गांधीयन गणराज्य का अर्थतंत्र / डॉ. कैलाश चन्द सामोता
शोध-सार -
आज जब पूरी दूनिया आर्थिक विकास
की अन्धी दौड़ में शामिल है जिसके दुष्परिणाम भी विशेष रूप से पर्यावरणीय क्षति, जलवायु परिवर्तन के
रूप में दिखायी दे रहे हैं। ऐसी स्थिति में एक सत्त, समावेशी एवं सर्वोदयरूपी आर्थिक
विकास हेतु हमारे लिए गांधी के आर्थिक चिंतन की ओर गमन करना प्रासंगिक होगा। इस दिशा
में ग्राम गणराज्य गांधी के राजनीतिक चिंतन का आर्थिक आधार था। वे मानते थे कि भारत
की आत्मा गांवों में निवास करती है। वे ग्राम गणराज्य के अर्थतंत्र के माध्यम से गांवों
को विकसित करना चाहते थे। आर्थिक शक्तियों के विकेन्द्रीकरण, शारीरिक श्रम की अवधारणा
एवं अल्प मशीनीकरण तथा कौशलपूर्ण तालिम इस ग्राम गणतंत्र के प्रमुख स्तम्भ थे। क्या
लघु एवं कुटीर उद्योगों के माध्यम से ग्राम गणराज्य के अर्थतंत्र को सशक्त बनाया जा
सकता है? क्या विकेन्द्रीकरण एवं अल्प मशीनीकरण गांधी के सपने
को साकार कर सकते है? अथवा कौशलपूर्ण शिक्षा ही सच्ची तालिम है? क्या
गांधी का ग्राम गणराज्य का अर्थतंत्र आधुनिक दुनिया को आर्थिक विकास का एक बेहतर मार्ग
दे सनता है? प्रस्तुत शोध पत्र इसी दिशा में एक विमर्श है।
बीज-शब्द – गणराज्य, आर्थिक प्रणाली, विकेन्द्रीकरण, न्यासिता, श्रम, तालीम, आत्मनिर्भर।
मूल आलेख –
महात्मा गांधी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका जीवन ही एक संदेश था। उन्होंने
अपने मानवीय जीवन और सामाजिक व्यवहार, राजनीतिक व्यवहार, नैतिक व्यवहार, धार्मिक व्यवहार के अंतर्गत सिद्धांत अथवा अनुसंधान और व्यवहार में समन्वय
स्थापित करके अपने विचारों को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया है। उनकी कथनी और करनी
में अंतर नहीं होना, इसका सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रमाण है। ऐसे महामानव शताब्दियों में एक बार जन्म
लेते हैं। महात्मा गांधी की बहुमुखी प्रतिभा उनको बहुआयामी व्यक्तित्व का धनी बनाती
है। यही कारण है कि वे किसी एक क्षेत्र तक सीमित नहीं रहे अपितु उनका समाज विज्ञान
के विविध क्षेत्रों में महत्वपूर्ण चिंतन और योगदान रहा है। इस आलेख में हम गांधी के
गणराज्य के आर्थिक चिंतन की अवधारणा को विस्तृत एवं गहन स्वरूप में समझेंगें। यद्यपि
गांधी विशुद्ध रूप से एक अर्थशास्त्री तो नहीं थे परंतु जीवन के अर्थतंत्र में वे किसी
भी प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री से कम न थे। उनका जीवन व्यावहारिक अर्थशास्त्र का प्रतीक था। यही कारण रहा है कि उन्होंने मानवीय आवश्यकताओं
को न्यूनतम स्तर पर रखने की वकालत की है। जैसा कि महात्मा गांधी ने अनेक अवसरों पर
अभिव्यक्त भी किया कि भारत की आत्मा गाँवों में निवास करती है। यदि गांव का विकास हो
जाएगा तो संपूर्ण भारत का विकास अपने आप ही हो जाएगा अर्थात् स्वाभाविक रूप से देश
का विकास गांवों के विकास पर निर्भर करता है। निश्चित रूप से गांधी की इस अवधारणा को
गांधियन ग्राम गणराज्य की आर्थिक प्रणाली के माध्यम से समझा जा सकता है।
