संस्मरण साहित्य का वैशिष्ट्य: महादेवी वर्मा कृत ‘स्मृति की रेखाएं’ के परिप्रेक्ष्य में / कंचन लता यादव
शोध-सार
संस्मरण आधुनिक युग में विकसित हुई विधा
है। इसमें मनुष्य की स्मृतियों का वर्णन-चित्रण होता है। हिंदी में संस्मरण विधा
को विकसित एवं स्थापित करने का श्रेय छायावाद की प्रमुख कवयित्री महादेवी वर्मा को
दिया जाता है। उन्होंने अपने संस्मरणों में अपने साहित्यिक मित्रों का बहुत सुंदर
वर्णन किया है। इसके अलावा महादेवी वर्मा ने अपने जीवन से जुड़े उन लोगों का भी
वर्णन प्रस्तुत किया है जो उनके जीवन के अभिन्न अंग न होते हुए भी उनसे किसी न
किसी रूप में जुड़े हुए थे। ‘स्मृति की रेखाएं’ एक ऐसा ही उनका संस्मरण ग्रांट है।
इस ग्रन्थ के महत्त्व और विशेषताओं को उद्घाटित करने का प्रयास मैंने अपने इस शोध
आलेख में किया है।
बीज-शब्द : आधुनिकता, आधुनिक-युग, संस्मरण-साहित्य, कथेतर-साहित्य, छायावाद।
मूल आलेख :
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होने के साथ-साथ चेतनाशील प्राणी भी है। वह एक सामाजिक समूह में रहता है। उसके पास विभिन्न प्रकार के अनुभव संग्रहित रहते हैं। उन अनुभवों को वह विभिन्न कलात्मक विधाओं में अभिव्यक्त करता है। संस्मरण साहित्य एक ऐसी ही विधा है जिसमें स्मृति पर आधारित किसी व्यक्ति, समाज या फिर स्थान का चित्रण होता है। कथा-साहित्य को छोड़कर प्रारंभ में इन (कथेतर) गद्य विधाओं का विकास हिंदी गद्य की विशेषता के रूप में भले हुआ हो, लेकिन कालान्तर में कथेतर गद्य विधाओं ने अपना अलग स्वतन्त्र विधागत स्वरूप ग्रहण किया। प्रारंभ में इनका विकास उपन्यास-कहानी जैसी कथात्मक गद्य विधाओं की गति से नहीं हुआ। लेकिन, समय के साथ इन विधाओं ने न सिर्फ अपना विकास किया अपितु समर्थ-सक्षम विधा के रूप में साहित्य में अपनी स्वतंत्र पहचान बनायी। संस्मरण भी इन्हीं नवीन गद्य विधाओं में से एक महत्त्वपूर्ण और बेहद समृद्ध विधा के रूप में अपनी स्वतंत्र पहचान बना चुका है। संस्मरण का मुख्य अर्थ ‘सम्यक् स्मृति’ से है। यह वह स्मृति है जो किसी के साथ बिताये गए पल को वर्तमान की सार्थकता, समृद्धि और संवेदनशील रूप में प्रस्तुत होती है। संस्मरण मूलतः अतीत और वर्तमान के बीच एक सेतु है। ‘समय-सरिता के दो तटों के बीच संवाद का माध्यम है संस्मरण।’ महादेवी वर्मा के संस्मरण ‘पथ के साथी’ और ‘स्मृति की रेखाएं’ को देखें तो दोनों में उन्होंने अपने आत्मिक सम्बन्धों को याद किया है। ‘पथ के साथी’ में जयशंकर प्रसाद,निराला, सुमित्रानंदन पन्त, सुभद्राकुमारी चौहान आदि को याद किया है जिनसे उनका साहित्यिक सम्बन्ध है। वहीं ‘स्मृति की रेखाओं’ भक्तिन, जंग बहादुर, चीनी फेरीवाला, बिबिया, गुंगिया, मुन्नू को याद किया हैं। अपने इन आत्मीय सबंधों को याद करते हुए स्मृत व्यक्तियों के व्यक्तित्व को रेखांकित करती हुयी अपने जीवन के तमाम पक्षों से भी रू-ब-रू कराती हैं।
