केदारनाथ अग्रवाल की कविता के कुछ पहलू / राज कुमार
यह आलेख केदारनाथ अग्रवाल
के प्रगतिशील मूल्यों और उनकी कविता के विविध पहलुओं को रेखांकित करता है।
केदारनाथ अग्रवाल की कविता में जनपदीय संस्कृति की झलक और अपने समय की शिनाख़्त का
प्रभावी निरूपण हुआ है। जिस कारण केदारनाथ अग्रवाल प्रगतिशील हिन्दी कविता के
अग्रणी कवियों में शामिल किए जाते हैं। भारतीय जनमानस की चेतना, किसानी संस्कृति, जनपदीय काव्यभाषा, गृहस्थ जीवन, दांपत्य प्रेम-संबंध, जनवादी मूल्य इत्यादि का केदारनाथ
अग्रवाल की कविता में विविध स्वरूप दिखलाई देता है। जो इनकी कविताओं को समसामयिक
मूल्यांकन के लिए प्रेरित करता है।अतः इस आलेख में इन्हीं बिन्दुओं के अंतर्गत
केदारनाथ अग्रवाल की कविता के कुछ पहलुओं को समझने की कोशिश की गई है।
बीज-शब्द : प्रगतिशील, जनपदीय, काव्यभाषा, छायावाद, मनुष्य, किसानी संस्कृति, हिन्दी कविता, दांपत्य प्रेम, गृहस्थ जीवन, दलित-विमर्श, वर्ग,जनवादी, समाजवादी, सर्वहारा, रामराज्य, सामंजस्य, त्रासदी, शोकगीत, काव्य-दृष्टि इत्यादि।
मूल आलेख –
यह निर्विवाद कथन है कि
प्रगतिशील हिन्दी कविता की त्रयी में नागार्जुन (1911-1998 ई.), केदारनाथ अग्रवाल (1911-2000 ई.) और
त्रिलोचन (1917-2007 ई.) का नाम अविस्मरणीय है। अपनी-अपनी जनपदीय काव्यभाषा के लिए
भी ये कविगण समादृत हैं। बहरहाल, केदारनाथ अग्रवाल की कविता और
प्रगतिशील हिन्दी कविताएक दूसरे का पर्याय है। इनका जन्म 1 अप्रैल 1911 ईस्वी को
उत्तर प्रदेश के बाँदा जनपद के कमासिन गाँव में हुआ था। “केदारजी की काव्य-यात्रा
1930-31 से शुरू होती है। प्रारम्भ के 6-7 वर्षों तक की उनकी कविताएँ केवल भाववादी
रूझान की कविताएँ हैं।”[1] अशोक त्रिपाठी केदारनाथ अग्रवाल के
बारे में लिखते हैं कि “कानपुर में वकालत पढ़ने के दौरान, जब वह निराला जी से मिलने कानपुर से
लखनऊ गए थे, रामविलासजी से मुलाकात हुई जो
धीरे-धीरे अनाविल अमर मैत्री में बदलती गई, तब से उनका भाववादी रुझान जीवन की कटु
सच्चाइयों के विश्लेषण की तरफ मुड़ने लगा। आँखों देखी दुनिया की असंगतियाँ और
अन्तर्विरोध मन में सवाल पैदा करने लगे। उनकी कविता में भी, दुनिया को देखने-समझने के नज़रिए में
हुए बदलाव का असर दिखने लगा। श्रम का मूल्य, श्रम का सौन्दर्य उनकी कविता के मूल्य
और सौन्दर्य बनने लगे।”[2] जिसकी झलक केदारनाथ अग्रवाल की
काव्यभाषा में भी दिखी। इनकी कविता ‘दोपहरी
में नौका-विहार’ सुमित्रानंदन पंत की कविता ‘नौका-विहार’ के सापेक्ष बदली हुई दृष्टि का परिणाम
है।वास्तव में ये दोनों कविताएँ दो जीवन-दृष्टियों और दो जीवन-शैलियों का
प्रतिनिधित्व करती हैं। जहाँ एक ओर सुमित्रानंदन पंत की कविता में प्रकृति के प्रति
सौन्दर्य लालसा है,वहीं दूसरी ओर केदारनाथ अग्रवाल प्रकृति
का यथार्थ प्रस्तुत करते हैं। इन दोनों कविताओं से एक-एक अंश देखने योग्य हैं –
“शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल!
अपलक
अनंत, नीरव भू-तल!
सैकत-शय्या
पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल,
लेटी
हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल!”