ग्राम गणराज्य
की आर्थिक प्रणाली का आशय :
महात्मा गांधी ग्राम गणराज्य की आर्थिक प्रणाली के प्रबल समर्थक थे। गांधी
ने ग्राम को एक गणराज्य के रूप में स्थापित किया है। यह गणराज्य न केवल सामाजिक और
राजनीतिक रूप से अपितु आर्थिक रूप से भी आत्मनिर्भर होना चाहिए। ग्राम स्तर पर कृषि उत्पादों पर आधारित लघु और कुटीर उद्योगों, हस्तकला उद्योगों इत्यादि के माध्यम से ग्राम अर्थतंत्र
को स्वतंत्र और मजबूत बनाने की पैरवी की गई है। ग्राम गणराज्य अर्थव्यवस्था का अभिप्राय
है ग्रामीण स्तर पर छोटे और लघु उद्योगों की स्थापना जिसके माध्यम से ग्रामीण लोगों
को रोजगार मिल सके और वे अपनी ग्रामीण आवश्यकताओं को आसानी से पूर्ण कर सकें ऐसी आत्मनिर्भरता
की दशा से है।
गांधी के ग्राम
गणराज्य अर्थप्रणाली के प्रमुख आधार :
गांधी का यह
विश्वास था कि यदि हमे भारत को समृद्ध बनाना है तो इसके लिए हमें गांवों को आत्मनिर्भर, खुशहाल एवं समृद्ध बनाना होगा। यदि गांव नष्ट हो गए
तो भारत को भी नष्ट होना पड़ेगा क्योंकि भारत गांवों में रहता है, न कि कस्बों में, झोपड़ियों में रहता है, न कि राजमहलों में। ग्राम गणराज्य की आर्थिक प्रणाली
को सुदृढ़, मजबूत एवं आत्मनिर्भरता
के स्वरूप में परिवर्तित करना होगा। ऐसे छोटे उद्योगों, हथकरघा, हस्तकला या हस्तशिल्प, खादी, रेशम उत्पादन कृषि उत्पादों
पर निर्भर सूक्ष्म कारखानों का संचालन परिवार और गांव के लोगों के द्वारा आसानी से
किया जा सकता है। इनके माध्यम से मजबूत वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के साथ ग्राम
गणराज्य की आर्थिक प्रणाली का पुनरूत्थान किया जा सकता है। महात्मा गांधी के ग्राम
गणराज्य की आर्थिक प्रणाली के स्वरूप को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया
जा सकता है।
1. आर्थिक विकेंद्रीकरण की अवधारणा में विश्वास :
महात्मा गांधी
आर्थिक केन्द्रीयकरण की अवधारणा के विरोधी थे क्योंकि इसके माध्यम से आर्थिक शक्तियाँ
किसी व्यक्ति विशेष में निहित हो जाती हैं जिसके परिणामस्वरूप औद्योगिक केन्द्रीयकरण
की स्थापना होती है। पूंजीपतियों को बड़े-बड़े उद्योग स्थापित करने का अवसर प्राप्त हो जाता
है। बड़े पैमाने पर उत्पादन लाभ-उन्मुखता को बढ़ावा देता है जो कि समाज के लिए हानिकारक होता है क्योंकि इससे
कुछ ही हाथों में धन और शक्ति का संग्रहण हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप पश्चिमी प्रतिमान
के औद्योगीकरण का आगमन होता है। इस कारण से ग्रामीण उद्योगों, लघु एवं कुटीर उद्योगों का पतन होने लगता है। अतः
गांधी ने गांव-गांव में छोटे-छोटे उद्योगों की स्थापना की अवधारणा को स्वीकार कर
औद्योगिक एवं आर्थिक विकेन्द्रीकरण को स्थापित करने की बात पर बल दिया है। ऐसे उद्योगों
में मशीनीकरण की अपेक्षा शारीरिक श्रम की अधिक आवश्यकता होती है, जिससे अधिक लोगों
को बड़े पैमाने पर रोजगार मिलता है, उनको आमदनी प्राप्त होती है और इसी के साथ श्रम की महत्ता भी स्थापित हो जाती
है।
