संपादकीय : जरा याद उन्हें भी कर लो /जितेंद्र यादव

संपादकीय : जरा याद उन्हें भी कर लो


मार्च के महीने में 23 तारीख कोई सामान्य तारीख नहीं है। यह हमारी अंतरात्मा से सवाल पूछने  की तारीख भी है कि क्या हम भगत सिंह के आदर्शों और मूल्यों पर चल पा रहे हैं या नहीं। आज भी अधिकांश लोगों के लिए भगत सिंह का नाम जेहन में आते ही उनकी सिर्फ शहादत याद आती है। हम व्यक्ति को तो याद करते हैं लेकिन उनके विचारों को जानने का जहमत नहीं उठाते। ज़्यादातर लोगों के खयाल में यही छवि बनी हुई है कि वे इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाते हुए देश की आजादी के लिए फांसी के तख्ते पर झूल गए। किन्तु भगत सिंह क्रांतिकारी संगठनके सक्रिय सदस्य के साथ -साथ साम्यवादी विचारधारा को भी भारत में फैलाना चाहते थे। वे सिर्फ भारत को अंग्रेजों से आजाद नहीं कराना चाहते थे बल्कि आजादी के साथ साथ सामाजिक, आर्थिक क्रांति की बात भी करते थे। वे जानते थे कि गोरों की जगह काले लोगों को गद्दी पर बैठने भर से गरीब,मजदूर और किसान का भला नहीं हो सकता जब तक कि सामाजिक और आर्थिक बदलाव नहीं होगा। महज 23 साल की उम्र तक जीवित रहने वाले भगत सिंह की वैचारिक परिपक्वता आश्चर्यचकित करती है। गंभीर विचारों से परिपूर्ण उनके तमाम लेख और जेल से अपने साथियों को लिखे गए पत्रों को पढ़ने के बाद प्रतीत होता है कि भगत सिंह सिर्फ बंदूक की नली से क्रांति नहीं लाना चाहते थे बल्कि उनकी एक मुकम्मल विचारधारा थी।इसीलिए उन्होंने कहा कि क्रांति की धार विचारों की सान पर तेज होती है।वे मार्क्स और लेनिन से काफी प्रभावित थे। रूस की क्रांति में जिस तरह से किसानों और मजदूरों ने जार शासन का तख़्तापलट करके एक साम्यवादी सरकार का निर्माण किया था, उसी तरह का बदलाव भारत में भगत सिंह भी चाहते थे।

आज आजाद भारत में सांस लेने वाली भारत की जनता भगत सिंह को तो जानती है किन्तु उनके विचारधारा, सिद्धान्त और मूल्यों से ज्यादा ताल्लुक नहीं रखती। भगत सिंह ने जिस आजाद भारत की कल्पना की थी उस आजाद भारत में छुआछूत, जातिगत भेदभाव,सामाजिक,आर्थिक और धार्मिक शोषण  के लिए कोई स्थान नहीं था। उनका स्पष्ट मानना था कि सामाजिक,आर्थिक बदलाव के बिना भारत की आजादी अधूरी है।अपने अछूत का सवाल शीर्षक लेख में दलितों की समस्या को बहुत ज्वलंत ढंग से उठाया था। हमारा देश बहुत अध्यात्मवादी है, लेकिन हम मनुष्य को मनुष्य का दर्जा देते हुए भी झिझकते हैं जबकि पूर्णतया भौतिकवादी कहलाने वाला यूरोप कई सदियों से इंकलाब की आवाज उठा रहा है। जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया-बीता समझोगे तो वह जरूर ही दूसरे धर्मो में शामिल हो जाएंगे, जिनमें उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे,जहां उनसे इन्सानों जैसा व्यवहार किया जाएगा। फिर यह कहना कि देखो जी,ईसाई और मुसलमान हिन्दू कौम को नुकसान पहुंचा रहे हैं, व्यर्थ होगा। भगत सिंह सिर्फ दलित की समस्या को गिनाते नहीं हैं बल्कि उसका क्या निदान हो उसके लिए सुझाव भी दिया। अब एक सवाल और उठता है कि इस समस्या का सही निदान क्या होइसका जवाब बड़ा अहम है। ‘सबसे पहले निर्णय कर लेना चाहिए कि सब इंसान समान हैं तथा न तो जन्म से कोई भिन्न पैदा हुआ है, न ही कार्य विभाजन से। अर्थात क्योंकि एक आदमी गरीब मेहतर के घर पैदा हो गया है इसलिए जीवन भर मैला ही साफ करेगा और दुनियाँ में किसी तरह का विकास के काम का उसे कोई हक नहीं है, ये बातें फिजूल हैं। इस तरह हमारे पूर्वज आर्यों ने इनके साथ ऐसा अन्यायपूर्ण व्यवहार किया तथा उन्हें नीच कहकर दुत्कार दिया एवं निम्नकोटि के कार्य भी करवाने लगे, साथ ही यह भी चिंता हुई कि कि कहीं ये विद्रोह न कर दें तब पुनर्जन्म के दर्शन का प्रचार कर दिया कि यह तुम्हारे पूर्वजन्म के पापों का फल है।’

