अङगुत्तरनिकाय, खुद्दकनिकाय
हैं। इन निकायों के अंतर्गत अनेक वग्ग (वर्ग), सुत्त (सूत्र) एवं अन्य
ग्रंथों को समाहित किया गया है।
सुत्तपिटक
के पाँचवें भाग को खुद्दकनिकाय कहा गया है। जिसमें सुत्तों के संग्रह के साथ-साथ
छोटे-बड़े स्वतंत्र ग्रंथ है। खुद्दकनिकाय में संग्रहित ग्रंथों की संख्या 15 है।
यह निकाय सुत्तपिटक के अन्य चार निकायों से भिन्न है। इसमें मुख्य रूप से
पद्यात्मक और कुछ गद्य-पद्य मिश्रित रचनाएँ मिलती है। भाषा और शैली की दृष्टि से
भी इसके ग्रंथ अन्य निकायों से अलग एवं वैविध्य पूर्ण हैं। इन स्वतंत्र ग्रंथों
में ‘धम्मपद’ का विशेष स्थान है। धम्मपद बौद्ध वांड्मय की अमूल्य निधि है। जो
महत्त्व हिन्दुओं के लिए गीता, मुसलमानों के लिए क़ुरआन, ईसाईयों
के लिए बाइबल का है वही महत्त्व बौद्धों के लिए धम्मपद का है। श्रीलंका में आज भी
धम्मपद का पारायण किये बिना भिक्षु उपसंपदा प्राप्त नहीं होती है। इसमें समय-समय
पर बुद्ध द्वारा दिए गए वचनों का संकलन है। बुद्ध ने परिनिर्वाण प्राप्ति के
पश्चात् लगभग 45 वर्षों तक घूम-घूमकर उपदेश दिया। ये उपदेश अनेक कथानकों पर आधारित
हैं, एवं अनेक श्रोताओं को लक्ष्य करके कहे गए। बौद्ध धर्म एवं दर्शन
का मूल सिद्धांत संक्षिप्त रूप में इसमें समाहित है। धम्मपद का अनुवाद प्राचीन काल
में ही चीनी, तिब्बती आदि भाषाओं में हो गया था। आधुनिक समय में
इसके बहुत सारे हिन्दी अनुवाद किये गये तथा अनेक विद्वानों ने इसका अंग्रेजी
अनुवाद भी किया। वर्तमान में विश्व की अनके भाषाओं में इसका अनुवाद उपलब्ध है।
धम्मपद
में सत्कर्म को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया। धम्मपद में कुल 26 वर्ग (वग्ग) एवं
423 गाथाएँ हैं। 'धम्मपदट्ठकथा’ के अनुसार इसमें कुल 424 गाथाएँ है। ‘धम्मपद’
दो शब्दों के मेल से बना है- ‘धम्म’ और ‘पद’। ‘धम्म’ का आशय संस्कृत के
‘धर्म’ शब्द से लगाया जाता है, अथवा विद्वान इसे संस्कृत के ही ‘धर्म’ शब्द का पालि
रूपांतरण मानते हैं। धर्म शब्द ‘धृ’ धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है ‘धारण
करना’। इसकी विशेषता है शक्ति एवं गुण को धारण करना। जो किसी व्यक्ति तथा वस्तु
में सदैव विद्यमान रहती है। जैसे अग्नि का गुण है जलना और जल का गुण है शीतल करना।
‘तुलसी शब्द कोश’ में धर्म की परिभाषा दी गई है “धरम-धर्म शास्त्रविहित आचरण के
अनुरूप कर्म”1 अर्थात् शास्त्रों में वर्णित आचरण के अनुरूप कर्म का
पालन ही धर्म है। ‘धर्म’ का सामान्य अर्थ कर्त्तव्य माना गया है। बौद्ध वांग्मय
में ‘धम्म’ शब्द का व्यापक अर्थ लिया गया है। धम्म का अर्थ बुद्ध के द्वारा दिये
गये उपदेशित धर्म या नियम से है। “‘धम्म’ का अर्थ- अनुशासन, कानून
या धर्म है।”2 धम्मपद में ‘धम्म’ शब्द सदाचार एवं शील से जुड़ा है।
धम्मपद का मूल उद्देश्य अहिंसा, अप्रमाद,
अपरिग्रह के माध्याम से सदाचार को