हमारा देश पूंजीप्रधान की अपेक्षा श्रमप्रधान औद्योगीकरण के अनुकूल है। इस
तरह से गांधी की आर्थिक विकेन्द्रीकरण की संकल्पना सब लोगों को आजीविका के साधन उपलब्ध
कराने का आधार है। गांधी ने विकेंद्रीकरण की वकालत की क्योंकि यह हिंसा से बचाव हो
सकता है। विकेंद्रीकरण पर उनका विश्वास एक केंद्रीकृत अर्थव्यवस्था की सभी बुराइयों
को ठीक करने के उद्देश्य से था। एक तरफ जहाँ बड़े पैमाने पर उद्योगों ने एकाधिकारवादी
प्रवृत्तियों और आय के असमान वितरण को बढ़ावा दिया। दूसरी ओर, ग्रामीण उद्योग, आर्थिक गतिविधियों के विकेंद्रीकरण में मदद करते हैं
और इन उद्योगों में उत्पन्न आय का एक बड़ा हिस्सा श्रमिकों के बीच और बहुत बड़ी संख्या
में लोगों में वितरित किया जाता है। गांधी इस अर्थ में बड़े पैमाने के उद्योगों के पक्ष
में नहीं हैं कि ये उद्योग ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली एक बड़ी आबादी से संबंधित
नहीं हैं। इस प्रकार, गांधी के अनुसार औद्योगीकरण, व्यक्तित्व के विकास में मदद नहीं करता है।[i] यही कारण था कि उन्होंने इस केन्द्रीकृत औद्योगीकरण
को विकेन्द्रीकृत ग्रामीण उद्यागों के द्वारा प्रतिस्थापित करने का विकल्प प्रस्तुत
किया है।
2. तीव्र औद्योगीकरण और मशीनीकरण का विरोध :
तीव्र औद्योगीकरण
एवं मशीनीकरण के विरोध का विचार गांधी की आर्थिक एवं औद्योगिक विकेन्द्रीकरण की अवधारणा
के साथ जुड़ा हुआ है। गांधीजी इस तथ्य को पूर्णतया समझ गए थे कि औद्योगीकरण का पश्चिमी
प्रतिमान भारतीय समाज को पूरी तरह से नष्ट कर देगा। गांधी ने मशीन निर्मित वस्तुओं
का भारत के आर्थिक जीवन में विश्लेषण करने के पश्चात् यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि
मशीनरी विरान यूरोप से शुरू हुई है। अब यह बर्बादी हिन्दुस्तान के दरवाजों पर दस्तक
दे रही है। मशीनरी आधुनिक सभ्यता की अगुवाई का प्रतीक है; यह महापाप का प्रतिनिधित्व करती है।[ii]
वास्तव में किसी समस्या के सन्दर्भ में गांधी का एक अलग ही मौलिक नजरिया होता
था। इसीलिए वे न केवल समाजवाद के सन्दर्भ में अपितु यहाँ तक की वे औद्योगिक क्रांति
के सन्दर्भ में भी एक पृथक दृष्टिकोण रखते थे।[iii] गांधी ने आत्मनिर्भरता और श्रम की महत्ता को उजागर
करते हुए तेज गति के मशीनीकरण और अंधाधुंध औद्योगीकरण के रूप में पश्चिमी सभ्यता का
विरोध किया है। उन्होंनें अपनी पुस्तक “हिंद स्वराज” के अंतर्गत विकास की इस अंधाधुंध दौड़ को “शैतानी सभ्यता” के रूप में अभिव्यक्त किया है।[iv] गांधी के शब्दों में ‘‘जब मैंने आर.सी. दत्ता की पुस्तक “इकोनोमिक हिस्ट्री ऑफ इण्डिया” पढ़ी तो, मैं गला फाड़-फाड़कर रोया; और जैसे ही मैंने इसके बारे में दुबारा चिन्तन किया
तो मेरा हृदय दुःखी हो गया। यह मशीनरी ही है जिसने भारत को दरिद्र बना दिया है। मानचेस्टर
के कारण ही भारत का हस्तकला उद्योग विलुप्त हो गया’’। [v]
3. लघु एवं कुटीर उद्योगों का पूर्ण समर्थन :
उन्होंने ग्रामीण
अर्थव्यवस्था जैसे खादी, हथकरघा, हस्तशिल्प और सेरीकल्चर
