आधुनिक हिन्दी काव्य में अस्तित्ववादी चेतना की अभिव्यक्ति / डॉ. मार्तण्ड कुमार द्विवेदी
शोध-सारआधुनिक हिन्दी काव्य अस्तित्ववादी दर्शन से अत्यधिक
प्रभावित है। हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल निश्चित रूप से एक संघर्ष तथा क्रान्ति
का युग रहा है, जिसके
कारण आधुनिक काव्य में अस्तित्ववादी चिन्तन को प्रमुख आधार मिला है।
अस्तित्ववादी विचारधारा में मृत्यु को जीवन का एक अनिवार्य अंश स्वीकार किया गया
है। आधुनिक काव्य के कवियों में मृत्यु-बोध और आस्था-अनास्था के स्वर मुख्य रूप से
देखने को मिलते हैं। इसमें जीवन के प्रति पूर्ण आस्था और उसे अन्तिम क्षण तक भोगने
का संकल्प अभिव्यक्त हुआ है। अस्तित्ववादी दर्शन में क्षणबोध की अत्यधिक महत्ता
है। इस क्षणवादी विचार ने कवियों को भोगवाद की ओर प्रेरित किया है। मुक्ति की
छटपटाहट आधुनिक काव्य के कवियों में प्रमुखता से दिखाई देती है। जब मनुष्य निराशा, घुटन, पीड़ा आदि
भावों को अपने चारों ओर पाता है तब उसे अकेलेपन की अनुभूति होती है। अकेलेपन की इस
अनुभूति को मुक्तिबोध के काव्य में स्पष्टतः देखा जा सकता है। आधुनिक काव्य में
अस्तित्ववादी चिन्तन का स्वरूप स्पष्ट रूप से काव्य में दृष्टिगत है।
बीज-शब्द : अस्तित्ववाद, चिन्तन, आधुनिक, मृत्युबोध, स्वतंत्रता, जीवन-मूल्य, अनास्था
मूल आलेख
अस्तित्ववादी विचारधारा का आधारभूत शब्द ‘अस्तित्व’ का अर्थ है ‘होने का भाव’। पारिभाषिक अर्थों में अस्तित्व ‘मैं हूँ’ के अहसास का नाम है। पाश्चात्य विचारक सार्त्र के अनुसार अस्तित्व आकस्मिक, कृत्रिम और विवेकहीन होता है एवं उसके चिन्तन का भी केन्द्र बिन्दु ‘स्वतंत्रता’ है। अस्तित्व और स्वतंत्रता परस्पर सामानार्थी हैं। मनुष्य स्वतंत्र होने को बाध्य है एवं वह स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। ईश्वर को नियामक समझने की आवश्यकता नहीं है। जीवन मूल्य शाश्वत नहीं हैं और न ही ईश्वर मूल्यों का स्रोत है क्योंकि व्यक्ति स्वतंत्र रूप से मूल्यों का निर्माण करता है। मनुष्य एक आत्मचेतन, आत्मप्रबुद्ध एवं स्वाधीन प्राणी है। मनुष्य का अस्तित्व उसके कार्यों एवं जीवन में ही है। ‘‘अस्तित्ववाद जीवन की समग्रता के समक्ष समस्त परिस्थितियों को जानने का प्रयत्न करता है। वह मानव जीवन की सार्थकता का अन्वेषण करता है क्योंकि सफल जीवन के लिए सार्थकता एक अनिवार्य शर्त है। अस्तित्ववाद यह मानता है कि जीवन की सारी संभावनायें किसी पूर्व नियोजित साँचे में ढली नहीं रहती, क्योंकि मानव प्रकृति भी पूर्व नियोजित नहीं है और उसका निर्माण एवं विकास होता रहता है। यह जीवन की संकुलता के मध्य व्यक्ति की स्वातंत्र्य चेतना और आन्तरिक गरिमा को पुनः अर्जित करने की सम्भावना को आधार मानता है, जिसकी उत्पत्ति मानव व्यक्तित्व के नैराश्य से हुई है।’’1 अस्तित्ववाद मानव स्वतंत्रता को सबसे बड़ा मूल्य मानता है और इसके अलावा अनेक नैतिक-सामाजिक-राजनैतिकऔर धार्मिक मूल्यों को गौण मानता है। अस्तित्ववादी व्यक्ति अन्य सभी मूल्यों को मानव स्वतंत्रता से प्रवाहित होने वाला तथा उन्हें मानव स्वतंत्रता के अधीन मानता है जबकि अन्य विचारधारायें स्वतंत्रता को अन्य मूल्यों के अधीन बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील रही हैं।