महादेवी वर्मा ‘अतीत के चलचित्र’ में स्मृत व्यक्तियों को याद करने से पहले सजग कर देती हैं कि लेखक की एक सीमित दृष्टि होती है। उस सीमित दृष्टि के आधार पर पाठक को अपनी दृष्टि नहीं बनानी चाहिए। हाँ, वह लेखक के माध्यम से स्मृत व्यक्ति के जीवन की एक झलक पा सकता है। वह झलक स्मृत व्यक्ति के जीवन का अंतिम सत्य नहीं होती। वह कहती हैं-“अपने अग्रजों और सहयोगियों के सम्बन्ध में अपने आप को दूर रखकर कुछ कहना सहज नहीं होता। मैंने साहस तो किया है, पर ऐसे स्मरण के लिए आवश्यक निर्लिप्तता या असंगतता मेरे लिए सम्भव नहीं है। मेरी दृष्टि के सीमित शीशे में वे जैसे दिखाई देते हैं, उससे वे बहुत उज्जवल और विशाल हैं, इसे मानकर पढ़ने वाले ही उनके कुछ झलक पा सकेंगे।”1महादेवी का उपर्युक्त कथन ‘दृष्टि के सीमित शीशे’ के पैमाने से स्मृत व्यक्ति के व्यक्तित्व को परखने की कोशिश की जाती है। उस पैमाने का एंगल उस व्यक्ति के दृष्टि पर निर्भर करता है। यहाँ महादेवी वर्मा ने अपने ‘दृष्टि के सीमित शीशे’ से भक्तिन, चीनी फेरीवाला, जंग बहादुर, मुन्नू, ठकुरी बाबा, बिबिया, गुंगिया के व्यक्तित्व को देखने की कोशिश की है। इन्होंने इनके जीवन के यथार्थ रूप की एक ऐसी रेखा खीचीं हैं जो इनके व्यक्तित्व की व्यापकता और गहराई को जानने, समझने और देखने का नजरिया विकसित करता है। यह नजरिया बहुत कुछ संस्मरणकार द्वारा तय होता है कि वह हमें व्यक्तित्व के किन पक्षों से रू-ब-रू करा रहा है। स्मृत व्यक्ति का सम्यक मूल्याङ्कन तटस्थ हो रहा है या श्रद्धेय या श्रद्धांजलि की भावधारा में बहकर। संस्मरण की यह परम्परा रही है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व हमेशा महान, प्रभावशाली, श्रद्धेय आदि रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। व्यक्ति एक आदर्श रूप में हमारे सामने उपस्थित होता था। उसका कारण यह बताया जाता रहा है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का लोगों पर सकारात्मक प्रभाव पड़े। बनारसीदास चतुर्वेदी संस्मरण लेखन की शुरुआत करने से पहले कहते हैं कि“हम यथासम्भव परनिंदा तथा दोष-दर्शन से बच सके और स्वयं अपनी त्रुटियों को स्वीकार करने का हममें साहस हो तो हमारे संस्मरण दूसरों के लिए भी पथ प्रदर्शक बन सकते हैं।”2
बदलते स्वरूप के साथ संस्मरण जिस भी रूप में हमारे सामने उपस्थित है, वह आज भी विकासशील है। आज भी उसमें तरह-तरह के प्रयोग हो रहे हैं कभी स्वरूप बदल रहा है तो कभी भाषा और शैली के आधार पर परिवर्तन दिखाई दे रहा है। यदि यह बदलाव सकारात्मक है तो संस्मरण को विधा के रूप में स्थापित ही नहीं करता बल्कि दिन-प्रतिदिन उसकी लोकप्रियता को भी बढ़ा देता है। महादेवी वर्मा के संस्मरण ‘स्मृति की रेखाएं’ और ‘पथ के साथी’ के आधार पर देखा जाय तो संस्मरण की विकासशीलता में महादेवी वर्मा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इनके संस्मरण ‘पथ के साथी’ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर, निराला, जयशंकर प्रसाद आदि जैसा व्यक्तित्व है जो साहित्यजगत में एक ख़ास पहचान रखता है वहीं दूसरी ओर ‘स्मृति की रेखाएं’ में भक्तिन, चीनी फेरीवाला, जंग बहादुर, मुन्नू, ठकुरी बाबा, बिबिया, गुंगिया आदि जैसे समाज के उपेक्षित पात्र भी हैं। इनकी महादेवी वर्मा के जीवन में एक खास जगह है।
