हिन्दी दलित कविता आलोचना : दशा और दिशा / सन्दीप कुमार
बीज-शब्द : असमानताओं का प्रतिरोध, जातीय अंतर्द्वन्द्ध, वर्ण-व्यवस्था का खंडन, श्रमशील समाज का संघर्ष, धार्मिक तिलांजली, धार्मिक ग्रन्थ और शोषण, बेदखल की राजनीति ।
मूल आलेख
1. परम्परागत
असमानता एवं दलित कविता का प्रतिरोध –
समाज में साहित्य परिवर्तन लाने का कार्य सदियों से करता आ रहा है। इतिहास में हुए इस आमूल-चूल परिवर्तन ने लोगों की चेतना पर गहरा प्रभाव डाला है। जब भी कोई क्रिया होती है तो उसके विरुद्ध प्रतिक्रिया भी होती है। इस प्रकार दलित साहित्य के अंतर्गत आने वाली सभी विधाओं कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा आदि ने नए-नए विषयों के माध्यम से हिन्दी साहित्य की धारा को एक नया मोड़ दिया है। इस सन्दर्भ में डॉ. आंबेडकर के ये विचार प्रासंगिक हैं कि- “प्राचीन भारत के इतिहास का काफी हिस्सा बिल्कुल भी इतिहास नहीं है। ऐसा नहीं है कि प्राचीन भारत बिना इतिहास के है। प्राचीन भारत का बहुत सारा इतिहास है। लेकिन वह अपना स्वरूप खो चुका है। महिलाओं और बच्चों का मनोरंजन करने के लिए इसे पौराणिक आख्यान बना दिया गया है। ऐसा लगता है ब्राह्मणवादी लेखकों ने जान-बूझकर ऐसा किया है।”1किसी भी देश का समाज झूठ और मिथक के बल पर नहीं चल सकता है।
भारत एक विशाल देश है इसलिए इस देश की धरती पर कई प्रकार के विचार और परम्पराएं देखी जा सकती हैं परन्तु दुनिया ने वही देखा जो ब्राह्मणों ने उन्हें दिखाया है- “जिस देश का इतिहास हिन्दू इतिहास नहीं था वह हिन्दू घोषित हो गया। जो विचार परम्परा नहीं थी, वह हिन्दू विचार परम्परा मान ली गई। दरअसल भारतीय उप-महाद्वीप का ऐतिहासिक-सामाजिक-सांस्कृतिक चित्र आज तक दुनिया ने वह देखा जो ब्राह्मण ने दिखाना चाहा।”2मुद्राराक्षस के इन विचारों को अगर इस दृष्टि से देखा जाय कि भारतीय समाज जिस साहित्य को सदियों तक पढ़कर आनंदित हुआ है, उस पर एकाधिकार किसी खास वर्ग तक सीमित रहा था। कालान्तर में इन्हीं असमानताओं और रूढ़ियों के प्रतिरोध में दलित लेखकों ने कलम चलाई है। “हिन्दी साहित्य में जो कि हिन्दू साहित्य ही है, हमें इसे लोकतंत्रात्मक और समानतामूलक समाज साहित्य बनाना होगा। दलित साहित्य इस दिशा में एक प्रस्थान है, जो कि मानवीय गरिमा और आपसी भाईचारा को बढ़ावा देता है, बढ़ावा ही नहीं देता अपितु इसे अपने-आचरण का हिस्सा मानता है। दलित साहित्य ऊँच-नीच की भावना को खत्म करने का एक हथियार है, पुराणों से निजात पाने का नुस्खा है, वेद और गीता के आतंक से मुक्ति का साधन है। पाखंड और प्रपंच से निजात दिलाने का तरीका है, भारत को भव्य और सभ्य बनाने का प्रयास है। दलित साहित्य की समृद्धि से देश की समृद्धि सम्भव है।”3 दलित साहित्य सबसे पहले सामाजिक संरचना की पोल खोलता है। इस विषय पर दलित चिन्तक तुलसीराम का मानना है कि “जहाँ तक दलित साहित्य का सम्बन्ध है, वह वर्ण-व्यवस्था विरोधी साहित्य है, चाहे उसे दलित लिखें या गैर-दलित। संगठित रूप में सबसे पहले गौतम बुद्ध ने वर्ण-व्यवस्था विरोधी साहित्य चलाया, जो स्वयं दलित नहीं थे। अत: प्राचीन बौद्ध साहित्य ही वर्तमान दलित साहित्य की जननी है।”4
दलित साहित्यकरों के सामने वर्ण-व्यवस्था सबसे गंभीर विषय बनी
हुई है। यह व्यवस्था, जिसे समाज को सुचारू रूप से संचालित करने लिए बनाया गया था;
वह बाद में समाज में भय, अन्धविश्वास, जातिगत भेदभाव के अलावा दलित समाज के लिए
भूख, गुलामी और अशिक्षा का कारण बनी। इसलिए उस युग को वर्तमान दलित लेखक
‘अंधायुग’/ अंधकार-युग कहते हैं। इसे कँवल भारती की ‘आधुनिकता बोध’ नामक कविता से
समझ सकते हैं-
“यह आधुनिकता बोध
विस्मृति के गर्भ में छिपा हुआ उनका ऐतिहासिक बोध है,
जिसके सहारे वे स्मरण करते हैं उस युग को
जब ब्राह्मणों के सहारे जीते-मरते थे राजतन्त्र
उनके शापों से आतंकित रहते थे सम्राट
जिनके आदेश होते थे ‘ब्रह्मवाक्य’
जिस पर आधारित होता था न्याय और शासन
ये कवि मुग्ध है
क्योंकि वह सवर्णों के भोगैश्वर्य का युग था
परिश्रम किये बिना ही उनको उपलब्ध था हर सुख
वे शासक थे,
सेवक थे शूद्र, भोग्या थी नारी।
वह अंधा युग था।”5
उपरोक्त कविता के माध्यम से श्रमिक वर्ग और परजीवी वर्ग के बीच
की वास्तविक स्थिति को समझ सकते हैं कि
‘शब्दों का भय’ बनाकर किस प्रकार बहुत बड़े वर्ग को अंधकार में रखकर ब्राह्मणवादी
समाज अपना प्रभुत्व स्थापित करता रहा, शायद यही कारण है कि रचनाकार इन पक्तियों के
माध्यम से उस युग को ‘भोगैश्वर्य का युग’कहा है।
2. दलितों के अन्दर जातिवाद का अंतर्द्वंद्व -
‘दलित’ शब्द किसी एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि दलित समूह का परिचायक
है। इसलिए यह समझा जाता है कि जो भी उपेक्षित है वह ‘दलित’ है। यह किसी एक ‘जाति’
और ‘संप्रदाय’ के ऊपर ऊठकर सभी ‘दलितों’ के लिए समानता का बोधक है। इसका प्रयोग
किसी चमार, पासी, धोबी और खटिक इत्यादि के लिए मान्य नहीं है। जबकि यह सर्वविदित
है कि ‘दलितों’ की जातियों के अन्दर अनेकों उपजातियाँ हैं, इसलिए उस उप-जातिवाद से
मुक्त ‘दलित’ शब्द इस साहित्य के लिए
सर्वमान्य है। दलित वही हैं, जिन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता रहा है। जिसका
वर्णन माता प्रसाद ने इस प्रकार किया है कि “उत्तर वैदिक काल में जब वर्ण-व्यवस्था
की रचना हुई तो द्रविण,
अनार्य, दास, असुर, दस्यु और दूसरी आदिवासी जातियों को शूद्रों की श्रेणी में डाल
दिया गया।”6 इस प्रकार से वर्णव्यवस्था का निर्माण होते ही ‘शूद्र’ वर्ण
का भी निर्माण हुआ था जबकि सभ्यता के प्रारम्भिक दौर में ‘शूद्र’ वर्ण
जैसी कोई व्यवस्था न थी।
परन्तु आर्यों के सत्ता में काबिज होते ही सामाजिक
