शोध : नई आर्थिक नीतियों से ‘डूबते’ गाँव का ‘हलफ़नामा’ / डॉ. नुसरत ज़बीन सिद्दीकी

नई आर्थिक नीतियों से ‘डूबते’ गाँव का ‘हलफ़नामा’/ डॉ. नुसरत ज़बीन सिद्दिकी



शोध-सार 

भारतीय समाज शताब्दियों से सामाजिक, आर्थिक, राजनीति व धार्मिक स्तरों पर संघर्षरत रहा हैl यह संघर्ष आज भी आम भारतीयों के जीवन में बरकरार हैl बुनियादी तौर पर संघर्ष आम लोगों के जीवन में, जीवन से जुड़ी हुई बुनियादी जरूरत की चीजों को जुटाने के लिए है ताकि वे अपना जीवन स्वाभिमान पूर्वक जी सकेंl पिछले दो ढाई दशकों में यह संघर्ष कठिन व चुनौतिपूर्ण हो गया हैl उसका कारण भारत सरकार द्वारा ‘वाशिंगटन आम राय’ पर आधारित भूमंडलीकरण का रास्ता अपनाना हैl यह प्रभाव देश व्यापी है जिससे गाँव भी अछूता नहीं रहाl तमाम सरकारी प्रयासों के आँकड़ों एवं संवैधानिक उपचारों के बावजूद भी भारतीय किसान की हालत खराब हैl उसकी स्थिति में सरकारी आंकड़ों में भी कोई गुणात्मक बदलाव नहीं दिखताl बस चुनाव सभाओं में उन्नति के स्वप्न दिखाए जाते हैंl 1990 के बाद से कृषि- समाज के प्रति सरकार का नज़रिया और भी बदल गया हैl पूँजीपति वर्ग को पोषित करने के लिए सरकार किसानों से उनकी जमीन विकास के नाम पर ले रही हैl चाहे वह बंगाल का नंदीग्राम व सिंगूर हो या आज का ‘किसान बिल’l ये दोनों घटनाएँ यह साबित कर देती हैं कि सरकार जनविरोधी, कृषि विरोधी नीतियों को पूंजीपति वर्ग के लिए बेशर्मी से लागू कर रही हैl आज के किसान वर्ग के लिए शायद इतिहास का भयंकर दौर चल रहा हैl जहाँ प्रजातंत्र में उसका मौलिक अधिकार भी सुरक्षित नहीं हैl

 बीज-शब्द : भूमंडलीकरण, हरित क्रांति, खाद्यान्न आपूर्ति, किसान आंदोलनों, उदारीकरण, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, मूल्य-निर्धारण, प्राकृतिक आपदा, स्वतंत्र कृषि नीति, शहरीकरण, औद्योगिकीरण, विस्थापन, कॉरपोरेट पूंजी, वाशिंगटन आम राय, सब्सिडी, निजीकरण, सरकारी निवेशl

 मूल आलेख 

भारतीय समाज में कृषि एवं कृषक जीवन के महत्त्व को महाकवि घाघ ने इन पंक्तियों में व्यक्त किया है- ‘उत्तम खेती, मध्यम बान, निषिद्ध चाकरी भीख निदानlभूमंडलीकरण की प्रक्रिया में किसान जीवन महाकवि घाघ की इन पंक्तियों से बहुत दूर चला गया है; क्योंकि आज के भारतीय समाज में कृषि एवं कृषि से जुड़े मेहनतकश लोगों का वह सम्मान नहीं रहा, उल्टे उनके जीवन की परिस्थितियाँ बहुत ही कष्टपूर्ण हो गयी हैंl आज का किसान केवल प्रकृति की ही मार नहीं सह रहा है, बल्कि उनके जीवन में संघर्षों को बढ़ाने वाली बाहरी परिस्थितियाँ भी मौजूद हैंl खेती- किसानी का पारम्परिक तरीका पीछे छूट गया हैl आज के समय में किसान फसल के बीजों, उर्वरक रसायनों, कृषि यंत्रों आदि ऐसी तमाम कृषि उपयोगी वस्तुओं के लिए बड़ी- बड़ी वैश्विक कम्पनियों पर निर्भर होता चला जा रहा हैl बदलती हुई आर्थिक नीतियों ने कृषि एवं कृषक जीवन में जो समस्याएँ थी, उसका तो कोई सार्थक निदान प्रस्तुत नहीं किया, बल्कि समस्याओं की सूची को और लम्बा कर दिया हैl

