शोध : पत्रकारिता के इस क्षरण काल में प्रेमचंद की याद / अम्बरीश त्रिपाठी

पत्रकारिता के इस क्षरण काल में प्रेमचंद की याद / अम्बरीश त्रिपाठी

               


शोध सार- 

    "वर्तमान दौर क्षरण का दौर है। आज समाज के सभी पारंपरिक मूल्य और आदर्श क्षीण होते जा रहे हैं। समाज का कोई भी अंग इस पतन से अछूता नहीं है। ऐसे समय में पत्रकारिता भी अपने आदर्शों और मूल्यों से विरत होती जा रही है। यहाँ पत्रकारिता से आशय मुख्य रूप से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया से है। सोशल मीडिया की बात मैं नहीं कर रहा हूँ। जहाँ एक तरफ टीवी पत्रकारिता पतन के रोज नए कीर्तिमान गढ़ रही है तो प्रिंट मीडिया यानी अखबारी पत्रकारिता भी खेमे खूँटे में बंधी नज़र आती है। ऊपर से बाजार का दबाव पत्रकारिता की जनता के प्रति पक्षधरता को लगातार कुंद करता जा रहा है। ऐसे दौर में मैं उन आदर्शों और मूल्यों की बात कर रहा हूं जिसको हमारी भारतीय मनीषा ने साम्राज्यवादी औपनिवेशिक शासन से लंबे संघर्ष के दौरान सृजित किया था, अर्जित किया था। वे आदर्श और मूल्य जो पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। पत्रकारिता को तोप के मुक़ाबिल खड़े करने वाले कुछ महत्वपूर्ण नायकों में से एक हैं मुंशी प्रेमचंद। प्रेमचंद जिन्होंने एक मिशन के तौर पर पत्रकारिता को अपने जीवन में अपनाया था। उस दौर में भारतीय पत्रकारिता अपने शैशवावस्था में थी। प्रेमचंद जागरण पत्र निकालने के एक साल के बाद बालक का एक रूपक गढ़ते हैं। एक साल का जागरण भी था और हमारी शुरुआती बालक रूपी पत्रकारिता का रूपक भी था। वर्तमान दौर में, शैशव कालीन पत्रकारिता का वह स्वरूप जो आज भी हमारे लिए श्रेष्ठ और अनुकरणीय है। प्रेमचंद और उनकी पत्रकारिता पर इस शोधपत्र में विचार किया गया है।"

 

की-वर्ड्स :- हंस, जागरण, सर्वहारा वर्ग, पक्षधरता, पत्रकारिता, शोषण, पिरामिड तंत्र।

 

मूल आलेख -


   22 अगस्त 1932 को जागरण के संपादकीय में प्रेमचंद लिखते हैं "दुनिया हमें इसका बाप ना कहे-बाप कहलाने का गर्व किसे नहीं होता-लेकिन कम से कम इतना तो स्वीकार करेगी ही कि हमने इसे समाज का एक उपयोगी व्यक्ति बना दिया।..हम तो सदैव महान आदर्श अपने सामने रखेंगे। बालक को निर्भीक, सत्यवादी, परिश्रमी, स्वस्थ, आचारवान, विचारशील बनाने का प्रयत्न करेंगे। हमारी यही चेष्टा होगी कि वह किसी की खुशामद ना करें। लेकिन विनय को हाथ से न जाने दे। वह कभी-कभी कड़वी बातें भी कहेगा पर सेवा भाव से। उसमें आस्था और श्रद्धा अवश्य होगी, पर अंधविश्वास नहीं। उसका ध्येय होगा सत्य की खोज। वह वितंडावादी नहीं, सत्य का पुजारी होगा, चाहे उसे सत्य को स्वीकार करने में कितना ही अपमान हो। वह अप्रिय सत्य कहने से कभी न चुकेगा। वह केवल दूसरों के दोष न देखेगा, बल्कि अपने दोषों को स्वीकार करेगा।…..वह निर्भीक होगा पर दुस्साहसी नहीं। वह सत्यवादी होगा, सत्य से जौ भर न टलेगा, पर पक्षपात से अपना दामन बचाएगा।" आज पत्रकारिता की पक्षधरता पर बार-बार सवाल उठाया जा रहा है। प्रायः पत्रकारिता सत्ता के पक्ष में या उसके खिलाफ अघोषित रूप से लामबंद दिखाई पड़ रही है। ऐसे समय में पत्रकारिता की पक्षधरता क्या हो? इस सवाल के जवाब में प्रेमचंद की ये पंक्तियां 'ऐसे घन अंधकार में ज्यों विद्युत' की तरह हमारा मार्ग प्रशस्त करती हैं- "वह जिस दृढ़ता से न्याय का पक्ष लेगा उतनी ही दृढ़ता से अन्याय का विरोध करेगा, चाहे वह राजा की ओर से हो, समाज की ओर से अथवा धर्म की ओर से। वह सबलों का हितैषी होगा पर निर्बलों पर उनके जुल्म को सहन न कर सकेगा। समाज का दुखी और दुर्बल अंश उसे सदा अपनी वकालत करते हुए पाएगा।" अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे पत्रकारिता के उस पक्ष के महत्व को रेखांकित करते हैं जो मनुष्य को और संवेदनशील बनाए, तरल और जीवंत बनाए- "वह कोरा न्यायवादी, गंभीर और शुष्क न रहेगा। वह मनुष्य केवल आधा ही जिंदा है, जो कभी दिल खोलकर नहीं हंसता, विनोद से आनंदित नहीं होता। वह हंसने की बातें कहेगा, खुद हंसेगा और दूसरों को हँसायेगा। उसके मस्तिष्क में लतीफों और चुटकुलों का अक्षय भंडार होगा।"1 