इस दृष्टि से अस्तित्ववाद भारतीय चिन्तन के बहुत अधिक निकट है जिसमें मोक्ष या मुक्ति को परम पुरुषार्थ कहा गया है और उसे धर्म, अर्थ एवं काम की समस्त मानव गतिवधियों का लक्ष्य कहा गया है। मोक्ष या मुक्ति परम स्वतंत्रता की परिकल्पना है किन्तु उसे इस जीवन में सम्भव या प्राप्य नहीं माना गया है। भारतीय दार्शनिक चिन्तन के अनुसार मानव की पूर्ण स्वतंत्रता महज विश्वास एवं आस्था की वस्तु है। अस्तित्ववान होने के लिए तत्सम्बन्धी सजगता एवं बोध का होना आवश्यक है। सम्भावना से वास्तविकता में रूपान्तरित होने की इस प्रक्रिया में स्वतंत्रता अथवा चयन स्वातंत्र्य आवश्यक है। यह ‘होने’ या बनने की स्वतंत्रता केवल मनुष्य (व्यक्ति) को ही प्राप्त है। अस्तित्ववाद के सम्बन्ध में विद्वानों के अलग-अलग मत हैं, जिनको उनकी विशेषताएँ माना जाता है –
क. जीवन की निरर्थकता का अनुभव
ख. पूर्णतः वैयक्तिक स्वच्छन्दता पर बल
ग. मानव स्थिति को पूर्णतः
यातनापूर्ण, दुःखद एवं पीड़ाजनक मानना
घ. अस्तित्ववाद अनास्था का दर्शन है
ङ. मृत्युबोध
आधुनिक
काल का प्रारम्भ अपने युग की गतिशील स्थितियों की देन है। नवीन मूल्यों का बोध और
उनको विचार व्यवहार में अभिव्यक्त करने की छटपटाहट ही नवीन युग का सूत्रपात करती
है। आधुनिक हिन्दी काव्य अस्तित्ववादी दर्शन से अत्यधिक प्रभावित है, जिस पर
भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शनों का समान रूप से प्रभाव पड़ा है। मनुष्य के मन में
स्वयं को जानने तथा बाह्य जगत को जानने की नैसर्गिक प्रवृत्ति होती है। प्रत्येक
व्यक्ति की अपनी एक जीवन के प्रति सोच होती है तथा अपना एक विशिष्ट जीवन मूल्य
अथवा जीवन के प्रति दृष्टिकोण होता है। जिस कारण मनुष्य का दार्शनिक चेतना से
युक्त होना एक स्वभाविक प्रक्रिया है। पाश्चात्य दर्शन में बौद्धिक चिन्तन को
अत्यधिक प्रधानता दी गई है। दार्शनिक ज्ञान से हम ऐसी मनोवृत्ति उत्पन्न कर पाते
हैं जिनको देखने का तरीका हमारे साधारण दृष्टिकोण से एकदम भिन्न होता है। क्योंकि
जीवन की परिस्थितियाँ कभी भी परिवर्तित नहीं होती अपितु वे परिस्थितियाँ उसी रूप
में रहती हैं, किन्तु उनके प्रति हमारा दृष्टिकोण बदल
जाता है। समकालीन कविता आधुनिक भावबोध को अत्यन्त गहराई से उजागर करती है।‘‘नयी
कविता में क्षण की महत्ता उसी तरह से है जिस प्रकार विज्ञान में परमाणु की महत्ता
है। नयी कविता के कवियों के लिए जीवन के हर क्षण का यथार्थ अद्वितीय है। नयी कविता
में क्षणों की अनुभूतियों को लेकर अनेक मर्मस्पर्शी और विचार-प्ररेक कविताओं का
सृजन किया गया है।’’2