(नौका-विहार)
“गंगा
के मटमैले जल में छपछप डाँड़ चलाते,
सरसैया
से परमठ होते, उल्टी गति में जाते”
(दोपहरी में नौका-विहार)
प्रकृति के प्रति इसी
भाव-संवेदना को देखते हुए यह लगता है कि “प्रकृति के साथ केदार का रिश्ता वैसा ही
घनिष्ठ, आत्मिक और पारस्परिक निर्भरता वाला है
जैसा एक औसत भारतीय किसान का होता है।”[3]बहरहाल,हम आगे केदारनाथ अग्रवाल की कविता के
कुछ पहलुओं पर विचार करेंगे। इनकी काव्यभाषा प्रगतिशील हिन्दी कविता की
जनतांत्रिकता से जुड़ी हुई है। हम देखते हैं कि केदारनाथ अग्रवाल का रचना-संसार
विषयवस्तु, भाषा और शिल्प के स्तर पर भी
वैविध्यपूर्ण है। क्योंकि “साधारण जन और साधारण प्रकृति का यह साहचर्य केदारनाथ
अग्रवाल की काव्य क्षमता का मुख्य स्रोत है।”[4]
इनके प्रमुख काव्य-संग्रह– युग की गंगा (1947 ई.), नींद के बादल (1947 ई.), लोक और आलोक (1957 ई.), फूल नहीं रंग बोलते हैं (1965 ई.), आग का आईना (1970 ई.), गुलमेंहदी (1978 ई.), पंख और पतवार (1980 ई.), हे मेरी तुम (1981 ई.), मार प्यार की थापें (1981 ई.), बम्बई का रक्त-स्नान (1981 ई.), अपूर्वा (1984 ई.), बोले बोल अबोल (1985 ई.), आत्म-गंध (1988 ई.), अनहारी हरियाली (1990 ई.), खुलीं आँखें खुले डैने (1993 ई.), पुष्प दीप (1994 ई.) इत्यादि हैं। ‘अपूर्वा’ के लिए इन्हें 1986 ई. का साहित्य
अकादेमी सम्मानमिला था।
हम अगर इन काव्य-संग्रहों से हो कर गुज़रें तो पाएँगे कि “केदारजी के पाठकों/आलोचकों में कोई उन्हें ग्रामीण चेतना का कवि मानता है, कोई नगरीय का, कोई संघर्ष का, कोई श्रम का, कोई सौन्दर्य का, कोई प्रकृति का, कोई राजनीतिक चेतना का, कोई मनुष्यता की खोज का, कोई नदी केन का, कोई व्यंग्य का, कोई प्रेम का तो कोई रूप और रस का, आदि-आदि। पर दरअसल केदारजी इनमें से किसी एक धरातल के कवि नहीं हैं। वह खंड-खंड जीवन के नहीं, एक मुकम्मल जीवन के, सामाजिक सरोकारों से लैस, मुकम्मल जीवन्त कवि हैं।”[5] यहीं हमें केदारनाथ अग्रवाल की काव्यभाषा की साफ़गोई का पता चलता है। वे मुकम्मल जीवन्त कवि के तौर पर अपनी कविता में जिन भाषाई मुहावरों का प्रयोग करते,रचना के काव्य मूल्यों पर खरे उतरते हैं, वह इनकी काव्यभाषा का ही विलक्षण प्रभाव है। इनकी कविताओं में भाषाई रूपकों और काव्य-भावबोध का सुनहरा तंज मिलता है। जो कहीं न कहीं इनकेकवि-कर्म में निहित जिम्मेदाराना व्यंग्य का हिस्सा है। किसान और श्रमजीवी वर्ग की चेतना इनकी काव्य-शब्दावली का आधार है। वहीं प्रेम जैसे विषय पर केदारनाथ अग्रवाल की दृष्टि शुद्ध स्वकीया पत्नीवादी गृहस्थ प्रेम की ओर संकेत करती है। इन्हीं बातों को रेखांकित करते हुए शमशेर बहादुर सिंह अपने एक आलेख ‘छायावाद से अलगाव’ में लिखते हैं– “केदार के चारों ओर था रूढ़ियों और अन्धविश्वासों से जकड़ा, निरन्तर ठगा जाता शोषित-दलित किसान, मुकदमों के चक्कर में तबाह। दूसरी ओर अर्द्धसामन्ती जमींदारी सभ्यता थी, उसका खोखला आडम्बर और पाखण्ड और क्रूर दाँव-पेंच। साथ था साम्राज्ञी शासन का, उसके सहयोग से, नवीन विचारों और आन्दोलनों का निरन्तर दमन। इसी दौर में केदार का अपना खास व्यक्तित्व पुष्ट हुआ और निखरा। एक ओर वर्ग-सम्बन्धों की क्रूर-कटु पृष्ठभूमि को समझने के लिए अध्ययन और मनन चलता था, तो दूसरी ओर उनके मन मस्तिष्क के श्रम को दूर करने वाली रम्या प्रकृति थी। आँख-मिचौली खेलते उसके ऋतु-परिवर्तन, उसके मस्त झूमते पेड़-पौधे, उसकी रंग-बिरंगी फूल-पत्तियाँ और उनके बीच में उनकी सबसे प्रिय सखी-सी केन नदी। यही दो क्षेत्र रहे हैं कवि केदार की मुख्य भावनाओं के। अपने गार्हस्थ जीवन की भी सहज भाव-प्रवण झाँकी कवि ने यदा-कदा दी है।”[6]