व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन हुए, जिसका उल्लेख माता प्रसाद ने इस प्रकार किया
है कि “आर्यों का प्रभुत्व देश में कायम होने के पूर्व तीन ही वर्ण, ब्राह्मण,
क्षत्रिय और वैश्य का विभाजन था। इन तीनों वर्णों को द्विज कहते थे। क्योंकि इनका
उपनयन संस्कार होता था। उस समय कर्म के आधार पर वर्ण का विभाजन था। कर्म के आधार
एक वर्ण का व्यक्ति दूसरे वर्ण में आता-जाता था। कुछ सीमा तक विवाह संस्कार भी
होते थे। उस समय चौथा वर्ण नहीं था।”7 लेकिन चौथे
वर्ण का निर्माण होते ही उनके ऊपर कई प्रकार के प्रतिबंध भी लग गए, जिससे समाज में
असमानता की नींव पड़ गयी।
इस विषमतावादी
समाज से मुक्ति के लिए दलित साहित्य में ‘दलित’ शब्द ‘समूह’ का चयन हुआ है। परन्तु
इससे भिन्न जातिवादी लेखन भी दिखाई देता है। जिससे पता चलता है कि ‘दलितों’ में भी
जाति संघर्ष का अंतर्द्वंद्व हो रहा है जो अपनी-अपनी जाति की पहचान बनाना चाहता
है। इसलिए वह ‘दलित’ नहीं बल्कि भंगी, चमार, धोबी को सम्बोधित कर कविताएं लिख रहा
है। इस मामले में बड़े से बड़े दलित रचनाकार फँसते नज़र आ रहे हैं। अभी हाल ही 2017
में श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ का कविता-संग्रह ‘चमार की चाय’ आया है जो जाति को
सम्बोधित है। इसके शीर्षक के विषय में लेखक ने लिखा है कि “शीर्षक को लेकर सोचना
शुरू किया तो मेरे सामने चमार केन्द्रित अनेक शीर्षक चित्रपट में घूम गये। मसलन
मैंने देखा सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का उपन्यास ‘चतुरी चमार’ मेरे संग्रह में
मौजूद है। मैंने इसे पढ़ा और लिखा भी है। रैदास के प्रति ‘निराला’ की एक कविता
दलितों को प्रिय है- कर्म के अभ्यास में, अविरत बहे, ज्ञान गंगा में, समुज्ज्वल
चर्मकार, चरण छूकर कर नमस्कार।’ अदम गोंडवी नामक एक ठाकुर की कविता ‘चमारों की
गली’ भी मेरे ध्यान में आयी। डॉ. धर्मवीर की समीक्षा पुस्तक ‘चमार की बेटी रूपा’
भी मैं पढ़ चुका हूँ।”8 सब प्रकार के शीर्षक का चयन करना और समर्थन में निराला और
अदम गोंडवी का उदाहरण देने से कोई बात छिप नहीं सकती है। वह इसलिए भी क्योंकि
अम्बेडकरवाद भी जाति विशेष का समर्थन नहीं करता है। हालाँकि कविता में आया है कि
इसे किसी ओबीसी ने लिख दिया था-
“एक दिन एक ओबीसी मित्र आया
उसकी दुकान का दरवाज़ा
बंद देखा
और उसके दरवाज़े पर
लिख कर चला गया-
कि यहाँ ‘चमार की चाय मिलती है।”9
भाव कोई भी
निकाले जाएँ परन्तु दलित साहित्य में चमार, धोबी, भंगी आदि के इतर ‘दलित’ का
प्रयोग ज्यादा सही है। किन्तु अनेक सावधानियों के बावजूद जाति के अन्दर की उपजाति
दिख ही जाती है। इस सन्दर्भ में डॉ. विवेक कुमार की कविता ‘मैं धोबी हूँ’ को देखा
जा सकता है-
“मै धोबी हूँ।
बहुत दिन मैंने धोई तुम्हारी गन्दगी ताकि तुम साफ रहो
भीषण गर्मी, मूसलाधार बारिश या फिर रही हो कटकटाती सर्दी
उफ़ नहीं किया मैंने फिर भी, ताकि तैयार कर सकूँ आपकी वर्दी
* * *
जिनकी धुलाई का क़र्ज़ आज भी तुम पर बाकी है।”10
इस प्रकार अगर सभी दलित रचनाकार अपनी-अपनी जाति का चित्रण
करने लगेंगे तो दलित साहित्य अपनी दिशा भटक जायेगा। इसे डॉ. तेज सिंह के इन
विचारों से समझा जा सकता है कि “वर्तमान दलित साहित्य अभी दिशाहीन होने लगा है।
उसमें जाति चेतना का विकास, उसको उदेश्य से भटका सकता है। और भटका भी रहा है। दलित
साहित्य का उदेश्य जाति-विहीन, वर्ग विहीन समाज की स्थापना का संकल्प लेकर चला था
जो अब जातिवादी चेतना में बदलने लगा है। यानी अब अधिकांश दलित साहित्यकार
अपनी-अपनी जाति मजबूत करने का नारा लगाकर अपने साहित्य को जातिवादी बनाने में लगें
हैं। इस तरह वह अपनी दिशा भटक गया है।”11 स्पष्ट है
कि जब तक समाज में जातिवाद रहेगा, तब तक समतावादी समाज की स्थापना होना एक स्वप्न
की तरह लगता है ।
3.दलित व्यवसाय पर वर्ण-व्यवस्था का प्रभाव -
वर्ण-व्यवस्था ने
भारतीय समाज को अमूल-चूल परिवर्तित कियाहै। इसका उल्लेख डॉ. आंबेडकर ने इस प्रकार
किया है कि “जब मैं यह कहता हूँ कि ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया, तब
मेरा आशय यह है कि इसने पद और व्यवसाय को वंशानुगत बना दिया है।”12इस प्रकार की मानसिकता से समाज जहाँ
एक तरफ प्रभावित हुआ वहीं दूसरी तरफ विघटित हुआ।
जाति आधारित पेशे ने लोगों को एक सीमा में जकड़ लिया और उससे ऊपर उठने एवं
अलग पेशा चुनने का मार्ग अवरूद्ध कर दिया। इतने बड़े समाज को संचालित करने वाले
पेशेजब जाति आधारित और वंशानुगत हो गये तब समाज में असमानता का बीज पड़ गया। वर्ण
व्यवस्था के आधार पर प्रथम को ज्ञान का अधिकार, दूसरे को पेशे का अधिकार, तीसरे को
सुरक्षा का अधिकार और चौथे का अपने से ऊपर सेवा धर्म का अधिकार दिया गया और उसके
लिए कठोर प्रतिबन्ध भी लगाये गये। इस सन्दर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि की यह कविता
प्रासंगिक है कि-
“काटे जंगल
खोदे पहाड़
बोये खेत
फिर भी रहे भूखे
* * *
नहीं बोये काँटे, बाँटे सिर्फ
सगुन प्यार के
फिर भी रहे अछूत!”13
दलित साहित्य के
अंतर्गत वर्ण-व्यवस्था द्वारा स्थापित इन्हीं सारी व्यवस्थाओं का खंडन और विरोध
किया जाता है। इस व्यवस्था को पाँच हजार वर्ष बीत गये, पर वैसी की वैसी ही रह गयी।
इस सन्दर्भ में मोहनदास नैमिशराय ने लिखा है कि-
“कल मेरे हाथ में झाड़ू था
आज कलम
कल झाड़ू से मैं तुम्हारी गन्दगी हटाता था
आज कलम से।
मैं तुम्हारे भीतर की गन्दगी धोऊँगा।
* * *
तुमने हमारे हाथ में झाड़ू पकड़ाई थी
आज परिवर्तन के लिये
तुम्हें अपने हाथ में झाड़ू लेना ही
होगा
वह दिन जल्द आएगा
चेतना का सूरज
उग चुका है।”14