 सत्तर के दशक में भारतीय कृषि क्षेत्र में कृषि उत्पादकता व कृषिगत सुविधाओं के विकास के लिए सरकार ने विशेष ज़ोर दिया, जिसे हम ‘हरित क्रांति’ के नाम से जानते हैंl ‘हरित क्रांति’ ने परम्परागत भारतीय कृषि को वैज्ञानिक तकनीक से जोड़ा, सिंचाई तथा अन्य सुविधाओं का विकास हुआl सरकार ने कृषि में निवेश के लिए कर्ज की सुविधाओं को बढ़ायाl इसका परिणाम सकारात्मक रहाl कृषि उत्पादन में बढ़त नोट की गई तथा अस्सी के दशक तक आते- आते भारत खाद्यान्न आपूर्ति में आत्मनिर्भर हो गयाl ‘हरित क्रांति’ की इस सफलता ने किसान आंदोलनों का रुख बदल दियाl अब किसान आन्दोलन कृषि को व्यापार का दर्जा दिलाने के लिए शुरू हुआl यह आंदोलन सामाजिक भेदभाव से अलग हटकर राजनैतिक स्वरूप ग्रहण करने लगाl आंदोलन का प्रसार पंजाब, तमिलनाडु, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक से लेकर उत्तर- प्रदेश तक फैला; परन्तु यह आंदोलन विचारधारा के स्तर पर एक- दूसरे से अलग थाl इस नए कृषि आंदोलन का मुख्य मुद्दा कृषि से हो रहे उत्पादन का लाभकारी मूल्य पाना थाl

 इन आंदोलनकारियों ने नहरों के पानी, बिजली की कीमतों, ऋण पर ब्याज की दरों एवं ऋण की शर्तो इत्यादि को कम कराने की मुहिम चलायीl इन किसान आंदोलनों के नेताओं पर यह आरोप लगा कि यह तमाम विकास योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं; परन्तु छोटे और गरीब किसानों को इनसे कोई लाभ नहीं हो रहा हैl नए किसान आन्दोलन के नेताओं का पक्ष था कि, “आंदोलन का मध्यम एवं छोटे किसानों में व्यापक आधार हैl इसके अलावा आंदोलन खेतिहर मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने और महिलाओं तथा दलितों की मांगे पूरी करने की मांग करता हैl[1] यह किसान आन्दोलन विचारधारा के स्तर पर भी एकजुट नहीं थाl कुछ नेता उदारीकरण के समर्थक थे, तो कुछ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विरोधीl 1990 के बाद यह आन्दोलन धीरे- धीरे कमज़ोर पड़ने लगाl इस आन्दोलन की एक उपलब्धि यह जरुर थी कि इसने गाँव के उपेक्षित इलाकों के पिछड़ेपन की तरफ ध्यान दिलाया; परन्तु उन समस्याओं का कोई निदान प्रस्तुत नहीं कर सकाl

