मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानियों में विषय - वैविध्य / वंदना पाण्डेय
शोध-सार
वर्तमान समय का साहित्य किसी एक वाद, विमर्श का साहित्य नहीं है अपितु आज के साहित्य में विषयों की विविधता परिलक्षित होती है। मनीषा कुलश्रेष्ठ उन ही कथाकारों में से एक हैं, जो किसी पूर्वाग्रहों के ढाँचे से नहीं बंधतीं। उनकी कहानियां विभिन्न रंगों से रंगी हुई कहानियां होती है। लेखिका अपनी कहानियों को आधार बनाकर समाज का यथार्थ चित्र पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती हैं, जहाँ वे चित्रित करती हैं कि किस प्रकार से रूढ़ मानसिकताओं के चलते स्त्री आज भी शोषित हो रही है। बाहर तो बाहर अब वे अपने घरों तक में यौन शोषण की शिकार होती जा रही है साथ ही मनुष्य कैसे प्रोडक्ट में, स्टिकर में तब्दील हो रहे हैं तथा वर्तमान समय समाज में भ्रष्टाचार किस प्रकार से अपनी चरम सीमा पर है आदि विषयों अपनी कहानियों का रूप देकर बड़ी बारीकी के साथ शब्दबद्ध किया है।
बीज-शब्द : शोषण, अस्मिता, विलुप्त संस्कृति, भ्रष्टाचार, रूढ़
मानसिकता, बलात्कार, बाज़ार।
मूल शोध
साहित्य में जब भी कोई विचार एक धारा के रूप में प्रवाहित होती है तब उसे हम विचारधारा की संज्ञा देते हैं। परिस्थिति एवं समयानुसार साहित्य परिवर्तित होता ही रहा है। साहित्यकार देशकाल और वातावरण को ध्यान में रखकर तथा समय-समाज में जो घटित होता है उसे अपनी दृष्टिकोण प्रदान कर साहित्य को रचता-बुनता है। साहित्य बहता हुआ पानी है जो कभी स्थिर नहीं रहता। वह समय के साथ आगे बढ़ता ही जाता है तथा उसके रूप में भी भिन्नता परिलक्षित होता है। उदाहरण के तौर पर अगर भक्तिकाल की रचनाएँ को देखें तो वहाँ आदिकाल की रचनाओं से भिन्नता देखने को मिलती है। क्योंकि उस समय के रचनाकर अपनी कृतियों में वही रच रहें थें जो समाज की मांग थी, ज़रूरत थी। चाहे आदिकाल हो, भक्तिकाल हो, रीतिकाल हो या फिर आधुनिक काल ही क्यों न हो। हर काल खंड के साहित्य के विषयों में विविधता देखने को मिलती है। वर्तमान साहित्य अपनी पूर्वर्ती साहित्य के विषय-वस्तु से काफी भिन्न दृष्टिगोचर होता है। आज के रचनाकर किसी एक विषय को लेकर ही लेखनी नहीं करते, अपितु वे अपनी लेखनी से उन सारे आयामों को छूते नज़र आते हैं जो कहीं न कहीं अनछूए रह जाते थे। समकालीन लेखिकाओं ने अपने रचना-संसार में विविध विषयों को स्थान दिया है। सूर्यबाला, गीतांजलि श्री, वंदना राग, मनीषा कुलश्रेष्ठ, अल्पना मिश्रा, अल्का सरावगी, सुषमा मुनीन्द्र, आशा प्रभात आदि कुछ ऐसी ही कथाकार हैं जो अपने साहित्य को विविध रंगों से रंगती हुई नज़र आती हैं।