आधुनिक काल के अनेक कवियों की रचनाओं में अस्तित्ववाद का व्यापक प्रभाव देखने को मिलता है।अज्ञेय ने तो भारतीय काव्यशास्त्र में वर्णित परम्परागत साधरणीकरण को पूर्णतः अस्वीकृत ही कर दिया। अज्ञेय के अनुसार अभिव्यक्ति कभी स्वान्तः सुखाय नहीं हो सकती, उसमें पाठक या श्रोता का होना आवश्यक है। अभिव्यक्ति तभी सार्थक है जब कवि अपनी भाषा के माध्यम से उलझी संवेदनाओं को पाठकों या श्रोताओं तक अक्षुण्ण पहुँचा दे। कवि मुक्तिबोध का काव्य बिम्ब अर्थात् चित्रात्मकता की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध है। उनकी कविताओं, बिम्बों का वैविध्य दृष्टिकोण होता है। भावों की अभिव्यक्ति मुक्तिबोध ने भाव बिम्बों को अत्यन्त कुशलता से अपने काव्य में प्रयोग किया है। उनकी कविता में करुण, विषाद, वीभत्स, उत्साह, भयानक इत्यादि भाव, बिम्बों का प्रचुरता से प्रयोग मिलता है। अस्तित्ववादी विचारधारा में मृत्यु को जीवन का एक अनिवार्य अंश स्वीकार किया गया है। मनुष्य के मन में जो संघर्ष और द्वन्द्व फूटते हैं तथा जिस वेदना की वह अनुभूति करता है, उसी से वह निर्णयों तक पहुँचता है। भय तथा त्रास से हमें बोध होता है कि हमारा अस्तित्व क्या है और मृत्यु क्या हो सकती है। मनुष्य जिस संसार में जन्म लेता है, उसे वस्तुगत रूप से जान नहीं सकता, वह संसार में स्वयं को खोया हुआ पाता है तथा मनुष्य जीवन जीने के लिए बाध्य है, और जीने के इस दायित्व से वह घुट-घुटकर रह जाता है। उसके लिए आवश्यक है कि वह इस सत्य को पहचानकर यह जान सके कि यह संसार निरुद्देश्य तथा निरर्थक है। मनुष्य स्वयं उद्देश्य निश्चित करके जीवन को सार्थक कर सकता है। इस निरर्थक बाह्य संसार को एक अर्थ दे सकता है। इस पद्धति से उसे स्वयं के अस्तित्व का बोध हो सकता है। मनुष्य में स्वयं अपना उद्देश्य निश्चित करने की क्षमता नहीं होती है। उसके मन में सदैव यह भय विद्यमान रहता है कि एक न एक दिन उसे मृत्यु के सम्मुख प्रस्तुत होना है किन्तु संसारिक व्यस्तताओं के माध्यम से वह मृत्यु के भय को दूर करने का प्रयास करता है किन्तु मानव मन किसी भी प्रकार के बहकावे को स्वीकार नहीं करता, उसके अंदर यह अपराध भावना विद्यमान रहती है कि वह मृत्यु के भय से आँखे चुरा रहा है। यही कारण है कि मनुष्य को दृढ़तापूर्वक मृत्यु के भय को आत्मसात करना चाहिए।
अस्तित्ववादी कविता मध्यमवर्गीय जीवन की आशाओं, आकांक्षाओं तथा कुण्ठाओं को चित्रित करती है क्योंकि मध्यमवर्गीय अनुभूतियां कवि के आत्मिक जीवन में तपकर सामने आती हैं। मध्यमवर्गीय व्यक्ति सामाजिक जागरण से असम्पृक्त रहकर अपने अंदर की पीड़ा की तलाश में तत्पर हो गया। यह पीड़ा बोध इतना गहरा एवं सजग है कि कभी-कभी दार्शनिक सत्य बन जाता है। अज्ञेय की पंक्तियां देखिये-
दुःख
सबको माँजता है
और
चाहे
स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, किन्तु
जिनको
माँजता है
उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।3
आधुनिक काव्य के कवियों में मृत्युबोध की भावना प्रबल रूप में सामने आती है जिसे कवियों ने अनेक प्रकार की कविताओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है। मृत्यु एक ऐसा शाश्वत सत्य है जिसका कोई स्वेच्छा से वरण नहीं करना चाहता है परन्तु प्रत्येक मनुष्य को मृत्यु का वरण करना ही पड़ता है। मृत्युबोध जीवन और जगत की निस्सारता की अनुभूति कराता हुआ मानव जीवन को निष्क्रिय एवं वैराग्यता से युक्त बना सकता है।अस्तित्ववादी कवियों में अहं के प्रति विशेष संचेष्टता है। वह अपने अस्तित्व की स्वीकृति चाहता है और उसके माध्यम से जीवन, सौन्दर्य व समाज का साक्षात्कार करता है। बिम्ब बहुलता नयी कविता की विशिष्ट पहचान है। मुक्तिबोध की सबसे बड़ी शक्ति है लोक परिवेश से गहरी संपृक्ति तथा जीवन में विश्वास। मुक्ति बोध की कविता देखिये-
