अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021, चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
छात्र असन्तोष : नैतिक शिक्षा की आवश्यकता / डॉ. दयाशंकर सिंह यादव
स्वतंत्रता पूर्व और स्वतंत्रता के बाद भारत में जितने भी परिवर्तनकारी सामाजिक आंदोलन हुए, उनमें छात्रों की भूमिका प्रमुख रही है। महात्मा गांधी के आह्वान पर लाखों छात्रों ने अंग्रेजी सरकार द्वारा स्थापित स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को छोडकर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था। भारत में छात्र-असन्तोष दो चरणों में देखा जा सकता है। स्वतंत्रता के पूर्व तथा स्वतंत्रता के बाद का छात्र असंतोष। भारत में छात्र आंदोलन का प्रारम्भ 1848 में दादाभाई नौरोजी के स्टूडेंट्स साइंटिफिक एंड हिस्टोरिक सोसाइटी की स्थापना से माना जाता है। भारतीय इतिहास में पहली बार 1913 में छात्रों ने किंग एडवर्ड मेडिकल कॉलेज, लाहौर में अंग्रेजी छात्रों और भारतीयों के बीच अकादमिक भेदभाव के विरोध में हड़ताल की थी। असहयोग आंदोलन में भारतीय छात्रों ने प्रतिभाग किया। हिंदू छात्र संघ (एचएसएफ) 1936 में आरएसएस की विचारधारा के साथ शुरू हुआ था। मुस्लिम लीग ने 1937 में मुस्लिम छात्रों की शिकायतों को हल करने के लिए अखिल भारतीय मुस्लिम छात्र संघ की स्थापना की थी। दोनों छात्र संगठनों ने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेना उचित नहीं समझा। असहयोग आंदोलन के बाद, भारत छोड़ो आंदोलन को भारतीय छात्रों का समर्थन मिला। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की स्थापना 1949 में राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के कार्य की दिशा में छात्र शक्ति को जुटाने के लिए की गयी थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की छात्र सक्रियता एआईसीसी की युवा शाखा द्वारा की जाती थी।
स्वतंत्रता
के बाद छात्र आंदोलनों की पड़ताल
स्वतंत्रता के बाद अधिकांश छात्र आंदोलन स्थानीय स्तर पर राजनेताओं के राजनीतिक हथियार बन कर रह गए है। आचार्य नरेन्द्र देव ने लिखा था कि जब कोई राजनैतिक दल सत्ता प्राप्त कर लेता है तो सबसे पहले वह उन संघर्षशील तत्वों को समाप्त करने का प्रयास करता है जिन्होंने उसकी सत्ता प्राप्ति में सहायता की हो। लेकिन कुछ मामलो में छात्रों की उपस्थिति ने सामाजिक परिवर्तन को गति दी जैसे- आपातकाल के दौरान हुए आन्दोलन इत्यादि।
अखिल भारतीय युवा संघ की स्थापना-
1959 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ने युवा पीढ़ी के
प्रगतिशील और लोकतांत्रिक खंड के लिए एकजुट मंच के रूप में की थी। छात्रों की
एकरूपता ने इसे और भी क्रांतिकारी बना दिया था। भारतीय छात्र संघ (S.F.I.) 1970 में सीपीआई (एम) ने छात्रों को एक लोकतांत्रिक और
प्रगतिशील शिक्षा प्रणाली से लड़ने के लिए, छात्र समुदाय के उन्नति और सुधार के लिए स्थापना की। नेशनल
स्टूडेंट यूनियन ऑफ इंडिया (NSUI) की स्थापना 9 अप्रैल 1971 को एक राष्ट्रीय छात्र संगठन बनाने के लिए केरल स्टूडेंट्स यूनियन