 1990 में नयी आर्थिक नीतियों को अपनाने से पहले से भारत सरकार कृषि और उद्योगों के बीच एक पक्षपातपूर्ण रवैया रखती आ रही थीl विकास के नाम पर एक तरफ उद्योगों को भरपूर सहयोग एवं समर्थन दिया जा रहा थाl उद्योग लगाने के जोखिम को भी ध्यान में रखकर उद्योगों के उत्पाद का मूल्य निर्धारण किया जाता रहा हैl वहीं दूसरी तरफ कृषि के उत्पादों के मूल्य निर्धारण के समय किसानों के मेहनत को भी नजरअंदाज कर दिया जाता हैl बाढ़, सूखा जैसी प्राकृतिक आपदा, बिजली न मिलने, नहर से पानी न मिलने की वजह से जो फसल बर्बाद हो जाती है, उस पर किसानों को कोई सहायता नहीं दी जातीl सहायता के नाम पर आबंटित राशि को तो बताया जाता है; परन्तु यह नहीं बताया जाता कि किसी एक किसान को कितनी सहायता राशि मिलेगीl उद्योगों को बीमार उद्योग या कारखाने के नाम पर कम दरों पर भारी ऋण व छूट उपलब्ध करायी जाती हैl सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र की उपेक्षा का कारण स्वतंत्र कृषि नीति का न होना हैl

 विकास के नाम पर लगायी जा रही तमाम परियोजनाओं एवं शहरीकरण और औद्योगिकरण की नीति ने गाँवों को पीछे धकेल दियाl बिजली की जरूरत सभी को है, लेकिन इसकी कीमत विस्थापन के रूप में किसानों को अपनी जमीन के रूप में चुकानी पड़ती हैl“ हम तो चलो माना कि तुम्हारी प्रजा है, ना तो राजा इस देश में कोई, पर छिन-भर को हमने माना, जन्म-भर को माना कि तुम शहराती राजा और हम गाँवड़िये तुमरी प्रजाl सो राजा के सुख की खातिर हमें अपना, अपने घर द्वार का बलिदान देना चाहिएl[2] माते के माध्यम से वीरेंद्र जैन ने ‘डूब’ उपन्यास के इस अंश में सरकार की पक्षपातपूर्ण नीति का बड़ा सजीव चित्र खींचा हैl जैसे कि किसान को अपनी फसल का दाम तय करने का अधिकार नहीं है, उसी प्रकार सरकार की नीतियों के द्वारा किसानों के घर- खेत एक झटके में उनसे अलग कर दिए जाते हैं, और उनसे पूछा तक नहीं जाताl उनके इस बलिदान जोकि सरकार अपनी मर्जी से ले लेती है, उसका कोई खास फायदा भी किसानों तक नहीं पहुँचताl किसानों के साथ हो रहे इस व्यवहार को वीरेन्द्र जैन ने ‘डूब’ उपन्यास में कुछ इन शब्दों में व्यक्त किया है, “ताज्जुब की बात तो यह कि ये सब तय हुआ कब? हमसे बिना पूछे हमारी तबाही का फैसला ले लिया?”[3]

 गाँव के लोग आश्चर्यचकित है; क्योंकि उन्हें तो यह बताया गया था कि यह उनकी सरकार है, अब कोई प्रजा नहीं है और न कोई राजाl “और यह सरकार! गरीबों को सताएगी! उन्हें सताएगी जिन्हें भाग्य, भगवान, धनवान सभी पहले ही सताने पर आमादा है? ऐसा तो सौ साल पहले हुआ थाl हमें घर से बेघर होना पड़ा था...पर तब तो, माते बताते थे- गोरों की सरकार थी, राजा की मिलीभगत थीl राज हड़पने की साजिश थीl राजा- राजा की लड़ाई थी, जिसमें हम खानाबदोश हुए थेl फिर उन्हीं गोरों ने यहाँ कायम किया था मदरसाl[4] सरकार के किसानों के प्रति इस रवैया पर सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर सरकार किसकी है? और यह किसकी उन्नति के लिए कार्य कर रही है? क्योंकि भारत की बहुसंख्यक जनता जो कि कृषि कार्य से जुड़ी हुई है और गाँवों में रहती है, उसके हिस्से तो दुःख, बेदखल होने का दर्द, विस्थापन की पीड़ा ही आयी हैl