के विकास पर जोर दिया। ग्रामीण उद्योग पारिवारिक श्रम पर आधारित थे जहाँ कम पूंजी की
आवश्यकता थी। स्थानीय बाजारों में माल बेचा जा सकता है। इस तरह, उत्पादन और बाजार दोनों का ध्यान रखा गया। यही कारण
है कि उन्होंने कुटीर उद्योगों की स्थापना की वकालत की और ग्रामीण उत्पादों के उपयोग
की सिफारिश की। उनके अनुसार, गाँव की अर्थव्यवस्था दो महत्वपूर्ण उद्देश्यों को पूरा करेगी। पहला, यह कि निवासियों को अधिकतम रोजगार और आय प्रदान करेगा, और दूसरा, यह समानता, स्वतंत्रता और न्याय की स्थापना करेगी।
महात्मा गांधी ने ग्रामीण
स्तर के कुटीर उद्योगों और दस्तकारी उद्योगों को बढ़ावा देने पर बल दिया क्योंकि वे
ग्रामीणों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ आवश्यक रोजगार भी प्रदान करते हैं और गांव को
सुविधाएं भी प्रदान कर सकते हैं। ग्रामीण उद्योग पारिवारिक श्रम पर आधारित होते हैं
और पूंजी की कम मात्रा की आवश्यकता होती है। कच्चे माल को स्थानीय बाजारों से भी एकत्र
किया जाता है और इस प्रकार उत्पादित माल स्थानीय बाजारों में बेचा जाता है। इसलिए उत्पादन
और बाजार की कोई समस्या नहीं है। बड़े पैमाने पर उत्पादन श्रम और पूंजी के बीच टकराव
पैदा करता है। ग्रामीण उद्योगों के मामले में इस तरह के संघर्ष नहीं हो सकते हैं। ग्रामीण
उद्योग एकता और समानता के प्रतीक हैं।[vi] गांधी के अनुसार आत्मनिर्भर और अहिंसा पर आधारित ग्रामीण
समाज ही पारस्परिक सहयोग और शांति के आधार पर आत्मनिर्भर हो सकते हैं। यह तभी संभव
हो सकता है जब गांव की प्रत्येक गतिविधि सहकारिता के सिद्धांत पर आधारित हो, यहाँ तक कि कृषि भी सहकारी हो। सहकारी कृषि के साथ-साथ सहकारी पशुपालन की व्यवस्था को भी बढ़ावा दिया
जाना चाहिए।
4. न्यासिता की अवधारणा :
महात्मा गांधी
ने जीवन के हर क्षेत्र में अहिंसा की अवधारणा को अपनाया है। इसी तरह उन्होंने आर्थिक
समानता को स्थापित करने के लिए अथवा आर्थिक विषमता को कम करने के लिए न्यासिता के सिद्धांत
का प्रतिपादन किया है। गांधीजी के अनुसार सब लोगों को अपनी आवश्यकताओं को अथवा जीवन
की आवश्यकताओं को न्यूनतम रखना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति की न्यूनतम और आधारभूत आवश्यकताओं
की पूर्ति के पश्चात उसके पास जो भी संपत्ति अधिशेष रहती है, वह उस अधिशेष सम्पति का ट्रस्टी होता है क्योंकि वह
न केवल निर्जीव संपत्ति अपितु सजीव संपत्ति भी समाज के सहयोग के माध्यम से ही अर्जित
करता है। इसलिए अधिशेष संपत्ति पर समाज का अधिकार होता है। इस प्रकार वे समुदाय की
है और इसीलिए उसका उपयोग समुदाय के कल्याण के लिए किया जाना चाहिए। अतः अमीर व्यक्ति
अपने हृदय में परिवर्तन करके इसे समाज के पक्ष में दान कर दे। महात्मा गांधी के अनुसार
ट्रस्टीशिप जीवन का एक तरीका या कौशल है। वह किसी एक लक्ष्य को हासिल करने का आधार
ही नहीं है। उनके समग्र दृष्टिकोण के अनुसार यह सब कुछ ईश्वर से संबंधित है और इसीलिए
धरती पर हर किसी का जीवन की कम से कम बुनियादी जरूरतों पर अधिकार होता है।
