शोध : फ़िल्म 'शूद्र द राइजिंग' : शूद्र उत्पीड़न की महागाथा / डॉ. अनिल कुमार

         फ़िल्म 'शूद्र द राइजिंग' : शूद्र उत्पीड़न की महागाथा / डॉ. अनिल कुमार


"मा निषाद ! प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती: समाः।

यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्।।"[i]

       


    '
हे निषाद
तुम अनंत वर्षों तक प्रतिष्ठा प्राप्त न कर सको, क्योंकि तुमने क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से कामभावना से ग्रस्त एक का वध कर डाला है संस्कृति के आदिकवि बाल्मीकि ने इस श्लोक में मिथुनरत एक क्रौंच के जोड़े का वध करने वाले बहेलिये को शाप दे दिया कि वह कभी भी सामाजिक प्रतिष्ठा को प्राप्त न कर सके। आलोचकों ने यह व्याख्या दी कि आदि कवि बाल्मीकि के हृदय में करुणा उत्पन्न हुयी जो श्लोक रूप में प्रस्फुटित हुई। पर क्या इस श्लोक का अर्थ यहीं तक आकर सिमट जाता है? दरअसल इसका अर्थ परंपरागत अर्थ के बाद शुरू होता है। जिस बहेलिये ने पक्षी को मारा था वह भूख और गरीबी से लड़ रहा था, उस समय की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था ने एक बड़ी जाति और समाज विशेष के प्रति भेदभाव किया था।


    आश्रमों में रहने वाले ऋषि-मुनि एक संस्था जैसी हुआ करते थे। क्यों बाल्मीकि को बहेलिये और उसके परिवार की सामाजिक और आर्थिक हालात को देखकर करुणा नहीं जागी? यदि इतने ही करुणार्द्र थे तो पूरे अछूत, पतित, आदिवासी और वंचित समाज के जीवन को देखते और समकालीन राजनीति से यह गुजारिश करते कि वह इनके जीवन को सुधारने का यत्न करे, न कि शाप देकर शासन सत्ता के द्वारा उसका बहिष्कार किया जाए। ऋषि या संत के अनुसार राजा चलता था इसलिए शाप ही न माना जाए उसे राजसत्ता के द्वारा बहिष्कार के रूप में देखा जाना चाहिए। जिसका बड़ा प्रतिफलन यह हुआ कि उस निषाद की पूरी जमात आज भी अछूत और सामाजिक बहिष्कार झेलती चली आ रही है। लोकमंगल की स्थापना करने वाले तुलसीदास ने लिखा-"जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।।"[ii] इसी तरह 'पारधी' जनजाति आज भी छत्तीसगढ़ में पायी जाती है जो शिकार करके अपना जीवन यापन करती है, सूरदास ने लिखा है-"अब कै राखि लेहु भगवान। हौं अनाथ बैठ्यौ द्रुम-डरिया, पारधि साधे बान।"[iii] यह पारधी उसी बहेलिये जाति से सम्बन्ध रखती है जिसे समय-समय पर हेय दृष्टि से देखा गया। किसी ने इसकी सामाजिक स्थिति पर प्रकाश नहीं डाला है। तेली, कुम्हार, किरात और कलार आदि जातियाँ निकृष्ट कार्य करने के चलते अधम-वर्ण की मानी गयी थीं। इतिहास, जिसमें भूख, गरीबी, सामाजिक प्रताड़ना, हत्या, बलात्कार, जातीय-वर्चस्व और सामंती उत्पीड़न का उल्लेख मिलता है वह मुख्यतः धर्म प्रायोजित रहा है।