मनीषा कुलश्रेष्ठ भी उन ही चुनिंदा कथाकारों में से एक हैं, जो किसी पूर्वाग्रहों के ढाँचे से नहीं बंधतीं। वे किसी खास वाद, विमर्श आदि की कथाकार नहीं हैं और न ही वे अपने साहित्य में किसी एक विषय को लेकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होती हैं। उनकी रचनाओं में विषयों की विविधता दिखाई देती है। वर्ण, धर्म, लिंग, वर्ग आदि से बाहर उनकी कहानियाँ मनुष्यता और प्रगतिशीलता के पक्ष में खड़ी होती है तथा उनकी रचनाओं में समाज की यथार्थता का पुट मिलता है। मनीषा कुलश्रेष्ठ की कृतियों में एक ओर जहाँ आधुनिक मूल्यों की प्रतिष्ठा है तो वहीं दूसरी ओर रूढ़ियों का बहिष्कार भी है। दाम्पत्य-जीवन, पारिवारिक-जीवन आदि के उत्कृष्ट चित्रण के साथ ही साथ लेखिका अपनी रचनाओं में सामाजिक, राजनीतिक, साम्प्रदायिक, नारी-चेतना जैसे विषयों को भी बखूबी चित्रित करती हैं। उनकी कहानियाँ विभिन्न रंगों से रंगी हुई है; जैसे- ‘महानगर बोध की कहानी’, ‘स्त्री मन की कहानी’, ‘भटकते हुये लोगों के निपट एकांत की कहानी’, ‘फ़ौजी पृष्ठभूमि की कहानी’, ‘आदिवासी छात्रावास में हो रहें भ्रष्टाचार और यौन शोषण की कहानी’, ‘विलुप्त होती लोक कलाओं की कहानी’, ‘एक बेटी का अपने पिता द्वारा हो रहे बलात्कार की कहानी’ आदि।
अब
तक उनके पांच उपन्यास – (शिगाफ़, शालभंजिका, पंचकन्या, स्वप्नपाश और मल्लिका), सात कहानी-संग्रह – (कठपुतलियां, बौनी
होती परछाई, कुछ भी तो रूमानी नहीं, केयर आफ स्वात घाटी, अनामा, गंधर्व-गाथा और किरदार) जिसे सुविधा के लिए दो भागों में संकलन के
रूप में प्रकाशित किया गया है – (रंग-रूप
रस-गंध भाग I & भाग II) साथ ही उनकी नाट्य कृति ‘बिरजू लय’
और यात्रा वृतांत ‘होना
अतिथि कैलाश का’
प्रकाशित हुई है। अपनी रचना प्रक्रिया को लेकर लेखिका स्वयं कहती हैं- “मेरे किरदार थोड़ा इसी समाज से आते हैं, लेकिन समाज से कुछ दूरी बरतते हुए। मेरी कहानियों में ‘फ्रीक’ भी जगह पाते हैं, सनकी, लीक से हटेले और जो बरसों किसी परजीवी की तरह मेरे
ज़हन में रहते हैं। जब मुकम्मल आकार प्रकार ले लेते हैं, तब ये किरदार मुझे विवश करते हैं, उतारों न हमें कागज पर। कोई कठपुतली वाले की लीक से
हटकर चली पत्नी, कोई
बहुरूपिया, कोई
डायन करार कर दी गई आवारा औरत, बिगड़ैल टीनेजर, न्यूड मॉडलिंग करने वाली...”1
कहानियों
के कथ्य में नये प्रयोग होना, अछूते
किरदार और परिवेश की विविधता मनीषा कुलश्रेष्ठ के उत्कृष्ट लेखन की पहचान है। वे
अपनी कहानियों में विषयों की विविधता तो रखती ही हैं पर उसमें भी मुख्य रूप से
उन्होंने स्त्री अस्मिता को एक नयी पहचान देने का प्रयास किया है। लेखिका स्त्री
मन की आकांक्षाओं और त्रासदियों के बेहद निकट जाकर उनके जीवन के उन आवाज़ों को अपनी
कहानियों में उकेरती हैं जो सामान्य तौर पर समाज में अनसुनी रह जाती है। 21वीं सदी
में हम आधुनिक समाज, आधुनिक
भाव-बोध, आधुनिक विचारधारा की बात तो करते
हैं पर बात जब स्त्री की आती है, स्त्री
देह, स्त्री मनोवेग, स्त्री की अस्मिता की आती है तब हम पाते हैं कि
स्त्री की स्थिति कमोबेश आज भी प्राचीन रूढ़िवादी मानसिकताओं से ग्रसित ही है। कहीं
न कहीं आज भी उसे देह की आज़ादी नहीं मिली और वह उस कठपुतली की भांति है जिसकी डोरी
समाज के हाथो में है। समाज के कुछ उसी रूढ़ हो चुके मानसिकताओं का जिक्र करती नज़र
आतीं हैं मनीषा कुलश्रेष्ठ अपनी कहानियों में। चाहे उनकी ‘कठपुतलियाँ’