5. शारीरिक श्रम की अवधारणा में विश्वास :
गांधी का यह
सिद्धान्त ग्राम गणराज्य के श्रमप्रधान उद्योगों को श्रम उपलब्ध कराने के लिए अतिआवश्यक
है। इसीलिए गांधी ने इस सिद्धान्त में श्रम की गरिमा व महत्ता पर अधिकाधिक बल दिया
है। महात्मा गांधी ने जॉन रस्किन और लियो टॉलस्टॉय के विचारों से प्रभावित होकर शारीरिक
श्रम के सिद्धांत की अवधारणा को विकसित किया। उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी
रोटी कमाने के लिए शारीरिक श्रम करना ही चाहिए। उन्होंने कहा कि “ईश्वर ने सभी को अपनी दैनिक रोटी से अधिक काम करने
और कमाने की क्षमता प्रदान की है और जो भी व्यक्ति इस क्षमता का उपयोग करने के लिए
तैयार है, वह निश्चित रूप से काम
पाने का अधिकारी होता है।’’ शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शारीरिक काम किया जाना चाहिए। मेरा मानना
है कि जो काम नहीं करेगा उसे रोटी का अधिकार भी नहीं होगा। यहाँ तक कि वकीलों, इंजीनियरों, वैज्ञानिकों, प्रोफेसरों, कवियों और नाटककारों को भी बौद्धिक श्रम के अलावा
शारीरिक श्रम करना होगा।[vii]
गांधी के अनुसार जहाँ
पर श्रम सिद्धांत को मान्यता दिया जाता है वहाँ पर बेरोजगारी के लिए कोई गुंजाइश नहीं
रहती है। यह सिद्धांत पर्याप्त भोजन, वस्त्र और आश्रय की गारंटी देता है। इसके कारण समाज में कोई बीमारी नहीं होगी
क्योंकि शारीरिक श्रम लोगों को स्वस्थ बनाता है। अतः लोग खाने के लिए जीने के बजाय, जीने के लिए खाएंगे। भोजन सरल, पौष्टिक और स्वादिष्ट लगेगा, यदि कोई पसीना बहाने के बाद भोजन करेगा। इस प्रकार
से श्रम की गरिमा नवीन समाज के आर्थिक आधार के स्वरूप में स्थापित होगी।[viii]
6. नई तालीम की अवधारणा :
गांधी ने हिंद
स्वराज में लिखा है कि आखिरकार शिक्षा के मायने क्या हैं? यदि इसका अर्थ अक्षर
ज्ञान मात्र से ही है तब तो यह एक औजार हुआ जिसका सदुपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग
भी। यदि शिक्षा का साधारण अर्थ अक्षर ज्ञान ही होता है तो लड़कों को पढ़ना-लिखना और हिसाब
लगाना सीखा देना प्रारंभिक शिक्षा कहलाता है। एक किसान ईमानदारी से खेती-किसानी करके
अपनी रोटी कमाता है। उसे दुनिया का सामान्य ज्ञान होता है। अपने मां-बाप, अपनी स्त्री, अपने बच्चों के साथ वह किस तरह व्यवहार करे जो लोग
उसके गांव में बसते हैं, उनके साथ कैसी राह-रस्म रखे। इन सबका उसे पूरा ज्ञान होता है। सदाचार के नियमों को वह समझता है
और उनका पालन करता है पर उसे दस्तखत करना नहीं आता है। ऐसे व्यक्ति को अक्सर ज्ञान
कराकर आप उसके सुख में कौन-सी वृद्धी करेंगे? क्या आप उसके हृदय में
अपने झोपड़े और अपनी दशा के प्रति असंतोष पैदा करना चाहते हैं? यह करना हो तो उसे अक्सर
ज्ञान कराने की जरूरत नहीं है। पश्चिमी विचारकों के प्रभाव में पड़कर हमें हमने इतना
तो याद कर लिया कि सबको पढ़ना-लिखना सीखा देना चाहिए परन्तु उसके हानि और लाभ की बारे में विचार नहीं किया।
अतः शिक्षा का वास्तविक अर्थ चरित्र निर्माण से है।[ix]