इस प्रकार देखा जा सकता हैं कि वर्ण-व्यवस्था और जाति व्यवस्था को लेकर साहित्यिक जगत् में उल्लेख तो हुआ है, लेकिन इस ओर जिस प्रकार से दलित साहित्यकारों ने समाज का ध्यान खींचा, उस प्रकार गैर-दलित साहित्यकारों ने नहीं। एक समय था जब जाति और अस्पृश्यता के नाम पर मजदूरी के रूप में दलितों को ‘गोबरहा’ मिलता था। जिसका वर्णन बाबा साहब ने इस प्रकार किया है “अस्पृश्यों को उनकी मजदूरी नकद या अनाज के रूप में दी जाती थी। उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में मजदूरी के रूप में दिए जाने वाले अनाज को ‘गोबरहा’ कहा जाता है। इसका अर्थ है, जानवरों के गोबर से निकलने वाला अनाज।”15 वर्ण व्यवस्था का विरोध करने वाले सन्तों में रैदास और कबीर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। “मध्यकाल में रैदास हिन्दीदलित साहित्य के प्रथम दलित चेतना के कवि हैं, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था का विषपान स्वयं किया था। उन्होंने सबसे पहले वर्ण के जन्मगत आधार को ही नकारा-
रैदास जन्म के कारणै होत न कोई नीच।
नर को नीच करि डारि है ओछे करम की कीच”
आगे चलकर रैदास ने इसे और स्पष्ट कर दिया कि एक ही प्रक्रिया से
उत्पन्न होने के कारण कोई ऊँचा या नीचा नहीं होता है-
रैदास एक ही बूँद सौ, सब ही भयो वित्थार
मूरिख हैं जो करत है वरन अवरन विचार।।
रैदास एक ही नूर ते जिमि उपज्यौ संसार
ऊँच-नीच किहि विध भये ब्राह्मण और चमार।।”16
वर्ण-व्यवस्था ने समाज का बहुत बड़ा नुकसान किया है जबकि
संत कवि रविदास की यह पक्तियां स्पष्ट सन्देश दे रहीं है कि वे लोग मूर्ख है जो
वर्ण विचार करते है क्योंकि यहाँ कोई ऊँच-नीच सब एक समान हैं।
4. श्रमजीवी
समाज की उपेक्षा: दलित कविता –
समाज मनुष्यों का समुदाय है, बिन मनुष्य समाज की कल्पना भी
नहीं की जा सकती। इसलिए इनका जीवन एक-दूसरे के सहयोग से चलता है। परन्तु समय-समय
पर इस व्यवस्था में परिवर्तन होता रहा है। मनुष्य के सहयोग के लिए इस प्रकार की
संरचना का निर्माण हुआ था, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। परन्तु यह चौथे वर्ग
के लिए घातक सिद्ध हुआ क्योंकि उसको कर्म करने के लिए प्रेरित तो किया गया परन्तु
न तो धन-संचयऔर न किसी प्रकार की संपत्ति रखने की सलाह मिलती रही। जबकि सुबह से
शाम तक वह ‘बैल’ की तरह काम करता रहा। इसे मलखान सिंह ने अपनी कविता में इस प्रकार
कहा है-
“मैं आदमी नहीं हूँ स्साब
जानवर हूँ
दोपाया जानवर
जिसे बात-बात पर
मनुपुत्र मा...चो...बहन...चो...
कमीन कौम कहता है।
पूरा दिन
बैल की तरह जोतता है
मुट्ठी भर सत्तू
मजूरी में देता है।”17
किसी भी समाज
में इससे बड़ी अमानवीयता क्या हो सकती है? जब मनुष्य दिन-रात परिश्रम करे और उसको
भरपेट भोजन भी न मिले तो इसे क्या कहेंगे? इस सन्दर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने
लिखा है कि “बेगारी की प्रथा ने दलितों को घोर विपन्नता दी है। बेगारी यानी बिना
मूल्य का श्रम। दिन-भर मेहनत-मजदूरी करके भी शाम को भूखा रहे, यह अभिशाप नहीं तो
क्या है!”18 बेगार ने दलितों के जीवन को इस प्रकार प्रभावित किया कि
वे आज-तक विपन्नता से बाहर नहीं निकल पाए और अगर निकलना भी चाहा तो महाजन बही खाता
में झूठा अगूँठा लगाकर फँसाते रहे हैं। डॉ. धर्मवीर की यह कविता उसी शोषण को
व्याख्यायित करती है-
“शोषण की अमर बेल,
दमन की महागाथा,
यातना के पिरामिड
उत्पीड़न की गंगोत्री
ऋणों का पहाड़
ब्याज का सागर
निरक्षरों के मस्तिष्क,
महाजनों की बही
रुक्कों पर अँगूठों की छाप
ऊटपटाँग
जोड़ घटा, गुणा भाग, देना
सब एक।”19
वर्ण-व्यवस्था
और जातिवाद ने दलितों के जीवन को कैसे त्रासद बनाया, कविता से बखूबी समझा जा सकता
है। इस व्यवस्था को सबसे ज्यादा पुष्ट ‘जातिवाद’ ने किया, इसलिए इसको जड़ से उखाड़ना
होगा, तभी समाज में सभी को समान अवसर और दलितों को समान अधिकार मिल सकता है। इस
सन्दर्भ में डॉ. एन. सिंह की यह कविता विशेष महत्त्वपूर्ण है-
“सतह से उठते हुए
मैंने जाना कि
इस धरती पर किये जा रहे
श्रम में
जितना हिस्सा मेरा है
उतना हिस्सा
इस धरती के
हवा पानी और
इससे उत्पन्न होने वाले
अन्न और धन में भी।”20
प्रकृति प्रदत्त सभी वस्तुओं पर सबका समान अधिकार है।
इसलिए सवाल उठता है कि समाज का एक हिस्सा ही क्यों उस सुविधा का उपभोग करे,जिसके
अधिकारी सभी हैं। शायद रचनाकार ने इस पंक्तियों में दलित आलोचकों और रचनाकारों के साथ-साथ
सम्पूर्ण समाज को यही सन्देश दिया है कि ‘दुनिया तुम्हारी है खुलकर जियो’ लेकिन
इसके लिए पूँजीपतियों और सामंतों को मुँहतोड़ जवाब देने का तरीका भी इजाद करना
होगा। इस संदर्भ में यह पक्तियाँ सटीक बैठती हैं और पूर्व को भूलकर वर्तमान को
देखने का संदेश दे रहीं हैं-
“मेरे परदादा मर गए जूठन खाते/उतरे चिथड़े पहनते
खेत बोते-जोतते/इसे पूर्व-जन्मों का फल मानते-मानते
और ज़मींदार/फूलता गया/फलता गया.../ज़मींदार का वंश/बढ़ता
गया/
आकाश बेल की तरह इनका ख़ून चूसते/धर्म का भय दिखाकर
नीच कर्मों का फल बताकर...पर/अब मैं पूर्व को नहीं वर्तमान
देखता हूँ।”21
परन्तु वर्तमान समय में धरती से लेकर आसमान तक पूंजीपतियों
का कब्ज़ा है।
दलित साहित्यकारों और आलोचकों के बीच यह सवाल गंभीर रूप से
महत्त्वपूर्ण है। जिसको ओमप्रकाश वाल्मीकि
द्वारा लिखित इस पंक्तियों के माध्यम से समझ सकते हैं। “दलित साहित्य ने इन
प्रश्नों को गम्भीरता से लिया है। दलित रचनाओं में आर्थिक समस्याओं को प्रमुखता से
अभिव्यक्ति मिली है। रजत रानी मीनू लिखती हैं: आर्थिक विपन्नताओं से पग-पग पर घायल
होने वाले दलित कवि का संवेदनशील हृदय अर्थाभाव के काले अभिशाप से घिरे हुए समूचे
वर्ग को देखकर उद्वेलित हो उठता है।
जन-जीवन से जुड़े तमाम प्रश्नों की रौशनी में अपने सुन्दर सपनों को यथार्थ को साकार
होने नहीं देख पाता है, तब वह प्रश्नों के समाधान तलाश करते अपने विचारों को कविता