    इस संपादकीय में उपयोगी, निर्भीक, सत्यवादी, परिश्रमी, स्वस्थ, आचारवान, विवेकशील, सत्य का अन्वेषी, सत्य का पक्षधर, अन्याय का विरोधी, वितंडावाद का विरोधी, समाज के शोषित और वंचित समुदाय का पैरोकार आदि जो पद प्रेमचंद ने पत्रकार और पत्रकारिता के लिए चिन्हित किये हैं ये पद और इनमें निहित भाव आज पत्रकारिता जगत से वैसे ही लुप्त हो गए हैं जैसे गधे के सिर से सिंग। कोई भी रचनाकार तभी महान होता है जब वह अपने समकालीन समाज में व्याप्त विषमताओं और अंतर्विरोधों को ना केवल पहचानता है अपितु अपनी पूरी रचनात्मक क्षमता के साथ उस से टकराता भी है। वह अपनी लेखनी से निरंतर समाज के सर्वहारा वर्ग की आवाज को व्यक्त करता रहता है। हिंदी साहित्य के इतिहास में बीसवीं शताब्दी के पहले चरण में एक ऐसे ही सशक्त रचनाकार प्रेमचंद (1880 से 1936 तक) का आगमन होता है। साहित्य में इन्हें 'उपन्यास सम्राट', 'कलम का सिपाही' एवं 'किसानों का रचनाकार' आदि उपाधियों से नवाजा गया। वह एक युग निर्माता साहित्यकार थे। उन्होंने अपने समय के सामाजिक जीवन को एक नई गति, नई ऊर्जा और एक नई दिशा प्रदान की।

    प्रेमचंद अपने कथात्मक लेखन के कारण साहित्य जगत में समादृत और लोकप्रिय तो हैं ही, इसके साथ ही सतत कथेतर लेखन के माध्यम से भी इन्होंने अपने समय, समाज और राजनीतिक समस्याओं को अभिव्यक्त किया। स्वाधीनता संघर्ष में समुचित योगदान दिया। अपने कथात्मक और गैर कथात्मक रचनाओं के माध्यम से पराधीन भारतीय जनता की दयनीय स्थिति का चित्रण किया। जिसमें गरीब, किसान और मजदूर, सामंतवाद, पूंजीवाद और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के तिहरी शोषण चक्र में पिस रहे थे। प्रेमचंद ने जनता की दृष्टि से सामंतवाद, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की आलोचना ही नहीं की बल्कि उन्होंने अपनी रचनाओं में जनता के साथ अपनी सक्रिय सहानुभूति और पक्षधरता भी व्यक्त की। उन्होंने समाज और राजनीति के अंतर्संबंधों को परिभाषित करते हुए साहित्य को राजनीति के आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई भी बताया।

     