संस्मरण की परम्परा को देखा जाय तो संस्मरणकार उन्हीं लोगों पर
संस्मरण लिखता था जिनका व्यक्तित्व प्रभावशाली हो। स्मृत व्यक्ति के व्यक्तित्व के
उन्हीं पक्षों को उठाया जाता था जिससे लोगों या समाज पर सकारात्मक प्रभाव पड़े। महादेवी
वर्मा का संस्मरण इस पारम्परिक ढ़ांचे को तोड़ता हुआ नजर आता है। ‘स्मृति की रेखाएं’
में व्यक्तित्व के प्रभावशाली और महान शक्सियत, साहित्यकार, नेता-राजनेता आदि तो
नहीं,लेकिन भक्तिन, गुगियाँ, बिबिया, जंग बहादुर, चीनी फेरीवाला, मुन्नू जैसे
स्मृत पात्र जो जीवन के यथार्थता से रू-ब-रू कराते हैं। इनके जीवन का संघर्षशील
यथार्थ हमें प्रभावित ही नहीं करता बल्कि भीतर से झकझोर देता है। इन स्मृत
व्यक्तियों के व्यक्तित्व के माध्यम से
हमारे भारतीय ग्रामीण समाज के कोरे यथार्थ को रेखांकित किया गया है। इन उपेक्षित
पात्रों को महादेवी वर्माअपनी स्मृति का माध्यम बनाते हुए, संस्मरण के पारम्परिक ढ़ांचे को एक नई दिशा देती हुई अथवा उसमेंएक और नई
कड़ी जोड़ते हुए, ज्यादा आधुनिक नजर आती है। संस्मरण अपने पारम्परिक ढ़ांचे को तोड़ते
हुए नित-नये प्रयोगों को जोड़ता हुआ, आज ज्यादा लोकप्रिय और सशक्त विधा के रूप में
हमारे सामने उपस्थित है।
‘स्मृति की रेखाएं’ को एक कथात्मक संस्मरण है। कथात्मकता संस्मरण
को रोचक बनाती है। संस्मरण की कथात्मकता कहानी, उपन्यास की तरह कल्पना को कथ्य का माध्यम
नहीं बनाती बल्किव्यक्ति का कोरा यथार्थ दर्ज करती है। महादेवी वर्मा का संस्मरण
भक्तिन, चीनी फेरीवाला, जंग बहादुर, मुन्नू, ठकुरी बाबा, बिबिया, गुंगिया के जीवन
का सच है जिसे उनकी कलात्मकता ने कथात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। ‘भक्तिन’ का
बाल्यावस्था में विवाह, सिर्फ बेटियों का पैदा होना, ससुराल में पुत्रबधू से बेटे
की चाह के कारण सास-ससुर की प्रताड़ना, पारिवारिक उपेक्षा, कम उम्र में पति की
मृत्यु, पुत्रियों का किसी तरह से विवाह, एक पुत्री के पति की मृत्यु और पुत्री के
साथ समाज का अत्याचार और अंत में भक्तिन का घर छोड़ने के वृत्तान्त को इस तरह से
संस्मरण में पिरोया गया है कि भक्तिन के जीवन का पूरा वृत्तांत कथात्मक हो गया है।
इसी तरह ‘चीनी फेरीवाला’ के साथ महादेवी वर्मा के बनते ‘सिस्टर और भाई’ का सम्बन्ध,
उसकेद्वारा महादेवी वर्मा को सुनाई गई अपने जीवन में घटित दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ
जो एक वर्ष की अवस्था में माँ की मृत्यु, पिता की दूसरी शादी, दूसरी माँ की
प्रताड़ना, पिता की मृत्यु, भाई-बहन का अनाथ होना, सौतेली माँ द्वारा बहन का देह
व्यापार कराना, अचानक बहन का गायब होना और फिर बहन की खोज में निकले बच्चे (चीनी
फेरीवाला) का गलत हाथ में लगना और वहाँ से बाहर आना तथा कपड़े की दुकान पर काम करना
