आदिवासी कविताओं में चित्रित
आदिवासी समाज और स्त्री अस्मिता / लालुराम
शांत
और एकांत प्रिय रहने वाले आदिवासियों के जीवन में औद्योगीकरण के बढ़ते प्रभाव ने
उथल-पुथल मचा दी। कल तक जो इस जल, जंगल और जमीन का मालिक था, आज
वह उसी से वंचित है। विकास के नाम पर आदिवासियों के साथ छल किया गया, उन्हें
अपनी जमीनों से बेदखल कर पलायन को मजबूर कर दिया गया। आज आदिवासियों में विस्थापन
की मुख्य समस्या हैं, वे रोजगार की तलाश में दर-दर की
ठोकरे खा रहा हैं। तथाकथित सभ्य समाज आदिवासी समाज को अपनी बराबरी का दर्जा नहीं
देना चाहता है। वैश्वीकरण के कारण आदिवासी संस्कृति दुषित हो रही है। प्रकृति को
आलिंगन करने वाले और सामूहिकता, सहजीविता व सहअस्तित्व में विश्वास करने वाले
आदिवासियों को सभ्य समाज द्वारा हेय दृष्टि से देखा जाता है। वैश्वीकरण के इस दौर
में आदिवासी समाज की अस्मिता व अस्तित्व संकट में है। आदिवासी समाज में विस्थापन, पलायन, रोजगार
भूखमरी, अशिक्षा और स्त्री अस्मिता मुख्य समस्याएँ है।
बीज-शब्द : आदिवासी
जीवन दर्शन, सामूहिकता,
सहअस्तित्व, सहजीविता, अस्मिता, अस्तित्व
विस्थापन, पलायन, संघर्ष,
दु:ख-दर्द, संस्कृति, स्त्री
विद्रोह, उलगुलान आदि।
मूल आलेख
भारत
में आदिवासी संस्कृति सबसे पुरानी संस्कृति हैं, लेकिन इसको दूसरी संस्कृति
के प्रवेश के कारण विकसित नहीं होने दिया गया। सैकड़ों वर्षो तक प्रतिकार और संघर्ष के बाद अब जाकर आदिवासी
संस्कृति को हिन्दी साहित्य में थोड़ा बहुत स्थान मिलने लगा है। आदिवासी संस्कृति
का मूल दर्शन उनके लोक साहित्य में हैं,
जो कि अब आदिवासी साहित्यकार अपनी
मातृ भाषाओं में धीरे-धीरे खूब रच रहे हैं, परन्तु वह अभी हिन्दी
साहित्य में अपना उचित स्थान नहीं पा सका,
इसका मूल कारण तथा कथित मुख्य धारा
के रचनाकार हिन्दी साहित्य में दलित व आदिवासी विमर्श को स्थान नहीं देना चाहते
है। यहाँ तक कि वे आदिवासी साहित्य को साहित्य मानने को तैयार ही नहीं है, इनके
पीछे उनका तर्क हैं कि यह उच्च कोटि के साहित्य में नहीं आता हैं, लेकिन
दलित साहित्य ने संघर्ष करके हिन्दी साहित्य में अपना स्थान प्राप्त कर लिया।
आदिवासी विमर्श शुरू करने से पूर्व आदिवासियों की संस्कृति, परंपराए, रीति-रिवाज उनके जीवन-मूल्यों को नजदीक जाकर बारिकी से जानना होगा, तभी हम आदिवासियों के प्रति सहानूभूति व संवेदना के साथ उनके मूल दर्शन को समझ सकते है। आज के दौर में जो गैर आदिवासी साहित्य हैं, इनके साहित्य में आदिवासी विषय तो हैं, पर उनका साहित्य आदिवासी दर्शन और संस्कृति के अनुरूप नहीं है। आदिवासी साहित्य मौखिक तौर पर अपनी मातृभाषाओं में बहुत समृद्ध और वृहद स्तर पर हैं, लेकिन लिखित स्तर पर अल्प मात्रा में हैं, यदि उनके जीवन मूल्यों व संस्कृति को विश्व के सामने लाया जाया तो यह विश्व कल्याण के लिए कारगर साबित हो सकता हैं, क्योंकि इनके दर्शन में सामूहिकता, सहजीविता, सहअस्तित्व व समानता मूल दर्शन हैं। भोगवादी संस्कृति से ये कोसो दूर हैं। प्रकृति के पूजारी ये आदिवासी प्रकृत की आदिकाल से रक्षा करते आये हैं, उसको कभी नुकसान नहीं पहुंचाया। इस तरह से आदिवासी दर्शन प्रकृति वादी है।
''आदिवासी
समाज धरती, प्रकृति और सृष्टि के ज्ञात-अज्ञात
निर्देश, अनुशासन और विधान को सर्वोच्च स्थान देता है। उसके दर्शन में सत्य-असत्य, सुदंर-असुंदर, मनुष्य-अमनुष्य
जैसी कोई अवधारणा नहीं हैं न ही वह मनुष्य को उसके बुद्धि विवेक अथवा 'मनुष्यता' के
कारण 'महान' मानता है। उसका दृढ़ विश्वास है कि सृष्टि में जो कुछ
