‘राही नहीं राहों के अन्वेषी’: अज्ञेय का चिंतन और सृजन सरोकार / हेमन्त कुमार गुप्ता
आधुनिक हिंदी
कविता में प्रयोगवाद एक ऐसी काव्य धारा के रूप में उभर कर सामने आती है जो चली आ
रही प्रचलित काव्य धारा को बहुत बड़ी चुनौती तो देती ही है साथ में अपने मंडल के
कवियों के लिए एक मार्ग भी प्रस्तुत करती
है वह मार्ग था वर्तमान काव्य को एक नए खांचे की कविताई में ढालने की। और साहित्य
भी खासकर कविता भी नए प्रतिमान कि खोज कर रही थी। ऐसे समय में अज्ञेय का तारसप्तक
तत्कालीन साहित्यकारों और पाठकों को अपनी तरफ बहुत आकर्षित किया। इस आलेख में
अज्ञेय का तारसप्तक में जो विशेष योगदान था जो कविता के शिल्प पक्ष से जुड़ा हुआ है
इस पर ज्यादा ध्यानाकर्षण करने का प्रयास किया गया है। साथ में इसमें यह भी दिखाने
का प्रयास किया गया है कि जब अज्ञेय तारसप्तक लाते हैं तो उन्हें किन-किन
चुनौतियों का सामना करना पड़ा और इन कवियों ने बखूबी सामना भी किया।
मूल आलेख –
आधुनिक हिंदी कविता में छायावाद और प्रगतिवाद के प्रतिक्रियास्वरूप पनपी प्रयोगवादी कविता के प्रवर्तक और आधुनिक हिंदी कविता को लीक से हटाकर एक नयी भाव भंगिमा प्रदान करने वाले अज्ञेय बहुआयामी व्यक्तित्व के प्रतिभासंपन्न कवि, कथाकार, आलोचक, निबंधकार और पत्रकार थे। यह स्थापित सत्य है कि कोई भी कालखंड, या वाद अचानक से साहित्य में अपनी पैठ नहीं बना पाता है बल्कि वह अपने पूर्ववर्ती कालखंड का ही प्रतिरूप होता है और हम उसे नया प्रारूप प्रदान करके एक नयी परम्परा के सूत्रपात के रूप में स्थापित कर देते हैं। यही नहीं वह कालखंड भी बहुत समय तक नहीं चल पाता है और जैसे-जैसे देश, काल और परिस्थितियां बदलती हैं वह कालखंड विशेष भी किसी दूसरे कालखंड में परिवर्तित हो जाता है। आधुनिक हिंदी कविता में प्रयोगवाद के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। 1918 से 1936 तक हिंदी में छायावाद अधिकतर अपनी काव्यगत उपलब्धियों के कारण जाना गया। लेकिन छायावाद ही हमेशा के लिए रहता यह भी संभव नहीं था। कहीं न कहीं छायावाद में अतिशय सौन्दर्यप्रियता, प्रकृति प्रेम, मानवतावाद, रहस्यानुभूति, कल्प्नानुभूती और स्वानुभूति पर थोड़ा ज्यादा बल दिया गया जिसके कारण कविता में यथार्थ का वह रूप लक्षित नहीं हो पा रहा था जो सीधे जनमानस से जुड़ पाए। छायावाद में स्वानुभूति की प्रबलता के कारण व्यक्तिवादिता अधिक थी जिसका समस्त काव्य के रूप में विरोध भी हुआ। परिणामस्वरूप प्रगतिवाद आया लेकिन यह बहुत कम समय तक ही चल पाया। इसने यथार्थ के अतिशय रूप और चली आ रही काव्य परिपाटी पर अधिक बल दिया। ऐसा प्रतीत होने लगा कि प्रगतिवाद में “छायावाद ने जो कल्पना की रंगीनी एवं स्वानुभूति की सुकुमारता प्रदान की थी प्रगतिवाद ने उसके स्थान पर कठोर यथार्थवाद को लाकर काव्य के क्षेत्र को शुष्कता एवं रुक्षता से परिपूर्ण कर दिया। उस क्षण हिंदी के अधिकांश कवि यह अनुभव करने लगे कि प्रगतिवाद कोई नूतन काव्यधारा न होकर राजनीतिक धारा है जो साहित्य के माध्यम से प्रवाहित हो रही है और जिसका एकमात्र उद्धेश्य मार्क्सवादी विचारधारा को भारतीय जन-जीवन में व्याप्त कर देना है।”