केदारनाथ अग्रवाल की कविता में सामान्य मनुष्य का प्रभाव अधिक है। वह लोक और जन को साधते हुए प्रतीत होते हैं। यहीं हम देखते है कि इनकी कविता प्रगतिशील जीवन आयामों के अनुभवपरक सौन्दर्य से सुशोभित है। यहाँ ‘जनता’ कविता इसका एक उदाहरण है–
“सब देशों में सब राष्ट्रों में
शासक
ही शासक मरते हैं
शोषक
ही शोषक मरते हैं
किसी
देश या किसी राष्ट्र की
कभी
नहीं जनता मरती है।”[7]
दलित-विमर्श के इस दौर में ‘एका का बल’कविता में इनकी दूर दृष्टि दिखलाई पड़ती है।कवि अपनी मूल्य-चेतना में भाषा की सतर्कता के साथ इस समाज की प्रभावशीलता को उजागर करता है। इस कविता में कवि ने जिस वर्ग को चेतनाशील बनाया है, वह सदियों से शोषित था। कवि ने दलित और श्रमजीवी वर्ग के उत्थान के लिए ही ऐसी प्रबल वाणी को अभिव्यक्ति दी है–
“....हाथ उठाओ,
सब
जन गरजो :
गाँव
छोड़ कर नहीं जायेंगे,
यहीं
रहे हैं, यहीं रहेंगे,
और
मजूरी पूरी लेंगे,
बिना
मजूरी पूरी पाये
हवा हाथ से नहीं झलेंगे।”[8]
हम जानते हैं कि जीवन का अमूर्तित होना हमारे जीवन-जगत के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को खो देने जैसा है। लेकिन “आधुनिकता की रौ के साथ कविता की भाषा में अमूर्तन की प्रवृत्ति बढ़ी हुई मिलती है। जानकारों का कहना है कि भाषा में बढ़ती जाती इस अमूर्तता के मूल में, अन्य बातों के अलावा, आधुनिक कला की प्रतीकवादी अवधारणा का प्रभाव भी सक्रिय दिखलायी पड़ता है।”[9] इसीलिए हम यहाँ इस विचार से परिचित होने की ओर बढ़ेंगे कि वैचारिक दृष्टि और भाषा-संवेदना के स्तर में केदारनाथ अग्रवाल “हर प्रकार के अमूर्तन के विरोधी हैं इसलिए उनकी कविता में भाषा अक्सर बिम्बों के सहारे चलती दिखलायी पड़ती है। यथार्थ के मर्म को वे उसी के बीच सिरजती दृश्यमयीभाषा में पकड़ते हैं, शुद्ध बौद्धिक अवधारणाओं से निर्मित प्रतीकों की दूरी से नहीं। हालांकि प्रतीकों के प्रयोग से उन्हें परहेज नहीं और उन्होंने प्रगतिशील कविता को अत्यंत सफल प्रतीक-प्रयोग दिये हैं।”[10]यहाँ इनकी ‘गेहूँ’ कविता में यह प्रतीक-विवेक स्पष्ट देख सकते हैं, जहाँ साम्यवादी हिम्मत वाली लाल फौज-सा ‘गेहूँ’ मर मिटने को झूम रहा है–
“आर-पार
चौड़े खेतों में
चारों
ओर दिशाएँ घेरे
लाखों
की अगणित संख्या में
ऊँचा
गेहूँ डटा खड़ा है।
ताकत
में मुट्ठी बाँधे है;
नोकीले
भाले ताने है;
हिम्मत
वाली लाल फौज-सा
मर
मिटने को झूम रहा है।”[11]
केदारनाथ अग्रवाल जितने प्रगतिशील मूल्य गढ़ते हैं, उतना ही उसे जीवन आचरण का हिस्सा भी बनाते हैं। अपनी लोक-सम्पदा को संरक्षित करने और लोकमत में जीवन की अपराजेय शक्ति का संचार करने के लिए, वे अपनी काव्यभाषा को अभिव्यक्ति-चेतना का हिस्सा बना देते हैं। लोकभाषा में संगीत का अंश होता ही है यही भाव इनकी जनपदीय लोकभाषा और गायन शैली की इस कविता में इस प्रकार लक्षित हुआ है–