    अंग्रेजों की आर्थिक नीति की समीक्षा 19वीं शताब्दी में शुरू हो चुकी थी। दादाभाई नरोजी, डब्ल्यू सी बनर्जी,  गोविंद रानाडे, के साथ ही स्वयं भारतेंदु ने भी लिखा "पै धन विदेश चली जात इहै अति ख्वारी।" दरअसल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को सेफ्टी वाल्व की तरह यूज करने की अंग्रेजों की नीति फेल हो चुकी थी। अब अंग्रेज पहले से कहीं अधिक सचेत और क्रूर हो चले थे। उन्होंने सुधारों का एक जादू रच कर अलग अलग हथकंडों से जनता को लूटना शुरू किया था। इस जादू का पर्दाफाश करने में प्रेमचंद ने बड़ी भूमिका निभाई। न केवल एक कथाकार के रूप में अपितु एक बड़े बुद्धिजीवी के स्तर पर भी। देखा जाए तो हिंदी क्षेत्र में 19वीं सदी के पूर्वार्ध में अंग्रेजों की शोषण नीति का जो छद्म था वह बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में टूटने लगा था। प्रेमचंद न केवल आर्थिक वरन उपनिवेशवाद के सांस्कृतिक पक्ष से भी बहुत आहत थे। वे इस प्रक्रिया को भारतीयों के 'दिमागों का उपनिवेशीकरण' कहते हैं। अंग्रेजों द्वारा किए जाने वाले लूट को वे शोषण के 'पिरामिड-तंत्र' के रूप में समझते थे। जिसमें शीर्ष पर ब्रितानी हुकूमत फिर नौकरशाह-जमीदार-सामंत और शोषण के चक्र में चौतरफ़ा पिसने वाला सबसे निचले पायदान पर किसान-मजदूर वर्ग था।

     

    प्रेमचंद कथा लेखन से इतर बौद्धिक स्तर पर अपनी लेखनी के माध्यम से जनता से निरंतर संवादरत रहे। उन्होंने 'हंस' और 'जागरण' पत्रिका का संपादकीय दायित्व संभाला। 'ज़माना' और 'आजाद' तथा इस जैसे अनेक पत्रों में लगातार लेख और रेगुलर कॉलम लिखते रहे। इसके साथ ही अनेक पत्र-पत्रिकाओं में निबंध और समीक्षाएं लगातार छपती रहीं। प्रेमचंद उर्दू, फारसी, हिंदी, संस्कृत एवं अंग्रेजी शिक्षा में अत्यंत दक्ष थे। इन भाषाओं के ज्ञान से उनकी दृष्टि हिंदुस्तानी-फारसी परंपरा, औपनिवेशिक अंग्रेजी शिक्षा की परंपरा के माध्यम से पश्चिमी विश्व दृष्टि तथा संस्कृत और हिंदूवादी तत्वों के सुदृढ़ प्रभाव के साथ लोक भाषा हिंदी की परंपरा से अत्यंत समृद्ध थी। इन परंपराओं के आपसी सम्मिश्रण से उनका विवेकशील व्यक्तित्व निर्मित हुआ।

      

    सन 1900 में प्रेमचंद ने स्कूल शिक्षक के रूप में सरकारी नौकरी से अपने जीवन-वृत्त की शुरुआत की। बाद में वह स्कूल इंस्पेक्टर के पद पर भी आसीन हुए। सरकारी नौकरी में बने रहना उनकी व्यावहारिक समझ थी। किंतु उन्होंने अपनी आत्मा को अपनी लेखनी में लगा दी और सन उन्नीस सौ के आसपास से ही उन्होंने लिखने का काम शुरू कर दिया। 'ज़माना' रिसाला के दया नारायण निगम के लिए प्रेमचंद लगातार लिखते रहे। उन्होंने प्रेमचंद को साफ तौर पर पत्रकारिता से एक नियमित रकम आमदनी का आश्वासन दिया। प्रेमचंद के समूचे मीडिया जीवन को हम मोटे तौर पर दो भागों में बांट सकते हैं। एक शुरुआती दौर जब वह विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए लगातार लिख रहे थे और दूसरा वह दौर जब उन्होंने स्वयं अपनी नौकरी छोड़ कर प्रेस खोला। हंस और जागरण नामक मासिक एवं साप्ताहिक पत्र निकालना शुरू कर दिया। प्रेमचंद्र का समूचा मीडिया लेखन अमृत राय ने विविध प्रसंग खंड 1, 2 और 3 में संकलित किया है। हालांकि यह उतनी ही सामग्री है जितनी प्राप्त हो सकी। लगभग 16 सौ पृष्ठों की यह सामग्री संकलित है। विविध प्रसंग के पहले खंड में अधिकांश लेख उर्दू के प्रसिद्ध पत्र जमाना से लिए गए जिससे मुंशी जी का आजीवन बहुत आत्मीय संबंध  रहा।