[1] ऐसे में अज्ञेय ने 1943 में तारसप्तक निकाला और प्रयोगवाद की घोषणा भी की। समय और साहित्य भी अब बदलाव की मांग कर रहा था। हम आजाद भी नहीं थे। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन जो 1930 तक आते-आते धीमी हो गयी थी अब 1941-1942 तक आते-आते फिर से जोर पकड़ा और जिस प्रकार पूरे भारतीय समाज में महंगाई, भ्रष्टाचार, चोरी-चपाटी, और अंग्रेजों की दमनकारी नीति सामने आ रही थी पूरा भारतवर्ष उससे जूझ रहा था और विशेषकर मध्यवर्ग इस व्यवस्था से विक्षुब्ध हो चुका था। इससे लोगों के मन में एक प्रकार का सामाजिक असंतोष पैदा हुआ और एक नयी क्रांति का भी उद्घोष हुआ। गांधीजी इसी समय ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ 1942 की भी घोषणा करते हैं और अंत में अहिंसा की जगह ‘करो या मरो’ का नारा भी देते हैं। इस समय जब पूरा समाज और राष्ट्र बदलाव की मांग कर रहा था ठीक इसी समय हिंदी में भी एक ऐसी काव्यधारा की शुरुआत हुई जिसमें नयापन का समागम था। यह कविता प्रयोगशील कविता कहलाई।
इस काव्यधारा में कोई एक खास कवि नहीं था बल्कि यह काव्यधारा 7 कवियों का एक मंडल था। इसके अगुआ अज्ञेय हुए। अज्ञेय आरम्भ से ही साहित्यिक मिजाज के व्यक्ति रहे हैं और साहित्य में नवाचार के लिए जाने जाते हैं। अज्ञेय ने हिंदी कविता के कई कालखंडों को एक-साथ देखा था और हिंदी कविता के बदलते मूल्यों और सरोकारों को भी। अब अज्ञेय यह स्पष्ट महसूस करने लगे कि कविता में सिर्फ हू-ब-हू यथार्थ को प्रस्तुत करने भर से काम नहीं चलेगा बल्कि कविता के भीतर छिपे एहसास, सत्य, सामाजिक यथार्थ-बोध की तीव्रता को अब पुराने बिम्बों, प्रतीकों,उपमानो, मिथकों तथा शिल्प के माध्यम से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। अब ये एक प्रकार से पुराने पड़ गए हैं। आधुनिक भावबोध को प्रस्तुत करने की क्षमता अब इनमे नहीं है। अब कविता में जरुरी है कि इन पुराने बिम्बों, प्रतीकों, उपमानों को पूरी तरह त्याग कर इनकी जगह नए बिम्ब, प्रतीक, उपमान नहीं लाएँगे बल्कि इनकी नए रूप में पुनः समाज सापेक्ष व्याख्या करनी पड़ेगी :
"अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
अज्ञेय हिंदी के उन कवियों में गिने जाते हैं जिनका चिंतन जैसा था ठीक वैसा ही उनका सृजन सरोकार भी था। अज्ञेय सृजनशील व्यक्तित्व के थे। नया सोचते थे, मौलिक लिखते थे और समाज के हर पहलुओं को इन्होंने अपनी लेखनी में पिरोया है। इन्होंने कवियों की प्राचीन परिपाटी को बहुत करीब से देखा और उससे क्षुब्ध हुए और जब तारसप्तक का संपादन किए तो विचार बनाया की वे लीक पर नहीं चलेंगे बल्कि लीक से हटकर खुद भी काव्य सृजन करेंगे और अन्य तारसप्तक के कवियों को भी अभिप्रेरित करेंगे और इन्होंने सिर्फ ऐसी योजना महज नहीं बनाई बल्कि ऐसा किया भी। जब 1943 में तारसप्तक आया तो खुद वे इस मंडल के कवियों के पक्ष में आते हैं और उनके समक्ष उपस्थित चुनौतियों को भी खुद ही बताते हैं “वे सब किसी एक स्कूल के नहीं