भी सजीव और निर्जीव हैं, सब समान है। न कोर्इ बड़ा है न कोई छोटा है। न कोई दलित हैं न कोई बाह्मण। सब अर्थवान हैं एवं सबका अस्तित्व एक समान है।
चाहे वह एक कीड़ा हो, पौधा हो,
पत्थर हो या कि मनुष्य हो।”[i]
आज के दौर में कई आदिवासी रचनाकार अपनी मातृभाषा में रचनाएँ कर रहे हैं, और उनका अनुवाद हिन्दी भाषा में हो रहा हैं, जिससे उनको आदिवासी साहित्य में प्रसिद्धि मिली हैं जैसे निर्मला पुतुल, ग्रेस कुजुर, वंदना टेटे, महादेव रोप्पो, अनुजु लुगुन, जंसिता केर केट्टा वाहरू सोनवणे, व हरिराम मीणा प्रमुख नाम है। आदिवासी साहित्यकार अपनी लेखनी के द्वारा आदिवासी संस्कृति, उनके जीवन-दर्शन, परम्पराएँ, तथा उनकी अस्मिता व अस्तित्व के ऊपर आये संकट से दुनिया को अवगत करा रहे हैं। हिन्दी साहित्य में आदिवासी साहित्य अपनी लोकप्रियता दिनों-दिन बढ़ रहा हैं। पहले जब आदिवासियों साहत्यि अपनी मातृ-भाषाओं में रचा जा रहा था, तब उनको पढ़ने वाले पाठकों की संख्या सीमित थी लेकिन हिन्दी में इनकी रचनाएं आने से अब हर पाठक आदिवासी साहित्य पढ़ने को उत्सुक रहता हैं।
इस समय कोई विश्वविद्यालयों में आदिवासी साहित्य पर शोध कार्य किये जा रहे हैं, जिससे उनकी संस्कृति, यथार्थ, विडंबनाओं तथा उनकी पीड़ाओं को जानकर उनका समाधान किया जा सके। इस समय औद्योगिकरण के दौर में आदिवासी समाज में बेरोजगारी, पलायन व विस्थापन की मुख्य समस्याएँ हैं, इनका हल ढूंढना अति आवश्यक हैं, अन्यथा आदिवासी की अस्मिता व अस्तित्व का नामोनिशान मिट जायेगा, क्योकि बाहरी संस्कृति के प्रवेश से आदिवासी संस्कृति विलुप्त व दुषित हो रही हैं। आदिवासी की शुरू में कोई लिखित लिपि नहीं थी, इसलिए इनका साहित्य अधिकतर मौखिक ही है, यानि वांचिक है। आदिवासी लेखिका रोज केर केट्टा आदिवासी दर्शन को इस तरह से अभिव्यक्त करती हैं-
''अब
हम ये कहेंगे कि जीवन दर्शन और आजीविका का गहरा संबंध है। और आदिवासियों की
आजीविका श्रम पर आधारित रही है। चाहे वो खेत में हैं, चाहे
वो जंगल में हैं। लेकिन वो श्रम करके ही अपना जीवनयापन करते हैं। और कठिन श्रम
पहाड़ में, जंगल में,
नदियों में, घाटियों
में उन्हें बहुत श्रम करना पड़ा है। इस बीच में जो भी बाधाएं आती रही हैं उन्हें
कभी सुख से कभी दुख से व्यक्त किया है। ये जो मौखिक परंपरा का साहित्य हैं, सभी
भाषाओं में वो संकलित होकर प्रकाशित हो रहा हैं। अब जरूरत हैं उनको ढूंढकर उनमें
उनके जीवन दर्शन को खोजने की।"[ii]
आदिवासी
दिल से भोले जरूर होते हैं, परंतु उनके जीवन में धोखाधाड़ी, चोरी, हरामखोरी
कतर्इ नहीं हैं, वे नैतिकता,
न्याय व सामूहिकता में विश्वास करते
हैं। प्रकृति की गोद में जीवनयापन करने वाले ये हमेशा से प्रकृति प्रेमी रहे हैं, प्रकृति
के बिना आदिवासी अधूरा है। कवि अनुज लुगुन प्रकृति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता इस
तरह से व्यक्त करते हैं-
''खेतों के आसमान के साथ
हमने चाहा कि जंगल बचा रहे
अपने कुल-गोत्र के
साथ
पृथ्वी को हम पृथ्वी की तरह ही
देखें
पेड़ की जगह पेड़ ही देखें
नदी की जगह नदी समुन्द्र की जगह समुन्द्र
और
पहाड़ की जगह पहाड़'' [iii]
आदिवासी
समाज चाहे सुख हो, या दु:ख हमेशा एक साथ रहते है। जब कोई मांगलिक कार्य हो
या उत्सव सभी आदिवासी सामूहिक रूप से इकट्टे होकर गीत-नृत्य का
आयोजन कर आनन्दपूर्वक मनाते हैं,
तथा कई दिनों की थकान उतर जाती
हैं और उनमें नया जोश व नई उमंग भर जाती है।