 

    अमृत राय जी लिखते हैं- "मुंशी जी ने जमाना के अलावा और भी अनेक उर्दू पत्रों में जैसे मौलाना मोहम्मद अली के 'हमदर्द' और इम्तियाज अली ताज के 'कहकशा', 'जमाना' ऑफिस से ही निकलने वाले साप्ताहिक 'आजाद' और 'चकबस्त' के मासिक पत्र 'सुबह--उम्मीद' में काफी नियमित रूप से लिखा। जमाना में मुंशी जी ने 'रफ्तारे जमाना' के नाम से बहुत अर्से तक एक स्थाई स्थाई स्तंभ लिखा।"2 इसके अलावा विविध प्रसंग खंड 1 में संकलित पहला लेख ओलिवर क्रॉमवेल पर 'आवाज--खल्क' बनारस की पत्रिका में क्रमशः 1 मई 1903 से 24 सितंबर 1903 तक प्रकाशित हुआ। इसी के साथ ही 'देसी चीजों का प्रचार कैसे बढ़ सकता है' 16 नवंबर 1905 को प्रकाशित हुआ। इस तरह से पहले खंड में संकलित अंतिम लेख जमाना पत्रिका में फरवरी 1919 में 'पुराना जमाना-नया जमाना' नाम से प्रकाशित हुआ।

      

    एक ईमानदार स्कूल इंस्पेक्टर के रूप में प्रेमचंद का स्थानांतरण विभिन्न क्षेत्रों में गाहे-बगाहे होता रहा। प्रेमचंद अखबार बहुत चाव से पढ़ते थे। एक अखबार से उनका काम नहीं चलता था। हालांकि एक अखबार से ज्यादा मंगाने की उनकी सकत भी नहीं थी इसीलिए जहाँ भी रहते किसी क्लब या वाचनालय की तलाश में रहते जहां जाकर 4-6 अखबार पढ़ सकें। इलाहाबाद भी आते तो पैदल या एक आना देकर कटरा से 2 मील दूर भारती भवन जाते थे अखबार पढ़ने के लिए। अमृतराय कलम का सिपाही में लिखते हैं कि "ऐसे आदमी के लिए यह पूरी सजा है कि उसे महोबे और बस्ती जैसी बीहड़ जगहों में पटका जाए और दूर-दूर देहातों में भटकना पड़े जहां डाक की भी सुविधा नहीं है। न अख़बार ही पढ़ने को मिलते हैं और ना ऐसी संगत ही मिलती है कि बातचीत करके वह कुछ पा सके। और भी खलने की वजह यह है कि वह रफ्तारे ज़माना- जैसा कॉलम लिखते रहना चाहता है जो कि फिलहाल छूट गया है। महज़ किस्सागो बनने से उनकी तबीयत नहीं भरती, वह अखबारनवीस भी बनना चाहता है।"3                    

 

    प्रेमचंद उपन्यास और कहानियां तो लगातार लिखते रहे लेकिन पत्रों में न लिख पाने की कमी रह-रहकर उनके मन को कचोटती रहती थी। 18 मार्च 1910 को उन्होंने महोबा से निगम साहब को पत्र लिखा था "जी चाहता है नए-नए वाक्यात पर कुछ नोटिस लिखा करूँ, मगर वाक्यात का इल्म मुझे उस वक्त होता है जब वह अखबारात में निकल चुकते हैं और उनके देर-अज़-वक्त हो जाने का खौफ रहता है।"4 13 अक्टूबर 1915 को फिर बस्ती से वह लिखते हैं कि "जब तक करंट अफेयर से लगाव न रहे किसी मजमून पर लिखने की तहरीक नहीं होती और मज़मून भी मुश्किल से सूझता है।"5