“राजा के हिरदय से हिरदय मिलावौ,
करती
रहौ रँगरलियाँ।
हमरा
पियारा है भारत हमारा,
तुमका
पियारा फिरँगिया।।
हमका
न मारौ नजरिया!”[12]
इनकी कविता में हम लक्षित
पाते हैं कि यह लोक का सुंदर सामंजस्य है,जो इनकी प्रगतिशीलकाव्यात्मकता में ‘घन-जन’ जैसी कविता के श्रम-सौन्दर्य का बल बन
जाती है। और फिर श्रमशील जनता के पास अपने पूरे सौन्दर्य के साथ यह दिखलाई पड़ता है
कि मानो इस ‘धरती’ का भाव किसी ईश्वर का नहीं अपितु
मनुष्यता का ही पक्षधर है–
“नहीं कृष्ण की,
नहीं
राम की,
नहीं
भीम, सहदेव, नकुल की,
नहीं
पार्थ की,
नहीं
राव की, नहीं रंक की,
नहीं
तेग, तलवार, धर्म की
नहीं
किसी की, नहीं किसी की;
धरती
है केवल किसान की।”[13]
किसानी चेतना की यही आधार-शिला
केदारनाथ अग्रवाल को विशिष्ट कवि बनाती है। यही बात इनकी कविताओं में भी प्रामाणिक
सत्य बन कर सामने आई है। जो अपने जनपदीय सौन्दर्य के लिए भी एक साथ समादृत भाव
सँजोना जानती है। इसी प्रकृति साहचर्य के कारण इनकी कविता पंक्तियों में केन नदी
तो मानो एकदम जीवन रेखा बन कर सामने आई है–
“मैं
भी उस पर तन-मन वारे
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ किसान जीवन का दृष्टिबोध और काव्यभाषा
का अलंकार पक्ष बतलाती चलती है। इस कविता में मानवीकरण अलंकार का बोध हमें चकित कर
देता है।पूरी कविता में काव्य-रूपकों का अनूठा प्रयोग किया गया है। इस तरह यह
कविता प्रगतिशील हिन्दी कविता के रूपवादी प्रभाव को भी चिह्नित करती है–
“एक
बीते के बराबर
यह
हरा ठिंगना चना,
बाँधे
मुरैठा शीश पर
छोटे
गुलाबी फूल का,
सज
कर खड़ा है।”[15]
यही वह किसान दृष्टि है जो प्रगतिशील हिन्दी कविता का आश्रय बन जाती है। कविता की जटिल से जटिल अभिव्यक्ति को सामान्य जनमानस तक लाने के लिए कवि सदैव तत्पर दिखता है। काव्यात्मक छंदबद्धता भी इन कविताओं का मानक है।‘माँझी! न बजाओ वंशी’ ऐसी ही कविता है–
“माँझी!
न बजाओ बंशी मेरा तन झूमता
मेरा
तन झूमता है तेरा तन झूमता
मेरा
तन तेरा तन एक बन झूमता।”[16]
केदारनाथ अग्रवाल की
कविता ‘बसंती हवा’ तो मानो स्वयं बसंत का ही आगमन बन जाती
है। इसकी गीतात्मकता का सौन्दर्य भी इसे अद्वितीय बनाती है। हम देखते हैं कि यह ‘बसंती हवा’ केवल प्रकृति की ही नहीं अपितु पूरे
जनमानस के भावात्मक सौन्दर्य की भाषा गढ़ती है। इस कविता का प्रकृति-चित्रण अपने
पूरे आयामों में काव्यभाषा के साथ एक सार्थक हस्तक्षेप करता है–
“जहाँ
से चली मैं, जहाँ को गयी मैं
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत, निर्जन, हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मैं, झुमाती चली मैं,
किसी कविता विशेष में अपने स्थानीय जीवन का सार प्रस्तुत करना भी प्रगतिशील जनपदीय कविता का आधार रहा है। अपनी भाषा कौशल में ये कविताएँ बेहद अनुभवी हैं। किसी शहर का शाब्दिक रूप अपनी बनावट में एक व्यापक जन सरोकार की कविता का आधार लिए होता है। ऐसे में कानपुर शहर का चित्रण भी एक रूपात्मकता का बोधक बन जाता है। कविता ‘कानपुर’ में केदारनाथ अग्रवाल लिखते हैं–
“कानपुर की सारी सत्ता–
श्रमजीवी
की ही सत्ता है!