    संजीव जायसवाल के निर्देशन में बनी फिल्म 'शूद्र द राइजिंग' अपने अतीत के इतिहास को बखूबी परदे पर उकेरती है। हजारों सालों की असहनीय गुलामी के साए में जीता हुआ भारत का अछूत, जिसे यहाँ की वर्णवादी व्यवस्था में 'शूद्र' का दर्जा दिया गया है, को उसकी दर्दनाक दास्तान के साथ अंकित करती है। लगभग पाँच हजार साल की लम्बी गुलामी के उपरान्त शूद्रों के मसीहा के रूप में भारतीय भौगोलिक स्थिति में पश्चिम से एक सूरज निकला, जिसने इनके जीवन को बदल डाला। डॉ० अम्बेडकर की सोच, समाज को समान दृष्टि से देखने की थी, वे कहते थे कि-"यदि आप मुझसे पूछें तो मेरा आदर्श समाज समानता, स्वतंत्रता और बंधुभाव के आधार पर बनेगा।"[iv] हनुमान सिंह ने हालाँकि इस किताब के माध्यम से अम्बेडकर जी का संघीकरण करने की चेष्टा की है।


    मनुस्मृति कहती है-"न शूद्राय मतिं दद्यान्नोच्छिष्टं न हविष्कृतम्। न चास्योपदिशेद्धर्मं न चास्य व्रतमादिशेत्॥" अर्थात शूद्र को किसी प्रकार की सलाह, यज्ञ होम की बची सामग्री, धर्म का उपदेश तथा किसी प्रकार के व्रत का अनुष्ठान करने का निर्देश नहीं देना चाहिए (अगर शूद्र को किसी तरह का प्रायश्चित करने के लिए बताना है तो यह कार्य ब्राह्मण द्वारा होना चाहिए)।"[v] ऐसे में संविधान के निर्माण के समय बहुत सारे धार्मिक संगठन के संतों ने जातीय गालियाँ देते हुए संविधान और अम्बेडकर जी का अपमान किया, कारण यह था कि वंचित और दलित समाज के अधिकारों की बात उसमें की गयी है जिससे मनुस्मृति के उद्देश्यों पर पानी फिर जाता है।


    "भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय एक ओर जहाँ गाँधीजी एवं अन्य राजनेता, राजनैतिक गुलामी से मुक्त होना चाहते थे वहीं भीमराव आंबेडकर अपने समाज को सामाजिक व्यवस्था की जकड़बंदी से मुक्त कराने के लिए आन्दोलनरत थे।"[vi] यह महज एक संयोग ही कहा जाएगा कि जिस महाराष्ट्र की धरती से शूद्रों के गले में हाँडी और कमर में झाडू बाँधने का रिवाज पेशवा ब्राह्मण राज्य ने दी थी-"अंत्यजों यानी वर्ण-व्यवस्था से बाहर माने गए 'अस्पृश्यों' के साथ जो व्यवहार प्राचीन भारत में होता था, वही व्यवहार पेशवा शासकों ने महारों के साथ किया। इतिहासकारों ने कई जगहों पर ब्यौरे दिए हैं कि नगर में प्रवेश करते वक़्त महारों को अपनी कमर में एक झाड़ू बाँधकर चलना होता था ताकि उनके 'प्रदूषित और अपवित्र' पैरों के निशान उनके पीछे घिसटते इस झाड़ू से मिटते चले जाएँ। उन्हें अपने गले में एक बरतन भी लटकाना होता था ताकि वो उसमें थूक सकें और उनके थूक से कोई सवर्ण 'प्रदूषित और अपवित्र' न हो जाए। वो सवर्णों के कुएँ या पोखर से पानी निकालने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे।"[vii] उसी की क्रोड़ से उनको मुक्ति दिलाने के लिए भीमराव आंबेडकर का उदय हुआ। यह महज एक फिल्म नहीं दलितों, अछूतों के ऊपर बीती हुई "सामंतवादी"[viii] सामाजिक व्यवस्था की कहर का एक महाकाव्य है।