को एक कथा के रूप में अभिव्यक्त किया गया है। ‘गुंगिया’ का मूक होना ही उसके लिए
पूरे जीवन का अभिशाप बनकर रह गया आदि तमाम घटनाओं है। उसे पूरा जीवन अपने गूंगे
होने का दंश झेलना पड़ता है। पिता ने उसके गूंगे होने की बात छिपाकरधोखे से शादी कर
दी, जिसकी सजा ससुराल वाले उसे मार पीट कर देते हैं लेकिन उसका गूंगा होना उसे
वहाँ निर्दोष साबित नहीं होने देता है। उसकी छोटी बहन को उसकी जगह ससुराल भेज दिया
जाता है लेकिन कुछ दिन में एक बच्चे को जन्म देने के बाद बहन का मर जाना और उसके
पति का उसे लेने आना। गुगियाँ अपने मानवीयताऔर स्वाभिमान की रक्षा करते हुए उस
बिना माँ के बच्चे को अपने पास तो रख लेती है लेकिन एक बार अपने पति से तिरस्कृत
होकर छोड़ी जाने के बाद दुबारा वहां जाने से मना कर देती हैं। गुगियाँ की दुनिया
सूनी है वह बहन बच्चे को पाते ही अपनी उजड़ी हुयी दुनिया को फिर से बसाना शुरू करती
है। वहबच्चा ज्यों-ज्यों बड़ा होता हैगाँव के लोगों की कुछ सही कुछ गलत बातें सुनकर,अपने
पिता से दूर रखने के लिए गुंगिया को अपराधिन माल लेता है। लेकिन गुंगिया के पास
अभिव्यक्ति की भाषा नहीं है। भाषा होती तो वह यह बता सकती कि जब से उसका पिता उसे
गुंगिया की गोद में देकर गया है, देखने तक नहीं आया। उस बच्चे के मन में गुंगिया
के प्रति जो विरक्ति और घृणा का भाव देखने को मिलता हैं उससे गुंगिया का दिल छलनी
हो जाता है। अंततः उसका एकमात्र सहारा उसे छोड़कर चला जाता है। गुंगिया वर्षों उसकी
प्रतीक्षा करते हुए एक दिन उसके कपड़े और सजोकर रखे हुए खिलौने के बक्शे को समेटे
हुए मरी हुयी मिलती है। गुंगिया की भावनाओं की भाषा कोई नहीं समझ पाता, जिसकी कोई
अभिव्यक्ति नहीं है, उसका गूंगा होना उसके यथार्थ जीवन की त्रासदीबन गया। उनका
पुत्र जिसके लिए वह फिर से जीना सीख ली थी, उसका छोड़कर जाना उसे जीवन के प्रति फिर
से उदासीन बना देता है। वह अपने पुत्र को पाने के लिए हर संभव कोशिश करती है। वह अपने
पुत्र को वापस बुलाने के लिए महादेवी वर्मा से चिट्ठी लिखाने आती है तो वह बड़े
असमंजस में पड़ती हैं। वह कहती हैं- “इतनी सुख दुःख की कथाएँ लिख चुकने पर भी एक
व्यक्ति, उसके ऐसे प्रत्यक्ष सुख-दुखों की भाषा नहीं जानता है, ऐसा विश्वास
गुंगिया के लिए सहज नहीं था।”3‘बिबिया’ की सामाजिक
उपेक्षा और उसके द्वारा मनचलों का विरोध करना, उनके विरोध का प्रतिशोध लेने के लिए
उसे चरित्रहीन घोषित करना की कथात्मक बुनावट आकर्षित करती है। महादेवी वर्मा ने इन
कोरे यथार्थ के कथ्य की बुनावट को ऐसे अंदाज में पिरोया है कि पढ़ने का रिदम टूटता
नहीं है और ‘आगे क्या हुआ’ जानने की प्रबल इच्छा के साथ पाठक की रोचकता बनी रहती
है।