    निगम साहब से हुए पत्राचार में प्रेमचंद का वह व्यक्तित्व खुलकर सामने आता है जो देश-विदेश के विभिन्न मसलों को जानने समझने को व्यग्र है। वह सजग पत्रकार की तरह प्रत्येक महत्वपूर्ण मुद्दों पर नोटिस लेना चाहता है। अनेक ख़तों से यह बात भी ज़ाहिर होता है कि वो कई बार सोचते हैं कि' सरकारी नौकरी छोड़कर पूर्णतः पत्रकारिता के क्षेत्र में आ जाऊं'। इस सिलसिले में वो छुट्टियों में एक-दो बार कानपुर निगम साहब के दफ्तरों में भी रह आए। पर उनको यह विश्वास नहीं हो पाता कि पत्रकारिता से मेरा माहखर्च संभल जाएगा। नौकरी करते हुए भी वो स्वास्थ्य या नौकरी की विपरीत परिस्थितियों में भी पत्रों में सतत लिखते रहे। उनके लेखन में कोई भी विषय त्याज्य नहीं था। राजनीति, धर्म, समाज, छुआछूत, विदेशनीति, किसान-मज़दूर या आम आदमी से जुड़े सभी सरोकारों पर अपनी लेखनी चलाते रहे। ऐसा लगता है कि किसी धर्म संप्रदाय पार्टी संगठन या विचारधारा में शामिल होने के लिहाज़ से प्रेमचंद सबसे मिसफिट आदमी थे। असल में उनका जन्म तो सनातन में हुआ था पर शिक्षा संस्कार फारसी में हुई। आर्य समाज से उनको बेहद लगाव था जो आजीवन बना रहा किंतु सनातन धर्म से जुड़ाव भी कभी कम नहीं हुआ। घर में क्रांतिकारी खुदीराम बोस की तस्वीर लगाए रखते थे और गांधी से मोहब्बत करते थे। कांग्रेस से सहानुभूति तो खूब थी लेकिन जरूरत पड़ने पर खुलकर उसकी कड़ी आलोचना भी लिखते थे। आमूल क्रांति की बात हमेशा करते थे समाज को बदल देने की बात किया करते थे, लेकिन माध्यम हमेशा अहिंसा को ही बरतने पर जोर देते थे। जीवन के उत्तरार्ध में सोशलिज्म और कम्युनिज्म को ही मनुष्य के कल्याण का रास्ता वह मानते थे। इस परिप्रेक्ष्य में अगर हम उनके पत्रकार रूप को देखें तो वह केवल सच का और अपनी निरपेक्ष दृष्टि की ही स्पष्ट अभिव्यक्ति करते हुए दिखते हैं। कभी भी कोई भी मसला हो उस पर अपनी ही विवेक और रचनात्मक दृष्टि से विचार करते थे। किसी सामाजिक-धार्मिक भावना या वैचारिक आग्रह का प्रभाव उनके मीडिया लेखन पर नहीं दिखाई पड़ता। 22 अप्रैल 1923 को उन्होंने निगम साहब को एक पत्र लिखा, "मलकाना शुद्धि पर एक मुख्तसर मज़मून लिख रहा हूं मुझे इस तहरीक़ से सख्त इख़्तिलाफ़ (विरोध) है ।..आर्य समाज वाले भिन्नायेंगे, लेकिन मुझे उम्मीद है आप 'जमाना' में इस मजमून को जगह देंगे।"6  निगम साहब ने पूरे 9 महीने उस पर गौर किया। छापने की हिम्मत ना पड़ती थी।  9जनवरी 1924 को मुंशी जी ने दोबारा लिखा - "आपने मेरे मजमून को मुस्तरद (रद्द) कर दिया। ख़ैर कोई मुज़ायक नहीं। मैंने लिख डाला, दिल की आरजू निकल गई।" अमृतराय लिखते हैं कि मुंशी दयानारायण को शायद कुछ शर्मिंदगी हुई इस खत से और वह दोबारा अपने फैसले पर गौर करने के लिए मजबूर हुए। और फिर अगले ही महीने 'कहातुर्रीजाल' (मनुष्यता का अकाल) नाम का वह विस्फोटक लेख प्रकाशित हुआ। उसका छपना था कि चारों तरफ तहलका मच गया। मुसलमानों ने उसको हाथों-हाथ लिया और हिंदू गुस्से से दांत किटकिटाने लगे।"7