    फिल्म की शुरूआत में सूत्रधार ने यह साफ़ संकेतित कर दिया है कि मनु महाराज की संहिता में इन्हें शूद्र घोषित किया गया है-"एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत। एतेषामेव वर्णानां शुश्रुषामनसूयया।।"[ix] ब्रह्मा जी ने शूद्र वर्ण के लिए एक ही कर्त्तव्य बताया है। यह कर्त्तव्य है ईर्ष्या तथा द्वेष से परे रहते हुए तीनों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) की सेवा करना। ब्राह्मण का धर्म है शिक्षा देना, क्षत्रिय का धर्म है राज करना, वणिक वर्ग का काम है व्यापार करना और इन तीनों की सेवा शूद्र करेगा। भारत में यह विधान बहुत गहरे तक धँसा हुआ है।" मनु महाराज के संविधान में शूद्रों के कान में वेदों के एक भी अक्षर का उच्चारण पड़ जाय तो पिघला हुआ शीशा डाल देने का विधान था।"[x] इस फिल्म में 'चन्ना' नामक बच्चे के मुख से 'ॐ नमः शिवाय' का मन्त्र सुन ब्राह्मण पुरोहित आक्रोशित हो उठता है और गाँव में अकाल और विपदा का ढोंग करके पंचायत में उसे दण्डित करता है, छोटे से बालक की जिह्वा को कटवा देता है। कबीरदास ने इसी पाखंडवाद के ऊपर प्रहार करते हुए कहा है-"पंडिया कवन कुमति तुम लागे"[xi]


    कुटिलता और चालाकी ब्राह्मण पुरोहितों के भीतर शुरू से समायी रही है, इन्होंने भारत के राजाओं पर शासन किया था। आर्यावर्त के राजा क्षत्रिय ही हुआ करते थे, जिनके द्वारा समाज नियंत्रण में रहा करता था। दूसरे की बहू-बेटियाँ की 'नथ उतारना'[xii], बंधुआ गुलामी कराना, किसी को भी जुर्म के आरोप में दंडित कर देना, यह राजाओं के कार्य हुआ करते थे। फिल्म में ठाकुर की निगाह चरना की नयी-नवेली बहू पर पड़ती है और उसे ठाकुर के घर भेजने का फरमान जारी करता है। चरना स्वयं को और अपनी जाति को कोसते हुए सारी कायनात को बनाने वाले से गुहार लगाता है कि-"तूने तो दुनिया बनायी थी दाता, हमार घर बचाय लेव।"


    हीराडोम की 'अछूत की शिकायत' में इसी तरह की गुहार थी, "हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी/हमनी के सहेब से मिनती सुनाइबि/हमनी के दुख भगवानओं न देखता ते/ हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।"[xiii] एक पुरुष जहाँ उसी भाग्यवाद के सहारे बचने की निरर्थक कोशिश करता है, वहीं स्त्रियाँ अधिक मुखर दिखाई गयीं है। चरना की पत्नी संदली कहती है-"दाता! दाता कुछ नहीं करेगा। अब हमें ही कुछ करना होगा, न रहेंगे हम और न रहेगा ई हमार शरीर" हालाँकि वह खुद आत्महत्या को उद्धत होती है, किन्तु इसके अलावा उसके पास रास्ता ही क्या होता है। इसी तरह की प्रतिक्रिया स्वरूप फूलन देवी को हथियार उठाने पर विवश होना पड़ा था। हिन्दू-धर्म जिस दर्प में जीता है-"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला:क्रियाः।।"[xiv] क्या इसी तरह नारी की पूजा होती है? या फिर वे नारियाँ और हैं जिनका पूजन देवों के द्वारा होता है। दलितों की स्त्रियों को ठाकुरों की हवश का शिकार बना देना और ब्राह्मण ग्रंथों द्वारा उसका महिमा-मंडन करना क्या यह धार्मिक दोगला पंथी नहीं कही जायेगी? विवश होकर पहली बार प्रतिरोध का स्वर चरना का उठता है-"मालिक हमका मार देव, उका छोड़ देव मालिक, ऊ पेट से है मालिक, मर जायेगी।" किन्तु साहब का फरमान आखिरी होता है। ठाकुर का चमचा कहता है-"फैसला स्वामी करते हैं, सेवक नहीं, हम सेवक हैं।" गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा-"सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरी उरगारि" क्या इसी तरह की सेवा से इस भव-सागर से पार होने की बात तुलसीदास करते हैं? चरना-"मर जायेंगे मालिक मुदा ओका जाने नहीं देंगे, मालिक।" इतना कुछ होने के बावजूद ठाकुरों के लठैतों के द्वारा चरना को मौत के घाट उतार दिया जाता है और संदली का बलात्कार ठाकुर के द्वारा होता है।