कानपुर
की सारी माया
श्रमजीवी की ही माया है!!”[18]
इनका पूरा साहित्यिक
परिदृश्य श्रमजीवी मानस का आधार लिए हुए है। हम देखते हैं कि यह काव्य पक्ष इनके
अपने स्वभाव में एक भाषाई पहल पैदा करता है। इनकी कविता में श्रमजीवी मनुष्य की
इन्हीं बातों पर बल मिलता है। श्रम का मूल्य वही जान सकता है जो जन भावना से अपने इस
संसार के मनुष्य भाव को ग्रहण करता है। जो सबके सुख-दुख में अपनी यथार्थ क्षमता को
साथ लेकर चलता है। तभी तो हम देखते हैं कि यह मनुष्य का श्रम ही है जो ‘वीरांगना’ को इस रूप में देखता है–
“मैंने उसको जब-जब देखा,
लोहा
देखा,
लोहा जैसा–तपते देखा,
गलते देखा, ढ़लते देखा,
मैंने उसको गोली जैसा चलते देखा!”[19]
केदारनाथ अग्रवाल जीवन
अनुतान को संगीत का रूपक देते हैं। यही भाव इनकी कविताओं को कलात्मक भाषा और जीवन
लालसा से भर देने का कार्य करताहै। हम अपनी भाषा को राग-विराग की अनुभूति के स्तर
पर परखते हैं और यह सब देखते हुए हम पाते हैं कि कैसे यह अनुगूँज जीवन के धरातल पर
एक काव्यात्मक भाव अभिव्यंजना से जुड़ी हुई मालूम होती है–
“टूटें
न तार तने जीवन-सितार के
ऐसा
बजाओ इन्हें प्रतिभा की ताल से,
किरनों
से, कुंकुम से, सेंदुर-गुलाल से,
लज्जित
हो युग का अँधेरा निहार के।”[20]
आज की आधुनिक चकाचौंध में हम अपने आस-पास की राजनीतिक हलचल को देखते हैं और पाते हैं कि यह सब कुछ साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ रहा है तो इसके प्रति एक नकार का भाव पनपता है। ऐसे में अनुभव का विस्तार लिए केदारनाथ अग्रवाल की कविता ‘आग लगे इस राम-राज में’ अपनी अनुभूति का परिपक्व भाष्य प्रस्तुत करती है, कवि कहता है–
“आग लगे इस राम-राज में
ढोलक
मढ़ती है अमीर की
चमड़ी
बजती है गरीब की
खून
बहा है राम-राज में
आग
लगे इस राम-राज में”[21]
यह लोक पक्ष जिसमें
सांस्कृतिक बदलाव की नकारात्मक छवि सामने आती है, उसे ही कवि दूर करना चाहता है,कविता में ‘आग लगे’ का भाव उसी को नष्ट करने की पक्षधरता
है। केदारनाथ अग्रवाल कविता में श्रम का जनवादी रूप रेखांकित करते हुए, एक मेहनतकश के घर का सुंदर भावचित्र
जनभाषा के रूप में गढ़ देते हैं। कविता ‘मजदूर
का जन्म’ में इसी भाव को व्यक्त करते हुए कवि
केदारनाथ अग्रवाल यह कहते हैं कि ‘एक हथौड़े वाला घर में और हुआ!’ यानी कवि यह दिखाता है कि श्रम की
महत्ता में जब मज़दूर तमाम रूढ़ियों को चुनौती देता है तो सामंती वर्चस्व को गिराने
वाला वह परिवार का नया सदस्य भी श्रम का वही अनुरागी होगा जो अपने परिवार कि
शृंखला की कड़ियाँ तोड़ेगा।
केदारनाथ अग्रवाल जिन
प्रगतिशील जीवन मूल्यों को जीते हैं उसी को अपनी काव्यभाषा में बचाते भी हैं, इनकी एक कविता है ‘वह जन मारे नहीं मरेगा’ यह बात कह देना जितना सरल जान पड़ता है
उतना है नहीं। मार्क्सवादी शब्दावली में जिसे सर्वहारा कहते हैं वह इसी विकट
जीवटताको रोजाना जीता है। कविता में यही बात हमारे सम्मुख है–
“जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है,
तूफानों
से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है,
जिसने