और पश्चिम बंगाल राज्य छत्र परिषद के विलय के बाद इंदिरा गांधी ने की थी।
आपातकाल के दौरान-
1974 में छात्र आन्दोलन आपातकाल के विरोध में शुरू हुआ। इसी दौरान अखिल
भारतीय विद्यार्थी परिषद और समाजवादी छात्रों ने पहली बार एकजुट हो कर छात्र
संघर्ष समिति का गठन कर आपातकाल का विरोध किया। जिसके लालू प्रसाद यादव
अध्यक्ष चुने गए थे और सुशील कुमार मोदी महासचिव चुने गए थे। आपातकाल के विरोध
प्रदर्शन के दौरान बहुत से छात्रों को बेरहमी से पीटा गया और उनको जेल में बंद कर
दिया गया था। नेतृत्व विहीन आपातकाल आन्दोलन को नई ऊर्जा देने के लिए जय प्रकाश
नारायण को छात्रों द्वारा आमंत्रित किया गया और उसके बाद उन्होंने 'सम्पूर्ण क्रांति' का नारा दिया। 18 मार्च 1974 को जयप्रकाश नारायण के
नेतृत्व में पटना में छात्र आंदोलन की शुरूआत हुई थी। जो देश भर में जेपी आंदोलन
के रूप में जाना गया।
वर्तमान दौर में छात्र राजनीति विचारधाराओं में सिमट कर रह गयी है। छात्र राजनीती छात्रों के कल्याण के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक संगठनों के गुलाम होते जा रहे है। वर्तमान दौर की छात्र राजनीति में धार कुंद हो गयी है। अखिल भारतीय छात्रसंघ की स्थापना सीपीआई (एमएल) ने 1990 में की थी। बदलते वक़्त ने छात्रों की राजनीति और आन्दोलन के स्वरुप को ही बदल डाला। शुरूआती छात्र आंदोलन स्कूलों, पाठ्यक्रमों और शैक्षिक धन पर केंद्रित था; फिर उनका झुकाव भारत की आजादी के संघर्ष की ओर स्थानांतरित हुआ और अब ये केवल राजनैतिक संगठनो के हाथो की कठपुतली बन कर रह गए है। रिक वेइसबोरड ने अपने ‘मोरल टीचर्स, मॉरल स्टूडेंट्स’ लेख में लिखा है कि "शिक्षक छात्रों के नैतिक विकास को केवल अच्छे रोल मॉडल होने से प्रभावित करते हैं लेकिन यह भी कि वे दिन-प्रतिदिन छात्रों के साथ अपने रिश्तों में क्या प्रोग्राम लाते हैं।" देश के नवयुवक राष्ट्र के विकास एवं निर्माण की आधारशिला होते हैं। स्वस्थ नवयुवक ही स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। इन युवकों से ही देश की वास्तविक पहचान होती है। यदि देश के नवयुवकों में चारित्रिक दृढ़ता व नैतिक मूल्यों का समावेश है तथा वे बौद्धिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों से परिपूर्ण हैं तो निस्संदेह हम एक स्वस्थ एवं विकसित राष्ट्र की कल्पना कर सकते हैं परंतु यदि हमारे युवकों की मानसिकता रुग्ण है अथवा उनमें नैतिक मूल्यों का अभाव है।
युवा वर्ग की मानसिकता, उनकी मन:स्थिति व उनकी वर्तमान परिस्थितियों का आकलन करें तो हम पाते हैं कि उनमें से अधिकांश अपनी वर्तमान परिस्थितियों से संतुष्ट नहीं हैं। अधिकतर छात्र जीविका पाने के उद्देश्य से शिक्षा प्राप्त करते हैं, इसलिए जब उन्हें अनुकूल शिक्षा नहीं मिल पाती या उचित शिक्षा नहीं मिल पाती तो उनमें आक्रोश पनपने लगता है जिसे वह अपने अपने तरीके से व्यक्त करने लगते हैं। आज विद्यार्थी बिना सोचे-समझे शिक्षा लेकर महाविद्यालय विश्वविद्यालय से बाहर आकर बेरोजगारों की पंक्ति में खड़े हैं। छात्रों को अपने अनिश्चित