महात्मा के अनुसार एक बालक और व्यक्ति के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा का विकास ही नई तालीम का मूल आधार
है। गांधी के अनुसार शिक्षा का मतलब अक्षर ज्ञान से नहीं है। शिक्षा का दर्शन शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विकास से संबंधित है। नई तालीम के
रूप में उन्होंने शिक्षा को एक ऐसा माध्यम माना है जो व्यक्ति को आजीविका का साधन जुटाने
के लिए अथवा अपने जीवन का संचालन करने के लिए एक तालीम अथवा एक तरीका अथवा एक कौशल
प्रदान करता है। व्यवसायिक शिक्षा के रूप में अथवा व्यवसाय प्रशिक्षण के रूप में कारपेंटर, जूतों की सिलाई, गार्डनिंग इत्यादि को शामिल किया गया है। इसी के साथ
आध्यात्मिक शिक्षा भी इसी का एक भाग होता है उनका यह पूर्ण विश्वास था कि एक शिक्षक
का चरित्र और जीवन उसके विद्यार्थियों के लिए नैतिक जीवन का प्रतिमान या आदर्श होता
है। वास्तव में इस प्रकार से गांधी की शिक्षा योजना का अभिप्राय ग्रामीण हस्तकला के
माध्यम से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में बदलाव अथवा क्रांति लाना था। इसके
माध्यम से वे व्यवसायिक प्रशिक्षण प्रदान करके बेरोजगारी की समस्या को दूर करना चाहते
थे तथा लोगों को आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराना चाहते थे। इस शिक्षा का ध्येय
श्रम की गरिमा और सौहार्द्र की भावना को अर्जित करना था। यह वास्तव में ग्रामीण अर्थव्यवस्था
और ग्रामीण उद्योगों के पुनरुत्थान का एक नवीन परिपेक्ष्य था।[x]
वास्तव में नवीन शिक्षा अथवा नई तालीम के द्वारा यह सुनिश्चित किया जाना था
कि वर्तमान ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बिना किसी आयातित मशीन और तकनीकी कौशल के रूपांतरित
किया जा सके। यद्यपि देश की आर्थिक नीति को केवल हस्तकला के विशेष ज्ञान के माध्यम
से प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता है फिर भी जनस्तर पर हस्तकलाओं के माध्यम से इसको
बदला जा सकता था। विकेंद्रीकृत उत्पादन व्यवस्था एक विकेंद्रीकृत राजनीतिक प्रणाली
के लिए अपरिहार्य होती है। इस शिक्षा प्रणाली का ध्येय श्रम की गरिमा, आत्मनिर्भरता और उपयोगी शैक्षणिक ज्ञान, नैतिक उत्थान, सामाजिक जागरूकता और जिम्मेदारी का छात्रों को एहसास
कराना था।[xi] इसके माध्यम से छात्र राजनीतिक व्यवस्था को नवीन अर्थ
और उद्देश्य प्रदान करेंगे। शिक्षा का अर्थ है व्यक्ति को आजीविका कमाने का कौशल मिले।
7. स्वदेशी और आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था की अवधारणा :
स्वदेशी केवल स्वाधीनता
प्राप्ति का साधन ही नहीं है अपितु यह भारत की विदेशी निर्भरता को भी कम करता है। स्वदेशी
के साथ बहिष्कार की धारणा भी घनिष्टता के साथ जुडी होती है। ग्रामीण उद्योगों को आगे
बढ़ाने के लिए हमें गांव के स्थानीय लघु उद्योगों में निर्मित वस्तुओं एवं सेवाओं का
उपयोग करना होगा जिससे कि गांव आत्मनिर्भर और अन्तः निर्भर हो सके। ग्राम स्वराज के
ध्येय को प्राप्त करने के लिए उन्होंने कहा कि :-
“ग्राम स्वराज