सोने को खोदा, लोहा मोड़ा है,
जो
रवि के रथ का घोड़ा है,
वह
जन मारे नहीं मरेगा,
नहीं
मरेगा !!”[22]
यही भाव एक सर्वहारा को
अपराजेय बनाता है। केदारनाथ अग्रवाल पेशे से वकील भी थे। न्यायालय और न्याय
व्यवस्था से इनका सामना जीवन का हिस्सा था। ऐसे ही न्याय पक्ष को रेखांकित करती
अपनी एक कविता ‘110
का अभियुक्त’ में वह किसान पुत्र का उल्लेख करते हैं
जो सामंती तंत्र और अन्याय के समक्ष निर्भीक भाव से खड़ा है–
“अभियुक्त
110 का,
बलवान, स्वस्थ,
प्यारी
धरती का शक्ति-पुत्र,
चट्टानी
छातीवाला,
है
खड़ा खम्भ-सा आँधी में
डिप्टी
साहब के आगे।”[23]
यह विचार उस
श्रम-संस्कृति का पोषक है जो सच्चाई में ही न्याय को देखता है यानी जिसे सत्य की
ही विजय होगी पर पूरा विश्वास है। वह इसी आत्मबल से सामंती प्रथा को चुनौती देता
है।
इस प्रकार हम केदारनाथ
अग्रवाल की कविताओं के पाठ से होकर चलें तो यह प्रतीत होता है कि “केदारजी जीवन के
गहरे यथार्थ के कवि हैं। यथार्थ का कवि देखे हुए पर अधिक भरोसा करता है। इसी से
उनकी कविताओं में ‘देखना’ क्रिया बार-बार आती है। चूँकि वह ‘देखना’ क्रिया के कवि हैं, इसलिए वह ‘मैं’,‘मैंने’,‘मुझे’,‘मुझको’,‘मेरे’ आदि सर्वनाम के भी कवि हैं क्योंकि ‘देखने’ का कोई कर्ता भी तो चाहिए। यह ‘कोई’ कवि स्वयं है। केदारजी का यह ‘मैं’,‘मेरा’,‘मैंने’ आदि अहंमन्यता वाला व्यक्तिवादी ‘मैं’ नहीं है,आत्मबलवाला समाजवादी जनतान्त्रिक ‘मैं’ है। क्योंकि उनकी व्यक्तिगत चेतना, लोक चेतना में प्रविष्ट होती है और फिर
उसे नए मानवीय मूल्यों के संस्कार देकर समाजवादी जनतन्त्र की छवियों को प्रस्तुत
करती है। इसीलिए उनका ‘मैं’ सबके ‘हम’ में परिवर्तित हो जाता है। उनकी
कविताएँ जितनी उनकी है, उतनी ही दूसरों की भी हैं।”[24] केदारनाथ अग्रवाल की एक कविता ही है ‘हम’ शीर्षक से, इसमें कवि कहते हैं कि –
“हम
लेखक हैं,
कथाकार
हैं,
हम
जीवन के भाष्यकार हैं,
हम
कवि हैं जनवादी।”[25]
यह ‘हम’ कवि केदारनाथ अग्रवाल के ‘मैं’ का विस्तार है।अतः प्रगतिशीलता के पक्ष
में ये जो‘आस्था का शिलालेख’ रचते हैं, वह मनुष्य की जीवन परिस्थिति को उजागर
करती है, जिसमें हम आस्था को मानवीय गरिमा के
रूप में देखते हैं–
“मैं
हूँ अनास्था पर लिखा
आस्था
का शिलालेख
नितांत
मौन,
किंतु
सार्थक और सजीव
कर्म
के कृतित्व की सूर्याभिमुखी अभिव्यक्ति;
मृत्यु
पर जीवन के जय की घोषणा।”[26]
इस प्रकार इनकी कविता में कवि-कर्म की
भावभंगिमा के कृतित्व की ऐसी ही सूर्याभिमुखी अभिव्यक्ति हुई है।
हिन्दी प्रगतिशील कविता
ने श्रेष्ठ कला मूल्यों का निर्माण किया है। यहाँ कई बार कलाओं का सामंजस्य भी
मिलता है और कलाएँ एक-दूसरे का अतिक्रमण भी करती हैं। छायावादी कवि सूर्यकांत
त्रिपाठी निराला ने अपनी सुपुत्री सरोज के निधन पर ‘सरोज-स्मृति’ शीर्षक शोकगीत लिखा था। इसके बाद भी
शोकगीत लिखने का प्रचलन हिन्दी में बना रहा है। सिने-कलाकार मीना कुमारी जिनका असल
नाम महजबीं बानो था कि मृत्यु पर कवि केदारनाथ अग्रवाल ने एक कविता लिखी, उस कविता का यहाँ उल्लेख करना इसलिए