    अंग्रेजों ने तो प्रेमचंद के खिलाफ वारंट निकाले ही, प्रतियों को ज़ब्त किया ही, कई भारतीय बुद्धिजीवियों ने भी प्रेमचंद का विरोध करना शुरू कर दिया था। उन्हें 'घृणा का प्रचारक' भी कहा गया। पर प्रेमचंद भी चुप बैठ जाने वाले लोगों में से नहीं थे। अंग्रेजों को तो नाम बदलकर चकमा दिया और अपने साथियों के हर आक्षेपों का हर्फ़-दर-हर्फ़ रचनात्मक जवाब दिया। उन्हीं दिनों की एक घटना के बारे में 'प्रताप' पत्र के संपादक बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' ने लिखा है- "एक बार वे (प्रेमचंद) प्रताप कार्यालय पधारे। मैं उन दिनों प्रताप का संपादन करता था। मेरे एक उप-संपादक किंचित विवादी मनोभावना के थे। बातचीत में हिंदू-मुस्लिम प्रश्न उठाया। मेरे उप-संपादक महोदय आवेश में आकर बोले- 'इस सांप्रदायिकता को रोकने का दूसरा कोई उपाय नहीं है। हमें ईट का जवाब पत्थर से देना होगा। तभी काम चलेगा।' प्रेमचंद जी मुस्कुराते हुए सुनते रहे। जब उन महाशय की द्वेषमयी वाणी रुकी तो वे अत्यंत साधारण स्वर में बोले- 'अरे भाई, इस समय मुसलमानों का मानस रोगयुक्त है। पागलों के साथ हम भी पागल बन जाए तो कैसे काम चलेगा। ये महाशय बल खाकर पूछ बैठे, क्यों साहब अगर पागल हमारे सामने पेशाब करने लगे तो हम क्या करें। प्रेमचंद जी ने शांति से कहा जरा दूर हट कर खड़े हो जाओ। -और अगर वहां भी आकर वह यही हरकत करे तो? -जरा और दूर हट जाओ। मगर वह हजरत थे हुज्जती, इतने पर भी ना माने । बोले वहां भी आकर यह वही हरकत करें तब?  मुंशी जी ने कहा, 'यह कैसे हो सकता है? वह भलामानस कोई मशक थोड़े ही बाँधे है जो यहां वहाँ सब जगह मूतता ही जाएगा।"8

   

    प्रेमचंद के लिए पत्र और पत्रकार के दायित्व के क्या मायने था इसका पता हमें स्वदेश के प्रवेश अंक के संपादकीय से चलता है। 'स्वदेश का संदेश' नामक संपादकीय में प्रेमचंद लिखते हैं कि "स्वदेश के लिए सचमुच यह संतोष और सौभाग्य की बात है कि उसका जन्म एक नवीन युग में हो रहा है। ऐसे नवीन और शुभ युग में जो अपने सच्चे सिद्धांतों के बल पर निकटवर्ती भविष्य में सारे संसार से अपनी सत्ता और महत्ता आप मनवा लेगा। परंतु अभी इस नवीन और शुभ योग का प्रकाश होना बाकी है, तो भी हम इस युग का हृदय से स्वागत करते हैं।" प्रेमचंद न केवल इस लेख में भारतीय समाज के और विश्व के यथार्थ को अभिव्यक्त करते हैं वरन वह हमारे भविष्य की इच्छाओं और कामना को भी आकार देते हैं। जिसमें वह कहते हैं कि 'अब भविष्य में राष्ट्रों के साथ वस्तु या पशुओं के समान व्यवहार नहीं किया जाएगा। प्रत्येक जाति को इस बात का अधिकार होगा कि वह अपने भाग्य का आप निर्णय करें। वह जिस साम्राज्य के अधीन रहना चाहे रहे और उसकी इच्छा हो तो स्वयं अपना राज्य शासन आप करें। प्रेमचंद इसके निष्कर्ष रूप में लिखते हैं कि 'हिंदुस्तान का उद्धार हिंदुस्तान की जनता पर निर्भर है। जनता में अपनी योग्यता के अनुसार या भाव पैदा करना प्रत्येक स्वदेशवासी का परम धर्म है । स्वदेश तुम्हें संदेश दे रहा है कि तुम भी मनुष्य हो तुमको भी यहां समान अधिकार प्राप्त है ।"9 यह वह दौर था जब देश में तनावपूर्ण माहौल था। ऐसे माहौल में लेखन भी एक जोखिम भरा काम था। जिसे राजद्रोहात्मक गतिविधि के रूप में चिन्हित किया जाता था। प्रेमचंद अपनी दोनों पत्रिकाओं जागरण एवं हंस के जमानत देने की सरकारी मांग से बच नहीं सके थे तथा एक बार उनकी यह जमानत ज़ब्त भी हो गई थी।