मुझे
भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता
हीरा है
हर एक
छाती में आत्मा अधीरा है
प्रत्येक
सुस्मित में विमल सदा नीरा है
मुझे
भ्रम होता है कि प्रत्येक प्राणी में
महाकाव्य
पीड़ा है।4
अस्तित्ववादी चिन्तन की दृष्टि से ‘महाप्रस्थान’ तथा ‘संशय की एक रात’ प्रमुख है। नरेश मेहता की कृति ‘संशय की एक रात’ में कवि ने श्रीराम के चरित्र में एक साधारण मानव की संशयग्रस्त मनोदशा, अनास्था, निराशा तथा विषाद की संत्रासपूर्ण मनःस्थितियों को उद्घाटित किया है तथा उनके चिन्तन की ठोस यथार्थ जीवनानुभूति का निदर्शन किया है। नरेश मेहता द्वारा रचित ‘संशय की एक रात’ आधुनिक चेतना की दृष्टि से आज के मानव के अन्तःसंघर्ष को अभिव्यक्ति कर रही है। इसमें राम आधुनिक प्रज्ञा का प्रतिनिधित्व करते हैं। युद्ध आज की प्रमुख समस्या है। इस विभीषिका को सामाजिक और वैयक्तिक धरातल पर सभी युगों में भोगा जाता रहा है और इसीलिए राम जी को आधार बनाकर ये प्रश्न उठाये गये हैं। राम संशयग्रस्त स्थिति में सोचते हुए कहते हैं-
इतिहास
के हाथों
बाण
बनने से अच्छा है/स्वयं हम
अँधेरों में यात्रा करते हुए/खो जाएँ।5
कुंवर
नारायण द्वारा रचित ‘आत्मजयी’ अस्तित्ववादी
चिन्तन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति है जिसमें कवि ने कठोपनिषद की कथा को आधार
बनाकर चिन्तनशील मनुष्य की प्रश्नाकुलता को व्यक्त किया है-‘‘मानव जीवन
के कुछ रहस्य जो उसे अनादिकाल से आतंकित, आह्लादित
करते रहे हैं। उनमें से एक मृत्युबोध अथवा मृत्यु-भय। मृत्यु एक ऐसा शाश्वत सत्य
है जिसका कोई वरण नहीं करना चाहता पर प्रत्येक व्यक्ति को मृत्यु का वरण करना ही
पड़ता है क्योंकि मृत्युबोध के कारण ही जीवन और जगत की अनुभूति होती है।’’6 इस मृत्युबोध के कारण ही अस्तित्व का दर्शन
सामने आया, जिसे कि विद्वानों के द्वारा आस्था-अनास्था अथवा ईश्वरवादी तथा
अनीश्वरवादी के रूप में आत्मसात किया गया। ईश्वर में आस्था न रखने वाला
अनीश्वरवादी चिन्तन मानवीय अस्तित्व को ही सब कुछ मानता है जबकि ईश्वर में आस्था
रखने वाला ईश्वरवादी चिन्तन ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता है।
धर्मवीर भारती का काव्य-संकलन ‘ठंडा लोहा’ प्रेमजनित कुण्ठा का प्रतीक है। भारती की कविताओं में आस्था और अनास्था के स्वर पर मूल्यों की अभिव्यक्ति हुई है। वे निराशा और अनास्था की मनःस्थितियों के साथ गहन आस्था को भी अभिव्यक्त करती हैं तथा कुछ रचनाओं में मूल्यों का विघटन, संघर्ष और कवि की आकांक्षाएं मुखरित हुई हैं।‘टूटा पहिया’ नामक कविता में लघु मानव की सार्थकता सुन्दर बन पड़ी है-
मैं
रथ का
टूटा हुआ पहिया हूँ
लेकिन
मुझे फेंको मत!