दुर्गम स्थानों में रहते हुए तथा भौतिक सुख-सुविधाओं से कोसों दूर होने पर भी आदिवासियों में जीने की जीजिविषा गजब की पाई जाती हैं। आदिवासी समाज में गीत-नृत्यों का विशेष महत्व होता हैं गीत किसी भी समाज की सभ्यता व संस्कृति का स्वच्छ दर्पण होते हैं। आदिवासी समाज अपने सुख और दुख दोनों को गीतों में पिरोकर उसे अभिव्यक्त करता है। और उन्हीं गीतों व लोक कथाओं को पीढी दूर पीढ़ी हस्तांतरित कर दिया जाता हैं, जिससे उनकी संस्कृति का संवहन होता रहता हैं। लोक गीत समाज विशेष के हजारों सालों से अर्जित एक सामाजिक संपति हैं, इसमें अतीत संजोया रहता हैं, तथा उनको ज्ञान व मनोरंजन दोनों मिल जाता हैं। आदिवासी समाज में स्त्री को पुरूष के बराबर दर्जा हासिल हैं, उनके हर महत्वपूर्ण निर्णय में स्त्री की महती भूमिका रहती हैं, इसलिए आदिवासी समाज में पुत्र व पुत्री के जन्म पर बराबर स्वागत व खुशियॉ मनाई जाती हैं। पुत्री के जन्म के अवसर पर एक संभाली गीत इस प्रकार हैं-
''ओहाय आपे गे आपे गे दाय दादा को
आपे गे आपे गे बोंगा बुरू को
ओहाय आये लागित नोवा ओड़ाक रे
कुड़ी गिदराय उपेल आकाना
ओहाय-आपे बाड़े नोवा धरती पुरी रे
हारा कोकू माय बुरू कोक् माय'' [iv]
इस
गीत में आदिवासी समाज अपनी पुत्री के लिए अपने पुरखों से आशीर्वाद मांगते हैं। तथा
वे उम्मीद करते हैं कि वे उनके वंश को आगे बढ़ायेंगे। आदिवासी समाज में तरह-तरह के
गीत गाए जाते हैं त्योंहारों के गीत,
मांगलिक गीत, जन्म-मरण के
गीत इत्यादि। आदिवासी संस्कृति में कई तरह की विशेषताएँ पाई जाती हैं, जो
उसे अन्य संस्कृति से अलग करती हैं। शादी से पहले आदिवासी युवक-युवती का
अलग विशेष स्थान पर एक साथ रहते हैं,
तथा एक-दूसरे को
पसंद कर माँ-बाप की अनुमति से विवाह कर लेते हैं, इसे
घोटुल परंपरा कहते हैं। इसमें समाज के सभी युवक-युवती एक साथ मनोरंजन करते
हुए नाच-गान करते हैं। आदिवासी स्त्री सरल व सहज हृदय वाली होती हैं, उसमें
श्रम, साहिष्णुता, ममत्व की भावनाएं कुट-कुट भरी हुर्इ होती
है।आदिवासी अपनी संस्कृति के अनुरूप आचरण करता है। तथा पूरी निष्ठा से उसका पालन
भी करता है। डॉ. विनायक तुकराम अपने आलेख 'आदिवासियों
की अब तक की साहित्य-यात्रा में लिखते हैं कि- ''आस-पास की
प्रकृति और अपनी सीमानुरूप प्रवृतियों की छाप लेकर आर्इ उसकी संस्कृति प्राचीनतम
तथा समृद्ध हैं। यह सांस्कृतिक धरोहर उसकी अनेक पीढ़ियों को मिली हैं। इस जीवन की
सामाजिक एकात्मकता काल के तूफानी प्रवाह में भी अखंड है। तब, इस
जीवन के पीछे कौन-सी प्रेरणा होगी, यह प्रश्न उठना सहज है।
संस्कृति ही इनके जीवन का एक मात्र आधार और प्रेरणा स्त्रोत हैं, यहीं
प्रश्न का सम्यक उत्तर होगा।''[v]
तथाकथित
मुख्यधारा के समाज ने आदिवासी संस्कृति को अपने समकक्ष कभी नहीं माना। आदिवासी
संगीत, कला, मौखिक साहित्य आदि सृजनशीलता की श्रेणी में कभी नहीं
माने गए अर्थात् उसे स्वीकारा ही नहीं गया। आदिकाल से ही आदिवासी समाज में स्त्री
की महती भूमिका रही है, उसने समाज का आगे बढ़ कर नेतृत्व किया क्योंकि
आदिवासी समाज हमेशा मातृ-सत्तात्मक रहा हैं लेकिन भोगवादी संस्कृति के प्रसार
से आज इस समाज में भी पितृसत्तात्मक हानि होने लगी हैं और इस कारण आदिवासी स्त्री
समाज के निचलें पायदान पर चली गई हैं,
वह अपनी अस्मिता व अस्तित्व को लेकर
संघर्षरत हैं, तभी संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल अपनी कविता में एक
स्त्री के स्वर को इस तरह से अभिव्यक्त करती हैं-
''तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के
मन की गांठे खोल कर
कभी पढ़ा हैं तुमने
उसके भीतर का खौलतता इतिहास?