    

    मार्च 1930 में देश में गांधी के दांडी मार्च के अवसर पर प्रेमचंद ने मासिक पत्रिका हंस का प्रकाशन शुरू किया। इस समय तक वो अपनी सरकारी नौकरी छोड़ पूरी तरह पत्रिका और प्रकाशन में जुट चुके थे। इसके प्रवेशांक में बड़ी खुशी के साथ वह इस बात का जिक्र करते हैं कि इस पत्रिका का निकलना उस शुभ अवसर के साथ हुआ जब देश ने स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने का फैसला लिया। हिमालय की मानसरोवर झील के साहचर्य से उत्पन्न पत्रिका के नामकरण की तरफ संकेत करते हुए वह बहुत जोर देते हुए कहते हैं कि हंस ने स्वतंत्रता संघर्ष में योगदान देने के लिए अपने वन्य निवास की नीरवता को छोड़ दिया है। इसके बाद लगभग साढ़े छह वर्षों तक (मृत्युपर्यंत) उन्होंने हंस का संपादन किया। प्रेमचंद के लिए यह अखबारी लेखन सत्ता की कटु आलोचना और जनता के हितों की रक्षा करने का एक सशक्त माध्यम था। परिणाम की ज्यादा परवाह न करते हुए बड़ी बेबाकी से वह पत्रिकाओं में जनता का पक्ष रखते थे। सन 1933 के एक लेख में वे लिखते हैं कि "देश राष्ट्र बनना चाहता था। उसे पंथवाद में ढकेल दिया गया... जहां केवल हिंदू-मुसलमान थे, वहां मुसलमान अछूत सिक्ख, ईसाई, अधगोरे, गोरे इतने जंतु निकाल खड़े किए गए और इन सबों ने अपने तेज दांतों और पैने नखों से शिशु राष्ट्र को धर दबोचा।"10

    

    प्रेमचंद देशहित के किसी भी मुद्दे पर खुलकर अपनी राय रखते थे। ब्रिटिश सुधारों के प्रयास के खोखलेपन की सच्चाई को लगातार उजागर करते रहे। सन् 1935 में ही ब्रिटिशों द्वारा अधिनियम के माध्यम से लोकतंत्र का डंका पीटने के छद्म का भंडाफोड़ करते हैं। उनकी नजर में यह लोकतंत्र बिल्कुल नहीं था। "विधायिका में कुछ सदस्य और बढ़ गए थे किंतु आम जनता वैसे ही असहाय थी, जैसे पहले थी। इसके अलावा विधायिका लाचार थी तथा यह मूल्यहीन हो चुकी थी।"11 प्रेमचंद नौकरशाही द्वारा किसी भी मामले की जांच के नाम पर किए जा रहे हीला हवाली और भ्रम फैलाने को अनुचित करार देते हुए कमेटी बनाने की उस गलत परंपरा पर कुठाराघात करते हैं जो आज भी भारत की नौकरशाही में और भारत की सत्ता द्वारा चलाई जा रही है। हंस के एक लेख में सन 1931 ईस्वी में प्रेमचंद लिखते हैं कि "कमेटी और तहकीकातों से असली बात को टालते रहना राजनीति की पुरानी चाल है। यहां किसी बात की शिकायत पैदा हुई और उस शिकायत ने जोर पकड़ा के फौरन तहकीकात की कमेटी बना दी गई। शिकायत करने वालों में जिनकी आवाज सबसे ऊंची थी उन्हें उस तहकीकात कमेटी में शरीक कर लिया गया। साल दो साल तक तहकीकात में लगे तब वह शिकायत कुछ ठंडी पड़ गई। अगर कमेटी में जोरदार सिफारिशें की तो उन पर विचार करने के लिए एक और कमेटी बना दी गई।"12

     