की बारे में मेरा विचार यह है कि गांव पूर्ण गणतंत्र या गणराज्य के रूप में स्थापित
हो। जो अपने पड़ोस से स्वतंत्र हो और जहाँ अन्य लोगों के लिए अंतः निर्भरता हो। यहाँ
पर निर्भरता एक आवश्यकता की तरह होती है। इस प्रकार प्रत्येक गांव सर्वप्रथम अपने स्वयं
के लिए खाद्यान्न फसलों का उत्पादन करे और वस्त्रों के लिए कपास का उत्पादन करे। वह
अपने स्तर पर मवेशियों के लिए चारागाह भूमि तथा वयस्कों और बच्चों के लिए मनोरंजन तथा
खेल के मैदान को आरक्षित रखे। इसके अलावा भी यदि गांव में अतिरिक्त भूमि उपलब्ध हो
तो मादक पदार्थों की फसलों के उत्पादन को छोड़कर व्यवसायिक फसलों का उत्पादन करे। गांव
अपने स्तर पर स्कूल और सामुदायिक भवनों तथा रंगमंच की व्यवस्था करे। गांव का अपना एक
जल प्रबंधन हो जिसके माध्यम से स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता हो सके।’’[xii]
अतः गाँव के सदस्यों के लिए आवश्यक सभी वस्तुओं और सेवाओं को गाँव के भीतर
ही उगाया जाना चाहिए। एक शब्द में, हर गांव में एक स्व-निहित गणराज्य होना चाहिए। यदि प्रत्येक गाँव अपनी अधिशेष उपज गरीब ग्रामीणों
को वितरित करता है तो ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी और भुखमरी की समस्या नहीं होगी।
केवल यह गरीबी उन्मूलन में मदद कर सकता है और इस प्रकार लोग खुश और आत्मनिर्भर हो सकते
हैं।[xiii]
8. विकास की सर्वोदय की अवधारणा :
गांधी ने विकास के सर्वोदय प्रतिमान का समर्थन किया है। सर्वोदय का शाब्दिक
अर्थ है सबका उदय अर्थात् विकास सब लोगों का होना चाहिए, सभी पक्षों का होना चाहिए क्योंकि विकास एक बहुआयामी
एवं बहमुखी प्रक्रिया होता है। यह गुणात्मक एवं मात्रात्मक दोनों से संबंधित होता है।
यही कारण है कि गांधी ने कहा कि भारत का विकास गांवों के विकास पर निर्भर है। गांधी
के शब्दों में, “मैं गांव के बुद्धिमान
आदमी की बात करता हूँ जो कि जानवरों की तरह गंदगी और अंधेरे में नहीं रहेंगे। पुरुष
और महिलाएं सब स्वतंत्र होंगे और दुनिया में भी किसी के खिलाफ भी खड़े हो सकने में सक्षम
होंगे। इन लोगों में न तो प्लेग होगा, न ही हैजा की बीमारी होगी और न ही छोटी माता या चेचक की बीमारी होगी। कोई भी
विलासिता पूर्ण जीवन नहीं जीएगा और न ही किसी का जीवन बेकार होगा। संभवतया सभी अपने
हिस्से के श्रम का निर्वहन करेंगें’’।[xiv] विकास प्रत्येक व्यक्ति के जीवन से जुड़ी हुई धारणा
है। अतः गांधी ने इसे सर्वोदय के विकास सिद्धान्त के साथ जोड़ा है।
निष्कर्ष -
इस प्रकार से हम निष्कर्ष के रूप में गांधी के ग्राम गणराज्य के आर्थिक चिंतन
के सन्दर्भ में कह सकते हैं कि गाँव के उद्योगों के विस्तार के गाँधी के सपने के अनुरूप, 1948, 1956 और 1977 के औद्योगिक नीतिगत प्रस्तावों ने छोटे पैमाने और
गाँव के उद्योगों के विकास के लिए विशेष पक्ष की पेशकश की। गाँव और छोटे स्तर के उद्योग
रोजगार सृजन और गरीबी उन्मूलन के मामले में भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका
निभा रहे हैं। यह इस तथ्य के कारण है कि ये उद्योग श्रम-गहन और पूंजीगत बचत हैं। कृषि में मशीनीकरण से उत्पादकता