बढ़ावा देना है। साथ ही इसमें बौद्धधर्म के मूल शील दशशील, पंचशील, आर्यसत्य, आष्टांगिक
मार्ग आदि सिद्धांतों का उल्लेख है।
‘धम्मपद’ शब्द में प्रयुक्त ‘पद’
शब्द के अनेक अर्थ- निर्वाण, कारण,
स्थान, सुरक्षा, शब्द, वस्तु
पदचिह्न आदि हैं। “‘पद’ शब्द का अर्थ वाक्य या गाथा की पंक्ति भी होता
है। अतः ‘धम्मपद’ का अर्थ वाक्य या गाथा भी है।”3 पद से आशय वाणी या
वचन भी है, जैसे- “को धम्मपदं सुदेसितं कुसलो पुफ्फमिव पचेस्सती”4
इसके
अलावा ‘पद’ शब्द का आशय ‘मार्ग’ भी माना गया है। यथा-“पमादोमच्चुनो पद्म”5। “धम्म
शब्द से धर्म, अनुशासन,
नियम आदि का तात्पर्य लिया जाता है
और पद का अर्थ वक्तव्य या पथ से किया जाता है। इस प्रकार धम्मपद का अर्थ
सत्य-सबंधी वक्तव्य या सत्य का मार्ग है।”6 बौद्ध
साहित्य में भी ‘धम्मपद’ शब्द का प्रयोग अनेक स्थानों पर आया है। संयुक्तनिकाय में
‘धम्मपद’ शब्द का उपयोग धर्मपदों के रूप में हुआ है। धर्मपदों से आशय धर्म संबंधी
आचरण या सदाचार के रूप में लिया जा सकता है। बुद्ध के समकाल में उनके द्वारा दिए
गये उपदेश या कही गई गाथा को उनके शिष्य कंठस्थ कर लेते थे। सुत्तनिपात में ऐसे
प्रसंग है कि अट्ठकवग्ग को बुद्ध के शिष्य ने उनके समाने सस्वर सुनाया था। अर्थात्
स्पष्ट है कि बुद्ध के समय से ही उनके वचनों को लिखित नहीं परंतु मौखिक रूप से
संकलित कर कंठस्थ करने का चलन था। धम्मपद एक ऐसा ही संकलन है जो बुद्ध के समय से
ही मौखिक रूप में चलन में था। बाद में इसे संग्रहित कर लिपिबद्ध किया गया।
“‘धम्मपद’ के रचनाकाल को लेकर मुख्यः रूप
से दो प्रकार के मत मिलते हैं। पहला मत प्रो. मैक्समूलर का है जिनका मानना है कि
बौद्ध साहित्य प्रारंभ में मौखिक परंपरा के रूप में थी। सिंहल नरेश वट्टगामणि ने
इन मौखिक ग्रंथों को लिपिबद्ध करवाया। सिंहल द्वीप के नरेश वट्टगामणि का समय 88
ईसा पूर्व से 73 ईसा पूर्व है।”7 इस आधार पर कहा जा सकता है कि धम्मपद
इसी समय लिपिबद्ध हुआ होगा। महावंश में भी इसका उल्लेख मिलता है। महावंश के
निर्माण काल की अवधि 458 ई. से 477 ई. माना गया है। दूसरा मत के विद्वानों का
मानना है कि सभी त्रिपिटक ग्रंथों का संकलन भगवान बुद्ध की मृत्यु पश्चात 477 ईसा
पूर्व में हुआ। राजगृह में जब प्रथम बौद्ध महासंगिति का आयोजन किया गया तो अन्य
बौद्ध पिटकों की तरह धम्मपद का भी संकलन किया गया। बाद की संगीतियों में इन
संकलनों को पूर्णता दी गई।
मिलिन्दपञ्हो पालि भाषा का अत्यंत प्राचीन ग्रंथ है। इसकी रचना प्रथम शताब्दी ईस्वी मानी गई है। इस ग्रंथ में भी धम्मपद का उल्लेख मिलता है। महानिद्देस एवं चुल्लनिद्देस नामक ग्रंथों में भी ऐसे वाक्य आए हैं जो धम्मपद के अतरिक्त कहीं नहीं मिलते। इन दोनों ग्रंथों का समय ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी माना गया है। परंपरा के रूप में यह प्रचलित है कि सम्राट अशोक ने अप्रमाद वर्ग को विद्वान श्रमणों से सुना। अशोक का समय तृतीय शताब्दी ईसा पूर्व है। यहाँ यह स्पष्ट है कि धम्मपद अपनी वर्तमान अवस्था में ईसा पूर्व तृतीय शताब्दी में मिलता है। ह्वेनसांग सातवीं सदी में भारत आया था एवं भारत के विभिन्न क्षेत्रों का उन्होंने भ्रमण किया। उनका मानना था कि “धम्मपद त्रिपिटक काश्यप द्वारा प्रथम संगीति के अंत में इसे ताम्र पत्रों पर लिखा गया।”8