हैं, किसी एक मंजिल पर पहुंचे नहीं हैं, अभी राही हैं-राही नहीं राहों के अन्वेषी। उनमें मतैक्य नहीं है, सभी महत्वपूर्ण विषयों पर उनकी राय अलग-अलग है – जीवन के विषय में, समाज, धर्म औए राजनीति के विषय में; काव्य वस्तु और शैली के, छंद और तुक के, कवि के दायित्वों के प्रत्येक विषय में उनका आपस में मतभेद है। यहाँ तक कि हमारे जगत के ऐसे सर्वमान्य और स्वयं सिद्ध मौलिक सत्यों को भी वे समस्त रूप में स्वीकार नहीं करते, जैसे लोकतंत्र की आवश्यकता उद्द्योगों का समाजीकरण, यांत्रिक युद्ध की उपयोगिता, वनस्पति घी की बुराई अथवा काननबाला और सहगल के गानों की उत्कृष्टता इत्यादि।”[2] “तथापि इतनी विपरीतता के होते हुए भी काव्य के एक अन्वेषी दृष्टिकोण उन्हें समानता के सूत्र में बांधता है।”[3] और इस तरह अज्ञेय लगातार इन सभी कवियों की काव्य दृष्टि में परिष्कार और परिमार्जन करते गए और तारसप्तक की मुख्य चिंता को सामने रखा। अज्ञेय इन सबकी कविताई में एक प्रकार का नवीन दृष्टिकोण या नूतन प्रवृत्ति के दर्शन भी किए जो स्पष्ट है कि तारसप्तक के पूर्ववर्ती छायावादी और प्रगतिवादी कवियों और कविताओं में नहीं लक्षित होता है।”[4] इससे पहले कविता ने सामाजिक स्वर को भले ही पहले की तुलना में ज्यादा बुलंद किया हो लेकिन उनकी काव्य शैली नहीं बदली थी, वह पुरानी ही रह गई थी। इस ओर पहला ध्यान अज्ञेय का ही गया। प्रयोगवादी कवियों ने हिंदी कविता में उन क्षेत्रों का अन्वेषण किया जहाँ तक अभी तक हिंदी के कवि और कविता नहीं पहुँच पाई थी :
"वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
हिंदी में प्रायः ऐसे कवि कम देखने को मिलते हैं जिनका काव्य या साहित्य सम्बन्धी चिंतन खरे रूप से सृजन से जुड़ा होता है। सृजन को बहुतेरे रूप में निर्माण के रूप में देखा जाता है। सृजन का समय पूर्णतः अन्वेषण का समय ही होता है। इसमें प्राचीनता का विरोध नहीं होता है बल्कि समय-समय पर प्राचीनता को मांज कर नए रूप में भी प्रस्तुत किया जाता है। ध्यातव्य है कि सृजन में मांग हमेशा नए की ही रहती है और अज्ञेय जैसे कवि जो जितना भारतीय साहित्य परंपरा का अध्ययन किए थे उतना ही पाश्चात्य साहित्य चिंतन परंपरा का भी। अज्ञेय का सृजन सम्बन्धी साहित्य चिंतन हमें कही–कहीं पाश्चात्य परंपरा से जुड़ा भी दिखाई देता है। कभी-कभी तो विदेशी जमीन की किसी आख्यान को ही अज्ञेय अपनी कविताओं में पिरो देते हैं। और खास बात ये कि इनका सृजन सम्बन्धी मान्यता पाश्चात्य और अधुनातन को एक साथ लेकर चलने की भी क्षमता रखता है। दोनों का एक दूसरे से कहीं विरोध नहीं दिखता है। अज्ञेय अपने चिंतन में ‘क्षण’ को बहुत अधिक महत्व देते हुए पाए जाते हैं। उनका यही चिंतन एक प्रकार से उन्हें समकालीन भी बना देता है। क्षण की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं की “अनुभूति और परिस्थिति में जब विपर्यय, असंतुलन या विरोध होता है तब कलाकार अनुभूति पर आग्रह करता है .......क्षण का आग्रह क्षणिकता का आग्रह नहीं है, अनुभूति की प्राथमिकता का आग्रह है ...........और कवि साधारणीकरण द्वारा जिस अनुभूति का प्रेषण करता है वह काव्यानुभूति जीवन की अनुभूति से अलग होती है।”[5]आत्मनेपद 168