संस्मरण साहित्य का महत्त्वपूर्ण वैशिष्ट्य वैयक्तिकता है। हम किसी व्यक्ति के बाह्य जीवन से तो परिचित होते हैं लेकिन उसके आंतरिक या वैयक्तिक पक्ष से नहीं। महादेवी वर्मा का जिन लोगों से अन्तरंग सम्बन्ध हैं जिन्हें उन्होंने अपने संस्मरण में जगह दी है उससे स्मृत व्यक्ति और संस्मरणकार दोनों का व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है। महादेवी वर्मा अपने कल्पवास के दौरान ठकुरी बाबा से मिलती हैं। उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होती हैं। उन्हें गरीब और मध्यवर्ग के वैयक्तिक जीवन की रिक्तता का बोध होता है जिसके केंद्र में ठकुरी बाबा का व्यक्तित्व है। ठकुरी बाबा के माध्यम से गरीब और मध्यवर्ग के वैयक्तिक पक्ष के अंतर को समझाते हुए वे कहती हैं“बाह्य जीवन दीन है और हमारा अंतर्जीवन रिक्त। उस समाज में विकृतियाँ व्यक्तिगत हैं, पर सद्भाव सामूहिक रहते हैं। इसके विपरीत हमारी दुर्बलताएं समष्टिगत हैं; पर शक्ति वैयक्तिक मिलेगी।”4 स्मृत व्यक्ति के साथ-साथ संस्मरणकार के व्यक्तित्व का चित्रांकन होना स्वाभाविक है। अंतरंग सम्बन्ध का रेखांकन दोनों के व्यक्तित्व को उभारता है। अगर एक के व्यक्तित्व को दर्ज करते हैं तो दूसरे का व्यक्तित्व उसी के साथ उभरता है। भक्तिन, चीनी फेरीवाला, जंग बहादुर, मुन्नू, ठकुरी बाबा, बिबिया, गुंगिया के व्यक्तित्व को उभारते हुए उनके साथ महादेवी वर्मा का सम्बन्ध सहज, सरल और स्वाभाविकता से उभरता है। भक्तिन उनके घर में आकर धीरे-धीरे उनके जीवन में कैसे प्रवेश करती है। उनके द्वारा स्मृत व्यक्ति ‘नीर भरी दुःख की बदली’ युक्त जीवन का हिस्सा बन गए हैं। इन्होंने जितने लोगों का जिक्र अपने संस्मरण में किया है वे जीवन की रिक्तता को झेलते हुए किसी अन्य माध्यम से उसे भरने के लिए संघर्षशील हैं। वे हताश-निराश नहीं हैं। भक्तिन बाहर से जितनी कठोर है अन्दर से उतनी ही कोमल है। चीनी फेरीवाला पूरा जीवन धोखा और प्रताड़ना झेलता है लेकिन उसकी अंतरात्मा कभी मलीन नहीं होती है। दुनिया में उसका कोई नहीं है, फिर भी सम्बन्ध के मायने जानता है। मालिक के प्रति ईमानदार और देश के प्रति समर्पित है। इसी तरह ‘गुंगिया’ संस्मरण में गुंगिया अपने गूंगे होने की दंश पूरा जीवन झेलती है। उसका गूंगापन उसके लिए अभिशाप बन जाता है। वह किसी की गुनाहगार नहीं है लेकिन अपनी बेगुनाही शाबित करने के लिए न उसके पास शब्द है न वाणी। ‘बिबिया’ संस्मरण में देखा जाय तो, बिबिया की बेवाकी समाज को खटकती है। वह कहीं से कमजोर नहीं दिखती इसलिए कुछ मनचलों द्वारा उसको चरित्रहीनता का प्रमाण पत्र दे दिया जाता है। बिबिया हर परिस्थिति का सामना करती हैं। महादेवी वर्मा कहती हैं-“बिबिया तो विद्रोह की कभी राख न होनेवाली ज्वाला थी।”5इन पात्रों के अंतर्मन को टटोलने वाला कोई नहीं है।
महादेवी वर्मा का कवित्व व्यक्तित्व इनके अंतर्मन में झांकता है जहाँ से इन्हें कोई नहीं देखता। महादेवी वर्मा का सरल स्वभाव, प्रेम के प्रति आसक्त दिखाई देता है। वह स्मृत व्यक्ति के जीवन की रिक्तता को पहचानती हैं उसे अपने यथासंभव सहयोग से भरने की कोशिश करती हैं। प्रेम उनके वसूलों से बढ़कर है। विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के आन्दोलन का समर्थन करते हुए वह स्वदेशी खादी कपड़ों