धम्मपद के संकलन को लेकर निश्चित निष्कर्ष निकालना कठिन है। परंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि बुद्ध की जीवनावस्था से ही धम्मपद का मौखिक प्रचलन होने लगा था। 477 ईसा पूर्व की प्रथम महासंगिति में धम्मपद संकलन अवश्य किया गया होगा। यह उसी समय लिपिबद्ध किया गया होगा इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। बाद के बौद्ध संगीतियों में इसके संकलन को निश्चिता दी गई होगी। सिंहल नरेश वट्टगामणि के समय धम्मपद के लिपि बद्ध होने के प्रमाण मिलते हैं। अतः धम्मपद का लिखित समय 477 ईसा पूर्व से 88-76 ईसा पूर्व माना जा सकता है। बौद्धधर्म मूलतः आचरण की शिक्षा देने वाला धर्म है। इस धर्म में सदाचार और नैतिकता का विशेष महत्त्व है। धम्मपद में मुख्य रूप से आचार, सदाचार और नैतिकता की शिक्षा दी गई है। जिसका मूल दुःख का निवारण करना है। बुद्ध के उपदेश का प्रमुख लक्ष्य ही दुःख से मुक्ति पाना है। वस्तुतः यह ग्रंथ दुःख से मुक्ति का मार्ग बतलाता है। जिसमें दुःख, दुःख के कारण, दुःख का निवारण एवं दुःख से मुक्ति का मार्ग सभी निहित है। धम्मपद में बुद्ध ने मनुष्य के जीवन से जुड़े हुए अनेक उदाहरणों द्वारा अपने विचारों को स्पष्ट किया है। धम्मपद बुद्ध द्वारा समय-समय पर विभिन्न स्थानों में दिए गए उपदेशों का ही संकलन है।
धम्मपद से प्राप्त जानकारी के अनुसार बुद्ध ने सर्वाधिक उपदेश जेतवन में दिया था। धम्मपद की लगभग 185 गाथाओं का स्थान जेतवन से संबंधित है। जेतवन श्रावस्ती में है। इसी के आस-पास के उद्यान एवं विहारों में उन्होंने अपना उपदेश दिया। जिसमें राजगृह वेणुवन से 40, श्रावस्ती से 18, श्रावस्ती (पूर्वाराम) से 6 गाथाएँ संबंधित हैं। इसके अतिरिक्त बुद्ध ने वैशाली, कपिलवस्तु, न्यग्रोधराम, कोशलदेश, अलावी, गृध्रकूट आदि स्थानों पर उपदेश दिया है। धम्मपद के गाथाओं में तत्कालीन समाज-संस्कृतिका स्वरूप देखा जा सकता है। तत्कालीन समाज में चार वर्ण थे और उससे संबंधित अनेक जातियाँ थी। ब्राह्मण के लक्षणों की विवेचना के लिए ब्राह्मण वग्ग (वर्ग) का एक अध्याय ही धम्मपद में मिलता है। साथ ही, विभिन्न जातियों के आधार पर कार्य विभाजन का उल्लेख भी प्राप्त होता है।तत्कालीन समय में हथियार बनाने वाले लोगों को शूद्र के अंतर्गत रखा जाता था। इसके अतिरिक्त बुनकर, दंतकार(हाथी दाँतों से शिल्पकारी करने वाला) और कुम्भकार हथौड़े, कुल्हाणी, तक्षणी आदि बनाने वाले लोहार, लकड़ी के काम करने वाले तच्छक या तच्छ्का (बढ़ई) इसी वर्ग में आते थे। इन जातियों का उल्लेख धम्मपद की गाथाओं में मिलता है।