सृजन काव्य का बाह्य तत्व नहीं है इसके लिए कवि को अन्तः यात्रा करनी पड़ती है, एक बार नहीं ‘ दो बार नहीं, बार-बार। अज्ञेय बार–बार यह यह कहते हैं कि प्रयोग नया है और उन्हें यह भी पता था कि इसमें हर मोड़ और पद पर कवियों के भटक जाने का खतरा भी कम नहीं हैं। इसके कारण अज्ञेय को कहा गया कि आप सिर्फ इन्हीं कवियों के बारे में सोचते हैं आपकी काव्य दृष्टि सीमित है। लेकिन अज्ञेय ने जिस नएपन को हिंदी में लाने की प्रतिज्ञा की थी - इसके आगे यह आरोप कुछ भी नहीं था - में अंततः वे कहते हैं :
"मैं मरूँगा सुखी
अज्ञेय के लिए भी सृजन के कुछ चरण होते हैं। इनके अनुसार काव्य सृजन के 3 चरण होते हैं। इनमे से पहला चरण संवेदनशील सर्जक ह्रदय द्वारा भावानुभाव का संग्रह होता है। सृजन प्रक्रिया इसमें दूसरा चरण भोग है तो सर्जक में तनाव को जन्म देता है। यह तनाव धीरे –धीरे बढ़ता जाता है जो अंततः इस पूरी प्रक्रिया को यंत्रणा भरी प्रक्रिया बना देता है। यही भावानुभव जब रचना का रूप ले लेता है तो उस तनाव से सर्जक मुक्ति पा लेता है जिसे भावमुक्ति कहा जाता है। सृजन का यह क्षण आसान नहीं होता है इसके लिए सृजनकर्ता को हमेशा सतर्क रहना पड़ता है। सर्जना के क्षण कविता में यह दृष्टिगत होता है :
"एक क्षण भर और
सृजन के लिए अज्ञेय यह मानते हैं कि सृजन के लिए मानव को उसके विचार और अनुभूति पर मुख्यत: दो पक्ष प्रभावित करते हैं मानव का बाह्य जगत और उसका आन्तरिक जगत। वायवीय जगत में मुख्यतः उसका परिवेश और पास पड़ोस की चीजें आती हैं। तथा अंतर्जगत में उसके मस्तिष्क में चल रही वह सारी गुत्थियाँ आती हैं जिनसे मनुष्य लगातार संचालित होता रहता है। कोई भी कृति मानव विवेक से उत्पन्न विचारों और चिन्तनों का ही समग्र रूप है। वह अचानक से कुछ नया नहीं सोच लेता है बल्कि जो सोचता है उसे मूर्त रूप देने से पहले बार-बार उस पर चिंतन करता है उस दौरान उसके चिंतन क्षेत्र का लगातार विस्तार होता जाता है। अज्ञेय के विचारों को समझने पर ऐसा प्रतीत होता है कि उनके अनुसार नैतिक बोध और सौन्दर्यबोध की सत्ता अलग-अलग कार्य नहीं करती है बल्कि वे दोनों परस्पर एक साथ एक रूप में कार्य करते हैं। जब दोनों का कार्य संपन्न हो जाता है तो एक नए रूप का सृजन होता है जो उत्कृष्ट सौन्दर्यबोध होता है उसके बाद ही कोई भी भाव या विचार शब्दबद्ध होकर कृति में रूपांतरित हो पाती है। अज्ञेय मानते हैं कि यह सौन्दर्यबोध कृतिकार के अनुभवों के सहारे ही विकसित हो पाता है। और अन्तः सृजन के संदर्भ में अज्ञेय इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मानव मस्तिष्क ही मूल्यों या प्रतिमानों का केंद्र है। पहले मानव किसी विषय पर सोचता है अपनी चिंतन को समृद्ध करता है और उसके मस्तिष्क में जो विचार आते हैं अंततः उन विचारों को वह शब्दबद्ध कर कृति का रूप देकर नवीन सर्जन कर पाता है। इस मानव मस्तिष्क में एक के बाद एक नए अनुभव जुड़ते रहते हैं और धीरे-धीरे ये नए अनुभव नये मूल्यों का रूप ले लेते हैं। जब हम अज्ञेय के चिंतन और सृजन सरोकार के विषय में बात करते हैं तो यह ध्यान देना चाहिए कि प्रयोग करने की परंपरा अचानक से प्रयोगवाद में अज्ञेय के ही नेतृत्व में नहीं उठकर आई बल्कि प्रयोग की अपनी एक प्राचीन परंपरा रही है यहाँ तक कि छायावाद ने भी अपने प्रतिमान को तोड़ा और निराला के नेतृत्व में कविता पहली छंद मुक्त हुई :