    चरना की मौत ठाकुर के गुंडों की पिटाई से हो जाती है, बूढ़े पिता की करुण चीत्कार से सदियाँ रो उठी हैं-"कैसे उठी, उसे छोड़ा ही नहीं है उठे लायक। अंग-अंग टोर के धर दिहिन है सब। अरे! हम पैदा ही होते हैं मर जाने के लिए। अब चाहे ठाकुर मारे, चाहे बीमारी। हम सुदरन के भाग में पता नहीं का बदा है, पैर रगड़-रगड़ कर मरना लिखा है। पता नहीं कौन कुकरमन की सजा मिल रही है, हम लोगन का।" एक तरफ जहाँ कमर में झाडू बाँधकर चलना, परछाई से परहेज करना है दूसरी ओर संदली की विवशता में एक सच्चाई यह भी है कि-"कैसा समाज है ये, जो हमारे साए से डरता है, सोने से नहीं।" यह सामाजिक बीमारी रही है कि स्त्रियों के प्रति इन शासक जातियों की दृष्टि भोग परक रही थी। छूत-अछूत इन्होंने अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए बनाये थे। दूसरी तरफ स्त्रियों का उपभोग इनकी पौरुषता का प्रमाण हुआ करता था। चरना की मृत्यु शूद्रों के भीतर एक बवंडर ला देती है। सदियों से बुझ चुकी क्रांति की ज्वाला को भड़का देती है। बिना यह परिणाम के कि आगे क्या होगा? बदले की भावना से खौलता हुआ युवा खून ठाकुर के छोटे भाई को मारने को उद्धत हो उठता है, बद्री कहता है-"काल छोटे ठाकुर गाँव वापस आ रहे हैं", माधव-"तो, तो का?" बाला कहता है-"मार दो" इस एक मात्र शब्द "मार दो" करवट लेते हुए और क्रांति की ओर बढ़ते हुए समाज की अभिव्यक्ति है जो देर से ही सही अन्याय के खिलाफ़ उठ खड़ा हुआ था। बद्री को इससे बड़ी बेचैनी होती है, वह पलट कर कहता है-"पगलाय गये हो का...मार दो? के का मार दो! छोटे ठाकुर का? बोलत काहे नहीं!! हमका साफ़-साफ़ दिखाई देत है, चरना के चिता की आग, तू सबन की आँखन मा! जबई चिता आग ज्वालामुखी बन के फाटी न त चहुँ ओर-विनाश, विनाश होई। चहुँ ओर चितै-चिता जली-ए बाला! अरे बह जाने दे, इन चितन के आग के साथ इन अंसुअन के।"


    पीछे मुड़कर देखना कि इतिहास में कितना और कैसे भयंकर उत्पीड़न हुआ था शूद्रों का, जिससे आज भी उनके भीतर एक डर समाया रहता है, सब कुछ सह लेने की यही उनकी प्रवृत्ति क्रांति के रास्ते में बाधा बनती रही है, पर अब ऐसा नहीं है, सदियों के सोये लोग जाग उठे। युवकों की आँखों में उतरा हुआ क्रोध कई सारी बातें कह जाता है-"पगलाय हम नहीं गए माधव। ऊ लोग पगलाय गयन हैं। जौन हम लोगन का कीड़ा-माटी समझत हैं। जो समझत हैं हमरे नसन मा खून नहीं पानी दौड़त है। पगलाय गए हैं। हाँ दौड़त है पानी...अब ऊ पानी लाल होय गए है। पगलाय नहीं गए हैं माधव, होश में आ गए हैं।"