“उदकं
हि नयन्ति नेत्तिका उसुकार नमयन्ति तेजनं।
दारुं
नमयन्ति तच्छका अत्तानं दमयन्ति सुब्ब्ता।।”9
(अर्थात्
नहरों के निर्माणकर्त्ता पानी ले जाते हैं,
उसुकार (बाण बनने वाला) बाण नवाते
हैं। बढ़ाई लकड़ी ठीक करता है और सुब्रती (पंडित या ज्ञानी जन) अपनी इच्छाओं का दमन
करते हैं। )
बुद्धकालीन
भारतीय समाज में दास प्रथा प्रचलित थी। बुद्ध ने दास प्रथा का विरोध किया था।
धम्मपद के अट्ठकथा में अनेक कथाएँ ऐसी हैं जिसमें बुद्ध ने अपने उपदेशों से
प्रभावित कर दास एवं दासियों को मुक्ति दिलाकर बौद्ध भिक्षुक-भिक्षुणी बना लिया।
समाज वर्णों एवं जातियों में विभक्त था,
जिसकी प्रारंभिक इकाई परिवार था।
परिवार छोटे-बड़े सभी प्रकार के होते थे। परिवार में माता-पिता, भाई-बहन, रिश्तेदार
आदि हुआ करते थे। जिनमें स्त्रियों के अनेक रूप सामने आते हैं- माता, पत्नी, बहन, पुत्री, पुत्रवधू, वधू, भिक्षुणी, उपासिका
आदि। “समाज में दहेज प्रथा का प्रचलन था। दहेज देने का वर्णन विशाखवत्थु की कथा
में मिलता है।”10 बहुपत्नियों का वर्णन भी धम्मपदट्ठकथा में मिलता है।
स्त्रियों में विशेषकर गणिकाओं में स्वर्णनिर्मित आभूषणों के उपयोग का प्रचलन था।
धम्मपद में मणिकुंडल का उल्लेख प्राप्त होता है जो बड़े ही कलात्मक ढंग से बने होते
थे।
“न तं दल्हं बन्धनमाहु धीरा यदायसं दारुजं वव्वजञ्च
सारत्तरत्ता मणिकुण्डलेसु पुत्तेसु दारेसु च या अपेक्ख।।”11
(अर्थात्
जो लोहे, लकड़ी या रस्सी का बंधन है,
उसे बुद्धिमान दृढ़बंधन नहीं कहते।
मणिकुण्डल, पुत्र,
स्त्री में इच्छा का होना दृढ़बंधन
हैं। ) तत्कालीन समाज में सिक्कों का प्रचलन था। जिन्हें कहापण या कार्षापण कहा
जाता था। इसका उपयोग बाजर में वस्तु-विनिमय के लिए किया जाता था। धम्मपद के अनेक
गाथाओं में इन कहापण का उल्लेख मिलता है।
“न
कहापणवस्सेन तित्ति कामेसु विज्जति।
अप्पस्सादादुख
कामा इति विञ्ञय पण्डितो। ।”12
(अर्थात्
कार्षापणों की वर्षा होने से भी मनुष्य की कामनाओं की तृप्ति नहीं होती है। ये सभी
कामनाएं अल्प स्वाद वाले और दुःखों से भरे होते हैं।)
धम्मपद में फूलों से बने प्रसाधनों का वर्णन मिलता है जो नारियों के केश-विन्यास में प्रयुक्त होते थे। फूलों से इत्र निकालने की प्रक्रिया का भी संदर्भ प्राप्त होता है। चंदन, तगर, कमल, जूही आदि सुगंधित चीजों का उल्लेख मिलता है। उदाहरणस्वरूप-
“चन्दनं तगरं वापि उप्पलं अथ वस्सिकी।
एतेंस
गंधजातानं सीलगंधों अनुत्तरो।”13
(अर्थात्
चंदन या तगर, कमल या जूही इन सभी की सुगंधों से सदाचार की सुगंध
उत्तम है। )
धम्मपद में अनेक प्रकार की खाद्य सामग्री
का उल्लेख प्राप्त होता है। जिसमें मुख्य रूप से दूध, दही, मक्खन, दाल
आदि का वर्णन मिलता है। दूध में चावल डालकर खीर बनाना बहुत प्रचलित था।
“न