की शक्ल देकर पूरा करने प्रयास करता है।”22
अर्थ विपन्नता का सबसे बड़ा कारण है क्योंकि उसके अभाव में
दलित समाज पीढ़ी दर पीढ़ी पिछड़ता चला गया। इसलिए यह भी कह सकते हैं कि समाज में
व्याप्त वर्ण-जाति जैसी व्यवस्था बड़ी ही घातक सिद्ध हुई। जिसका परिणाम यह है कि आज
भी दलित समाज कई जगहों से गायब है। जिसे इस प्रकार समझ सकते हैं कि “भारत में
कारर्पोरेट बोर्डों के हाल के सर्वे में भी इसी तरह की प्रवृत्ति उभरी-उनके 90 प्रतिशत से ज्यादा सदस्य ऊँची
जातियों के थे और 45 प्रतिशत ब्राह्मण थे। दिलचस्प बात यह है कि इस मामले में
वैश्यों ने ब्राह्मण को पीछे छोड़ दिया था, जिनका अनुपात कारर्पोरेट बोर्डों में 46
प्रतिशत था। पूरी आबादी में करीब 24 प्रतिशत की आबादी वाली अनुसूचित जातियों और
जनजातियों को इसका छोटा-सा हिस्सा, मात्र 3.5 सीटें थीं। वास्तव में, बहुसंख्यक
(70 प्रतिशत) कारर्पोरेट बोर्डों में कोई विविधता नहीं थी। यानी सभी सदस्य एक ही
जाति के थे।”23
5. भारतीय
सामाजिक धर्म और दलित कविता -
भारतीय समाज के निर्माण में विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों एवं
सभ्यताओं का योगदान रहा है। इतिहास के आरम्भिक अवस्था से देखें तो समाज के वर्तमान
और आरम्भिक दोनों रूपों में जमीन-आसमान तक का अंतर है। जिसका वर्णन भारतीय इतिहास में ही नहीं बल्कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में भी बखूबी देखा जा सकता
है कि हिन्दी साहित्य का प्रारम्भिक दौर लड़ाई-भिड़ाई का था। इस संदर्भ में आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि ‘हिन्दी साहित्य’ के इतिहास में दिखाई देता है।
यहाँ तक कि आचार्य शुक्ल ने तो सारांश रूप में यह भी लिखा है कि “जिस समय से हमारे
हिन्दी साहित्य का अभ्युदय होता है, वह लड़ाई-भिड़ाई का समय था, वीरता के गौरव का
समय था। और सब बातें पीछे पड़ गयी थीं”24
दलित साहित्य की शुरूआत विभिन्न संघर्षों के बीच होती है।
जातिवाद, अस्पृश्यता, ब्राह्मणवाद, सामंतवाद एवं धार्मिक शोषण आदि के कारण दलित
सदियों से शोषित होता रहा है। इसलिए उसके अन्दर समाज में पहले से व्याप्त इतिहास
में खुद को तलाशने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है। वैदिक काल से लेकर वर्तमान काल तक
में रचित अनेक ग्रंथों तक उसके शोषण की दास्तान से भरे हुए प्रसंग दिखाई देते हैं।
इस प्रकार शोषण रुपी इस अकल्पनीय दास्तान की पोल दलित रचनाकार एक-एक कर उजागर करते
हैं।जिसके लिए उन्होंने एक नई भाषा और नये रूप का निर्माण भी किया है। इस प्रकार
समाज में व्याप्त कुत्सित मानसिकता की तरफ लोगों का विशेष ध्यान जाता है।
उन्नीसवीं
शताब्दी तक आते-आते दलित कविताओं में वह चेतना दिखाई देने लगी जिसकी वास्तव में
शुरूआत बहुत पहले हो जानी चाहिए थी। लेकिन ‘1914’ में हीराडोम द्वारा रचित कविता
प्रथम दलित कविता मानी जाती है। इसलिए यह समय दलित कविता और दलित साहित्य के लिए
महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अगर डॉ. अम्बेडकर के शब्दों में कहा जाये तो अछूत लोग
अपने अधिकार के लिए आग्रह करने लगे थे। जिसका उल्लेख डॉ. अम्बेडकर ने इस प्रकार
किया है कि “सत्याग्रह के बाबत हम गीता का आधार लेते हैं। कारण सत्याग्रह गीता का
मुख्य प्रतिपादित विषय है। कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि बैठो मत! जिन कौरवों ने
तुम्हारा राज्य हड़पा है। उनसे युद्ध करने को तैयार हो जाओ। तब अर्जुन ने प्रश्न
किया, यह कैसा सत्याग्रह? इस प्रश्न का उत्तर कृष्ण ने दिया, वही गीता है। गीता,
सत्याग्रह पर एक मीमांसा है। अछूत लोग सवर्णों से समान अधिकार पाने का जो आग्रह
करते हैं वह सत्याग्रह है।”25
‘धर्म’ जैसा
मुद्दा भारतीय समाज का अभिन्न अंग है। जिसको ब्राह्मणवादी नीतियों ने जकड़ रखा है। जबकि आदिम समाज में
इसकी संकल्पना भिन्न थी, जिसका उल्लेख डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर ने इस प्रकार किया है
कि “प्रथम आदिम समाज के धर्म में ईश्वर की कल्पना का कोई अंश नहीं है। दूसरे, आदिम
समाज में धर्म में नैतिकता और धर्म, इन दोनों में कुछ भी संबध नहीं है। आदिम समाज
में ईश्वर के बिना धर्म है। आदिम समाज में नैतिकता है, परन्तु वह धर्म से स्वतंत्र
है”26 लेकिन कालान्तर में धर्म के नाम पर अनेक मिथक और काल्पनिक
दुनिया का निर्माण कर लिया गया। जिससे इसके अंतर्गत ईश्वर, देवी-देवता आदि के
सहारे समाज के उपचार भी किये जाने लगे। कालांतर में इसमें ऐसा बदलाव आया की यह
सामाजिक शक्ति बन गया । जिसका उल्लेख डॉ. अम्बेडकर ने इस प्रकार किया है “धर्म एक
सामाजिक शक्ति है, इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती। हेबर्ड स्पेंसर ने धर्म की
अत्यंत सार्थक व्याख्या की है, जिसके अनुसार, ‘किसी जाल की बुनाई में यदि इतिहास
को ताना माना जाय तो धर्म एक ऐसा बाना है, जो उसके प्रत्येक स्थान पर आड़े आता है।”27धर्म की इसी
सामाजिक शक्ति ने समाज को बड़ी क्षति पहुचाई है। देश में दलित समाज के लोग लगातार
वैदिक काल से शोषित होते रहे। जिसके केंद्र में छुआछूत और अस्पृश्यता रही है।
दलित
रचनाकारों ने इस प्रकार के मानसिकता के खिलाफ ही लिखना शुरू किया। इतना ही नहीं
बल्कि ‘हिन्दू धर्म’ तक को तिलांजलि दे दी। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण तो बाबा साहब
आंबेडकर हैं। जिन्होंने इस व्यवस्था के खिलाफ बड़े हीआक्रामक तेवर, अंदाज में आवाज
उठाई और अन्तत: इस धर्म को उन्होंने खुद तिलांजली दे दी। दलित रचनाकारों ने धर्म
को लेकर बहुत सी रचनाएं की हैं। लेकिन यहाँ पर असंग घोष की यह कविता बहुत ही
महत्त्वपूर्ण लगती है-
“धर्म!