पढ़ा हैं कभी
उसकी चुप्पी की दहलीज पर बैठ
शब्दों की प्रतीक्षा में उसके चेहरे को? [vi]
आज
के दौर में अधिकतर आदिवासी कवि अपने समाज के यथार्थ को चित्रित कर रहे हैं, जिसमें
उनका शोषण, अन्यथा,
विस्थापन की पीड़ा, पलायन, अशिक्षा, बेरोजगारी
स्त्री अस्मिता व अस्तित्व इत्यादि प्रमुख समस्याएँ हैं। कल तक जो इस जल, जंग
और जमीन का मालिक था, आज वह उसी से वंचित हैं, अत: वह
दर-दर की ठोकरें खा रहा हैं,
उनकी औरतों के साथ दैहिक शोषण किया
जाता हैं, कवि वारूरे सोनवणे ने एक आदिवासी स्त्री की पीड़ा को इस तरह बयां
किया हैं- ''जवानी में वेश्या बुढ़ापे मे डायन ऐसे ही कहते हैं
लोग, एक ऐसी चीज जिसे घाट में,
बाट में। जहां
मिले थाम लो, जब भी चाहे अंग लगा लो। पूरी हुई हवस तो त्याग दो, चीख
न पुकार''[vii]
वैश्वीकरण
और उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव धीरे-धीरे आदिवासी समाज पर भी पड़ने लगा हैं, वह
अपनी परंपराओं को छोड़कर पश्चिमी सभ्यता अपनाने लगा हैं, इसलिए
कवि हरिराम मीणा अपनी कविता 'सभ्य हो जाने पर' में लिखते हैं-
''नंगा देखना चाहा था मैं तुम्हें
इसलिए नहीं इसमें कला हैं या कि मेरी काम कुंठा एन में
तुम तो मुझे पैंट और टी-शर्ट में
मिले
और चाकला तुम मैक्सी में
इन सभ्य वस्त्रो में
कैसे बताओगे अपने हालचाल
तुम्हारी आंखे तो औचक्की और
पथरायी सी हैं और
भाषिक संवाद असंभव।''
[viii]
आदिवासी
कविताओं में उनका अतीत का संघर्ष,
पुरखों का लोक साहित्य तथा उनके
दर्द व पीड़ाओं को उकेरा गया हैं। आदिवासी कविता समाज में सृजनात्मक का कार्य करती
हैं, वह प्रकृति के विभिन्न अंग जैसे पेड़, नदिया, पहाड़, झरने
व खेत-खलिहान की बात करती हैं। कवि शशिभूषण मिश्र अपनी कविता 'हमें
असभ्य रहने दो' में आदिवासी के अतीत को इस तरह व्यक्त करते हैं-
''बाबा आदम के जमाने से
जब शायद तुम भी नहीं आए थे यहां
तब से इसी मिट्टी और इसी जंगल में
जीती आई हैं हमारी कई-कई पुश्तें।'' [ix]
आदिवासी
समाज का प्रकृति से गहरा संबध रहा हैं,
वह प्रकृति में रहने वाले समस्त जीव-जन्तुओं
से प्रेम करता हैं। इसांन व प्रकृति के बीच गहरे रिश्तों का चित्रण आदिवासी कवियों
ने बखूबी किया-
''एक युवती गाती थी जंगल में गाना।
न जाने क्यों, न जाने केसा सुख मिलता हैं आंवले को,
पत्तियों के नीचे गुच्छा-गुच्छा
हो फलता है
छिप-छिपकर, और जीत लेता हैं
जग सारा.......। [x]
जिस समाज का समस्त जीवन प्रकृति पर निर्भर हो, वो भला इसके बिना कैसे जिंदा रह सकता हैं? औद्योगिकरण के इस दौर में प्रकृति का अंधाधुध दोहन हो रहा हैं, पेड़ काटे जा रहे हैं नदियों का रास्ता मोड़कर उसके ऊपर बांध बनाये जा रहे हैं, तथा पहाड़ों को तोड़ा जा रहा हैं, इससे वहाँ पर रहने वाले आदिवासियों को शहरों की ओर पलायन को मजबूर कर दिया गया हैं, इस तरह से सम्पूर्ण प्राणी जगत के जीवन को संकट में डाल दिया गया हैं अत: कवयित्री ग्रेस कुजुर आगाह करती हैं-
''.....इसलिए फिर कहती हूँ
न छेड़ो प्रकृति को
अन्यथा यह प्रकृति करेगी भयंकर बगावत।
और तब न तो तुम होंगे न हम होंगे।'' [xi]
आदिवासी
समाज में आदिवासी स्त्री अपने कई अधिकार रखती हैं, लेकिन वैश्वीकरण के इस दौर
में आज स्त्री केवल भोग करने की वस्तु मात्र समझी जाता हैं, वह
अपने परिवार व समाज के प्रति हमेशा समर्पित भाव रखती हैं, वह
अपना पूरा जीवन न्यौछावर कर देती हैं उनको संवारने में लेकिन आज वह अपने ही समाज
में प्रताड़ित की जा रही हैं। आदिवासी स्त्री अपनी अस्मिता व अस्तित्व के लिए
संघर्षरत है। डॉ. रमया बलान के अपने आलेख- 'निर्मला
पुतुल की कविताओं में आदिवासी स्त्री'
में कहती हैं- ''आदिवासी समाज में स्त्रियों की स्थिति मुख्यधारा समाज
से कई मायनों में भिन्न हैं और स्त्रीत्व के नाते उनमें कुछ समानताएं भी देखी जा
सकती हैं। मुख्यधारा की तुलना में आदिवासी समाज की स्त्री स्वतंत्र होती हैं, लेकिन
परिवार में वह पितृसत्ता की शिकार होती है। स्त्री किसी भी समाज में हो उसे दूसरे
दर्जे की मान्यता ही मिलती है। आदिवासी स्त्री ज्यादातर बाहरी समाज के द्वारा
शारीरिक और मानसिक रूप से पीड़ित होती है। कर्इ बार नौकरी का वादा देकर दलाल
इन्हें वेश्याओं की गलियों में छोड़ देते हैं। निर्मला पुतुल की कविताओं में
आदिवासी स्त्रियों का संघर्ष और उनकी दुनिया साफ दिखाई देती है।[xii]
आज
पुरूषवादी सत्ता ने नारी को अपनी गुलामी की बेड़ियों में जकड़ कर रख दिया हैं, उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। पुरूष की हर इच्छा पूरी करने के लिए वह तत्पर