 भूमंडलीकरण ने एक बार फिर पैसे वालों को ज़मीन की तरफ आकर्षित कियाl इस बार यह पैसे वाले लोग ‘कॉरपोरेट पूंजी’ के रूप में संगठित व व्यवस्थित हैंl जब यह ‘कॉरपोरेट पूंजी’ ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुँची, तब इसके चपेट में किसान और खेतिहर मज़दूर आएl इसके परिणामस्वरूप नब्बे के बाद के दशक से स्थिति बिगड़ने लगीl ‘वाशिंगटन आम राय’ के तहत दस बिन्दु हैl इनके अनुसार सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी में कमी और गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों को लगभग खत्म कर दिया गया, सरकारी उपक्रमों का तेजी से निजीकरण किया गया, व्यापार के उदारीकरण के लिए विदेशी पूंजी भारत में आ सके उसके लिए रास्ते आसान बनाए गएl इसके फलस्वरूप सरकारी नीति में गरीबी उन्मूलन की प्राथमिकता नहीं रहीl

 ग्रामीण क्षेत्रों एवं कृषि से जुड़ी वस्तुओं पर सब्सिडी एवं कृषि ऋण के विरुद्ध अभियान चलाl इन अभियानों ने बिजली और सिंचाई पर दी जा रही रियातों को अनावश्यक बोझ मानाl इसके खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन का राजू शर्मा ने अपने उपन्यास ‘हलफनामे’ में चित्रण किया हैl उपन्यास में दिखाया गया है कि पूरे प्रदेश में सरकार की नीतियों के खिलाफ जुलूस, जाम, बंद, दफ्तरों की घेराबंदी, अनशन इत्यादि का आयोजन हो रहा हैl इन आंदोलनों में राजनैतिक दल के लोग भी सक्रिय हैl इनकी मांग है कि, “बिजली, पानी, बीज की सस्ते दामों पर आपूर्ति, कर्जों की माफ़ी या ब्याज में छूट; नहरों की सफाई और मरम्मत, पिछड़ों और भूमिहीनों की जमीन का आबंटनl’’[5] इस प्रकार के आन्दोलन हर साल की घटना बन गयी है, परंतु सरकार की नीति में कोई बदलाव नहीं आ रहाl उपन्यास का पात्र मकईराम भी इन संगठनों के आंदोलनों में जाने लगाl वामपंथी दल व कुछ स्वयं सेवी संस्थाएँ सरकार को चेताती हुई कहती हैं, “वे जल व्यवस्था (जिसे वह निजल अव्यवस्था कहकर उसका मज़ाक उड़ाते थे), पानी के टैक्स में बढ़ोतरी, सिंचाई साधनों के प्रस्तावित निजीकरण और विश्ब बैंक द्वारा थोपी गई नीतियों की पुरजोर खिलाफत कर रहे थेl उनकी चेतावनी थी कि अगर सरकार अभी नहीं संभली तो वह दिन दूर नहीं जब गाँव- गाँव में पानी के पीछे कत्लेआम होगाl[6]

 देश की एक चौथाई जनता को राष्ट्रीय आय का तीन चौथाई हिस्सा मिल रहा है, और बड़ी जनसंख्या को सिर्फ एक चौथाई हिस्साl इस प्रकार गाँवों और शहरों के बीच की दूरी लगातार बढ़ रही हैl सरकार की नीतियों और उसके खराब प्रशासन ने गाँव की स्थिति को काफी कुछ बिगाड़ दिया हैl परिणामस्वरूप किसान आत्महत्या कर रहे हैंl यह वही किसान है, जिन्होंने आज़ादी के लड़ाई के दौरान एकजुट होकर संघर्ष किया था, आज वही घोर हताशा व निराशा के शिकार हो गए है और अपनी जान दे रहे हैंl किसानों की इस आत्महत्या के पीछे ‘वाशिंगटन आम राय’ के आधार पर बनायी गई सरकारी नीतियाँ ही जिम्मेदार हैंl भारत में आधे से ज्यादा कृषि उत्पादन छोटे और सीमांत किसान करते हैं, इसके बाद भी इस क्षेत्र में सरकारी निवेश लगातार घट रहा हैl