शीर्षक कहानी हो या फिर ‘कुरंजा’ कहानी ही क्यों न हो, वह सामाजिक स्तर पर स्त्री मन, स्त्री शोषण को बखूबी चित्रित करती हैं।
‘कठपुतलियाँ’ शीर्षक कहानी स्त्री मन के अंतर्द्वंद को पाठकों के
समक्ष रखता है। कहानी जैसलमेर के ग्रामीण परिवेश की है। प्रस्तावित कहानी मुख्य
रूप से तीन पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती नज़र आती है – सुगना, रामकिसन और जोगीन्दर। सुगना को केंद्र में रखकर
स्त्री मन, समाज में स्त्री के साथ हो रहे
शोषण, बाल-विवाह, अनमेल विवाह, दहेज़ प्रथा जैसे मुद्दों को लेखिका ने बड़े ही सजीव
ढंग से कहनियों का रूप देकर प्रस्तुत किया है। कहानी की मुख्य पात्र ‘सुगना’ जब अपने प्रेमी द्वारा गर्भवती हो जाती है तब उसे सामाजिक रूढ़ियों
का, क्रूरताओं का सामना करना पड़ता है
तथा पंचायत में अग्नि परीक्षा देने की नौबत आती है। ऐसी स्थिति में उसका पति
रामकिसन उसका साथ देता है। वह उसे बचाने के लिए अपने बेटे द्वारा एक खास तेल
भिजवाता है- “बाई देख न इधर...ये बापू ने भेजा है...तेल है ये...कब्रों पर उगने
वाले ग्वारपाठे और रेत की छिपकली का तेल मल ले हाथ पे...हाथ नहीं जलेग़ा न फफोले
होंगे। परसों चार घंटे साइकिल चलाकार सीमा पार के नजदीक डटे हुए गाड़िया लोहारों से
लाया है, बापू।”2
इससे यह साबित हो जायेगा की बच्चा रामकिसन का ही
है। दाम्पत्य प्रेम को दर्शाती यह कहानी आज के प्रचलित स्त्री-पुरुष संबंध के
नज़रिये से बिलकुल भिन्न है। एक ओर पुरुष यहाँ स्त्री के शारीरिक व मानसिक शोषण का
कारण है तो वहीं दूसरी ओर वह गहरी मानवीय भावना व प्रेम से भी परिपूर्ण भी है।
देखा जाये तो यहाँ कई सारे प्रश्न मन में उभरते हैं की आज भी क्यों स्त्री ही
अग्निपरीक्षा देगी? सदियों
से देती आ रही अग्निपरीक्षा का यह सिलसिला आखिर कब ख़त्म होगा? समाज में मौजदू अंधविश्वास, न्याय के नाम पर पंचायतों द्वारा होता शोषण कब तक
चलेगा?
‘अवक्षेप’ कहानी आदिवासी छात्रावास को केन्द्रित करती कहानी
है। इस कहानी में आदिवासी छात्रों (स्त्री) की कॉलेज और गर्ल्स हॉस्टलों के जीवन
पर विश्लेषणात्मक ढंग से रोशनी डाली गयी है। मुख्य रूप से यह कहानी चित्रित करती
है आदिवासी छात्रावासों में हो रहे यौन शोषण और भ्रष्टाचार को। उनके लिए सुविधाओं
की बाते तो खूब होती है पर लेखिका उस यथार्थ से पाठकों को रु-ब-रु करवाती हैं जहाँ
हकीकत कुछ और ही है। लेखिका के शब्दों में – “इस छात्रावास के कमरे क्या थे, दड़बे ही थे। न जाने कब से पुताई नहीं हुई थी। मैंने
बेंच पर बैठे-बैठे कमरों में झाँका, कमोबेश हर कमरे का एक ही-सा परिदृश्य-अलमारियाँ
नदारद, बस कुछ
ताखेँ थीं...टेबल
नहीं थी, डेस्क
थीं, उन पर किताबें थीं। प्रकाश
के लिए मकड़ी के जालों से ढका धूमिल बल्ब, काँच की खिड़की बन्द थी। उस पर मोटा काला कागज चिपका
था। कैसे पढ़ती होंगी इतनी कम रोशनी में?”3 इसके अतिरिक्त किस प्रकार से उनकी छात्रवृति
उन्हे पूरी नहीं दी जाती, उनका
यौन शोषण किया जाता है इसे भी लेखिका ने रेखांकित किया गया है।