    जाग उठने का नाम है होश में आ जाना। जिसे भारतीय चिंतकों ने बार-बार जागृत करने का प्रयास किया था, कबीर के शब्दों में "क्या तू सोवे जाग दीवाना।" वह निद्रा उन युवकों ने त्याग दी थी। इसका परिणाम बड़ा भारी होने वाला था, किन्तु क्या परिणाम के डर से क्रांति के बीज फूटना बंद हो जाएँ? ऐसा नहीं हुआ है बद्री के शब्दों में-"का दोष है हमार, इहै कि जौ सूदर जाति में जन्म लिए हैं। तो का करें? अरे! जनमें हैं नीची जाति मा तो सेवा करत हैं उनकी। चाकरी करत हैं सारी जिनगी, गू उठावत हैं उनका। गन्दगी साफ़ करत हैं उनकी तब जाके माधव दो बखत की जूठन मिलत है हमें पेट पालय के लिए। पर इतना में ही उनका पूरा नहीं परत, नाहीं पेट भरत उनका। उनका बहू-बेटियाँ चाहिए हमरे घर की। अरे, हमन का ता ई हउ नहीं पता, नाहीं पता कि जउन बच्चन का हम अपने छाती से लगाए घूमत हैं, ऊ हमरी औलाद है या ऊ ठकुरन की? परिणाम की बात करत हौ मधाव, सब तुम्हारे सामने है। काल ई की बहन गई, आज ई की मेहरारू, कल की तुम्हारी बहू, परसों ऊका बेटी! का चल रहा है ई..माधव ई का है? तू चिता जरे के बात करत हौ माधव, इहाँ जौन आत्मा जर रही है उका का, उका का माधव?" यह आक्रोश उठना लाजिमी था, लोहिया ने कहा था कि जिन्दा कौमें पाँच साल का इंतजार नहीं करती हैं। समय-समय पर शूद्रों ने भारी विद्रोह किया था लेकिन पुरोहितों ने राजाओं के सहयोग से उसे या तो दबा दिया था या समूल जाति को नष्ट कर डाला था, जिसकी बानगी फिल्म पेश करती है।


    भीमराव अम्बेडकर ने 'महाड आन्दोलन' करके दलितों/शूद्रों के लिए पानी की व्यवस्था की थी वह एक क्रांतिकारी मुहीम थी। फिल्म में बद्री का बाप प्यास से दम तोड़ देता है किन्तु बद्री को सवर्णों के तालाब से दो घूँट पानी नहीं मिल पाता है,"हाय रे हमार करम, लोग ता अपना अंतिम घरी में गंगाजल पिलावत हैं, एक हम अभागा तुमका दुई घूँट पानी न पिलाय सके...देख पापियों मरि गवा हमरा बाबा, नहीं रखा अपनी छाती पर दुई घूँट पानी का उधार।अरे, तुम कहत हौ कि हम अछूत हैं?.. अरे अछूत हो तुम लोग और ई तुम्हार पानी..थू है ऐसन पानी पर जौन मनईन खातिर नाहीं बना! ई पानी न है जौन पानी मनइन के काम न आ सके ऊ पानी न आय मूत हा मूत!! फिल्मकार ने महाड़ आन्दोलन से प्रेरित होकर जिस तरह से चित्रित किया है, आज भी समाज लगभग उसी ढर्रे पर चल रहा है। स्थितियाँ बदली नहीं हैं। पानी से अब रोक कम ही सुनाई पड़ती है पर सवर्णों की आँखों का पानी आज मर चुका है। रहीमदास ने लिखा कि "रहिमन पानी राखिये बिनु पानी सब सून। पानी गये न ऊबरे मोती मानस चून।।" यह स्वाभिमान अम्बेडकर जी के अनथक परिश्रम के चलते शूद्रों को मिल सका था। एक तरफ जहाँ शूद्रों के मसीहा ने इंसान बनकर जीना सिखाया था वहीं दूसरी ओर आज के दलितों/शूद्रों के नेताओं ने अपना ईमान गिरवी रख दिया है। खुद्दारी बेच डाली है, अपनी जाति में रहना उन्हें ठीक नहीं जँचता है। मामूली सा क्लर्क, ऑफिसर, नेता का पद पाने के बाद वह समाज को भूल गया है, वह समाज को बेच चुका है, सूरजपाल चौहान की यह कविता उस सिस्टम पर प्रहार करती है, जो गुलामी की ओर पुनः समाज को धकेल रहा है-


"डोरीलाल है इसी बस्ती का,

कोटे से अफ़सर बन बैठा।

उसको इनकी क्या चिन्ता अब,

दूजों में घुसकर जा बैठा ।

बेटा पढ़कर शर्माजी, और

बेटी बनी अवस्थी है ।

ये दलितों की बस्ती है ।।"[xv]