 मकईराम के पिता स्वामीराम भी एक छोटे किसान थेl सरकारी भाषा में एक लघु किसानl फिर भी खेती से उनका जीवन कट रहा थाl पूरे परिवार को कभी नाउम्मीदी और भूख नहीं झेलनी पड़ीl कुल मिलाकर छोटी- छोटी चाहते हमेशा पूरी हुई; परन्तु आर्थिक बदलाव से परिस्थितियाँ बदल गयीl स्वामीराम के सामने अब खेती करना एक मुश्किल सवाल के रूप में था, अब केवल उसके परिश्रम से ही काम नहीं चल पा रहा थाl “स्वामीराम पानी के इंतज़ाम में मारा-मारा फिरता रहा, बोरिंग पर बोरिंग खुदवाए और इस वजह से भयानक कर्ज में डूब गया, इसका परिणाम दो फीसदी हर महीने पर उसने गाँव के चतुर और खूनी साहूकारों से कर्ज लिया क्योंकि हमारे सरकारी बैंक और सहकारी संस्थाएँ उसे लोन देने में एड़ियाँ घिसाती रहींl[7] सिंचाई की सुविधा पर सरकारी निवेश तेज़ी से कम हो रहा हैl ग्रामीण क्षेत्र में भी कुल सरकारी निवेशकम हो रहा हैl मुम्बई उच्च न्यायालय के निर्देश पर टाटा सामाजिक अनुसन्धान परिषद (TIS) ने ‘किसान आत्महत्या’पर एक विस्तृत जाँच रिपोर्ट पेश की जिसके अनुसार इन आत्महत्याओं के पीछे अपनायी गयी नयी आर्थिक नीतियाँ ही हैl

  सिंचाई और बिजली पर सब्सिडी में कटौती ने कृषि उत्पादन की लागत को बढ़ा तो दिया; परंतु पैदावार नहीं बढ़ी और न ही कृषि उत्पादों का उचित मूल्य निर्धारित किया गयाl सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा ने छोटे किसानों को फायदा नहीं पहुँचायाl छोटे किसानों ने अपनी पूरी पूंजी खेती में लगा दिया, फसल के बर्बाद हो जाने की स्थिति में पूंजी तो डूबती ही है, साथ ही किसान कर्ज के बोझ से दब जाता हैl किसानों की इन तमाम मुसीबतों और उस पर सरकारी रवैये का चित्रण राजू शर्मा अपने उपन्यास ‘हलफनामे’ में करते हैंl वे किसान की मौत का जिम्मेदार प्रशासन को ठहराते हैंl मकईरामके पिता स्वामीराम के मृत्यु के बाद सरकार एवं प्रशासन का मुआवजे को लेकर जो टाल-मटोल का रवैया है, उसका भी यथार्थ चित्रण उपन्यास में मिलता हैl “इनकी नंगई और दबंगई तो देखिए, अब यह लोग मुआवजे के टुकड़े कॉमरेड मकई की झोली में डालकर इस जिम्मेदारी को रफा-दफा करना चाहते हैंl इस पर तुर्रा ये कि मुआवज़े की रकम अदा करने में भी इस निकृष्ट व्यवस्था की आँते सूख रही हैl....हक का पैसा देने में इन सामन्ती, सरकारी कुत्तों को रिश्वत चाहिए; इन्हें हर चीज़ का सबूत चाहिए, स्वामीराम बेचारा मर गया, इसका सबूत, आपके सामने खड़ा है कॉमरेड मकई उसका अकेला बेटा है, इसका सबूतl[8]

 किसान साहस और धैर्य के साथ अपनी परिस्थितियों से संघर्ष करता हुआ आगे बढ़ता रहा था; परन्तु नब्बे के बाद भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने किसानों को तोड़ दियाl भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में जो पूंजीपति भारत आए उन्होंने और अधिक कुटीलता से काम लियाl बुद्धिजीवियों का एक ऐसा वर्ग भी तैयार किया जो उनकी कम्पनियों को सलाह देता हैl