भविष्य को लेकर असंतोष फैल रहा है। छात्र असंतोष एक ऐसी परिस्थिति है जिनका सामना अधिकतर विद्यार्थी अपने शैक्षणिक सत्र के दौरान करते रहते है। कभी विद्यार्थी अपने शिक्षकों के असहनीय बर्ताव का शिकार होते है, तो कभी पाठ्यक्रम को ऐसा तैयार किया जाता है जो विद्यार्थी अनुकूल नहीं होता है। जिनके कारण आए दिन विद्यार्थियों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कई बार शिक्षक अपने ज्ञान के प्रभाव में विद्यार्थियों के विचारों को अनसुना कर देते हैं, साथ ही उनका तिरस्कार किया जाता है। यही तिरस्कार धीरे-धीरे विद्यार्थियों में विरोध पैदा करता है जिसका परिणाम हड़ताल, प्रदर्शन, हिंसात्मक घटनाएँ, परीक्षाओं का बहिष्कार, में बदल जाता है ।
देश के युवा वर्ग में बढ़ते असंतोष के अनेक कारक हैं। जब युवाओं के हुनर का कोई राष्ट्र समुचित उपयोग नहीं कर पाता है तब युवा असंतोष मुखर हो उठता है। कुछ तो हमारे देश की वर्तमान परिस्थितियाँ इसके लिए उत्तरदायी हैं तो कुछ उत्तरदायित्व हमारी त्रुटिपूर्ण राष्ट्रीय नीतियों एवं दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति का भी है। कुछ अध्यापक जो जुगाड़ से या गलती से अध्यापक बन जाते हैं अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते जिससे छात्रों का मार्गदर्शन सही तरीके से नहीं हो पाता। स्कूलों में शिक्षक और विद्यार्थी का अनुपात में भी बड़ा अंतर दिखता है। परीक्षा पद्धति असफल हो रही है। ईजी नोट्स पढ़कर छात्र किसी तरह पास हो जाते हैं । छात्रों के असंतुष्ट रहने के कई कारण हो सकते है। सबसे प्रमुख कारण हमारे देश में भाषा, धर्म, जाति, वंश, लिंग, आयु आधारित भेदभाव एवं अनेक अन्धविश्वास अभी भी विद्यमान हैं। छात्र आजकल की राजनीति, फैशन, ग्लैमर, फिल्म, मनोरंजन, अपराध के प्रति आकर्षण इत्यादि में अधिक है। साथ ही जब सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त विरोधाभास, राजनीति से उत्पन्न भ्रष्टाचार व आर्थिक असमानताओं के कारण सभी व्यक्तियों में देश एवं समाज के प्रति मोहभंग हो जाता है तो वह किसी न किसी रूप में विद्रोही हो ही जाता है, तो ऐसी स्थिति में युवाओं से ही क्यों आशा की जाती है कि वे ही पारम्परिक नैतिक मूल्यों एवं आदर्शो के अनुसार चलें।
युवाओं की छवि हमेशा से आक्रामक रही है। उन्हें उत्तेजक, फुर्तीला, बागी मिजाज माना जाता रहा है। प्रत्येक गलत अथवा सही कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है। विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों में असन्तोष है तो उसे छात्र-आन्दोलन की समस्या के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है अपितु जब सम्पूर्ण देश में शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश, पाठ्यक्रमों, परीक्षा-प्रणाली और शैक्षिक-समितियों में प्रतिनिधित्व आदि सामूहिक मामलों पर कुंठित होते हैं कि युवाओं में असन्तोष की समस्या है। युवाओं द्वारा व्यक्त किये जाने वाले असन्तोष एवं आन्दोलन के पीछे भी अनेक कारण हैं। युवाओं के आन्दोलनों को नियन्त्रित किया