    आज का शूद्र नेता, सवर्णों के बगल में बैठने को लालायित है, उसने ब्राह्मणियों से विवाह भी रचा लिया है उसका अपना अलग समाज बन गया है। इनका जमीर मर चुका है, वह उन्हीं के साथ बैठा हुआ है, जो सदियों से जिह्वा काटते आयें हैं, अँगूठा काटते आयें हैं, कानों में गरम शीशा पिघला कर डालते रहे हैं, बहू-बेटियाँ को नंगा घुमाया है, इज्जत लूटी है, मान-मर्यादा का मर्दन किया है। यह बेबसी आज भी दलित या शूद्र वर्ग महसूस करता है। 


    शूद्रों दवारा ठाकुर के बच्चे को क़त्ल करने के बाद जैसे सदा से होता आया है शूद्रों/अछूतों की बस्ती को जलाकर राख कर देना, एक को भी जिन्दा नहीं छोड़ना यह आम बात थी। फिल्म में भय का वातावरण इस तरह रहता है कि कत्ल-ओ-गारद में मारे गये ठाकुर करतार को देखकर शूद्र सिहर उठता है। उसने जहाँ कमर में झाडू बाँधना छोड़ दिया था, गले में हांडी लटकाना त्याग दिया था, इस घटना के बाद एक जिन्दा बचे शूद्र बच्चे और युवक ने वो सारी रवायतें सिरे से अंगीकार कर लीं थीं। एक उम्मीद की अंतिम लौ उस बच्चे में देखी जा सकती है जो लाशों के ढेर में खड़ा था। पृष्ठ में बजता हुआ यह गीत दर्द की लम्बी दास्तान कहता है-"ये ऊँच नीच किसलिए, ये भेदभाव किसलिए/ मनुष्यता की पीठ पे ये गहरा घाव किसलिए/ सड़ी सी लाश पे ये प्रश्न है लिखा हुआ/ मिलेगा न्याय कब हमें थमेगा कब ये सिलसिला।।" यह एक गीत मात्र नहीं है, यह इतिहास में शूद्रों के ऊपर हुए अत्याचार की कहानी है।यह एक दस्तावेज है, यह एक प्रश्न है जो आजतक अनुत्तरित है। हम भले ही यह दावा कर लें, कि जाति-पांति मिट गयी या मिटने वाली है निरा जल्दबाजी होगी, हकीकत यह है कि दलित/शूद्र आज भी ब्राह्मणवाद के द्वारा सताया जा रहा है। उसका दलन हो रहा है, धर्म के नाम पर, छूत-अछूत के नाम पर उसके साथ भेदभाव हो रहा है। सार्वजनिक जगहों पर से उसका तिरस्कार हो रहा है। पशुओं से गयी गुजरी हुई हालातों में जीने को अभिशप्त है। पशुओं से बदतर हालात में जीने को मजबूर शूद्र, कहीं उसकी खाल खींची जाती है तो कहीं नंगा घुमाया जाता है। कहीं बस्तियाँ फूँकी जाती है, कहीं सर कलम कर दिया जाता है। धर्म का बढ़ता तांडव दलितों/शूद्रों के ऊपर कहर बनकर टूटता है।


    संजीव जायसवाल ने निष्कर्ष में लिखते हुए दिखाया है कि-“वर्षों से पूरी दुनिया में फ़ैली हिंसा की मूलजड़ जाति व्यवस्था रही है। अपनी जाति सभ्यता को श्रेष्ठ साबित करने के लिए हिंसा और आतंकवाद का सहारा लेकर दूसरी जाति को नीचा दिखाने का षड्यंत्र मात्र है, यदि हम अब भी नहीं जागे तो न मानव बचेगा न धर्म। हम एक ही ईश्वर की संतान हैं। हम सब समान हैं, समानता की भावना ही शांति का मूल मन्त्र है। कुछ भी बदलना है तो स्वयं को बदलो, ह्रदय परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन ला सकती है।"[xvi]