तुम भी एक हो
मेरे पैदा होने के बाद
जाति के साथ
चिपकने वाले
. . . .
तुम्हें क्यों न छोडूँ
लो
मै तुम्हें तिलांजलि देता हूँ।”28
दलित आलोचकों ने दलित कविता के माध्यम से जाति, अस्पृश्यता,
पूंजीवाद के साथ-साथ धार्मिक मुद्दों की काफी पड़ताल की है। जिससे ‘धर्म’ के विषय
में अनेक तथ्य निकलकर आते हैं। जिससे इस विषय पर कई प्रकार के सवाल निकलकर आते हैं
साथ ही इसके माध्यम से हो रहे शोषण के प्रति आक्रोश भी।
यहीकारण है कि
वर्तमान दलित कवि स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि मैं तुम्हारे धर्म का कैसे
विश्वास कँरू? जिसमें अपमान ही अपमान है। जिसे मोहनदास नैमिशराय की इस कविता से समझा ला सकता है-
“मैं तुम्हारे
झूठे धर्म पर
करता रहा गर्व
लेकिन
तुम्हारा मेरे प्रति
छिपा रहा सदैव
अपमान का भाव ही
तुम्हारी नैतिकता की छतरी में
छेद-ही-छेद हैं।”29
भारतीय समाज विभिन्न
धर्मों और सम्प्रदायों को मानने वाला है। परन्तु जितनी विभिन्नता हिन्दू धर्म में
है अन्य में नहीं है। डॉ. अम्बेडकर ने इस सन्दर्भ में लिखा है कि “मेरे विचार में
धर्म में सुधार के मुद्दे इस प्रकार हैं: (1) हिन्दू धर्म की केवल एक और केवल एक ही
मानक पुस्तक होनी चाहिए, जिसे सारे हिन्दू स्वीकार करें और मान्यता दें। इससे
वस्तुत: मेरा तात्पर्य यह है कि वेदों, शास्त्रों और पुराणों को पवित्र और अधिकृत
ग्रन्थ मानने पर रोक लगे तथा इन ग्रंथों में निहित धार्मिक य सामाजिक मत का प्रवचन
करने पर सजा का प्रावधान हो, (2) अच्छा होगा यदि हिन्दुओं में पुरोहिताई समाप्त की
जाए। चूंकि ऐसा होना असम्भव है, इसलिए पुरोहिताई पुश्तैनी नहीं होनी चाहिए।
प्रत्येक व्यक्ति जो अपने को हिन्दू मानता है, उसे राज्य में परीक्षा पास कर सनद
प्राप्त कर लेने पर पुजारी बनने का अधिकार होना चाहिए, (3) बिना सनद के
धर्मानुष्ठान करने को कानूनन वैध नहीं माना जाना चाहिए। जिनके पास सनद नहीं है,
उनके द्वारा पुजारि का काम किए जाने पर सजा का प्रावधान हो, (4) पुजारी को सरकारी
नौकर होना चाहिए, जिसके ऊपर नैतिकता, आस्था तथा पूजा के मामलों में अनुशासनात्मक
कार्यवाही की जा सके। इसके अलावा उस पर नागरिक कानून भी लागू होने चाहिए, और (5)
पुजारियों की संख्या को कानून द्वारा आवश्यकतानुसार सीमित किया जाना चाहिए, जैसा
आई. सी. एस के पदों की संख्या के बारे में किया जाता है।”30यहाँ पर बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर के ये विचार बहुत ही
प्रासंगिक और आधुनिक लगते हैं कि जब हम वैज्ञानिक युग में प्रवेश कर चुके हैं तो
हमारे विचार भी आधुनिक होने चाहिए, किसी को ‘मुक्त का मालिक’न बनाया जाए, इससे एक
तरफ पुश्तैनीपन से मुक्ति मिलेगी और दूसरी तरफ किसी भी संस्था का संचालन सुचारू
रूप से होगा ।
6. धार्मिक
ग्रन्थों का प्रतिरोध: दलित कविता -
दलित समाज से आए दलित कवियों और आलोचकों ने समाज के उन्हीं
पाखंडों का विरोध किया है जिसने उनका शोषण किया। उन्होंने उसी साहित्य को दरकिनार
करने की वकालत की जिसे ‘साहित्य का दर्पण’ तो कहा गया लेकिन उस दर्पण में एकांकी
दृष्टि ही दिखी। इसलिए भारतीय समाज में सदियों से व्याप्त, धार्मिक, राजनीतिक
पाखंड से मुक्ति के लिए इन लेखकों ने जंग छेड़ दी क्योंकि उसी में समाज की भलाई है।
इसलिए समाज में अनैतिक भ्रम फैलाने वाले विचारों और ग्रंथों से बचने की अपील भी
करते हैं। रूसों के विचारों को तुलसीराम ने लिखा है कि “प्लेटो के दार्शनिक राज्य
में कवियों-कलाकारों की आवश्यकता इसलिए नहीं थी, क्योंकि वे समाज में अनैतिक
प्रभाव डालते थे, क्योंकि वे अतिरंजना करते थे, क्योंकि वे यथार्थ से दूर रहते हुए
मिथक फैलातें थे। वह कविता को काल्पनिक तथा धूर्ततापूर्ण झूठ मानता था। प्लेटो की
बात आधुनिक साहित्य पर शत-प्रतिशत भले ही लागू न हो, किन्तु प्राचीन भारतीय
साहित्य पर अवश्य लागू होती है।”31किसी देश का
साहित्य समाज की स्थिति को सदियों-सदियों तक जीवित रखता है। इसलिए अनैतिक और
भ्रमित करने वाले ग्रंथों से बचने में ही भलाई है। शायद इसीलिए प्लेटो ने
तत्कालीन कवियों की अवहेलना की थी। दलित
साहित्य के विषय में भी एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि मिथक और अंधविश्वास को जड़ से
उखाड़ना चाहता है। इसलिए वह निरन्तर उसी पर प्रहार करता है।
यह बात किसी से छिपी नहीं हैं कि समाज में असमानता ज्यादा
से ज्यादा अनैतिक ग्रंथों से ही फैली है। शायद प्लेटो के समय में यही मिथकीय काव्य
ग्रीस में विद्यमान रहे होंगे। जिसका वर्णन तुलसीराम ने इस प्रकार किया है कि
“समस्त वैदिक साहित्य, जिसमें महाभारत, रामायण, गीता, पुराण शामिल हैं, प्लेटो की
कसौटी पर एकदम खरे उतरते हैं। इन सभी ग्रंथों में तथाकथित कलापूर्ण कविताओं के
माध्यम से वर्ण-व्यवस्था को न्यायोचित ठहराते हुए अप्रतिम अत्याचार जारी रखने की
ठोस नींव डाली गई है, जिसका शिकार सदियों से दलित होते चले आ रहे हैं। जाहिर है ये
मिथकीय काव्यग्रंथ मानव में और कुछ पैदा करे या न करे वर्ण-व्यवस्थात्मक-मनोविकार
अवश्य पैदा करते हैं। उस समय मिथकीय काव्य ग्रीस में भी विद्यमान थे।”32
परन्तु दलित रचनाकार दुनिया की तस्वीर बदलने के लिए लिख
रहे हैं, जिसे काली चरण ‘स्नेही’ द्वारा लिखित इस पक्तियों से समझ सकते हैं-
“आ उतरे लै लेखनी, लिखने को जगपीर।
बदलेंगे हम एक दिन, दुनिया की तस्वीर।”33
साहित्य पर
समाज का शत-प्रतिशत असर पड़ता है इसलिए सदियों से समाज में उपेक्षित वर्ग ने लेखन
को अपना हथियार बनाया है। जिससे समाज में जन जागृति फैली। इससे किसी को ऐतराज नहीं
होना चाहिए। इस सन्दर्भ में मोहनदास नैमिशराय की यह कविता प्रासंगिक है कि-
“ईश्वर की मौत
उस दिन होती है
जब बनता है कोई मंदिर य मठ
जहाँ बैठता है कोई
ठग,
लुटेरा,
गुमराह करने वाला।”34
यह भी सत्य है कि धर्म के आड़ में ईश्वर का भय दिखाकर
लगातार मनुष्य का शोषण होता रहा, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता । एक तो
मनुष्य-मनुष्य में अंतर दूसरा मोक्ष की आड़ में सामान्य से सामान्य मनुष्य के साथ
धोखा होता रहा है। जिसको मलखान सिंह रचित इस कविता के माध्यम से बड़ी आसानी से समझ
सकते हैं कि-
“ओ परमेश्वर !