रहती हैं, परंतु पुरूष उसके लिए कुछ नहीं करता। स्त्री अपने परिवार के लिए
अपनी इच्छाओं का दमन कर देती हैं,
व चाहे कितनी भी थक जाए, लेकिन
थकने का नाम नहीं लेती हैं। इसलिए निर्मला पुतुल अपनी कविता ‘क्या हूँ मैं
तुम्हारे लिए’ में स्त्री के स्वर को बुलुंद करती हुई कहती हैं-
''क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए, एक तकिया,
कि सिर टिका दिया, कोई खूंटी, कि ऊब
उदासी
थकान से भरी
कमीज उतार कर टांग दी, या आंगन में तनी अरगनी,
कि घर-घर के कपड़े लाद दिए, कोई घर कि सुबह निकला,
शाम लौट आया। [xiii]
स्त्री
का अपना कोई घर नहीं होता। पीहर में माँ-बाप या भाई का घर और ससुराल जाने पर पति का घर उसका
स्वयं का कोई वजूद नहीं हैं, वह हमेशा अपनी जमीन व अपने घर की तलाश में रहती हैं, यह
हमारे समाज में एक बहुत बड़ी विडंबना हैं,
कि स्त्री का कोई स्वतंत्र
अस्तित्व नहीं हैं, स्त्री की इसी पीड़ा को कवयित्री निर्मला पुतुल इस
तरह अभिव्यक्त करती हैं-
''धरती के इस छोर से उस छोर तक
मुट्ठी भर सवाल लिये मैं
दोड़ती-हाँफती-भागती
तलाश रही हूँ सदियों से निरन्तर
अपनी जमीन,
अपना घर
अपने होने का अर्थ।''
[xiv]
आदिवासी
स्त्री बहुत ही कठिन परिश्रम करती हैं। परिवार का पालन-पोषण
करने के लिए वह दिन भर जंगलों में सुखी लकड़ियॉ बीनकर बाजार में बेचती हैं, इसी
दृश्य को निर्मला जी पुतुल ने अपनी कविता
'पहाड़ी स्त्री' में
चित्रित किया-
''वह जो सर पे सूखी लकड़ियों का गट्टर लादे
पहाड़ से उतर रही हैं
पहाड़ी स्त्री अभी-अभी जाएगी बाजार
बौर बेचकर सारी लकड़ियाँ
बुझाएगी घर-घर के पेट की आग'' [xv]
पहाड़ी
क्षेत्रों में रहने के कारण आदिवासियों का जीवन बहुत ही कठिन व संघर्षो भरा हैं, फिर
भी इनमें जीने की जीजिविषा भरपूर हैं। आदिवासियों का रंग-रूप
दूसरे समाज से भिन्न होता हैं, तथा एक विचित्र प्रकार की संस्कृति में जीते हैं।
आदिवासियों के रीति-रिवाज,
व वेशभूषा को लेकर मुख्यधारा का
समाज उनका मजाक उड़ाते हैं, आदिवासियों का उन्हें कुछ भी पंसद नहीं हैं, लेकिन
उनके परिश्रम से उत्पन्न किये धान,
फल, सब्जियाँ उन्हें सब पसंद
हैं। आदिवासियों की छाया तक अपने ऊपर पड़ने नहीं देते हैं, यह
सब ढोंग करते हैं, क्योंकि उनकी औरतों की गदराई देह पर उनकी नजर गिद्ध
की तरह रहती हैं, जिसे वे मौका मिलने पर नोच देना चाहते हैं, इसलिए
कवयित्री निर्मला पुतुल कहती हैं-
''प्रिय है तो बस
मेरे पसीने से पुष्ट हुए अनाज के दाने
जंगल के फूल,
फल, लकड़ियाँ
खेतों में उगी सब्जियाँ
घर की मुर्गियाँ
उन्हें प्रिय हैं
मेरी गदरारई देह
मेरा मांस प्रिय हैं उन्हे!'' [xvi]
कोई सदियों से आदिवासी समाज मुख्यधारा के समाज द्वारा शोषित, व
प्रताड़ित किया जा रहा हैं, कल तक जो समाज इस धरती का मालिक था, उसी
से आज वह बेघर है। औद्योगिकरण के कारण उनके जल, जंगल व जमीन छीन लिये गये।
विकास के नाम पर इनके साथ छल किया गया। उनकी आवाज को सुनने वाला कोर्इ नहीं हैं जब
भी व व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाता हैं,
तो नक्सली घोषित कर उन्हें फर्जी
मुठभेड़ में मार दिया जाता हैं। आदिवासी समाज में जब भी कोर्इ क्रांति की शुरूआत
की जाती हैं तब नगाड़ा बजाया जाता हैं,
नगाड़़ा क्रांति का प्रतीक है।
आदिवासी कवयित्री निर्मला जी पुतुल अपनी रचनाओं के जरिए आदिवासी समाज को जागृत
करना चाहती हैं इसलिए वह अपनी कविता
'मैं चाहती हूँ' में
कहती हैं-
''मैं चाहती हूँ
आंख रहते अन्य आदमी की
आंख बने मेरे शब्द
उनकी जुबान बने
जो जुबान रहते गूंगे बने देख रहें तमाश
चाहती हूँ मैं
नगाड़े की तरह बजें
मेरे शब्द
और निकल पड़े लोग
अपने-अपने घरों से सड़को पर।'' [xvii]
अपनी
जमीनों में वंचित होने पर आदिवासी रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन को मजबूर हैं, जहां
पर उनका कर्इ तरह से शोषण किया जाता है,
उनकी औरतों के साथ यौन शोषण आम बात
हो गई हैं। पेट की भूख शांत करने के लिए आदिवासी स्त्री अपना देह बेच देती हैं, वह
वेश्या बनने को मजबूर हैं, इससे इनकी संस्कृति दूषित होती जा रही हैं। अब
आदिवासी समाज अपने अधिकारों को लेकर सजग होने लगा हैं, अत: वह
अपनी कलम को तीर बनाकर पूंजीपतियों,
सांमतों व व्यवस्था के खिलाफ
क्रांति करना चाहता है। आदिवासी कवयित्री ग्रेस कुजुर अपने समाज से आह्वा करती हैं-
''वे लूटने-लुटाने
आए
हम गये परदेश
धरती उजड़ी जंगल उजड़े
रह गया क्या शेष?