उचित लगता है क्योंकि त्रासदी का अपना सौन्दर्य होता है और वह यह कि कई बार मृत्यु
कलाकार का अंत नहीं करती बल्कि हमें उसके बारे में नए सिरे से सोचने-जानने को
बाध्य करती है–
“रेत
में
खो
गयी नदी,
सागर
पछाड़ खाता है इंतजार में,
अदृश्य
में
उड़
गयी रोशनी
‘हुआ-हुआ’ करता है अंधकार कर सियार,
अँगुलियाँ
सहलाती हैं समय का सितार
संगीत
नहीं बजता–
बिना
तार और प्यार के,
हवा
का रुक गया है जुलूस
प्यार
के मजार के पास,
झुक
गयी है नकाब ओढ़े दर्द की डाल
न
आग है, न आग का नाच
सपाट
है बर्फ की सड़क
बिना
पदचाप के
अनंत
को चली गयी, मौन हुई।”[27]
तो इस तरह हिन्दी सिनेमा की ट्रेजडी
क्वीन का ऐसे मौन में विलीन हो जाना,
हमें भी मौन की भाषा समझने के लिए बाध्य करता है।
यह बात केदारनाथ अग्रवाल
की कविताओं से स्पष्ट होती मालूम पड़ती है कि इन्होंने अपने लोक-जनपद की काव्य
सम्पदा में वहाँ की भाषा-संस्कृति और श्रम की लालसा का समावेश कर
दिया है। इसी उल्लेख में यह कहना आवश्यक हो जाता है कि“केदारजी अपनी धरती के कवि हैं -
बुन्देलखंड की धरती के कवि हैं। अपनी धरती से प्यार करनेवाले कवि हैं- स्थानीयता
के कवि हैं। स्थानीयता कविता को प्रामाणिकता प्रदान करती है, जो उसे वायवीय और जड़हीन होने से बचाती
है। यही कारण है कि उनकी कविता में बुन्देलखंड चप्पे-चप्पे पर उपस्थित है– अपनी
ठेठ प्रकृति, अपने खुरदुरे चटियल परिवेश, अपने मौसम, अपनी जीवन्त धड़कन,अपनी अपनापे भरी अक्खड़ बोली-बानी तथा
अपने कड़ियल अन्तर्विरोधी चरित्र के साथ।”[28] अपनी निजता में भी कवि केदारनाथ
अग्रवाल कैसे प्रकृति को निहारते हैं यह देखने योग्य है। ‘आज नदी बिलकुल उदास थी’ कविता में वह इस निज के ममत्व को इस
रूप में देखते हैं–
“आज
नदी बिलकुल उदास थी,
सोयी
थी अपने पानी में,
उसके
दर्पण पर
बादल
का वस्त्र पड़ा था।
मैंने
उसको नहीं जगाया,
दबे
पाँव घर वापस आया।”[29]
काव्यात्मक भाषा की
इन्हीं कसौटियों पर केदारनाथ अग्रवाल की कविता खरी उतरती है। अंत में यह कि
“केदारजी लोकभाषा और लोकचेतना के क्लासिक कवि हैं। लोक उनकी कविताओं को संगमरमर के
भीतर जल रहे दीये की भाँति आलोकित किए हुए है। इनकी अनेक कविताओं की भाषा, इनका शब्द-विन्यास, इनकी शैली, इनकी कहन, इनके मुहावरे लोकथाती से ही निर्मित
हुए हैं।”[30] अपनी रचना-प्रक्रिया पर नयी कविता के
कवियों ने ख़ूब लिखा है। प्रगतिशील कवियों ने इस पर अपनी रचनाओं में संकेत किया है।
केदारनाथ अग्रवाल की एक कविता है ‘वाक्य पूरा कर रहा हूँ’। इस कविता की कुछ पंक्तियाँ उल्लेखनीय
हैं–
“एक
‘मैं’ में
द्वैत
से अद्वैत होकर,
वाक्य
पूरा कर रहा हूँ,
क्रिया-कर्त्ता-कर्म
से
भव
भर रहा हूँ।”[31]
अतः इनका पूरा कवि कर्म
इसी रचनात्मकता और सृजन-क्षण से भव भरने की कला का महत्व प्रदान करता है। केदारनाथ
अग्रवाल को अपने जन सरोकारों पर पूरा भरोसा है इसीलिए वे अपनी कविताओं के बारे में
कहते हैं ‘मेरी कविताएँ गायेगी जनता सस्वर’ यानी कवि का आधार लक्ष्य अपनी कविता को
जनता की सामान्य जन उपलब्धि में परिवर्तित करना है–
“नहीं
सहारा रहा
धरम
का और करम का :
एक
सहारा