‘बिगड़ैल बच्चे’ अपने ढंग की अनूठी कहानी है। जीवन की मार्मिक संवेदनाओं को खुद में समेटे इस कहानी के कई प्रसंग मन को छूते हैं। कहानी नयी और पुरानी पीढ़ी के उत्तरदायित्वहीनता का प्रतीकार करते हुये उसे मार्मिक संवेदनाशीलता के धरातल पर उठाती है। इस कहानी में लेखिका रेलयात्रा के दौरान घटी घटना को कहती हैं। कहानी मुख्य रूप से उन तीन युवाओं की है जो युवा पीढ़ी को लेकर बनी जमाने की नज़रिये को बदलकर रख देते हैं। आज की पीढ़ी के पहनावे को लेकर जो विचारधारा पुरानी पीढ़ी के मन में बनी हुई है उसका जिक्र कहानी में कुछ इस प्रकार किया गया है– “यह हाल है हमारे देश की युवा पीढ़ी का!... हमारी यंग जेनरेशन पूरी की पूरी ही ऐसी है। कुछ वेस्टर्न कल्चर का असर था, बचा-खुचा टी.वी. चैनलों ने पूरा कर दिया। इन लोगों को इतनी छूट है, हमें कभी थी क्या?”4 कहानी में युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते तीनों पात्र भले आधुनिक वेषभूषा में हो, उनका व्यवहार भी आधुनिक हो पर उनके अंदर की मानुष्यता, सहृदयता उनमें माजूद हैं जो डॉक्टर दाम्पत्य में नहीं। कहानी में चित्रित है की एक ओर जहाँ लेखिका के ट्रेन से टकरा कर प्लेटफॉर्म पर गिर जाने के बाद वही युवा पीढ़ी उनकी देखभाल करते हैं और अपनी ट्रेन भी छोड़ देते हैं जिनसे लेखिका चिढ़ी हुई थी। वहीं दूसरी ओर सिद्धांतों, आदर्शों और मर्यादाओं की दुहाई देने वाले डॉक्टर दंपति अपनी मजबूरी बताकर घटना को अनदेखा कर देते हैं – “हिज वाइफ स्कोल्ड हिम नॉट टू कम विद अस ऐंड ही स्टेड बैक। वी लिटरली प्रेड टू हिम... बट ही टोल्ड आय कांट...गेट डाउन...आय हैव टू रीच टुडे।”5 अतः कहानी के अंत में कहानीकार दिखाती हैं की जो लेखिका शुरू में उनसे चिढ़ी हुई थी वही अब उन्हें उनके गाने सुनने से, साथ बैठने से कोई चिढ़ नहीं हुई। मुख्य रूप से यह कहानी चित्रित करती है की किस प्रकार से हमें अपने नजरियों को बदलने की आवश्यकता है। कहानी में मनीषा कुलश्रेष्ठ यह स्पष्ट करती हैं की किसी को उसके पहनावे के आधार पर नहीं परखना चाहिए। साथ ही साथ कहानी में दुर्घटनाग्रस्त हिन्दू महिला के प्रति एक मुसलमान डॉक्टर और क्रिश्चियन यवाओं की सहृदयता एक सांप्रदायिक सद्भाव का संदेश देती है।
वर्तमान
समय समाज में विलुप्त होती लोक-कलाओं का तथा लोक कलाकारों की दयनीय स्थिति की
अभिवयक्ति मनीषा कुलश्रेष्ठ अपनी कहानी ‘स्वांग’ में करती नज़र आती हैं।
उत्तर भारत की विलुप्तप्राय बहुरूपिया कला वहाँ के अधिकांश राज्यों के लिए एक अहम
हिस्सा हुआ करती थी जो लोगों के लिए मनोरंजन और जीवकोपार्जन की भी साधन हुआ करती
थी। आज के समय में लोककलाएं विलुप्त होती जा रही है। वर्तमान समय में लोककलाओं को
भुलाया जा रहा है। इस बात की पुष्टि कहानी के मुख्य पात्र ‘गफ़्फ़ार खाँ’
को केन्द्रित कर मनीषा कुलश्रेष्ठ करती हैं। यह कहानी तकनीकी क्रान्ति के नाम पर
संवेदना खोते समाज की है। पेंशन और चिकित्सा सहायता के लिए सरकारी अफसरों से मिली
निराशा से लौटे गफ़्फ़ार खाँ राष्ट्रपति सम्मान प्राप्त कलाकार हैं। पर आज के तकनीकी