    प्रेमचंद की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। बड़ी मुश्किलों से वह पत्रिका निकालने का काम कर रहे थे। फिर भी बाजार के दबावों के आगे नतमस्तक नहीं हुए और न ही अपना तेवर छोड़ा। हंस पर प्रतिबंध लग जाने के बाद जैनेन्द्र को एक पत्र में 15 अगस्त 1932 को जागरण पत्र को लेने की बात करते हैं। इस पत्र में जहाँ एक तरफ उनकी आर्थिक परिस्थिति का पता चलता है वहीं दूसरी तरफ़ उनके बुलंद हौसले से भी हम वाकिफ़ होते हैं- "..हंस में कई हजार का घाटा उठा चुका हूं। लेकिन साप्ताहिक के प्रलोभन को न रोक सका। कोशिश कर रहा हूँ कि सर्वसाधारण के अनुकूल पत्र हो। इसमें भी हज़ारों का घाटा ही होगा, पर करूँ क्या, यहाँ तो जीवन ही एक लम्बा घाटा है।"13

      

    अपने समय के बड़े सचेत लेखक-पत्रकार के रूप में प्रेमचंद किसी भी अमर्यादित या स्तरहीन सामाजिक व्यवहार तथा पत्रकारी टिप्पणी की भी पूरी खबर लेते थे। बात चाहे विषयवस्तु की हो या भाषा की। ज़माना में दिसंबर 1909 को एक लेख लिखते हैं 'गालियों' पर। इस लेख में उत्तर भारतीय समाज में व्यवहृत गालियों पर समाज को आड़े हाथों लेते हैं। इसी लेख में उन्होंने लखनऊ के एक जिंदादिल अखबार की भी खूब ख़बर ली है जिसने होली में मोटे मोटे अक्षरों में छापा था- 'आई होली आई होली, हमने अपनी धोती खोली'। बड़े तल्ख लहज़े में प्रेमचंद लिखते हैं- "यह इस जिंदादिल अख़बार की जिंदादिली है। वह सभ्य और सुसंस्कृत रुचि का समर्थक समझा जाता है।….अगर किसी दूसरी क़ौम का आदमी इन दो हफ्तों के हिंदी अख़बार उठाकर देखे तो शायद दुबारा उनकी सूरत देखने का नाम न लेगा। हमारे क़ौमी अख़बारों की यह हालत हो जाती है।"14

       

    इस प्रकार हम देख सकते हैं कि आज से 90-100 साल पहले प्रेमचंद ने पत्रकारिता क्या होती है, इसकी एक मजबूत नींव और इसका एक परिदृश्य हमारे सामने उपस्थित कर दिया था। एक ऐसी आवाज जो कहीं भी अन्याय, दमन ,शोषण के खिलाफ जनता की आवाज बनकर लोकतंत्र को मजबूत बनाने वाली स्तंभ के रूप में प्रतिष्ठित हो। जो बेखटके सच को सच और झूठ को झूठ कह सके। आज हमारे समय और समाज की जरूरत है कि बार-बार पत्रकारिता के इन मूल्यों को देखा जाए, समझा जाए। अपने स्वाधीनता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाले प्रेमचंद सरीखे बड़े पत्रकारों से सीख लेकर जनता की आवाज के रूप में पत्रकारिता के महत्व को फिर प्रतिष्ठित किया जाए। एक ऐसी आवाज जो निर्भय और स्वतंत्र हो। धर्म, सत्ता, बाजार और दूसरे किसी भी प्रकार के दबावों से मुक्त हो।

 

संदर्भ -

 

1-रायअमृत-विविध प्रसंग खंड-2, पृष्ठ-538

2-रायअमृत-विविध प्रसंग खंड-1, पृष्ठ-6

3-राय अमृत-कलम का सिपाही, पृष्ठ-123

4-वही, पृष्ठ -121

5-वही, पृष्ठ-122

6-वही, पृष्ठ -273

7-वही, पृष्ठ -274

8-वही, पृष्ठ -279

9-रायअमृत, विविध प्रसंगखंड -2, पृष्ठ-19,22

10-वही, पृष्ठ-116-11

11-वही, पृष्ठ-188-89

12-वही, पृष्ठ-86

13-राय अमृत-कलम का सिपाही, पृष्ठ-503

14-राय अमृत-विविध प्रसंग खंड-1, पृष्ठ-164

 

अम्बरीश त्रिपाठी

सहायक प्राध्यापक-हिंदी, शासकीय महाविद्यालय, मचांदुरदुर्ग, छत्तीसगढ़,

amba82@gmail.com, 7489164100

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021, चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

        UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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