हि पापं कतं कम्मं सज्जु खींरव मुच्चित।”14
(अर्थात्
जैसे ताजा दूध शीघ्र ही जम नहीं जाता,
ऐसे ही किया गया पापकर्म शीघ्र ही
अपना फल नहीं लाता। )
तत्कालीन
समाज में हिंसा, चोरी, पर स्त्रीगमन,
मादक पेय पदार्थों का प्रचलन था।
धम्मपद की गाथाओं में मादक पदार्थों से संबंधित जानकारी मिलती है। इसका उपयोग
प्रायः भोजों, उत्सवों त्योहारों में किया जाता था, जब
मित्र और परिचित आमंत्रित होते थे।
“सुरामेरयपानन्च
या नरो अनुयुन्जति।
इधेवमेसो
लोकस्मिं मूलं खनति अन्तनो।।15
(अर्थात्
जो व्यक्ति मदिरा पान करता है वह इसी लोक में अपनी जड़ या मूल खोदता है। )
पशु को सामाजिक संपत्ति के रूप में माना जाता था। पशु में हाथी, घोड़ा, बैल, गधा, सूअर आदि का उल्लेख धम्मपद में प्राप्त होता है। समाज में देवी-देवताओं की पूजा प्रचलित थी। इन देवताओं में इंद्र सर्वाधिक लोकप्रिय देवता थे। जिन्हें शक्र, वासव, मघवा नामों से पुकारा जाता था, साथ ही वृक्ष देवता, वनदेवता, चैत्य, पर्वत, कूप, यक्ष, गंधर्व आदि की पूजा होती थी।
“बहुं वे सरणं यन्ति पव्वतानि वनानि च।
आरामरूक्खचेत्यानी मनुस्सा
भयतज्जिता।”16
(अर्थात्
मनुष्य भय के मारे पर्वत, वन,
वृक्ष, चैत्य
आदि को देवता मानकर उसकी शरण में जाते हैं,
किंतु ये शरण मंगलदायक नहीं है, ये
शरण उत्तम नहीं, क्योंकि इन शरणों में जाकर सब दुखों से छुटकारा नहीं
मिलता है। )
‘धम्मपद’
में अनके गाथाओं में मृत्यु के बाद दाह संस्कार से संबंधित जानकारी प्राप्त होती
है। बुद्ध अपने भिक्षुओं को संसार की नश्वरता एवं अंहकार त्याग की शिक्षा के लिए
सलाह देते हैं कि भिक्षु दो-तीन दिन तक लगातार श्मशान जाकर मृतक के शरीर को देखें।
मृत्यु के बाद मृतकों के शरीर में हो रहे बदलाव जैसे- शरीर फूले हुए हैं, नीले
पड़े हुए हैं, सड़ रहे हैं, उसे चील-कौए नोचकर खा रहे हैं, किसी
में माँस है तो किसी में सिर्फ कंकाल बचा है। ऐसे दृश्य को भिक्षु देखते हैं।
जिससे उन्हें संसार की नश्वरता का ज्ञान होता है और अंहकार त्यागने में सहायता
मिलती है।
“अट्ठीनं
नगरं कतं मंसलोहितलेपन।
यत्थ
जरा च मच्चु च मानो मक्खो च ओहितो।”17
(अर्थात् यह शरीर रूपी नगर हड्डियों का बना है, जो
मांस और रक्त से लेपा गया है, जिसमें जरा, मृत्यु,
और अभिमान असूया का निवास है। )
इसके आलावा तत्कालीन षोडष महाजन पद (राज्य) के प्रमुख नगरों का उल्लेख धम्मपद में
मिलता है। जिनमें वाराणसी, साकेत,
मथुरा, कौशाम्बी, वैशाली, तक्षशिला, कान्यकुब्ज
आदि अनेक स्थानों का उल्लेख प्राप्त होता है। धम्मपद में प्रकरण प्राप्त
सिद्धांतकारों, राजाओं,
नगरों, विहारों, पर्वतों, वनों, नदियों, तालाबों
आदि का ऐतिहासिक परिचय भी प्राप्त होता है।
निष्कर्षतः
कहा जा सकता है कि धम्मपद में तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का चित्र प्रतिबिंबित
होता है। धम्मपद में आचरण, सदाचार एवं नैतिकता की शिक्षा, दुःख