जा सकता है। परस्पर सहयोग, सद्भावना, सहिष्णुता, आदर, प्रेम, नैतिक मूल्यों एवं आदर्शो को युवाओं में पैदा करने की आवश्यकता है, तभी देश का सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक विकास समन्वित रूप से हो सकता है। छात्र-असंतोष के जिम्मेदार न केवल छात्र बल्कि अध्यापक व अधिकारी एवं सरकार भी हैं। अत: युवाओं में इन उत्तेजनापूर्ण आन्दोलनों को नियन्त्रित एवं कम करने के लिए माता-पिताओं, शैक्षणिक संस्थाओं के शिक्षकों, नीति निर्माताओं और शैक्षिक-प्रशासन व्यवस्था आदि सभी का पर्याप्त सहयोग अति आवश्यक है ताकि उनके अन्दर आशा, विश्वास, उत्साह, साहस की भावना पैदा हो सके। उनकी कक्षाओं में मूल्य शिक्षा का समावेश किया जाए। आज उच्च शिक्षा में नवाचार आधारित कक्षा-शिक्षण का अभाव पाया जा रहा है, नैतिक और मूल्य शिक्षा आधारित अध्यापन-विज्ञान का समावेश रूढ़िवादी मान लिया गया है, जबकि उच्च शिक्षा की कक्षाओं में मूल्य शिक्षा आधारित अध्यापन का समावेश किया जाना नितांत आवश्यक है, डगलस सुप्रका ने मूल्य शिक्षा के लिए आठ अलग-अलग दृष्टिकोणों की व्याख्या की है-
1. निकासी दृष्टिकोण-
छात्रों
को बिना सोचे-समझे या बिना किसी हिचकिचाहट के स्वतंत्र रूप से, गैर तर्कसंगत विकल्प बनाने के लिए प्रोत्साहित किया
जाता है। यह एक ऐसा वातावरण प्रदान करता है जो छात्रों के लिए अधिकतम स्वतंत्रता
की अनुमति देता है और एक उत्तेजक स्थिति प्रदान करता है, जिसके लिए सहज प्रतिक्रियाएं प्राप्त होती हैं।
2. उत्थान दृष्टिकोण-
छात्रों
को विशिष्ट वांछित मूल्यों के अनुसार कार्य करने के लिए मजबूर किया जाता है ।
शिक्षक द्वारा एक सकारात्मक और नकारात्मक सुदृढीकरण मूल्य वृद्धि में मदद करता है।
यह एक शिक्षक के प्राकृतिक कार्यों और प्रतिक्रियाओं द्वारा किया जा सकता है।
3. जागरूकता दृष्टिकोण-
यह
दृष्टिकोण छात्रों को जागरूक होने और अपने स्वयं के मूल्यों की पहचान करने में मदद
करता है। इस प्रकार छात्र खुद को और दूसरों के विचारों, भावनाओं, विश्वासों या व्यवहार से मूल्यों के बारे में अनुमान लगाने की
प्रक्रिया में खुद को संलग्न करते हैं ।
4. नैतिक तर्क दृष्टिकोण-
कोह्लबर्ग
के नैतिक विकास के छह चरणों का सिद्धांत इस दृष्टिकोण में सबसे अधिक बार उपयोग
किया जाने वाला ढांचा है। शिक्षकों ने सीखने के अनुभवों को स्थापित किया जो नैतिक
विकास की सुविधा प्रदान करेगा। ये अनुभव कोहलबर्ग की भूमिका की सामान्य श्रेणी के
अंतर्गत आते हैं। भूमिका लेने में महत्वपूर्ण कारक सहानुभूति है। खुद को एक भूमिका
में रखने और निर्णय लेने की प्रक्रिया का अनुभव करने के माध्यम से, छात्र अपने एकल दृष्टिकोण की तुलना में एक बड़े ढांचे
में नैतिक निर्णय देखना शुरू कर सकते हैं। इसमें एक दुविधा की चर्चा करने वाले
छात्र होते हैं और तर्क के द्वारा वे उच्च स्तर का ज्ञान प्राप्त करते हैं।
5. विश्लेषण दृष्टिकोण-
समूह
या व्यक्तियों को सामाजिक मूल्य समस्याओं का अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित किया
जाता है। उन्हें मूल्य प्रश्नों को स्पष्ट करने और संघर्ष में मूल्यों की पहचान