का इस्तेमाल करती हैं लेकिन फेरीवाले के प्रेम और आग्रह से उसकी कुछ चीज़ें खरीदने से खुद को रोक नहीं पाती हैं। फेरीवाला को अपने देश युद्ध के लिए लौटने का प्रबंध करने के लिए उसका सारा सिल्क का कपड़ा खरीद लेना और उसे उसके देश भेजना महादेवी वर्मा के महान व्यक्तित्व का परिचायक है। एक बार इन विदेशी कपड़ों के थानों को देखकर “एक खादी भक्त बहिन ने आक्षेप किया था- ‘जो लोग बाहर से विशुद्ध खद्दरधारी होते हैं, वे भी विदेशी रेशम के थान खरीदकर रखते हैं, इसी से तो देश की उन्नति नहीं होती।’ तब मैं बड़े कष्ट से हँसी रोक सकी थी। वह जन्म का दुखिया मातृ-पितृहीन और बहिन से बिछुड़ा हुआ चीनी भाई अपने समस्त स्नेह का एकमात्र आधार चीन में पहुँचाने का आत्मतोष रह गया है, इसका कोई प्रमाण नहीं; पर मेरा मन यही कहता है।”6भक्तिन के लिए कारागार और यमलोक भिन्न नहीं थे। दोनों को लेकर उसके मन में एक समान भय था। एक के प्रति जितना भय था उससे कम दूसरे के प्रति नहीं। लेकिन महादेवी वर्मा से दूर जाने का भय अब इन दोनों भय से ऊपर हो गया है। वह उनके साथ कारावास में जाने के लिए तैयार रहती है। महादेवी वर्मा कहती हैं कि “जहाँ मालिक वहां नौकर-मालिक को ले जाकर बंद कर देने से इतना अन्याय नहीं; पर नौकर को अकेले मुक्त छोड़ देने में पहाड़ के बराबर अन्याय है। ऐसा अन्याय होने से भक्तिन को बड़े लाट तक लड़ना पड़ेगा। किसी की माई यदि बड़े लाट तक नहीं लड़ी, तो नहीं लड़ी; पर भक्तिन का बिना लड़े काम ही नहीं चल सकता। ...चिर विदा के अंतिम क्षणों में यह देहातिन वृद्धा क्या करेगी और मैं क्या करूंगी? भक्तिन की कहानी अधूरी है; पर उसे खोकर मैं इसे पूरी नहीं करना चाहती।”7
महादेवी
वर्मा और स्मृत व्यक्तियों का अन्तरंग सम्बन्ध काफी गहरा था। भक्तिन और
अपने बीच के सम्बन्ध को बताते हुए वे कहती हैं कि “भक्तिन और मेरे बीच में सेवक-स्वामी
का सम्बन्ध है, यह कहना कठिन है; क्योंकि ऐसा कोई स्वामी नहीं हो सकता, जो इच्छा
होने पर भी सेवक को अपनी सेवा से हटा न सके और ऐसा कोई सेवक भी नहीं सुना गया, जो
स्वामी से चले जाने का आदेश पाकर अवज्ञा से हँस दे। भक्तिन को नौकर कहना उतना ही
असंगत है जितना अपने घर में बारी-बारी से आने-जाने वाले अँधेरे-उजाले और आंगन में
फूलने वाले गुलाब और आम को सेवक मानना।”8बदरीनाथ की यात्रा के दौरान
जंग बहादुर और महादेवी वर्मा का सम्बन्ध इतना गहरा हो जाता है कि वह उसके
व्यक्तिगत जीवन की समस्यायों को अपने जीवन का हिस्सा बना लेती है, उस यात्रा में
अपनत्व का भाव इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि
वह अपना दुःख सहजता से बाँटता है- “धनसिंह संकोची होने के कारण बातचीत कम
करता था; पर जंगबहादुर जब-तक बैठकर अपने माता-पिता, गाँव-घर आदि की कहीं दुखद,
कहीं सुखद कथा कहता रहता था।”9जब महादेवी वर्मा की यात्रा समाप्त होती
है तो जंगबहादुर उन्हें बस में बैठाने आता है। इस दौरान उनकी भावनात्मक अंतरंगता
का अंदाजा लगाया जा सकता है-“जंगवीर ने आंसू रोकने का प्रयास करते-करते कहा- ‘माँ