क्या
जाने कब/इस दुरुह चक्रव्यूह में
इतिहासों
की सामूहित गति
सहसा
झूठी पड़ जाने पर/क्या जाने
सच्चाई
टूटे हुए पहियों का आश्रय ले।7
सर्वेश्वर दयाल की कविताओं में दुःख रहस्यानुभूति, निराशा आदि रूपों में अस्तित्ववाद प्रस्तुत होता है। सर्वेश्वर की ‘काठ की घंटियां’ में अहं, व्यक्तिवाद एवं अस्तित्ववाद के स्वर तो मिलते ही हैं, दर्द, पीड़ा, रोमांटिक अवसाद की भावना तीव्रता से प्रकट होती दिखती है। इसी तरह से सर्वेश्वर ने ‘कवि मुक्तिबोध के निधन पर’ कविता लिखी, जिसमें स्वयं में घटित हो रहे एक परिवर्तन को महसूस किया। उनकी पीड़ा, दर्द और अवसाद सामाजिक संदर्भ पा लेते हैं। कवि संसार की इन विषम परिस्थितियों का भुक्तभोगी था। वह इन सुखद परिस्थितियों को झेल चुका था इसलिए कवि द्वारा जीवन रचनाओं का अंग बन गया है। कवि की रचना ‘विवशता’ में यही विचार व्यक्त किया गया है-
कितना चौड़ा पाट नदी का, कितनी भारी शाम,
कितने
खोये-खोये से हम कितना तट निष्काम
कितनी
बहकी-बहकी सी दूरागत वंशी ढेर,
कितनी
टूटी-टूटी सी नभ पर विहंगों की फेर
कितनी
सहमी-सहमी सी क्षिति की सुरमुई पिपासा,
कितनी
सिमटी-सिमटी सी जल पर तट तरु अभिलाषा,
कितनी
चुप-चुप गयी रोशनी, छिप-छिप
आयी रात,
कितनी
सिहर-सिहर कर अधरों से फूटी दो बात,
चार
नयन मुस्काये, खोये
भीगें फिर पथराये-
कितनी
बड़ी विवशता जीवन की कितनी कह पायें।8
राजकमल चौधरी की कविताओं में पीड़ा तथा पीड़ा से मुक्ति के लिए तड़प की कविता (मुक्ति की छटपटाहट) की जो प्रवृत्ति देखने को मिलती है, उसमें अस्तित्ववादी चिन्तन के स्वर दिखाई पड़ते हैं। इस संदर्भ में राजकमल का ‘मुक्ति प्रसंग’ महत्वपूर्ण कृति है। पीड़ा से मुक्ति के लिए तड़प की कविता के संदर्भ में राजकमल ने लिखा है- ‘‘संगति, संगठन, समूह इत्यादि सकारात्मक शब्द अधिकतर जड़ होते हैं उनमें न तो सुन्दरता होती है और न कोई चेतना ही होती है।’’9 इस कथन का अन्तर्निहित अर्थ तो यही होता है कि असंगति, असम्बद्धता और अकेलेपन इत्यादि नकारात्मक शब्दों में ही गति, सुन्दरता और चेतना होती हैं। यह समझ अत्यन्त वैयक्तिक है जिसमें एक प्रकार से असंतुलन, अराजकता और अकेलेपन को स्वीकृति दी गयी है।
विजयदेव
नारायण साही एक समाजवादी रचनाकार हैं जो समाज में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक
विषमताओं से रुष्ट दुःखी पीड़ित और शोषित लोगों को एक साथ रोने के लिए आमंत्रित
करते हैं जो दुःख या पीड़ा, शोषण आदि आघातों को सहन करने के लिए विवश हैं। साही जी
कहते हैं कि यद्यपि उन्हें मृत्यु का साक्षात्कार नहीं हुआ फिर भी किन्हीं रातों
में-
देर तक मैंने
अट्टाहास
और संगीत सुने हैं
करीब
तीसरे पहर जाकर
भयानक चीज सुनाई पड़ती है।10
इस
कविता में कवि द्वारा मृत्युबोध की अनुभूति की गई है जो कि अस्तित्ववादी चिन्तन की
एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है । अस्तित्ववादी दर्शन में भले ही वस्तुजगत मृत हो,
मानव चेतना ही सत् हो, व्यवहार में कवि के लिए मुर्दा चीजें
जानदार हों, और जानदार चीजें मुर्दा हों, यही
कारण है कि कवि ने आत्महत्या का जिक्र इस प्रकार किया है-
ऐसे ही मैने सृजन को देखा है
और उसे
मृत्यु की तरह पहचाना है
वह
हत्या से उपजता है
और
आत्महत्या की ओर बढ़ता है।11