निवारण के मार्ग के साथ तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन की भी अभिव्यक्ति हुई
है। बुद्ध कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था का जो रूप धम्मपद में प्राप्त
होता है वह वर्तमान समाज में भी विद्यमान है। हजारों वर्षों बाद भी समाज में वर्ण
व्यवस्था पूरी तरह से समाप्त नहीं हो पायी है। समाज में आज भी दहेज प्रथा, हिंसा, चोरी,
मदिरापान इत्यादि सामाजिक बुराइयाँ विद्यमान हैं।वृक्ष देवता, वनदेवता, चैत्य, पर्वत, आदि
की पूजा आज भी होती है। तत्कालीन विभिन्न खाद्य व्यजनों, फूलों
से बने प्रसाधनों एवं विविध संस्कार वर्तमान समाज में भी विद्यमान है। अतः धम्मपद
में सामाजिक संरचना का जो स्वरूप प्राप्त होता है, उससे तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक
एवं आर्थिक जीवन को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। सामाजिक एवं सांस्कृतिक संरचना
का यह स्वरूप वर्तमान समाज में भी प्राप्त होता है।
संदर्भ
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बुक्स एंड बुक्स, नई दिल्ली, 2005,
पृ. 468
- एफ. मैक्सम्यूलर : सेक्रेड बुक्स ऑफ़ दि
ईस्ट, ओरफोर्ड एट द क्लेरेंडॉन प्रेस,
1881, धम्मपद की भूमिका से
- भरतसिंह उपाध्याय : पालि साहित्य का
इतिहास, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग,
2013, पृ. 238
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1946, गाथा संख्या- 44
- वही,
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- महेंद्रनाथ सिंह : बौद्ध तथा जैन धर्म ‘धम्मपद और उत्तराध्ययन सूत्र एक तुलनात्मक
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- कंछेदीलाल गुप्त : धम्मपदं भूमिका से, धम्मपद एक परिचय,
चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, 1990, पृ. 14
- एफ. मैक्समूलर :सेक्रेड बुक्स ऑफ़ दि
ईस्ट, भूमिका, ओरफोर्ड एट द
क्लेरेंडॉन प्रेस, 1881,
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- भदन्त आनंद कौसल्यायन : धम्मपदं, हिन्दुस्तानी पब्लिकेशन्स,
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- भिक्षु धर्मरक्षित : धम्मपद गाथा और कथा, मास्टर खेलाड़ीलाल एंड संस,
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- भदन्त आनंद कौसल्यायन : धम्मपदं, हिन्दुस्तानी पब्लिकेशन्स,
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- वही, गाथा संख्या- 186
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गाथा संख्या- 55
- वही,गाथा संख्या- 71
- वही,
गाथा संख्या- 247
- वही,
गाथा संख्या- 188
- वही, गाथा संख्या- 150
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
अंक-35-36, जनवरी-जून 2021
चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue
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