    हमारे महापुरुषों अब्राहम लिंकन, मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला, फुले, पेरियार, भीमराव आंबेडकर आदि ने समय-समय पर लोगों को मानवता का पाठ पढ़ाने का कार्य किया है, उन्होंने सब को एक समान माना है, समाज में न कोई ऊँच है न नीच, इन्सान को इंसान की दृष्टि से देखा जाय। अंत में शमीम हनफी की चंद पंक्तियों के साथ कि-


मिट्टी की कच्ची हाँडी में कुछ ख़्वाब थे कुछ ताबीरें थीं।

इन्हें किसकी भूख मिटानी थी क्यों रोज उबलते रहना था।।

ये कार-ए-अबस हमने भी किया सूरज की तरह ताउम्र यहाँ।

हर शाम हमें ढल जाना था हर सुबह निकलते रहना था।।

ठोकर खाना फिर गिर जाना सब अपनी भूल के कारण हैं।

जब राह कठिन अपनाई थी हर आन सँभलते रहना था।।


संदर्भ -


[i]प्रणेता-कपिलदेव द्विवेदी आचार्य : उत्तररामचरितम : भवभूति,  रामनारायण लाल विजय कुमार प्रकाशक तथा पुस्तक विक्रेता, इलाहाबाद, संस्करण-2007. पृष्ठ संख्या-108

[ii]शिवप्रसाद भारद्वाज शास्त्री : रामचरितमानस का उत्तरकाण्ड :सटीक, अशोक प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या-10

[iv]हनुमान सिंह : राष्ट्रऋषि बाबा साहब अम्बेडकर, (आनलाईन होने के कारण पीडीऍफ़ किताब का प्रकाशन का उल्लेख नहीं है) पृष्ठ संख्या 33

[v]सुरेन्द्रनाथ सक्सेना : मनुस्मृति चतुर्थ अध्याय, श्लोक संख्या-80 : हिंदी भाष्य, मनोज पब्लिकेशन दिल्ली, सातवाँ संस्करण-2011, पृष्ठ संख्या-157  

[vi]https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=1113421112354627&id=100010602466117 साभार-कंवल भारती की फेसबुक पोस्ट से.23/05/2020, समय 7:57am (तिलक के बाद कांग्रेस की बागडोर गांधी के हाथ में आई. गांधी ने चुनावों का बहिष्कार किया। बहिष्कार इसलिए किया कि अछूतों के साथ बैठने से अच्छा है कि सवर्ण विधानसभा में ही न जाएं। उस बहिष्कार के दौरान कांग्रेस के जुलूस में लोगों के हाथों में तख्तियां होती थीं, जिनमें लिखा होता था, "विधान सभाओं में कौन जाएगा?" नीचे जवाब लिखा होता था-"नाई, चमार, कुम्हार, भंगी।" एक व्यक्ति पहली लाइन बोलता था, और उसे सुनकर पूरी भीड़ दूसरी लाइन बोलती चलती थी। यह शासक वर्ग की वह मानसिकता थी, जो दलित वर्ग की तरक़्क़ी को स्वीकार नहीं करती थी। ) 

[vii]बीबीसी हिंदी.कॉम साभार-22/05/2020, समय-8:13 am

[viii]धीरेन्द्र वर्मा : हिंदी साहित्य कोश पारिभाषिक शब्दावली भाग-1, ज्ञान मंडल लिमिटेड, वाराणसी, पुनर्मुद्रण फरवरी-2009, पृष्ठ संख्या-757 (किसान, कृषि और स्वतन्त्र उद्योगों से संयुक्त होकर ही साम्यवादी कृषि प्रणाली की सृष्टि हुई थी। गांवों में किसान उत्तराधिकार के आधार पर भूमि जोतता था किन्तु बौद्धिक दृष्टि से भूमि का मालिक जमींदार ही था..उत्पादन का लक्ष्य उपभोग और सीमित विनिमय के लिए था। किन्तु वह बेगार का अभी काम करता था और जमींदार को लगान दिया आजाता था...शनैः शनैः इस व्यवस्था में भी संघर्ष उत्पन्न हुए और किसान और जमींदारों के बीच तनाव पैदा हुआ जिसके फलस्वरूप पूंजीवादी अर्थात् बुर्जुआ व्यवस्था का उदय हुआ)।