कितनी पशुता से रौंदा है हमें
तेरे इतिहास ने।
देख, हमारे चेहरों को देख
भूख की मार के निशान
साफ दिखाई देंगे तुझे।”35
दलित कविताओं में परम्परागत
धार्मिक ग्रंथों के प्रति विद्रोह और आक्रोश की भावना क्यों दिखाई पड़ती है? इसे
प्रसिद्ध दलित कवि मलखान सिंह की ये पक्तियां स्पष्ट रूप में व्यक्त कर रही हैं कि
अगर श्रमशील समाजआज भी भूख और प्यास के अभाव में जीवन यापन कर रहा है तो उसे
परमेश्वर क्यों नहीं देखता? जबकि यह
उसके चेहरों पर साफ-साफ दिखाई देती है।
7. साहित्य और राजनीति का गहरा सम्बन्ध –
21वीं सदी का यह दौर ज्ञान-विज्ञान का है। जहाँ चीजों को
देखने और समझने का नजरिया बदल गया है। एक समय जिस किसी भी चीज को मनुष्य सपने में
देखा करता था। साहित्य का रूप समय-समय पर युगानुरूप बदला है। इसलिए हिन्दी साहित्य
के आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक काल, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद आदि के
स्वरूप में परिवर्तन दिखाई देता है। अब
यहाँ यह भी सच है कि इन कालों की प्रवृत्तियाँ कभी भी समान नहीं रही है। बल्कि इन
सब ने अपने समयानुरूप और युगानुरूप समाज का चित्रण किया है।
बीसवीं सदी के आठवें दशक में हिन्दी साहित्य के समृद्ध
होने के बावजूद इन्हीं रूपों और आकारों में सेंध लगाते हुए दलित साहित्य का बड़े ही
तीव्रता के साथ आगाज होता है। जिसने पूरे साहित्यिक जगत की दशा और दिशा बदल दी।
दलित साहित्य के विकास में अब तक कई गोष्ठियां और पत्र-पत्रिकाओं का आगमन हो चुका
था। जिसने दलित साहित्य का पथ-प्रदर्शन करते हुए इसको दिशा प्रदान की।इस प्रकार
साहित्यिक जगत में परम्परागत साहित्य से इतर साहित्य का युग परिवेश के अनुसार
निर्माण हुआ। जिसमें ‘निर्माता और भुक्तभोगी दोनों ही रचनाकार हैं एवं उनके द्वारा
लिखित रचना ही ‘आलोचना है’, इसका मतलब यह है कि ‘प्रत्येक कविता एक यथार्थ है
जिसमें जीवन का सत्य मौजूद है’। जिसने भी इस यथार्थ को लिखा उनकी आँखें डब-डबाई और
साथ ही उन्हें आश्चर्य हुआ कि राजनीति के तहत सदियों से उनके हक़ और हकूक को हड़पकर
उन्हें दर किनार कर दिया जाता रहा। जबकि वैदिक-काल में भी ‘सुदास’ शूद्र राजा की
चर्चा आती है। जिसका उल्लेख हरिनारायण ठाकुर ने इस प्रकार किया है कि “वैदिक काल
में राजा जानश्रुति, सुदास आदि शूद्र राजाओं की चर्चा आती हैं। काशी में डोम राजा
का मिथक प्रचलित है। प्राचीन भारत में नन्द, मौर्य आदि राजवंशों को भी शूद्र
राजवंश ही कहा जाता है। इसके बावजूद इतिहास-पुराण में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता,
जिसमें अछूत कही जानेवाली दलित जातियों का कोई राजवंश हो।”36 इसलिए दलित
समाज से निकले साहित्यकारों ने बेझिझक अपनी सदियों की पीड़ा को अभिव्यक्त किया।
जिस प्रकार
समाज में दलितों को उपेक्षित किया था ठीक उसी प्रकार साहित्य और राजनीति से भी।
जबकि सर्वविदित है कि साहित्य और राजनीति का गहरा सम्बन्ध है। साहित्य किसी भी दौर
का रहा हो वह राजनीति विहीन नहीं रहा है। इस विषय में ओमप्रकाश वाल्मीकि की यह
युक्ति प्रसांगिक लगती है कि-“साहित्य और राजनीति का गहरा सम्बन्ध है। कोई भी
साहित्यिक आन्दोलन राजनीतिक आन्दोलन की भूमिका बनता है। हिन्दी समीक्षक उस साहित्य
में भी राजनीतिक प्रभाव ढूँढ़ लेते हैं, जो पूर्णरूपेण पलायनवादी और श्रृंगारिक
रोमैंटिक होता है।”37
आधुनिक काल
में दलित समाज का प्रवेश सबसे सशक्त रूप में डॉ. आंबेडकर के बाद होता है। जिसकी
सबसे पहले शुरूआत 1923 में महाराष्ट्र विधान परिषद से होती है। जिसमें एक विधान
पारित हुआ था कि सभी सर्वजनिक सुविधाओं पर सबका समान अधिकार है। जबकि सर्वविदित है
कि यह दौर ब्रिटिश हुकूमत का था। इस देश में ब्रिटिश कानून का पालन होता था। देश
के कोने-कोने से आजादी की गूँज उठ रही थी। परन्तु दलित मुक्ति की तरफ किसी का
ध्यान नहीं था। दलित-मुक्ति की बात करना इसलिए भी आवश्यक है कि क्योंकि उसने
सदियों से हिकारत भरी जिन्दगी जी थी।
ब्रिटिश शासन
के दौरान थोड़ा सा उनके जीवन में सुधार आया था। परन्तु अभी उनका जीवन शोषण मुक्त
नहीं हुआ था। इसलिए किसी को उनकी चिंता नहीं थी। अब यह प्रश्न समझने की आवश्यकता
है कि दलित प्रश्न पर लोगों का ध्यान कैसे गया? इसका उल्लेख कँवल भारती ने इस
प्रकार किया है कि “यहाँ बात यह समझने की है कि जो स्वतंत्रता संग्राम लड़ा जा रहा
था, उसके केंद्र में दलित-मुक्ति का प्रश्न नहीं था। दूसरी बात यह समझने की है कि
राजनीति में दलित प्रश्न किस तरह शामिल हुआ? प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटिश
सरकार ने 1919 के अधिनियम में संवैधानिक सुधार करने के लिए विचार किया। कांग्रेस
और हिन्दू नेताओं ने मुसलमान के पृथक राजनैतिक अधिकारों तथा हितों को स्वीकार कर
लिया था। इस समझौते में यह चिंता नहीं की गई कि दलित वर्गों के भी कुछ हित हैं और
उन्हें भी राजनैतिक अधिकार मिलने चाहिए। यह स्थिति दलित वर्ग के लिए चिंता जनक
थी।”38दलितों की तरफ लोगों का ध्यान तब ज्यादा गया जब डॉ.