 दरअसल यह बुद्धिजीवी वर्ग अप्रत्यक्ष रूप से इन कम्पनियों की आर्थिक नीतियों को ही मजबूत करता हैl उन आर्थिक नीतियों से समाज पर पड़ने वाले प्रभावों को किसी अन्य दिशा में मोड़ देता हैl ऐसे ही एक अर्थशास्त्री का चित्रण ‘हलफनामे’ में मिलता है, जो आंधप्रदेश के किसानों की आत्महत्या को ‘सबकी प्रिय आत्महत्याएँ’ कहकर पुकारता हैl “वह कहता है सारी दुनियाँ में आत्महत्याएँ होती हैंl यह इंसानी फितरत हैl इसका औसत प्रति लाख पन्द्रह- सोलह हैl इस लिहाज से आंध्रप्रदेश में हर साल करीब पंद्रह हजार खुदकुशियाँ हो तो आश्चर्य या चिंता की बात नहीं! उनमें आठ दस हजार किसान होना स्वभाविक है.... हरामी आगे कहता है असल में आत्महत्याओं की प्रमुख वजह परिवार में कलह और बिमारी से उपजा अवसाद है.... बिमारी माने मानसिक बीमारी और अवसाद माने डिप्रेशनl[9] यह अर्थशास्त्री गरीबी और कर्ज को किसान आत्महत्याओं का मूल कारण नहीं मानताl उसका मानना है कि मौत के आसान और सस्ते साधनों से ख़ुदकुशी में बढ़ोत्तरी होती हैl इन सस्ते साधनों में वह कीटनाशकों का नाम लेता हैl समस्या यह है कि ऐसी अतार्किक बातें समाचार माध्यमों के जरिए रोज- रोज फैलायी जाती हैंl संचार के वैश्विक माध्यम कॉरपोरेट का ही राग गाते फिरते हैंl शहरों में बसी जनसंख्या कभी भी वास्तविक स्थिति को आसानी से नहीं समझ पाती, इसके परिणामस्वरूप किसानों के प्रति संवेदनशीलता का वातावरण नहीं बन पाताl

 असल में किसान आत्महत्या का कारण कृषि उत्पादन में लागतों का दिन-प्रतिदिन बढ़ना, किसान के ऊपर कर्ज के बोझ का बढ़ना और बीज से लेकर कीटनाशक तक कृषि से जुड़ी हुई हर वस्तुओं पर एकाधिकार का होना हैl किसान आत्महत्या का कारण अवसाद नहीं, बल्कि गम्भीर सामाजिक व व्यवस्थात्मक विकृति हैl “सैनाथ के शब्दों में- किसान जब आत्महत्या करता है तो वह जिन्दगी और मौत के बीच अवसादपूर्ण चुनाव नहीं है, बल्कि जिन्दगी के लिए संघर्ष की आज़ादी का लोप हैl मौत का चुनाव किसान नहीं करता बल्कि तंत्र उसके जीने का अधिकार छीन लेता है....l[10] इसके पहले भी किसानों के सामने संकट कम उत्पन्न नहीं हुए, सूखा पड़ा, बाढ़ आयी, बेताहाशा लगान वसूली गयी, राजाओं की लड़ाइयों में फसले तबाह हुई; परन्तु किसान टूटा नहींl हर बार वह नयी शक्ति के साथ उठ खड़ा हुआ और सामने खड़ी स्थिति से संघर्ष कियाl