झाड़ियाँ हो गई कमान, सब बिखे
तीर
देखना बाकी है कलम को तीर होने दो।'' [xviii]
औद्योगिकरण के इस दौर में प्रकृति को खोखला कर दिया गया। मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए समस्त पृथ्वी जगत को खतरे में डाल दिया। ग्लोबल वार्मिंग के कारण हर वर्ष प्राकृतिक आपदाएँ आती रहती है, जिससे जान-माल की हानि होती है। धरती बंजर हो गई, नदियॉ सुख गई हैं तथा बेमौसम बरसात होने से सृष्टि अस्त-व्यस्त हो गई है। आदिवासी हमेशा प्रकृति की गोद में रहता हैं, इस कारण उसका जीवन नरक बन कर रह गया हैं, इसी पीड़़ा को आदिवासी कवयित्री ग्रेस कुजुर अपनी कविता 'एक और जनी शिकार' में उकेरती हैं-
'मेरा जूडा बहुत सूना लगता हैं संगी-
सरहूल के फूलों के बिना
और लगता हैं
कहीं अटक गया है किसी डाल पर
करमा का गीत
नहीं सुनाई पड़ता हैं अब
बारिश की बूंदों का वह
पत्तियों से झरता हुआ संगीत'' [xix]
आदिवासी सदियों से प्रकृति की रक्षा करता आया हैं, उसने कभी प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाया, जितनी आवश्यकता थी उतना लिया प्रकृति से अनावश्यक कभी नहीं। भौतिकवाद की अंधी दौड में मनुष्य सिर्फ मशीन बन कर रह गया हैं। मनुष्य प्रकृति के प्रति संवेदनशील होता जा रहा हैं, यदि समय रहते मानव नहीं चेता तो एक दिन प्रकृति उसे लील कर देगी। आदिवासी समाज बार-बार प्रकृति को बचाने का आह्वान कर रहा हैं, लेकिन अभी उसकी आवाज कोई नहीं सुन रहा हैं। आदिवासी रचनाकार अपने समाज के जीवन-मूल्यों और संस्कृति के खिलाफ कुचक्र व उनके खिलाफ हो रहे शोषण, अन्याय, आदि को आदिवासी साहित्य में दर्ज कर रहें हैं। प्रो. के. सच्चिदानंदन अपने आलेख 'वे धरा के आदि पुत्र हैं' में लिखते हैं-''आदिवासी-साहित्य जीवनवादी साहित्य है। आदिमों के सर्वागीण उत्थान का सवाल लेकर यह साहित्य स्थापित समाज व्यवस्था को ललकार रहा है। साथ ही यह आदिमों की सामाजिक-रचना और एकात्मक-जीवन का विचार भी रखने लगा हैं। इस साहित्य का सपना हैं कि आदिम समूहों में वर्ग रहित, समाज-व्यवस्था रची जाय; जो जीवन मूल्य आदिवासियों के थे ही नहीं, ये कभी नहीं स्वीकारेंगे।''[xx]
अंग्रेजों
के शासन काल में आदिवासियों पर कर्इ जुल्म किये गये थे। उन पर तरह-तरह के
कर लगा दिये जाते थे, जिससे उनका परिवार का पालन-पोषण
मुश्किल हो रहा था। आखिरकार आदिवासियों को अंग्रेजों के खिलाफ उलगुलान करना पड़ा, जिसका
नेतृत्व बिरसा मुण्डा ने किया ओर उसने अंग्रेजों के नाक में दम कर रखा था। अत: आज
फिर आदिवासी समाज बिरसा मुण्डा जैसे क्रांतिकारी की राह देख रहे है। कवि भुजंग में
श्राम कहते हैं-
''बिरसा तुम्हें कहीं से भी आना होगा
घास काटती दराती हो या लकड़ी काटती कुल्हाड़ी
यहां-वहां से पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण से
कहीं से भी आ मेरे बिरसा
खेतों की बयार बनकर
लोग तेरी बाट जोहते।''
[xxi]
अंग्रेजों
के शासन काल के बाद भी आदिवासी समाज स्वतंत्र भारत में पूंजीपतियों साहूकारों
सांमतों द्वारा लगातार शोषित हो रहा हैं,
यह हमारी व्यवस्था की बहुत बड़ी
विडंबना है। मुख्यधारा का समाज आदिवासी स्त्रियों के प्रति नकारात्मक धारणा रखता
हैं। आदिवासी कवयित्री निर्मला-पुतुल जमीन से जुड़ी हुई हैं वह उनके कटु-यथार्थ
को अपनी कविताओं के माध्यम से दुनिया को रूबरू कराती हैं, तथा
अपने समाज को आगाह करती हुई कहती हैं-
''देखो तुम्हारे ही आंगन में बैठे
तुम्हारे हाथों बनी हडिया तुम्हें पिलाकर
कोई कर रहा हैं
तुम्हारी बहनों से
अथवा
ये वे लोग हैं जो
हमारे ही नाम पर
लेकर गटक जाते हैं
हमारे ही हिस्से का समुन्द्र [xxii]
आदिवासी
औरतों में कई विशेषताएँ पाई जाती हैं,
जैसे वीरता, साहसी, संघर्षशील
कठिन परिश्रमी, जुझारूपन,
साथ ही उसमें दयालुपन, ममत्व, प्रेम