"मैंने मैं शैली अपनाई
ध्यातव्य है कि यहीं पर प्रयोगवाद अपनी एक अलग श्रेणी में बंध जाता है। लेकिन 1943 का प्रयोगवाद शब्द उन कवियों के लिए मात्र रूढ़ हो गया जो सिर्फ तारसप्तक में कविता लिखे। चूँकि नाम ही प्रयोगवाद था इसलिए अज्ञेय ने प्रयोग की अनिवार्यता पर थोड़ा ज्यादा बल दिया। यहीं प्रयोगवादी कवियों की आलोचना भी होती है। लेकिन देखा जाए तो प्रयोगवादी कवियों के अनुभव का दृष्टिकोण और कृति एक प्रकार की नहीं है। वे सभी किसी एक फैसले पर नहीं ठहर पाते हैं। अज्ञेय का ज्यादातर जोर बिम्ब,भाषा,प्रतीक, उपमानों को नवीन रूप में प्रस्तुत करने पर रमा, यानि अज्ञेय ने ज्यादातर काव्यगत शिल्प पक्ष पर ज्यादा प्रयोग करने पर बल दिया लेकिन यह भी ध्यातव्य है कि प्रयोगवादी कवियों के यहाँ भाव पक्ष भी बहुत अधिक मात्र में उजागर हुआ है। प्रयोगवाद के अधिकांश कवि गहरी सामाजिक वेदना को बड़े ही निर्भीक भाव से प्रस्तुत करते हैं। इनके काव्य क्षेत्र में उच्च वर्ग नहीं था, निम्न वर्ग भी नहीं था बल्कि इन्होंने सोच समझकर समाज को नई दिशा की ओर ले जाने वाले मध्यवर्ग को अपनी कविता का केंद्र बनाया। इन्होंने उस वर्ग की तस्वीर को सामने लाया जो ह्रासोन्मुख थी।
“अज्ञेय अंतर्मुखी रचनाकार हैं, लेकिन यह अंतर्मुखता समाज विरोधी न होकर गहरे में समाज से शांत सामंजस्य बैठाने वाली है। यह शांत संत-स्वभाव अज्ञेय के रचनाकार का है और यह रचनाकार समाज को बदलना चाहता है क्योंकि आज ज्ञान-विज्ञान के प्रभाव से गति इतनी तेज़ हो गई है कि जो व्यक्ति समाज या देश नहीं बदलेगा वह पिछड़ जाएगा। किन्तु हमें यह बदलाव अपनी संस्कृति की मूल्य दृष्टि के हिसाब से करना होगा, दूसरों की नक़ल पर जीवित रहकर नहीं। प्रकृत बदलाव शांति एवं आत्म बल देता है। नकली बदलाव पागलपन लाता है।”[6] इस बात के लिए अज्ञेय के चिंतन में व्यष्टि की नहीं बल्कि समष्टि की बात है। यह दीप अकेला में वे बार-बार इस बात की ओर संकेत करते हैं :
अज्ञेय का स्पष्ट विचार है कि काव्य का विषय और काव्य की वस्तु [कन्टेंट] दोनों पृथक-पृथक वस्तुएं हैं और आज इसी भूल को सभी कवि एवं आलोचक कर रहे हैं। इसी बात को स्पष्ट करते हुए अज्ञेय ने लिखा है “प्रयोक्ता के सम्मुख दूसरी समस्या संप्रेष्य वस्तु की है। यह बात कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि काव्य का विषय और काव्य की वस्तु [कन्टेंट] अलग-अलग चीजें हैं; पर जान पड़ता है कि इस पर बल देने की आवश्यकता प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। यह बिल्कुल सम्भव है कि हम काव्य के लिए नये-नये विषय चुनें,पर वस्तु उसकी पुरानी ही रहे, जैसे यह भी सम्भव है कि विषय पुराना रहे पर वस्तु नयी हो। निस्संदेह देश-काल की संक्रमणशील परिस्थितियों में संवेदनशील व्यक्ति बहुत कुछ नया देख,सुन और अनुभव करेगा; और इसलिए विषय के नयेपन के विचार का भी अपना स्थान है ही; पर विषय केवल ‘नये’ हो सकते हैं ‘मौलिक’ नहीं-मौलिकता वस्तु से सम्बन्ध रखती है। विषय संप्रेष्य नहीं है; वस्तु संप्रेष्य है।”[7]