युग में लोक कलाओं को कोई महत्व नहीं दिया जाता। कहानी में इस बात की पुष्टि
कलक्टर साहब के इस कथन से होती है – “आज के तरक्की पसंद युग में कला के क्या
मायने, वह भी
राजा-महाराजाओं के ज़माने की कलाएँ! आप ही कहें आपके बच्चों में से कौन-सा आपकी
विरासत को आगे बढ़ा रहा है? न सही
बच्चा, है आपकी
कला का कोई नामलेवा? कोई चेला?”6 भौतिकवाद के कारण अपनी संस्कृति से आज व्यक्ति किस
प्रकार विच्छिन होता जा रहा है उस यथार्थ को ‘स्वांग’
कहानी के माध्यम से पाठकों के सम्मुख रखा गया है।
आज
का दौर कुछ ऐसा है जहाँ कई संस्थानों में काबिल व्यक्ति की तुलना में वैसे
व्यक्तियों को प्रश्रय दिया जाता है जो चापलूसी करने में माहिर होते हैं। व्यक्ति
को उसकी काबिलियत के बजाय वह कितनी चापलूसी कर पाता है इस आधार पर उसे सफलता मिलती
है तथा उसे प्रमोशन की प्राप्ति होती है। इस स्थिति को अपनी लेखनी का आधार बनाकर
मनीषा कुलश्रेष्ठ ‘भगोड़ा’ नामक कहानी में दर्शाती हैं। किस प्रकार से वर्तमान
समय में अधिकतर लोग आगे बढ़ने के लिए अपने से उच्च अधिकारियों के घर आते-जाते हैं, उनके आगे-पीछे मंडराते हैं, उनकी चापलूसी करते हैं इसे बखूबी दर्शाया गया है।
कहानी का केंद्रीय पात्र ‘प्रशांत’ के साथ किये जा रहे भेद-भाव व बुरा व्यवहार केवल इसलिए
की वह किसी ऑफिसर की ‘जी हजूरी’ नहीं करता है तथा जब उसे लगने लगा की वह केवल
चापलूसी के बल पर ही आगे बढ़ पायेगा तो उसे उस माहौल से घुटन होने लगती है और तब
उसने और उसके दो साथी ने एयरफोर्स की नौकरी बिन बताये छोड़ दी। जिसका परिणाम यह हुआ
कि उन्हें ‘भगोड़ा’ घोषित कर दिया गया। क्योंकि सेना में कोई सैनिक बिना
वजह बताये अगर नौकरी छोड़ कर चला जाता है तो उसे भगोड़ा घोषित कर दिया जाता है।
‘कुछ
भी तो रूमानी नहीं’ कहानी-संग्रह में ‘स्टिकर’ शीर्षक से एक ऐसी भी कहानी
है जो वर्तमान समय समाज की उपभोगतावादी-बाजारवादी संस्कृति का यथार्थ चित्रण
पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है। बाजारवादी संस्कृति इस कदर लोगों पर हावी होने
लगा है की व्यक्ति ‘मनुष्य’ से ‘प्रोडक्ट’ में परिवर्तित होता चला जा रहा है। इस
संस्कृति के अंतर्गत किस प्रकार एक वेटर को ‘एंगर मैनेजमेंट’ और ‘इमोशनल
कोशेंट’ की ट्रेनिंग दी जाती है जिसे
ढोते-ढोते वह एक ‘स्टिकर’ में तबदील हो जाता है इसका अंकन लेखिका ने बड़े ही यथार्थ
के साथ किया है। कहानी का नायक ‘अजय’, रेस्तरां में काम करने वाला एक वेटर है। उसे उसके काम के दौरान
हिदायत दी जाती है की– “ ‘मुस्कान के साथ पिज़ा नहीं, पिज़ा के साथ मुस्कान सर्व करते हैं।’ इस स्लोगन को
अवचेतन में दोहराते हुए उसने अपना चेहरा काउंटर के पास लगे वॉशबेसिन के आईने में
देखा और चेहरे पर जमती एक नपी-तुली ख़ुशगवार सी मुस्कान चुन ली।”7 अजय को
माध्यम बनाकर मनीषा कुलश्रेष्ठ ने रेस्तरां में काम करने वाले वेटर की विवशता को
उजागर किया है जिन्हें बाहरी दिखावे के साथ जीना पड़ता है। जिन्हें अपने चेहरे पर
दिखावे की मुस्कान रखनी पड़ती है, चाहे