आदि भावनाएँ विद्यमान रहती है। जीवन के हर मोर्चे पर वह पुरूष के साथ कंधे से कंधा
मिलाकर चलती है। आदिवासी कवयित्री वंदना टेटे ने अपनी कविता औरत-1 में
उसके संघर्षी जीवन को इस प्रकार से उद्घाटित किया हैं-
''कोई-कोई मोर्चे पर खड़ी/लड़ रही औरत
भीड में अकेली,
अनवरत/थकती-टूटती
फिर मजबूत करती खुद को खुद से।
खेतों, खलिहानों में
जंगल मरूभूमि में
घर में आंगन में।''
[xxiii]
तथाकथित
मुख्यधारा के सभ्य लोग एक तरफ तो आदिवासी क्षेत्रों में घुसपैठ कर उनके संसाधनों
को हड़पते हैं और उसी के साथ उनकी संस्कृति पर भी धावा बोलकर उसे नष्ट कर रहे हैं, उनकी
औरतों की नंगी फोटो खिचकर उनकी सुंदरता व नृत्य की झूठी प्रशंसा कर उन्हें अपने
जाल में फंसा लेते हैं। कवयित्री निर्मला पुतुल ने अपनी कविता 'बिटिया
मुर्म के लिए' माध्यम से आदिवासी औरत को सचेत करती हुई लिखती हैं-
''वे दबे-पांव आते हैं तुम्हारी संस्कृति में
वे तुम्हारे नृत्य की बड़ार्इ करते हैं
वे तुम्हारी आंखों की प्रशंसा में कसीदे पढ़ते हैं
वे कौन हैं?
सौदागर हैं वे......समझो!
पहचानों उन्हें बिटिया मुर्म........पहचानो!
पहाड़ो पर आग वे ही लगाते हैं
उन्हीं की दुकानों पर तुम्हारे बच्चों का
बचपन चीत्कारता हैं
उन्हीं की गाड़ियों पर
तुम्हारी लड़कियॉ सब्जबाग देखनें
कलकत्ता और नेपाल के बाजारों में उतरती हैं'' [xxiv]
आदिवासी
कवि सिर्फ अपने क्षेत्रों तक सीमित नहीं हैं,
वे भारत में रहने वाले हर आदिवासी
समाज की पीड़ाओं व उनके कठिन संघर्ष को उकेर रहे हैं। आदिवासी कवि हरिराम मीणा
अपनी लेखनी के माध्यम से दक्षिण में अंडमान के द्विप पर रहने वाले आदिवासियों व
पश्चिम में राजस्थान राज्य तक आदिवासियों से संवाद स्थापित करते है। वे अपनी कविता 'भीलणी' मे
आदिवासी भील जाति की स्त्री के कठिन परिश्रम को इस तरह अभिव्यक्त करते हैं-
''इस बहुरंगी दुनिया में
मेवाड़ी धरती
उस धरती में विरल भीलणी
निर्मल, शुभ्र हृदय उसका
पर
तम-आच्छादित उसकी काया
किन अतीत के अभिशापो की
काली छाया, पड़ी निरंतर, उसके तन
पर
ले दोपहरी से अंगारे
धूणी रमती, वन-वन फिरती
वह तपस्विनी, श्रम की देवी'' [xxv]
अपने
जीवन में साधारण रहने वाली आदिवासी औरत समस्त मानव से निश्छल प्रेम करती हैं, परंतु
सभ्य समाज उसे केवल भोग करने की वस्तु मात्र समझते हैं, इस
पीड़ा को हर आदिवासी कवयित्री अपनी कविताओं में अभिव्यक्त करती हुई दिखार्इ देती
है। आदिवासी कवयित्री सरिता बडाइक अपनी कविता 'घासवाली' में
कहती हैं,- ''मैं घास बेचती हूँ बाबू देह नहीं। आदिवासी स्त्री की पीड़ा सरिता की कविताओं में
केन्द्रीय विषय-वस्तु के रूप में बार-बार दस्तक दे ही देती है।''[xxvi] आदिवासी कवि आदिवासी जीवन के नैसर्गिक जीवन मूल्यों
व संस्कृति के विलुप्त होने से दु:खी है। वे आदिवासी समाज की परंपराओं व हर वस्तु को
बचाना चाहते हैं जिससे मिलकर आदिवासी दर्शन का निर्माण होता हैं। वर्तमान में यदि
सृष्टि को बचाना हैं, तो हमें आदिवासी दर्शन को बचाना होगा। आदिवासी
कवयित्री वंदना टेटे बारिश के बिंब को प्रयोग कर मनुष्य के नैसर्गिक मूल्यों को
बचाना चाहती हैं-
''मैं बारिश में थी
और बारिश मुझमें
मेरे पंख भीग
देह नदी हो गई थी
शब्द पानी-पानी हो रहे थे
हंसीझरने की तरह
शोर कर रहे थे
बदमाश बादल मेरे पीछे पड़ा था
किसी आवारा शोहदे की तरह'' [xxvii]
आदिवासी
रचनाकारों ने आदिवासी जीवन के विविध पहलुओं को अपनी कविताओं में विषय बनाया हैं।
विकास के नाम पर आदिवासियों के साथ किए जा रहे छल को वे अब समझ गए हैं। असल में
उनका उद्देश्य आदिवासियों के संसाधनों को हड़पना होता हैं। अब आदिवासी जागरूक होकर
अपने खिलाफ होने वाले हर कार्य का विरोध लेखनी के माध्यम से कर रहे हैं। कवयित्री
ग्रेस बुजुर अपने समाज के लोगों से आह्वान करती हैं-
''हे संगी!