जी जीता रहना फिर आना, जंगिया का नाम चीठी भेजना।’ धनिया सदा के समान पृथ्वी पर
दृष्टि गड़ाये, बीच-बीच में टपकते आंसुओं की भाषा में विदा दे रहा था। आज वे दोनों
पर्वत-पुत्र कहाँ होंगे, सो तो मैं बता ही नहीं सकती; पर उनकी माँ जी होकर मुझे जो
सम्मान मिला, वह भी बताना सहज नहीं।”10
‘मुन्नू’ में दुबरी की
बहू से पता पूछने पर उसकी द्वारा की गयी भर्सना और अपने रूखेपन स्वभाव और कर्कशापन
के कारण प्रसिद्धि पा चुकी महिला का अपने शब्दों के माध्यम से चित्रांकन, एक
ग्रामीण महिला का हू-ब-हू दृश्य उपस्थित हो जाता है। यह चित्रांकन ग्रामीण महिला का
जो बिम्ब हमारे सामने खींचता है, उसकी एक बानगी इस प्रकार है-“बिखरे हुए बालों की
रूखी और मैली-कुचैली लटों में से एक दो उसके पपड़ी पड़े हुए ओठों पर चिपकी रहती हैं।
पक्के रंग का श्याम शरीर धूल के अनेक आवरणों से छिपकर इतना धूसरित हो उठता है कि
मटमैली धोती उसका एक अंग ही जान पड़ती है। गोबररूपी मेंहदी से नित्य रज्जित हाथों
की प्रत्येक ऊँगली युद्ध के अनेक रहस्यमय संकेत छिपाये रहती है।”11
संस्मरण एक लचीली विधा है। इसका लचीला होना अन्य विधाओं
को आत्मसात करना है। यही कारण है की संस्मरण को कभी रेखाचित्र, आत्मकथा, रिपोर्ताज
आदि अन्य विधा मान लेने का भ्रम अक्सर बना रहता है। इसमें आत्मकथा, रिपोर्ताज,
रेखाचित्र, कहानी आदि के तत्व दिखाई देते हैं जिससे संस्मरणों में शैलीगत विविधता
का दिखाई देना आम बात हो गयी है। महादेवी वर्मा के संस्मरणों को पढ़ते हुए यह भ्रम
बराबर बना रहता है कि हम कहानी पढ़ रहे हैं या संस्मरण। उनके संस्मरण बिल्कुल
कथात्मक शैली में लिखे गए हैं। महादेवी वर्मा के संस्मरण की भक्तिन, चीनी
फेरीवाला, मुन्नू, ठकुरी बाबा, जंग बहादुर, गुंगिया आदि के चरित्र यथार्थ जीवन से
लिए गए हैं। जिस यथार्थ को वह इतनी कलात्मकता से हमारे सामने लाती हैं पात्रों के
जीवन को भोग हुआ कठोर यथार्थ है और उसमें कल्पना के आकाश का विस्तार नहीं जीवन के यथार्थ
का सीमित धरातल है।
महादेवी वर्मा अपने संस्मरणों में हमेशा तटस्थ दिखाई देती
हैं। वह अपने संस्मरणों में व्यक्ति चित्र के दोनों पक्षों को रेखांकित करने में
सतर्क हैं। स्मृत व्यक्तियों से वे भावनात्मक रूप से जुड़ी हैं लेकिन कहीं भी
भावनाओं की भावधारा में बहती हुयी नजर नहीं आती। स्मृत व्यक्ति के साथ आत्मिक
जुड़ाव गहरा होते हुए भी वे उसके गुणों के साथ अवगुणों को दर्शाने में कोई कोताही
नहीं करती हैं। चाहे वह उनकी छाया की तरह साथ रहने वाली भक्तिन हो या चीन का फेरीवाला
अथवा बद्रीनाथ की यात्रा में कुछ दिन उनके साथ बिताये दो कुली भाई जंगबहादुर और
धनसिंह। भक्तिन का ग्रामीण स्वभाव में भरे आत्मविश्वास को देख कर आश्चर्य होता है।
भक्तिन अपने अनुसार खाना बनाने को अच्छा बताती है और शहर के खाने को ‘कलाबत्तू’
कहकर महादेवी वर्मा को एक सारगर्भित लेक्चर दे डाली। महादेवी वर्मा कहती हैं कि
उसके लेक्चर का प्रभाव यह हुआ कि “मीठे से विरक्ति के कारण बिना गुण के और घी से