“कवि अज्ञेय ने आज के सत्यान्वेषी कवि के बारे में यह तो स्पष्ट स्वीकार किया है कि वह समाज की विषमताओं से व्यथित है, अभावों से पीड़ित है, विभिन्न सामाजिक कुंठाओं से ग्रसित है और अन्य सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं से उलझा हुआ है। यह कवि अज्ञेय की अपनी भी स्थिति है और वे स्वयं सत्य के अन्वेषी होकर भी उक्त उलझनों एवं जटिलताओं से ग्रस्त हैं।”[8] अज्ञेय का मत है कि जीवन के लक्ष्य के सम्बन्ध में सत्यम,शिवम, और सुन्दरम की चर्चा सदियों से होती रही है। अज्ञेय ने इन शब्दों के क्रम को बदलकर रचना के उद्धेश्य को साधने की चेष्टा की है। उनके अनुसार सर्जक सत्य या यथार्थ से जूझता है,उसे तपाता, गलाता है। सर्जक की साधना से तप-गल कर सत्य, सुन्दर में बदल जाता है। जब सुन्दर से शिवत्व का मेल होता है तब रचना अपने उद्देश्य में सफल होती है। इस प्रकार कवि का लक्ष्य सत्य [यथार्थ ] की भूमि में सुन्दर का बीज बोकर शिवत्व का फल पाना है। इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अज्ञेय ने सृजन की प्रक्रिया को ही एक ऐसी प्रक्रिया माना है जो पौधे की तरह अपवित्र सड़े-गले,कचरे,राख आदि को सुन्दर फूल में बदल देता है :
" सड़ा दे दो
इस तरह अज्ञेय के चिंतन के मूल में नवीन वस्तु एवं विषय के प्रति आग्रह जरुर रहा है लेकिन कहीं भी अज्ञेय प्राचीन परिपाटी को बदलकर नवीनता नहीं लाना चाहते हैं बल्कि वे प्राचीन प्रतीकों,बिम्बों, प्रतिमानों की नवीन परिदृश्य में व्याख्या के आग्रही रहे हैं। भोगे हुए यथार्थ को प्रस्तुत करने के लिए अज्ञेय नवीनता पर बल देते हैं। अज्ञेय इस मायने में भी महत्वपूर्ण साबित होते हैं कि जब उन्होंने आरंभ में लिखना शुरूं किया तो वह छायावादी दौर था लेकिन जब से वे प्रयोगवाद में जाते हैं अपनी रचनात्मकता के साथ कोई समझौता नहीं करते हैं। “ अज्ञेय व्यक्तित्व की अनन्यता, अद्वितीयता , मौलिकता को कितना भी महत्व क्यों न देते रहे हों उनका व्याक्तित्ववाद भी प्रबुद्ध बुर्जुवा व्यक्तिवाद था जिसमें लोकतंत्र,आधुनिकता, धर्मनिरपेक्षिता , और मानवाधिकार के प्रति प्रतिबद्धता निहित थी।”[9] अज्ञेय का विश्वास था कि हर साहित्य या साहित्य के विविध धाराओं का अपना एक ऐतिहासिक क्रम होता है जिससे वे धाराएं खाद पानी लेती रहती हैं। “ सामाजिक परिस्थितियां और साहित्यिक परम्पराएं अतीत के संबंधों और संघर्षों से विकसित होती हैं। उनमें नयापन भी होता है और विरासत का चिन्ह भी। इसीलिए हर परिस्थिति में भिन्न-भिन्न सामाजिक शक्तियां अपने लिए अतीत से कोई न कोई परंपरा चुनती हैं। प्रगतिशील लेखकों ने अपना सम्बन्ध भक्ति साहित्य और छायावाद से जोड़ा, प्रयोगवाद नई कविता ने केशव-मतिराम के रीति साहित्य से।”