बढ़ी है लेकिन साथ ही साथ रोजगार के अवसर भी कम हुए हैं। गैर-कृषि क्षेत्र में ग्रामीण रोजगार के अवसर के निर्माण
पर स्वाभाविक रूप से जोर दिया जाना चाहिए। ग्रामीण भारत में गरीबी और बेरोजगारी को
कम करने के संदर्भ में आत्मनिर्भर ग्राम अर्थव्यवस्था का गांधीवादी दृष्टिकोण भी प्रासंगिक
है। 1972-73 में, 54.1 प्रतिशत लोग ग्रामीण भारत में गरीबी रेखा से नीचे
रहते थे। 1977-78 में यह थोड़ा
घटकर 51.2 प्रतिशत हो गया। 1983-84 में यह फिर से घटकर 45.7 फीसदी हो गया। 1993-94 में यह दर फिर से घटकर 37.3 प्रतिशत हो गई। 1999-2000 में यह लगभग 30 प्रतिशत था। ग्रामीण भारत में गरीबी के बारे में यहाँ प्रस्तुत आंकड़े आर्थिक सर्वेक्षण और योजना आयोग के विभिन्न मुद्दों से एकत्रित
किए गए हैं। ग्रामीण गरीबों की स्थिति में सुधार करने के लिए गांधीयन गणराज्य में ग्रामीण उद्योगों को
तेजी से आगे बढ़ाना आवश्यक है।[xv]
आज जब पूरी दुनिया में प्रत्येक राज्य विकास की अनवरत
प्रतियोगिता में भाग ले रहा है। सबके सामने न केवल सतत् एवं समावेशी विकास की अपितु
विकास की धारा के साथ जलवायु परिवर्तन की समस्या एक बड़ी चुनौती के रूप में खड़ी है
तो इस संकट के काल से गांधी के गणराज्य की अर्थ प्रणाली ही हमें मुक्ति का मार्ग दिखा
सकती है। यह न केवल आर्थिक अपितु तमाम तरह के संकटों से निपटने वाली युक्ति है। यदि
भारत को आत्मनिर्भर तथा दुनिया के लिए पथ प्रदर्शक बनाना है तो हमें महात्मा गांधी
के मार्ग पर चलना ही होगा।
संदर्भ -
[i] सर्वोदय, वॉल्यूम-1, अंक - 5, जनवरी-फरवरी, 2004
[ii] वही,
[iii] बनर्जी, डी.एन., इंडियाज नेशन बिल्डर्स, 1919, 27वीं स्ट्रीट न्यूयॉर्क सिटी, पृष्ठ - 168, फिफ्थ एवेन्यू।
[iv] गांधी, एम.के., हिंद स्वराज, 1939, अहमदाबाद, पृष्ठ - 40, नवजीवन प्रेस।
[v] भट्टाचार्य, बुद्धदेव, इवोल्यूशन ऑफ द पॉलिटिकल फ़िलासफ़ी ऑफ गांधी, 1969, कोलकाता, पृष्ठ - 206, कोलकाता बुक हाउस।
[vi] सर्वोदय, वॉल्यूम- 1, नंबर 5, जनवरी-फरवरी, 2004
[vii] पांडे, बी.पी., गांधी एंड इकोनॉमिक डेवलपमेंट, 1993, नई दिल्ली, पृष्ठ - 45, रेडिएंट पब्लिशर्स।
[viii] पाटिल, एस.एच., गांधी और स्वराज, 1983, नई दिल्ली, पृष्ठ-102, दीप और दीप प्रकाशन।
[ix] कालिकाप्रसाद (अनुवादित), हिंद स्वराज, 1951,नई दिल्ली, पृष्ठ - 93-95, सस्ता साहित्य मंडल।
[x] पाटिल, एस.एच., गांधी और स्वराज , 1983, नई दिल्ली, पृष्ठ-83, दीप और दीप प्रकाशन।
[xi] वही,
[xii] प्यारेलाल, महात्मा गांधी ऑन ह्यूमन सेटलमेंट्स, 1977, अहमदाबाद, पृष्ठ - 21, नवजीवन पब्लिशिंग हाउस।
[xiii] सर्वोदय, वॉल्यूम-1, अंक - 5, जनवरी-फरवरी, 2004
[xiv] वही,
[xv] वही,
सहायक आचार्य, राजनीति विज्ञान, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर।
kailashappy1986@gmail.com, 9784084824
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021, चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
एक टिप्पणी भेजें