अम्बेडकर ने दलितों के लिए अलग निर्वाचन की मांग की। अलग निर्वाचन की मांग पर
साइमन कमीशन की रिपोर्ट आते ही तत्कालीन राजनीतिक पार्टी कांग्रेस और हिन्दू सभा
ने जमकर विरोध किया। परन्तु डॉ. अम्बेडकर अपने मांग पर अड़े रहे, तब गांधीजी के
अनिश्चितकालीन हड़ताल के चलते उन्हें झुकना पड़ा। जिसे ‘पूना-पैक्ट’ के नाम से जाना
जाता है जो 1932 ई० में हुआ था। इस प्रकार गांधीजी अपने षड्यंत्र में सफल हो जाते
हैं और समाज का बहुत बड़ा हिस्सा फिर उसी परम्परागत वर्णवादी व्यवस्था का शिकार हो
जाता है।
अब उन्हें हिन्दू राज के ख़तरे का आभास हो गया था। जिस
चिंता को डॉ. अम्बेडकर ने इस प्रकार व्यक्त किया है कि “अछूतों को डर है कि भारत
की स्वतंत्रता हिन्दू राज्य स्थापित करेगी औरअछूतों के लिए दरवाजे बंद हो जाएंगे।
सदैव के लिए उनके जीवन की सभी आशाएं, स्वतंत्रता और उनकी खुशियों के स्रोत बंद हो
जाएंगे तथा केवल लकड़ी चीरने वाले और पानी खींचने वाले ही बना दिए जाएंगे।”39 यह बात
सुनने में थोड़ा असहज जरूर लग सकती है लेकिन चिंता जायज है।
दलित साहित्य में अगर किसी राजनीतिक व्यक्ति का प्रभाव
ज्यादा दिखाई देता है, तो वह डॉ. अम्बेडकर का। डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर के जीवन पर
सबसे अधिक साहित्यिक लेखन मिलता है। ‘भीमचरित
मानस’-लक्ष्मी नारायण सुधाकर, ‘भीमसागर’- बाबूलाल
सुमन, ‘अम्बेडकरमहाकाव्य’ -जवाहर लाल
व्यग्र ‘कौल’, ‘मसीहा दलितों का’- राजवैध
माता प्रसाद, गोरखनाथ करूणा कृत आल्हा छंद में ‘भीमसागर’, ‘भीमशतक’-माताप्रसाद
आदि के जीवन पर काव्यों और महाकाव्यों तक रचना हुई है। डॉ. अम्बेडकर के प्रभाव में
जहाँ दलित लेखक उन्हें विविध रूपों में लिख रहे थे वहीं पं. धर्मदेव मार्तंड जैसे
कवि संस्कृत श्लोकों के माध्यम से उनका चित्रण कर रहे थे। जिसका उल्लेख ‘माता
प्रसाद’ ने इस प्रकार किया है कि-
“पदं महोच्चं विधि मन्त्रिण य:
सभा जयन भारत संविधाने।
चकार कार्य: सकले : प्रशस्यं-
स्तुत्यों विधिज्ञाग्रणिभीमराब:।।
जिन्होंने
भारत के विधि-मंत्री के अत्यंत उच्च पद को सुशोभित करते हुए, भारत का
संविधान बनाने में सबके द्वारा प्रशंसनीय कार्य को कर दिखाया, ऐसे विधि-शास्त्र को
जानने वालों में अग्रगण्य डॉ. भीमराव स्तुति योग्य हैं।”40यह बाबा
साहब का तत्कालीन समाज में पड़ रहे प्रभाव का असर था कि उनके जीवन से प्रभावित होकर
लेखक हिन्दी और संस्कृत में स्तुति करने लगे।
डॉ. एन. सिंह
ने तो ‘दृष्टिपथ के पड़ाव’ नामक पुस्तक में ‘आग और पानी’ राजवैद्य माताप्रसाद सागर की पुस्तक में राजनीति के
विभिन्न रूपों को सर्गों के माध्यम सेव्यक्त करने के तरीकों को इस प्रकार व्यक्त
किया है कि “माताप्रसाद जी ने अपनी इस कृति को सात सर्गों में प्रस्तुत किया है।
पहले सर्ग में विभिन्न राजनीतिक वादों पर जानकारी दी गई है। इसमें लोकतंत्र,
धर्मनिरपेक्षता, गांधीवाद, कम्युनिज्म, सोशलिज्म, मार्क्सवाद, फासीवाद, नाजीवाद,
पूंजीवाद, अधिनायकवाद, नक्सलवाद, हिन्दूवाद तथा अम्बेडकरवाद पर दोहे हैं। यहाँ यह
देखना रोचक होगा कि वे हिन्दूवाद और अम्बेडकरवाद के विषय में क्या सोचते हैं।
हिन्दूवाद के विषय में वे लिखते हैं-
“वर्ण जाति के नाम पर, चले मनुस्मृति राज।
हिन्दू धर्म हो, अन्य न, सत्ता धर्महिं काज।।”41
वर्ण और जाति आधारित समाज ने मनुष्य-मनुष्य के बीच जबरजस्त
खाई पैदा कर दी है। परन्तु बाबा साहब के सशक्त विचारों के माध्यम से, दलित
साहित्यकार अनेक साहित्यिक और राजनीतिक संगठन के माध्यम से समानता का प्रसार कर
रहे हैं।जिन पर डॉ. अम्बेडकर के इन विचारों का प्रभाव अधिक है। “मैं अशक्त, मैं
अज्ञानी हूँ, कम पढ़ा-लिखा हूँ, मेरे हाथ से क्या होने वाला है, मैं किसलिए इस झंझट
में पडूं ऐसा सोचकर निराश मत होना। आज तुम्हें जो अवगत है वह तुम अपने अड़ोसी-पड़ोसी
को बताओ जो सत्य तुम्हें दिखता है उसे अपनी भावी पीढ़ी को दिखाओं, पूर्वजों के जिन
पागलपंथी, धार्मिक सामाजिक रूढ़ियों की वजह से तुम लोग पतन के स्तर पर जा पहुँचें
इससे उठकर ऊपर जाओ। अगर वह तुमसे नहीं जगा तो कम-से-कम अपनी पीढ़ी को अज्ञान और
संकुचित विचारों से और व्यवहार से चलता रहे अनिष्ट जाति बंधन से उसे छुड़ाओ। चावल
सुपारी के काल्पनिक देवताओं का समाधान हो जायेगा, परन्तु हमारा नहीं अर्थात देवों
की तृप्ति यह भोले लोगों को लूटने का मार्ग है। इसलिए सत्ता हासिल करो।”42
अस्सी का दशक आजाद भारत का था जिसमें लोकतंत्र ने सबको
समान अवसर प्रदान किया है, लेकिन आशा के अनुरूप कुछ नहीं मिला जो मिला वह केवल
संविधान के वजह से मिला। अगर समानता के लिए इस देश में संविधान का निर्माण नहीं
हुआ होता तो यह आजादी शत-प्रतिशत झूठी लगती। बावजूद इसके भी डॉ. अम्बेडकर के बाद
दलित समाज से कोई भी ऐसा नेता नहीं निकला की जिसका एजेंडा बाबा साहब की तरह मजबूत
हो। वह लगातार किसी न किसी पार्टी के द्वारा ठगा जा रहा है। जिसका वर्णन
‘हरिनारायण ठाकुर’ ने इस प्रकार किया है कि “श्री वी.पी मौर्य ने स्वीकार किया है
कि राजनीतिक दलों में सच्चे नेताओं की कोई कदर नहीं। चाहे लोकदल, कांग्रेस हो या
कम्युनिष्ट पार्टियाँ। जब भी ये सुरक्षित टिकट से सीट देती हैं तो यह जरूर देखती