भगत सिंह के विचारों से अवगत होना आज समय की जरूरत है। उनके विचारों को तिलांजलि देकर उन्हें याद नहीं किया जा सकता। वे साम्राज्यवाद और पूंजीवाद को समाप्त करना चाहते थे। अब तो नव साम्राज्यवाद ने पूंजीवाद के साथ गठजोड़ करके पहले से भी ज्यादा ताकतवर हो गया है। आर्थिक गैरबराबरी बढ़ी है। किसानों और श्रमिकों की स्थिति भयावह होती जा रही है। पूंजीवाद के चंगुल में जनता फँसती जा रही है। सर्वहारा वर्ग में एकता का अभाव है। आज का युवा वर्ग भगत सिंह के विचारों से कटा हुआ है। सरकारें भी चाहती हैं कि उनका विचार युवाओं में न फैले वर्ना युवा वर्ग हमारे ही खिलाफ विद्रोह कर देगा। इसलिए उन्हें धार्मिक प्रतीकों में उलझाकर रख दिया गया है। आज धर्म का हस्तक्षेप राजनीति में इस कदर बढ़ गया है कि जो राजनीतिक दल कभी सेक्युलर मूल्यों की बात करते थे, वह भी वोट के लिए अपने धार्मिक पहचान को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना चाहते हैं। यह हमारी वर्तमान राजनीति की विडम्बना है। उस समय जब ईश्वर,धर्म और अध्यात्म का इतना प्रभाव रहा हो। फिर भी भगत सिंह ने अपनी विचारधारा को स्पष्ट करते हुए खुद को नास्तिक घोषित करते हैं। जिस उम्र में भारतीय युवा नास्तिक -आस्तिक के अंतर को समझना शुरू करता है,ठीक उसी उम्र में भगत सिंह ने अपने जीवन से ईश्वर और धर्म को पूरी तरह से नकार दिया था। फांसी के फंदे पर लटकने से पहले जब जेलर ने कहा कि अब अंतिम घड़ी में वाहे गुरु का नाम स्मरण कर लो। तब भी भगत सिंह ने यह कहकर मना कर दिया कि दुनिया कहेगी कि भगत सिंह कायर है; मौत को देखकर भगवान को याद कर रहा है।