तानो अपना तरकस
नहीं हुआ हें भोथरा अब तक
''बिरसा आबा'' का ''तीर''
कस कर थामे टहनी पर अटके हुए
सूरज के लाल
'गोढा' को
गला दो उसे हथेलियों
की गर्मी से अपनी
और फैला दो झारखंड की फुनगियों पर
भिनसरिया में उजास चटकने से पहले'' [xxviii]
उपसंहार -
आदिवासी संस्कृति पूरे संसार के लिए एक मार्ग दर्शक का काम करती हैं, चाहे वो पर्यावरण से संबधित हो या उनके जीवन-मूल्य हमें कुछ न कुछ सीखने को मिलतता हैं, परंतु वहीं आदिवासी समाज अपने आपको असुरक्षित महसूस कर रहा हैं। आदिवासी कई तरह की विडंबनाओं से जुझ रहे हैं जैसे- विस्थापन, पलायन, शोषण, बेरोजगारी, भूखमरी, अशिक्षा तथा इनकी अस्मिता व अस्तित्व भी खतरे में हैं, अत: जरूरत हैं आदिवासी विमर्श के द्वारा इनकी समस्याओं का निराकरण करना। हमें आदिवासियों के साथ संवाद स्थापित कर उनकी समस्याओं से सरकार को अवगत कराना होगा। समय रहते इनकी संस्कृति व जीवन-दर्शन को नहीं बचाया तो एक दिन इनका अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। जो आदिम कौम दुनिया की मार्गदर्शक हुआ करती थी, वह आज अपनी पहचान व अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं।
संदर्भ -
[i] वंदना टेटे : आदिवासी दर्शन और साहित्य विकल्प, प्रकाशन- 2016, पृ. 33
[ii] वही, पृ. 54
[iii] अनुज लुगुन : समकालीन कविता, (सं.) हरिराम
मीणा, अलख प्रकाशन, जयपुर,
2013, पृ. 16
[iv] पत्रिका : आदिवासी साहित्य, ISSN 2394.698 अंक 6 अप्रेल 2016, (सं.) गंगा सहाय मीणा,
पृ. 22
[v] रमणिका गुप्ता (सं.) : आदिवासी साहित्य यात्रा, प्रकाशन राधाकृष्णन प्रकाशन, 2016, पृ. 26
[vi] निर्मला पुतुल : नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ,
नयी दिल्ली, 2005, पृ. 8
[vii] वाहरु सोनवणे : पहाड हिलने लगा, 2009, पृ. 12
[viii] हरिराम मीणा : आदिवासी स्वर और नई शताब्दी, सं. रमणिका, वाणी प्रकाशन, 2002 पृ.
29
[ix] पंडित बन्ने (सं.) : हिन्दी साहित्य में आदिवासी विमर्श,
अमन प्रकाशन, कानपुर, 2014, पृ. 41
[x] वही, पृ.
44
[xi] वही, पृ.
37
[xii] जितेन्द्र यादव
(सं.) : अपनी माटी, साहित्यिक, ई-पत्रिका,
ISSN 2322.0724 अंक 26 मार्च 2017, पृ. 2
[xiii] निर्मला पुतुल : नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञान पीठ,
2005, पृ. 28
[xiv] वही, पृ.
30
[xv] वही, पृ.
36
[xvi] वही, पृ.
73
[xvii] वही, पृ.
93
[xviii] ग्रेस कुजुर : एक और जनी शिकार, प्रकाशक अनुज्ञा बुक्स, 2020, पृ. 10
[xix] वही, पृ.
107
[xx] रमणिका गुप्ता (सं.) : भारत का आदिवासी स्वर, अनन्य प्रकाशन, 2018, पृ. 17
[xxi] वही, पृ.
25
[xxii] वही, पृ.
26
[xxiii] वंदना टेटे : कोनजोगा, प्यारा केरकेट्टा फाउण्डेशन रांची,
2015, पृ. 35
[xxiv] निर्मला पुतुला : अपने घर की तलाश में, रमणिका फाउंडेशन,
2004, पृ. 11
[xxv] वंदना टेटे (सं.)
: लोकप्रिय आदिवासी कविताएँ, प्रभात प्रकाशन,
2017, पृ. 127
[xxvi] गंगा सहाय मीणा : आदिवासी चिंतन की भूमिका, अनन्य प्रकाशन,
2017, पृ. 57
[xxvii] वही, पृ. 60
[xxviii] ग्रेस कुजुर : एक और जनी शिकार, प्रकाशक अनुज्ञा बुक्स, 2020, पृ. 109
शोधार्थी
मोहनलाल
सुखाडिया विश्वविद्यालय,उदयपुर
9985834625, laluram071985@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021
चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue
बहुत बढ़िया 👌
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