साही जी सही मायने में आशा एवं आस्था के कवि हैं जो उनके काव्य-सृजन में दिखाई पड़ते हैं। साही जी के काव्य में निराशा, टूटन मृत्युबोध नश्वरता, आदि स्पष्ट रूप से देखने को मिलते हैं, जो अस्तित्ववाद के प्रमुख प्रवृत्तियों में आते हैं। साही जी का काव्य-सृजन अस्तित्ववादी चिन्तन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। अस्तित्ववादी विचारधारा में मृत्यु को जीवन का एक अनिवार्य अंश स्वीकार किया गया है। मनुष्य के मन में जो संघर्ष और द्वन्द्व फूटते हैं तथा जिस वेदना की वह अनुभूति करता है, उसी से वह निर्णयों तक पहुँचता है। भय तथा त्रास से हमें बोध होता है कि हमारा अस्तित्व क्या है और मृत्यु क्या हो सकती है। मनुष्य जिस संसार में जन्म लेता है, उसे वस्तुगत रूप से जान नहीं सकता, वह संसार में स्वयं को खोया हुआ पाता है तथा मनुष्य जीवन जीने के लिए बाध्य है, और जीने के इस दायित्व से वह घुट-घुटकर रह जाता है।आधुनिक काव्य के नयी कविता के कवियों में मृत्युबोध की भावना प्रबल रूप में सामने आती है जिसे कवियों ने अनेक प्रकार की कविताओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
अस्तित्ववादी
चिन्तन की दृष्टि से मुक्ति की छटपटाहट आधुनिक काव्य में प्रयोगवाद तथा नई कविता
के कवियों में प्रमुखता से दिखाई देती है। इन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से
मुक्ति की छटपटाहट को व्यक्त किया है। जब मनुष्य निराशा, घुटन, पीड़ा
आदि भावों को अपने चारों ओर पाता है तब उसे अकेलेपन की अनुभूति होती है। अकेलेपन
की अनुभूति आधुनिक काव्य के आज के कवियों में प्रमुखता से देखने को मिलती है।
अकेलेपन की अनुभूति को मुक्तिबोध के काव्य में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
मानव की वैयक्तिकता उसकी ही अस्तित्ववादी दर्शन का मूल उद्देश्य है। वैयक्तिक जीवन
में क्षण का महत्व अत्यन्त व्यापक है, अतः
अपने संघर्षशील अस्तित्व में भौतिक सुख ही मानव का चरम लक्ष्य है। अस्तित्ववादी
दर्शन के लिए वर्तमान ही महत्वपूर्ण है। अस्तित्ववाद व्यक्तिवाद का समर्थक है।
व्यक्ति स्वातंत्र्य का समर्थक होने के कारण वह सभी सामाजिक मान्यताओं को नकारता
है। सभ्यता, संस्कृति, परम्परा, आदि
मनुष्य की स्वतंत्रता में बाधक हैं। अस्तित्ववादी समाज के प्रवाह में पड़कर अपने
अस्तित्व को उसमें विलीन नहीं करना चाहता।
संदर्भ
1. राजवंश सहाय, पाश्चात्य
साहित्यशास्त्र-कोश, बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, पटना, 1996,
पृ.
133,
2. स्नेहलता पाठक, आधुनिक
हिन्दी काव्य: उद्भव और विकास, विद्या
विहार प्रकाशन, कानपुर, 1992,
पृ. 37
3. अज्ञेय, सदानीरा
भाग-1,नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई
दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 2003, पृ. 238
4. मुक्तिबोध, चाँद
का मुँह टेढ़ा है, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई
दिल्ली, दसवां संस्करण,1993,
पृ. 91
5. नरेश मेहता, संशय
की एक रात, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर, बम्बई, 1962,
पृ. 42
6. राकेश शुक्ल, नई
कविता में उदात्त तत्व, आशीष
प्रकाशन, कानपुर,2008,
पृ.
230-231
7. धर्मवीर भारती, सात
गीत वर्ष, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई
दिल्ली, चतुर्थ संस्करण, 1989,
पृ. 68
8. अज्ञेय, तीसरा
सप्तक, भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन, नई
दिल्ली, पंचम संस्करण, 2009, पृ. 219
9. खगेन्द्र ठाकुर, कविता
का वर्तमान, परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद,1989,
पृ. 143
10. रामविलास शर्मा, कविता
और अस्तित्ववाद, राजकमल प्रकाशन, नई
दिल्ली,द्वितीय संस्करण, 2003,
पृ.116
11. वही, पृ.
119-120
9906809456, otaitr5@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
अंक-35-36, जनवरी-जून 2021, चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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