 भूमंडलीकरण के दौर ने किसान से उसका जुझारूपन छिन लियाl हर रास्ते बंद कर दिएl शासन एवं सत्तातंत्र एक हद तक किसानों की पीड़ा के प्रति उदासीन हैl अख़बारों एवं टी.बी. चैनलों में सत्ता एवं विपक्ष में बैठे नेता किसान मुद्दे पर एक- दूसरे से तीखी बहस तो कर लेते हैं; परन्तु कृषि नीति के क्रियान्वयन में दोनों का रवैया एक जैसा रहता हैl किसानों के प्रति सत्तातंत्र की उदासीनता तथा किसी हादसे के बाद मुआवज़े की घोषणा के पीछे के मकसद का खुलासा करते हुए राजू शर्मा ‘हलफनामे’ में बताते हैं कि दान और दया के कुछ टुकड़े डालकर सत्तातंत्र के लोग असली मुद्दे से लोगों को दूर करना चाहते हैंl “कॉमरेड अंतराष्ट्रीय पूँजीवादी व्यवस्था का कुटिल चातुर्थ अतल हैl यह दुश्मन का रूप-रंग अख्तियार कर उसे नि:शस्त्र करता हैl तब माथाफेर तर्क देने लगा कि असल में सरकार मूलतः किसान और कृषि विरोधी हैl वह कृषि सेक्टर को गरीब किसान के हाथ से छीनकर पूँजीपतियों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सौंपना चाहती हैl संरचनात्मक स्तर पर इनकी नीतियाँ जनविरोधी और प्रतिक्रियावादी हैl[11] माथाफेर की इन बातों से स्पष्ट होता है कि हमारे देश की कृषि को विश्व बाज़ार से जोड़ने की मुहिम जोरों पर हैl ‘वाशिंगटन आम राय’ के समझौते के बाद देश में कृषि व्यवसाय से जुड़ी विदेशी कम्पनियाँ तेजी से आयीl इन कम्पनियों के पास ठेके पर खेती का प्रस्ताव भी है, जिसे ‘कांट्रेक्ट फार्मिंग’ कहते हैंl नब्बे के बाद से गाँव से लोगों का शहरों की तरफ पलायन जारी है; क्योंकि गाँव के खेतिहर मजदूर वर्ग, जैसे गेहूँ पीसने वाले, धान कूटने वाले, माल-मवेशी के लिए चारा लाने वाले, तेली, कुम्हार, बढ़ई, लोहार आदि बेरोजगार है; क्योंकि खेती से जुड़े हुए अब तमाम कल-पुर्जें बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ बनाती और बेचती हैंl

 राजू शर्मा का यह उपन्यास शासनतंत्र की निर्दयता और फरेब को बताता है, तो साथ ही पानी संकट की कहानी भी बयान करता है, जोकि उत्तर आधुनिक समाज के तथाकथित विकास की रुपरेखा पर प्रश्न चिह्न लगाता हैl भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने ग्रामीण जीवन में कृषि की स्थिति को बहुत बदल दिया हैl यह बदलाव कृषकों के लिए एक ऐसी स्थिति को जन्म दे रहा है, जिसमें आज तक भू-स्वामी कहा जाने वाला कृषक समाज या कर्ज के बोझ में दब कर मर जाएगा या फिर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के निर्देशों के तहत अपनी ही जमीन पर मजदूरी करेगाl यह मजदूरी कम्पनी के गुलामी के रूप में होगीl

 संदर्भ 

 [1] बिपन चन्द्र : आज़ादी के बाद का भारत(1947-2000), हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली

 विश्वविद्यालय, द्वितीय संस्करण, 2000, पृ. 565

[3] वही, पृ. 108

[4] वही, पृ. 109

[6] वही, पृ. 12

[7] वही, पृ. 13

[8] वही, पृ. 12- 13

[9] वही, पृ. 48

[10] वही, पृ. 50

[11] वही, पृ. 219

 

डॉ. नुसरत ज़बीन सिद्दीकी
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय
संस्था– मिर्ज़ा ग़ालिब कॉलेज, मगध विश्वविद्यालय, बोध गया, पिन– 823001

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)

अंक-35-36, जनवरी-जून 2021

चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

        UGC Care Listed Issue

'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' 

( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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