करने के लिए कहा जाता है।
6. मूल्य स्पष्टीकरण-
यह
छात्रों को व्यक्तिगत व्यवहार पैटर्न की जांच करने और मूल्यों को वर्गीकृत करने और
वास्तविक बनाने के लिए तर्कसंगत सोच और भावनात्मक जागरूकता दोनों का उपयोग करने
में मदद करता है।
7. प्रतिबद्धता दृष्टिकोण-
यह
छात्रों को न केवल निष्क्रिय रिएक्टरों के रूप में या स्वतंत्र व्यक्तियों के रूप
में बल्कि एक सामाजिक समूह और प्रणाली के आंतरिक-सापेक्ष सदस्यों के रूप में खुद
को महसूस करने में सक्षम बनाता है।
8. केंद्रीकृत दृष्टिकोण-
इसका उद्देश्य छात्रों को स्वयं को समझने और अलग-अलग अहंकार के रूप में नहीं बल्कि एक बड़े अंतर-संबंधित मानव-जाति, दुनिया, ब्रह्मांड के हिस्से के रूप में कार्य करना है।
जॉन सी॰ डाल्टन और पामेला सी॰ क्रॉस्बी ने नैतिक और मूल्य शिक्षा के लिए दस गतिविधियाँ दी हैं, जो निम्नलिखित हैं:-
1. सामुदायिक सेवा और सेवा सीखना-
कुछ
कक्षा की गतिविधियाँ छात्रों को दूसरों की समझ और स्वयं को गहरा करने और सामुदायिक
सेवा गतिविधियों में भागीदारी के रूप में नैतिक प्रतिबिंब को प्रोत्साहित करने के
लिए बहुत सारे समृद्ध अवसर प्रदान करती हैं। ये गतिविधियाँ छात्रों को वास्तविक
जीवन की समस्याओं और चुनौतियों के संपर्क में लाती हैं। बहुत सारी सामुदायिक सेवा
गतिविधियाँ हैं; जिनमें
कुछ निम्न हैं:- चैरिटी में हिस्सा लें, स्थानीय गैर-लाभार्थी संगठन में स्वयंसेवक, एक कपड़े/ड्राइव का आयोजन, एक राष्ट्रीय दिवस में भाग लें, जन्मदिन या दीवाली, ईद या क्रिसमस में उपहार के बजाय धर्मार्थ दान के लिए
पूछें, पैसे दान करें, आपके पास उपलब्ध एक कौशल को अन्य में विकसित करने के
लिए कक्षायें सिखाएं, अपने खेल
के मैदान को साफ करें, पेड़, फूल या अन्य पौधे लगाएं, अपने स्थानीय पुस्तकालय में स्वयंसेवक बनें, राजमार्ग के एक खंड को अपनाएं और इसे नियमित रूप से
साफ करें आदि।
2. आध्यात्मिक गतिविधियाँ-
अधिकांश स्नातक छात्रों के लिए कॉलेज का समय स्वयं की खोज, पहचान विकास और निर्णय लेने का समय होता है। छात्रों द्वारा अर्थ और उद्देश्य की यह आवक खोज अक्सर आध्यात्मिक संदर्भ में तैयार की जाती है। आध्यात्मिक गतिविधियाँ छात्रों को उनके आंतरिक जीवन का पता लगाने और पूर्णता और एकीकृत जीवन की भावना का पता लगाने में मदद कर सकती हैं।
3. नेतृत्व शिक्षा-
कॉलेज
के छात्रों के बीच नेतृत्व कार्यक्रमों की लोकप्रियता और नेतृत्व की भूमिकाओं और
जिम्मेदारियों के लिए नैतिक विचारों के आंतरिक कनेक्शन, नेतृत्व शिक्षा को नैतिक और चरित्र विकास के लिए एक
शक्तिशाली मंच बनाते हैं।
4. विविधता शिक्षा-
विविधता
शिक्षा मानव अंतर की समझ और सराहना को बढ़ावा देने के लिए कॉलेजों और
विश्वविद्यालयों द्वारा उपयोग की जाने वाली एक बहुत ही लोकप्रिय शैक्षिक रणनीति का
प्रतिनिधित्व करती है। ऐसी शिक्षा के केंद्र में नैतिक मूल्यों और व्यवहारों का
विकास होता है जैसे कि दूसरों के लिए सम्मान, सहिष्णुता, निष्पक्षता और सहानुभूति और समुदाय और समाज के सकारात्मक पहलू के
रूप में बहुलवाद की स्वीकृति।