[10] जिस समय अज्ञेय साहित्य में प्रयोगवाद ले आए उस समय उनकी बहुत सारी आलोचना हुई लेकिन यह अज्ञेय कि अपनी विशेषता रही कि वे काफी गंभीर व्यक्ति थे। उनकी नजर में साहित्य का बदलाव इसलिए भी जरुरी था कि साहित्य सिर्फ भारतीय ही न हो बल्कि पश्चात्य से भी उसकी कुछ चीजें हमारे साहित्य में आए। “ कविता के क्षेत्र में उनकी दो विशिष्ट उपलब्धियां उन्हें विशिष्ट और अपरिहार्य युगचेतना रचनाकार बनाती हैं। पहली तो यह कि उनहोंने छायावद और प्रगतिवाद के दबाव के दौर में, उत्तर छायावादी काल में कविता को एक ओर तो अतिरिक्त या अतिशय भावुकता से मुक्ति दिलाते हुए बौद्धिकता को उसके केंद्र में प्रतिष्ठित किया तो दूसरी और अभिद्याप्रधानता की ओर बढ़ रही काव्यधारा को शब्द और अर्थ के सही साहचर्य अर्थात व्यंजना और प्रतीयमानता की और अभिमुख करते हुए काव्यार्थ कि गरिमा को पुनः प्रतिष्ठित किया।”[11] अज्ञेय यह मानते हैं कि कविता का फॉर्म महत्वपूर्ण है क्योंकि इसीसे से कविता अपनी पूरी अर्थवत्ता दे पाती है। यथार्थ का अपना महत्व जरुर है बावजूद इसके इसमें अर्थवत्ता बहुत महत्वपूर्ण होती है। अज्ञेय का स्वकथन से इस बात की गहराई में उतरा जा सकता है। “ मैंने कहा है कि यथार्थ हमेशा अर्थहीन होता है। मैंने जो कुछ कहा उसमें यह भी निहित है कि इसके बावजूद कलाकार को अर्थ की खोज रहती है। इस निहितार्थ को आज के सब साहित्यकार स्वीकार नहीं करेंगे, ऐसा मैं जानता हूँ। लेकिन मेरे लिए रचनाकर्म हमेशा अर्थवत्ता की खोज से जुड़ा रहा है। साहित्यकार के नाते मुझे अर्थहीन यथार्थ की तलाश नहीं रहती और न है।”[12]
संदर्भ-
1. द्वारिका प्रसाद सक्सेना,हिंदी के आधुनिक प्रतिनिधि
कवि, अग्रवाल पुब्लिकेशंस , आगरा ,2009,2010
2. रामस्वरूप चतुर्वेदी,अज्ञेय और आधुनिक रचना की
समस्या, भारतीय ज्ञानपीठ,नयी दिल्ली,2011
3. कृष्णदत्त पालीवाल, अज्ञेय : कवि-कर्म का संकट,किताबघर
प्रकाशन, नई दिल्ली,2010
4. कृष्णदत्त पालीवाल, अज्ञेय : कवि-कर्म का
संकट,किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली,2010
5. आत्मनेपद, 168
6. राजेन्द्र प्रसाद,अज्ञेय कवि और काव्य,वाणी प्रकाशन,
नयी दिल्ली,2006
7. राजेन्द्र प्रसाद, तारसप्तक के कवियों की समाज चेतना,वाणी
प्रकशन, नयी दिल्ली,2005
8. तारसप्तक की भूमिका
9. प्रणय कृष्ण,हितेश कुमार सिंह, अज्ञेय होने का अर्थ,लोकभारती
प्रकाशन,नई दिल्ली,2020
10. अजय तिवारी,उत्तर अआधुनिकता,कुलीनतावाद और समकालीन
कविता,नयी किताब प्रकाशन,दिल्ली,2015 पृ. 7
11. ऋषभदेव शर्मा,पूर्णिमा शर्मा,कविता के पक्ष
में,तक्षशिला प्रकाशन,नई दिल्ली,2016, पृ. 275
12. परमानंद श्रीवास्त, समकालीन हिंदी आलोचना,साहित्य
अकादेमी प्रकाशन,नई दिल्ली,2018, पृ. 39
हेमन्त कुमार गुप्ता
शोधार्थी,
तेजपुर विश्वविद्यालय, तेजपुर, असम
8779791298, Kumarguptah3@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021, चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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