भगत सिंह की नजर में ईश्वर, धर्म,अंधविश्वास और रूढ़ियों के लिए कोई स्थान नहीं था। वे हर चीज को तर्क और विवेक की कसौटी पर कसने की हिमायत कर रहे थे। अपने प्रसिद्ध लेख मैं नास्तिक क्यों हूँमें लिखते हैं कि प्रत्येक मनुष्य को जो विकास के लिए खड़ा है,रूढ़िगत विश्वासों के हर पहलू की आलोचना तथा उनपर अविश्वास करना होगा और उनको चुनौती देनी होगी। प्रत्येक प्रचलित मत की हर बात को हर कोने से तर्क की कसौटी पर कसना होगा।’ इसी लेख में आगे भगत सिंह कहते हैं कि ‘मैं पूछता हूँ कि तुम्हारा शक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप और अपराध कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने के उन्माद को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया? ..... मैं आपको बता दूँ कि अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता हैं,बल्कि इसलिए है कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमें अपने प्रभुत्व में ईश्वर की सहायता से नहीं रखे हुए हैं बल्कि बंदूकों,राइफलों,बमों और गोलियों,पुलिस और सेना के सहारे रखे हुए हैं। भगत सिंह अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता पर हमेशा अडिग दिखाई देते हैं। हमारी युवा पीढ़ी यदि भगत सिंह को अपना आदर्श बनाना शुरू कर दे तो कोई मजाल नहीं है कि युवाओं के दिलों में नफरत और सांप्रदायिकता का जहर भरकर नेता उनका गलत इस्तेमाल कर लें। भगत सिंह मार्क्सवादी विचारधारा को ही बदलाव और क्रांति का रास्ता मानते हैं। जेल के अंतिम दिनों में भी लेनिन को पढ़ने की उनकी उत्कट अभिलाषा से समझा जा सकता है कि इस विचारधारा से उनका कितना लगाव था। भगत सिंह के कुछ दोस्तों ने आरोप लगाया कि वे अहंकार के कारण ईश्वर के अस्तित्व को नकार रहे हैं, भगत सिंह इसका जवाब देते हुए कहते हैं कि मेरे दोस्तों! यह मेरे सोचने का तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। मैं ईश्वर में विश्वास और रोज-बरोज की प्रार्थना,जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ

अक्सर विद्यार्थियों को राजनीति से दूर रहने की हिदायत दी जाती है। किन्तु भगत सिंह इस मुद्दे पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है,उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए। लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं है?यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं जो क्लर्की करने के लिए हासिल किया जाए। ऐसी शिक्षा की जरूरत ही क्या है?  भगत सिंह ने अपने अल्प जीवन में भी समाज की सभी प्रमुख मुद्दों की तरफ अपनी चिंता व्यक्त किया है। आज इतना शिक्षा का प्रचार -प्रसार होने बावजूद भी इतनी कम उम्र में आज के युवाओं में समाज,विचारधारा और राजनीति की गहरी समझ का नितांत अभाव दिखाई देता है। भगत सिंह ने पत्रकारिता के व्यवसाय पर जो टिप्पणी की है वह आज भी मौजू है – ‘पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था,आज बहुत ही गंदा हो गया है। यह लोग एक -दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे -मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक दो जगह नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं, ऐसे लेखक जिनके दिल और दिमाग ऐसे दिनों में भी शांत हों,बहुत कम है।अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना ,लोगों की संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावना हटाना, परस्पर मेल -मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना,संकीर्णता का प्रचार करना,सांप्रदायिक बनाना,लड़ाई झगड़े करवाना और भारत की सांझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आँखों में खून के आँसू बहने लगते हैं।

भगत सिंह को सही मायने में याद करने का अर्थ है कि उनके विचारों से गुजरा जाए,आजाद भारत के लिए उनके द्वारा देखे गए सपने को कैसे साकार किया जाए। आज प्रत्येक भारतीय युवा को इस पर सोचना चाहिए। तभी सच्चे अर्थों में उनके लिए श्रद्धांजलि होगी।

 यह अंक युवा चित्रकार संत कुमार के आकर्षक चित्रों से सुसज्जित है, उन्हें अपनी माटी की टीम की तरफ से आभार। अपने जादुई आवाज से पूरे भारतीय दिलों पर लंबे समय से राज करने वाली पार्श्वगायिका लता मंगेशकर जी पिछले महीने निधन हो गया। उन्हें अपनी माटी पत्रिका की तरफ से सादर श्रद्धांजलि। 

 जितेंद्र यादव

 संपादक- अपनी माटी

सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभागसकलडीहा पी. जी. कालेज,सकलडीहा,चंदौली 


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

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