बस
मुझको नेक कलम का,
जरा-मरण
से हार न सकते
मेरे
अक्षर
मेरी
कविताएँ गायेगी
जनता
सस्वर।”[32]
यह काव्य भाव ही है जो
इनकी कविताओं को पाठक और जनता तक सस्वर पहुँचाता है। साथ ही,प्रगतिशीलता के पक्ष में इस भाव से
केदारनाथ अग्रवाल का रचना-संसार यह भी व्यक्त करता है कि कैसे हम अपने संसार को
अंधेरे से दूर प्रकाश की ओर ले जा सकते हैं–
“दुख
ने मुझको
जब-जब
तोड़ा
मैंने
अपने
टूटेपन को
कविता
की ममता से जोड़ा,
जहाँ
गिरा मैं,
कविताओं
ने मुझे उठाया,
हम
दोनों ने
वहाँ
प्रात का सूर्य उगाया।”[33]
इस प्रकार केदारनाथ
अग्रवाल अपनी समग्रता में इसी जिजीविषा और जीवटता का काव्य-संसार रचते हैं, जिसमें इनकी काव्यभाषा
इनकेक्रिया-कर्त्ता-कर्म से जुड़ जाती है। हम इनकी कविता को इन्हीं पहलुओं के
अंतर्गत इनके रचना-संसार से ग्रहण कर सकते हैं।
1. अशोक
त्रिपाठी (सम्पादक), केदारनाथ अग्रवाल प्रतिनिधि कविताएँ, राजकमल
पेपरबैक्स, दूसरी
आवृत्ति - 2013 ई., पृ. - 11
3. अजय तिवारी
(सम्पादन), केदारनाथ
अग्रवाल (मूल्यांकनपरक लेखों का संग्रह), केदारनाथ की वैचारिक
दृष्टि और भाषा-संवेदना (डॉ. राजकुमार शर्मा), परिमल
प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण -
1986 ई., पृ.- 82
4. रामस्वरूप
चतुर्वेदी, हिंदी
साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, पच्चीसवाँ
संस्करण - 2011 ई.,
पृ. - 191
6. अजय तिवारी
(सम्पादन), केदारनाथ
अग्रवाल (मूल्यांकनपरक लेखों का संग्रह),छायावाद से अलगाव (शमशेर
बहादुर सिंह), परिमल
प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण -
1986 ई., पृ.-62
7. अशोक
त्रिपाठी (सम्पादक), जो शिलाएँ तोड़ते हैं, साहित्य
भंडार इलाहाबाद,साहित्य
भंडार का प्रथम संस्करण - 2009
ई., पृ. - 130
8. अशोक
त्रिपाठी (सम्पादक), कहें केदार खरी-खरी, साहित्य
भंडार इलाहाबाद,साहित्य
भंडार का प्रथम संस्करण - 2009
ई., पृ. - 21
9. अजय तिवारी
(सम्पादन), केदारनाथ
अग्रवाल (मूल्यांकनपरक लेखों का संग्रह), केदारनाथ की वैचारिक
दृष्टि और भाषा-संवेदना (डॉ. राजकुमार शर्मा), परिमल
प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण -
1986 ई., पृ.-80
11. अशोक
त्रिपाठी (सम्पादक), केदारनाथ अग्रवाल प्रतिनिधि कविताएँ, राजकमल
पेपरबैक्स, दूसरी
आवृत्ति - 2013 ई., पृ. - 50
13. केदारनाथ
अग्रवाल, गुलमेंहदी, साहित्य
भंडार इलाहाबाद,साहित्य
भंडार का प्रथम संस्करण - 2009 ई., पृ. - 55
15. केदारनाथ
अग्रवाल, फूल नहीं
रंग बोलते हैं, साहित्य
भंडार इलाहाबाद,साहित्य
भंडार का प्रथम संस्करण - 2009 ई., पृ. - 17
27. केदारनाथ अग्रवाल, पंख और
पतवार, साहित्य
भंडार इलाहाबाद,साहित्य
भंडार का प्रथम संस्करण - 2009 ई.,
पृ. - 135
राज कुमार
शोधार्थी
भारतीय
भाषा केन्द्र,
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली – 110067
7678611466, rajkumarck94@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021, चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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