[ix]सुरेन्द्रनाथ सक्सेना : मनुस्मृति प्रथम अध्याय, श्लोक संख्या-93 : हिंदी भाष्य, मनोज पब्लिकेशन दिल्ली, सातवाँ संस्करण-2011, पृष्ठ संख्या-31   

[x]https://www.youtube.com/watch?v=4xdWZdA31Rk मीना आमखेड़े का मनुवाद और ब्राह्मणवाद पर करारा प्रहार सवर्णों इस वीडियो को न देखें। साभार- दिनांक 23/05/2020, समय-7:00 am

[xi]पारसनाथ तिवारी : कबीर-वाणी-सुधा, राका प्रकाशन- इलाहाबाद, अष्टम संस्करण-2003, पृष्ठ संख्या-180 

[xii]http://indianwomanhasarrived.blogspotcom/2011/04/blog-post_10html.साभार-दिनाँक 24/05/2020, समय-7:30 am (ये नथ "प्रतीक " होती थी की स्त्री ने किसी के साथ सहवास नहीं किया हैं। जब लड़की का विवाह होता था तो नथ उसका पति उतारता था और उसके बाद स्त्री नथ की जगह नाक की कील पहन लेती थी। "नथ उतराई " वेश्या की भी बहुत महातम रखती थी और इस के लिये राजा, महराजा धन दौलत लुटा देते थे। यानी नथ प्रतीक थी कि स्त्री वर्जिन हैं। एक और विद्रूप सोच जो स्त्री के वर्जिन होने को महिमा मंडित करती थी लेकिन पुरुष के लिये कोई भी "ऐसी सोच " समाज मे नहीं थी)।

[xiii]https://wwwhindisamaycom/content/954/1/ साभार-दिनाँक 24/05/2020, समय-7:37 am

[xiv]सुरेन्द्रनाथ सक्सेना : मनुस्मृति तृतीय अध्याय, श्लोक संख्या-56 : हिंदी भाष्य, पृष्ठ संख्या-101 (जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता रमण करते हैं। कहने का आशय यह है कि जिस घर में स्त्रियों को पूरा आदर सम्मान दिया जाता है और उनकी आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखा जाता है, वहाँ सभी तरह की सुख-शान्ति रहती है लेकिन इसके विपरीत जहाँ स्त्रियों की पूजा नहीं होती वहाँ सभी प्रकार के शुभ और पवित्र कर्म भी कोई सुखद फल नहीं देते)।

[xv]http://kavitakoshorg/kk/%E0, सूरजपाल चौहान, साभार- दिनाँक 24/05/2020, समय-8 :37 am

[xvi] फिल्म : शूद्र द राइजिंग, डायरेक्टर- संजीव जायसवाल, रिलीज-2012




डॉ. अनिल कुमार

सिन्नर, नाशिक. महाराष्ट्र

8341399496, anilkumarjeee@gmailcom

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36 जनवरी-जून 2021

चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

        UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' 

( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

2 टिप्पणियाँ

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  2. वास्तव में बहुत बहुत ही ज्यादा अत्याचारों और
    उत्पीड़न को सहा है दलितों ने शुद्रों ने सामंत वादी पूंजी वादी ब्रह्मन बुर्जुआ व्यवस्था ने सदियों गरीबों असहायों जिनमें और भी जातियाँ शामिल थी सताया है उनका दोहन किया है ये भेद दरअसल अमीरी और गरीबी का रहा है गरीब होना ही अमीर को उस पर जुल्म करने का अधिकार स्वत ही दे देता है.. गरीब जीने का संघर्ष करता है अमीर उस संघर्ष में उसका फायदा उठाता है और आज भी यही हो रहा है.. आज भी सेठ साहूकार वही पूंजीवादी समाज के अगुआ बने उन्हें आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर रहे हैं महाराष्ट्र में आज भी कमोबेश यही हो रहा है सामंतो जमीदारों की जगह इन्होंने ले ली है.. गरीब आज भी पिस रहा है..

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