भीतर से वे कितना भी निराश क्यों न हो।
कभी-कभी
कथाकार कुछ ऐसी कहानियां पाठकों के समक्ष रख देते हैं जो पाठकों की अंतरात्मा
को झकझोर कर रख देती है। कुछ ऐसी ही कहानी है ‘फांस’। यह कहानी एक
अविवाहित तथा मातृविहीन लड़की ‘अन्तिमा’ की है। जो अपने ही पिता द्वारा बलात्कार की शिकार होती है। इस कहानी में स्त्री
जीवन के उन पहलुओं को लेखिका सामने लाती हैं जहाँ एक स्त्री बाहर तो असुरक्षित
होती ही है, शोषण का शिकार वह रहती ही है किन्तु
विडंबना यह है की अब वे अपने घर-परिवार तक में सुरक्षित नहीं रह पाती। जहाँ उसे
मात्र एक नारी शरीर के नज़रिये से देखा जाता है और वह स्त्री बलात्कार की शिकार हो
जाती है। कहानी की पात्र का अपने ही पिता द्वारा बलात्कार होना बाप-बेटी के
रिश्तें को शर्मशार करती है। अपनी ही बेटी के साथ बलात्कार करना पिता-पुत्री के
बीच के संबंध को, भरोसे
की जड़े तक हिला देती है। जो पिता अपनी पुत्री की सुरक्षा करता है अगर वही पिता
उसकी आबरू के साथ खिलवाड़ करे तो क्या मनोस्थिति होगी उस लड़की की। अंतिमा अपने पिता
से बचने का हर संभव प्रयास करती है। किन्तु वह असफल हो जाती है – “उसने सोच रखा
था कि अगली बार शराब के नशे में पिता ने ऐसी-वैसी कोई हरकत की तो उसका सिर दीवार
से फोड़ देगी। उसके पिता ने ही उसका सिर दीवार से दे मारा। अर्धचेतना में जाने कब, समाज और सभ्यताओं के कानों में बरसों से वह एक गाली, जो गर्म सीसे-सी गिरती थी, आज उसी सभ्यता की जांघों में वह लहू से लिख दी गई।”8
कहानी को आधार बनाकर लेखिका ने समाज
में मौजूद उस कड़वे यथार्थ को दर्शाया है जहाँ एक स्त्री अपने ही घर में प्रताड़ित व
शोषित होती है।
उक्त
कहानियों को देखकर कहा जा सकता है की मनीषा कुलश्रेष्ठ अपनी कहानियों के विषयों
में विविधता रखती हैं। वर्तमान समय समाज में व्याप्त विसंगतियां, विडंबनायें, स्त्री जीवन की त्रासदी आदि इनके साहित्य में परिलक्षित होते हैं।
संदर्भ -
- atootbandhann.com/2019/11/book-review-kirdar.html
- मनीषा कुलश्रेष्ठ, ‘कठपुतलियाँ’, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, तीसरा संस्करण – 2010, पृ. 20
- वहीँ, पृ. 91
- वहीँ, पृ. 120
- वहीँ, पृ. 126
- मनीषा कुलश्रेष्ठ, ‘गंधर्व-गाथा’, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण – 2016, पृ. 13
- मनीषा कुलश्रेष्ठ, ‘कुछ भी तो रूमानी नहीं’, अंतिका प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, पहला संस्करण – 2008, पृ. 106
- मनीषा कुलश्रेष्ठ, ‘गंधर्व-गाथा’, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण – 2016, पृ. 145
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, राजीव गांधी विश्वविद्यालय, ईटानगर, अरुणाचल प्रदेश
vandanapandey93@gmail.com, 9863887796
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
अंक-35-36, जनवरी-जून 2021
चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue
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