5. सहकर्मी सलाह और नेतृत्व-
कुछ
चीजें छात्रों को जिम्मेदारी, दूसरों
की समझ और स्वयं-जागरूकता को सलाह देने और अग्रणी लोगों की जिम्मेदारी के रूप में
सिखाती हैं। कॉलेज की स्थापना में, छात्रों को सहकर्मी सलाहकार और नेता के रूप में काम करने के लिए
कई अवसर उपलब्ध हैं और ये भूमिकाएं शक्तिशाली नैतिक विकास के अनुभव प्रदान कर सकती
हैं, खासकर यदि वे चर्चा के अवसर शामिल
करते हैं। सहकर्मी सलाह, बहुमुखी
प्रतिभा सहित कई फायदे प्रदान करता है, पहले से मौजूद शैक्षणिक सलाह देने वाले कार्यक्रमों के साथ संगतता, छात्र की ज़रूरतों के प्रति संवेदनशीलता और समय और
स्थानों को सलाह देने की सीमा और दायरे का विस्तार करने की क्षमता जब आमतौर पर
सलाह उपलब्ध नहीं होती है।
6. अनुशासनात्मक और न्यायिक कार्यक्रम-
कई
कॉलेज के छात्र संस्थागत नियमों और विनियमों के उल्लंघन के परिणामस्वरूप कॉलेज की अनुशासनात्मक
प्रक्रियाओं में भाग लेंगे। नए छात्र कॉलेज के नियमों के सबसे अक्सर उल्लंघन करने
वालों में से हैं, जो
व्यवहार के कारण उन्हें छात्र आचरण नियमों के साथ संघर्ष में लाते हैं। जब शैक्षिक
उद्देश्यों के लिए संगठित और प्रशासित किया जाता है, तो कॉलेज के अनुशासनात्मक प्रक्रिया कॉलेज के छात्रों
को उनके व्यवहार के नैतिक और सामाजिक परिणामों को प्रतिबिंबित करने और उनके द्वारा
किए जाने वाले निर्णयों के लिए अधिक व्यक्तिगत जिम्मेदारी लेने में मदद करने में
बहुत उपयोगी हो सकती है।
7. छात्र शासन संगठनों और गतिविधियों में भागीदारी-
छात्र
अक्सर स्वयं कर के सीखते हैं, और परिसर
के जीवन के कुछ क्षेत्र हैं जहां छात्रों को स्वतंत्रता और स्व-शासन के लिए अधिक
जिम्मेदारी दी जाती है जैसे कि छात्र सरकार, निवास हॉल सरकार, छात्र क्लब और संगठन और अन्य छात्र गतिविधियों जैसी
गतिविधियों में। इन नेतृत्व भूमिकाओं में छात्रों के पास संस्थागत शासन में साझा
करने के लिए कार्यक्रम, नीतियां
और प्रक्रियाएँ बनाने के कई अवसर हैं।
8. आनंदप्रद कोचिंग
मनोरंजन
आज के कॉलेज के छात्रों की सबसे लोकप्रिय गतिविधियों में से एक है। हजारों छात्र
कोच, रेफरी, व्यक्तिगत प्रशिक्षक, न्यायाधीश और छात्र मनोरंजक गतिविधियों और खेलों की
एक विशाल सरणी के नेताओं के रूप में कार्य करते हैं। इन भूमिकाओं में छात्र
संघर्षों की मध्यस्थता करते हैं, निष्पक्ष
खेलने की सुविधा देते हैं, प्रतिक्रिया
और सलाह प्रदान करते हैं और अपने साथियों की सहायता और मार्गदर्शन करते हैं ।
9. छात्र गतिविधियाँ
छात्र गतिविधियों को अक्सर छात्र मनोरंजन के
रूप में माना जाता है, इन कैंपस
गतिविधियों के बारे में बहुत कुछ है जो नैतिक और नागरिक शिक्षा को प्रोत्साहित
करते हैं। कला, राजनीति
और मनोरंजन के कार्यक्रम में महत्वपूर्ण नेताओं को परिसर में लाते हैं। छात्र
दीर्घाएं छात्रों, शिक्षकों, पूर्व छात्रों और पेशेवर कलाकारों की कलात्मक कृतियों
को प्रदर्शित करती हैं। शिल्प कार्यक्रम छात्रों को प्रतिभा विकसित करने और