हैं, कि आदमी उनके इशारे पर नाचने वाला है कि नहीं।”43 इशारे पर
नाचने वाले व्यक्ति से सामाजिक परिवर्तन की आशा करना व्यर्थ है। वह केवल मोहरा
होता है जिसे कोई और संचालित करता है। फिर भी परिस्थिति कोई भी हो आशा और उम्मीद
के साथ संघर्ष ही हमारे परिवर्तन की राह है। जिसे श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की इस
कविता से समझ सकते हैं कि-
“नौजवां नया जहाँ बनायेंगे-बनायेंगे।
जात-पात का तनाव।
ऊँच-नीच का भेदभाव।
पेट में सवाल का।
जो दे नहीं सके जवाब।।
ऐसे रहनुमाई को हटायेंगे-हटायेंगे।।
पी गये थे आँसुओं के साथ रात।
कह नहीं सके थे दिल की बात रात।।
हम सुबह के वास्ते ही आये हैं।
हम सुबह जरूर लेके जायेंगे।।”44
दलितों की
राजनीतिक चेतना का विकास क्रम कुछ इस प्रकार है। डॉ. अम्बेडकर से लेकर बाबू जगजीवन
राम, बुद्ध प्रिय मौर्य, मान्यवर कांशीराम, डॉ. के. आर नारायण, माता प्रसाद,
बंगारू लक्ष्मण, बहन कुमारी मायावती, मीराकुमार, रामविलास पासवान, चन्द्रशेखर रावण
और जिग्नेश मेवाणी आदि अनेक नाम लिए जा सकते हैं जिनसे सर्व समाज परिचित है।
समकालीन समाज में दलित राजनीति और साहित्य ने परिवर्तन अवश्य किया है लेकिन यह भी
सच है कि कुर्सी के लालच में कुछ दलित नेता भी ब्राह्मणवाद के जाल में समय-समय फँस
जाते हैं। जिसका सबसे बढ़िया उदाहरण ‘मलखान सिंह’ की यह कविता है-
“उफ़! कैसा यह ताँता है
कि हमारी बस्ती का
जो भी चतुर सुजान
नगर को जाता है
डूबता है दल-दल में
जंगल के बीचों-बीच
एक नया ताड़ वृक्ष
और उग जाता है।”45
जहाँ एक तरफ
दलितों की राजनीतिक भागीदारी बढ़ रही है वहीं दूसरी तरफ दलित समाज से निकला चतुर व्यक्ति
भी उन पाखंडियों की जाल में अक्सर फंस जाता है। जिसे लेखक ने ताड़ वृक्ष कहा है।
निष्कर्ष-
दलित साहित्य ने साहित्य को नया मोड़ दिया जो समाज सदियों
से झूठ और काल्पनिक दुनिया में डूबा रहा। उससे इतर दलित साहित्य पहले समाज में
व्याप्त जातिवाद, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक असमानता के यथार्थ को समाज सम्मुख
लाता और फिर लोकतांत्रिक समाज का समर्थन करते हुए नए समाज का निर्माण करता है।
परन्तु दलित साहित्यकार जहाँ समाज को जातिमुक्त बनाना चाहता है। वहाँ वह भी कई
उप-जातियों में बँटा है, जिससे दलित आन्दोलन कमजोर होता है।
जिस प्रकार समाज में व्याप्त जातिवाद और पाखंड का विरोध
दलित कविताओं में दिखाई देता है, उतना ही तीव्र विरोध आर्थिक-शोषण को लेकर दिखाई
देता है। परन्तु इस विषय में और गंभीरता से सोचने की जरूरत है क्योंकि दलित समाज
ने आर्थिक अभाव में ‘गोबरहा’ अनाज खाकर जीवन यापन किया है। धर्म के विषय में यही
कहा जा सकता है कि ब्राह्मणवादी समाज ने इसका इस्तेमाल दलित शोषण के लिए अधिक किया
है। इसलिए इससे धर्म-मुक्त समाज की कल्पना दलित समाज करता है।
दलित समाज में
पिछड़ेपन का एक कारण यह भी है कि वह व्यक्ति जो समाज को बड़े-बड़े सपने दिखाकर
राजनीतिक ताकत हासिल करता है वह भी स्वार्थ में डूब जाता है। अंततः यही कहा जा
सकता है अनेक सहमतियों और असहमतियों के बावजूद दलित साहित्य का भविष्य उज्जवल है
क्योंकि इसने समाज और साहित्य को नई दिशा प्रदान की है।
सन्दर्भ –
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7.माता प्रसाद, हिन्दी काव्य में दलित काव्यधारा,
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2014, पृ. सं. 76
20.कँवल भारती, तब तुम्हारी निष्ठा क्या
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खण्ड 6,सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय भारत
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साहित्य उपक्रम प्रकाशन, दिल्ली, पुनर्मुद्रण- फरवरी,
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2018, पृ. सं. 308
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31. धर्मवीर यादव गगन (संपा),बहुजन वैचारिकी,
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33. प्रो. कालीचरण स्नेही, दलित विमर्श और हिन्दी दलित काव्य,ज्ञान विज्ञानसंस्थान, हापुड़, दिल्ली,
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35. मलखान सिंह, ज्वालामुखी के मुहाने,
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36. हरिनारायण ठाकुर, दलित साहित्य का समाजशास्त्र, भारतीय ज्ञानपीठप्रकाशन, तीसरा
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भूमिका, साहित्य उपक्रम प्रकाशन, पुनर्मुद्रण, फरवरी,2012, पृ. सं. 75
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41.डॉ. एन. सिंह, दृष्टिपथ के पड़ाव, आकाश पब्लिशर्स एण्ड
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42.हुकुम चन्द भास्कर, दलित राजनीति के
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43.डॉ. एन. सिंह, दलित साहित्य के मान
और प्रतिमान, वाणी प्रकाशन-नयी दिल्ली, आवृत्ति-2014, पृ. सं. 249
44. कँवल भारती, दलित कविता का संघर्ष,
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अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021
चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue
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