अरुचि के कारण रूखी दाल से एक मोटी रोटी खाकर बहुत ठाठ से यूनिवर्सिटी पहुँची और
न्याय-सूत्र पढ़ते-पढ़ते शहर और देहात के जीवन के इस अंतर पर विचार करती रही। अलग
भोजन की व्यवस्था करनी पड़ी थी, अपने गिरते हुए स्वास्थ्य और परिवार वालों की
चिंता-निवारण के लिए, पर प्रबंध ऐसा हो गया कि उपचार का प्रश्न ही खो गया। इस
देहाती बृद्धा ने जीवन की सरलता के प्रति मुझे इतना जागृत कर दिया था कि मैं अपनी
असुविधाएं छिपाने लगी, सुविधाओं की चिंता करना तो दूर की बात।”12भक्तिन
का यह आत्मविश्वास उसके स्वभाव में परिणत हो गया था। वह अपने स्वभाव को दूसरे के
अनुसार नहीं ढ़ालती थी बल्कि दूसरे को अपने अनुसार बना लेती थी। उसे खुद समझौता
करना पसंद नहीं था।
महादेवी वर्मा के संस्मरणविश्वसनीयता के परिचायक हैं। भक्तिन,
गुंगिया, बिबिया, ठकुरी बाबा आदि के जीवन का संघर्ष हमारे आस-पास के जीवन का संघर्ष
है। महादेवी वर्मा ने इनके पूरे जीवन को उसी रूप में प्रस्तुत किया है जैसा वह
वास्तविक रूप में है। भक्तिन अपना दर्द अपनी ग्रामीण भाषा में कह देती थी जिसे
महादेवी वर्मा के लिए समझाना आसान था। चीनी फेरीवाला का हिंदी और अंग्रेजी का ज्ञान
न होना उसके एहसासों का रोड़ा नहीं बना। वह चीनी और बर्मी भाषाएँ जनता था। महादेवी
वर्मा का मानना है कि भले ही वह अपनी जीवन कथा का मर्म शब्दों में नहीं बांध पाता
लेकिन “जो कथाएं ह्रदय का बांध तोड़कर दूसरों को अपना परिचय देने के लिए बह निकलती
हैं, वे प्राय: करुण होती हैं और करुणा की भाषा शब्दहीन रहकर भी बोलने में समर्थ
हैं। चीनी फेरीवाले की कथा भी अपवाद नहीं।”13
महादेवी वर्मा के संस्मरण आज के संदर्भ में देखा जाय तो कई
अर्थों में प्रासंगिक है। संस्मरण आज जिस मुकाम परपहुँचा है उसके सफ़र में महादेवी
वर्मा के संस्मरणों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने संस्मरणों का परम्परागत
ढ़ांचा ही नहीं तोड़ा बल्कि उपेक्षित लोगों के व्यक्तित्व का सम्यक मूल्याङ्कन करने
के साथ-साथ उनके माध्यम से समाज का नंगा यथार्थ भी लाने की कोशिश की। अपनी
दूरदर्शिता के कारण महादेवी वर्मा अपने संस्मरणों में ज्यादा आधुनिक नजर आती हैं।
संदर्भ-
1.
महादेवी वर्मा:पथ के
साथी,(1956) राधाकृष्ण प्रकाशन, दरियागंज, नयी
दिल्ली. भूमिका से
2.
बनारसीदास चतुर्वेदी:संस्मरण(1958),
भारतीय ज्ञानपीठ, दरियागंज, नयी दिल्ली, द्वितीय
संस्करण की भूमिका से
3.
महादेवी वर्मा:स्मृति की
रेखाएं(1943), भारती-भण्डार, लीडर प्रेस इलाहबाद, पृष्ठ 107
4.
वही, पृष्ठ 79
5.
वही, पृष्ठ 97-98
6.
वही, पृष्ठ 28
7.
वही, पृष्ठ 19
8.
वही, पृष्ठ18
9.
वही, पृष्ठ 38
10.
वही, पृष्ठ 40
11.
वही, पृष्ठ 40
12.
वही, पृष्ठ 14
13. वही, पृष्ठ 22
klyjnu26@gmail.com, 9868329523
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021 चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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