रचनात्मक प्रक्रिया का पता लगाने के अवसर प्रदान करते हैं। कॉफी हाउस, खुले माइक कार्यक्रम, और चर्चा राउंड-टेबल्स छात्रों को वर्तमान विषयों और
मुद्दों पर बहस और चर्चा करने के अवसर प्रदान करते हैं।
10. घुमक्कड़ जिज्ञासा-
यात्रा
कैंपस रूटीन और दायित्वों से एक अस्थायी राहत प्रदान करती है और मस्ती और दोस्ती
के महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करती है। कॉलेज के छात्र लंबी पैदल यात्रा, कैंपस कैनोइंग, पर्वतारोहण जैसी ऑफ-कैंपस साहसिक यात्राओं में भाग
लेते हैं। कुछ प्रकार की यात्रा में छात्रों को नए अनुभव प्रदान करने की क्षमता
होती है जो आत्म-परीक्षा को उत्तेजित करते हैं और उन्हें उन तरीकों से खुद को
चुनौती देने का कारण बनते हैं जो वे परिसर स्थापना के अन्तर्गत में नहीं कर सकते
हैं। यात्रा का हमेशा मानवीय मूल्यों और समझ पर गहरा प्रभाव पड़ा है।
आज शिक्षा में छात्र-असन्तोष दिन प्रतिदिन बढ़ता
जा रहा है, हम समस्या का समाधान अधिकतर लोग
बाहर से ही खोजते हैं साथ ही नैतिक और मूल्य प्रेरित शिक्षा के स्थान पर भौतिक
सामग्री आधारित कक्षा–शिक्षण को प्राथमिकता देते हैं, जो छात्र–असन्तोष को पूर्ण समाधान करने में असक्षम
रहा है। आवश्यकता है जो बाहर से छात्रों पर न थोपी जाए बल्कि उनके अन्दर से
प्रस्फुटित करते हुये, उसे
पल्लवित व पुष्पित किया जाए। यह तभी सम्भव है जब नैतिक शिक्षा एवं मूल्य शिक्षा
आधारित पाठ्यक्रम सम्मिलित किया जाए। यही नैतिक और मूल्य परक शिक्षा का समावेश
उच्च शिक्षा में छात्र-असन्तोष का उचित व पूर्ण समाधान करने में सक्षम होगा एवं
छात्र अपने अन्दर सर्वांगीण विकास कर,
राष्ट्र को महत्वपूर्ण योगदान दे पाएगा। तभी युवा–शक्ति, राष्ट्र–शक्ति। छात्र–शक्ति, राष्ट्र–शक्ति चरितार्थ हो पायेगा।
सन्दर्भ-
1 सिंह, डॉ. देवी प्रसाद (1984): ’’हिन्दू समाज में परिवर्तन की प्रक्रिया (700 ई. से 1200 ई. तक)’’; पूर्वा
संस्थान, गोरखपुर।
2 मित्तल, डॉ. ए. के. (1980): ’’भारत का
राजनीतिक एवं सांस्कृति इतिहास (1526 ई. से 1950 ई. तक)’’; साहित्य भवन, आगरा।
3 रोकेयाच, एम. (1973). द नेचर
ऑफ ह्यूमन वैल्यूस, न्यूयॉर्क:
फ्री प्रेस
4 कोहलबेर्ग, एल. (1981). एसेस ऑन
मॉरल डेवेलोपमेंट, सन
फ्रान्सिस्को: हार्पर एंड रो
5 कुर्टिन्स, डब्ल्यू. और ग्रीफ, ई.बी. (1974). द
डेवोलोपमेंट ऑफ मॉरल थॉट: रिवियू एंड इवैल्यूएशन ऑफ कोहलबेर्ग अप्रोच, साइकोलॉजिकल बुलेटिन 81.,453 -470
6 गावन्दे, ई. एन. (2004). वैल्यू
ओरिएंटेड़ एडुकेशन, न्यू
डेलही: सरूप एंड संस
7 सुपरका, डगलस और अन्य (1976). वैल्यूज
एजुकेशन सोर्सबुक: कॉन्सेप्चुअल अप्रोच, मैटेरियल्स एनालिसिस, एंड एन एनोटेटेड बिब्लियोग्राफी, वाशिंगटन, डी.सी.: नेशनल इंस्टीट्यूट, शिक्षा विभाग (डीएचईडब्ल्यू)।
8 योगिनी, एस बाराहते (2014). रोल ऑफ ए
टीचर इन इंपार्टिंग वैल्यू, आईओएसआर
जर्नल ऑफ ह्यूमैनिटीज एंड सोशल साइंस (आईओएसआर-जेएचएसएस), पीपी 13-15। 10
डॉ दयाशंकर सिंह यादव,
एसोसिएट प्रोफेसर - समाजशास्त्र
सकलडीहा पी. जी. कालेज, सकलडीहा, चंदौली
sambadindia@gmail.com 9452302015
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