संपादकीय : आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है / विष्णु कुमार शर्मा

संपादकीय
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है


रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है।
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता
और फिर बेचैन ही जगता सोता है।।
रामधारी सिंह दिनकर

आदमी की बेचैनी शाश्वत है। इस शाश्वत बेचैनी को पहचाना दार्शनिकों-वैज्ञानिकों ने। और दर्शन की इन गहरी, उलझी और रूखी-सूखी बातों को ही संसार के बहुतेरे कवियों ने अपनी कविता में बहुत सरल सरस भाषा में कह डाला। लेकिन आदमी तो अनोखा जीव है ! सरल बात उसे समझ नहीं आती क्यूँकि  दुनिया में सरल होना ही कठिन है। इस आदमी ने नए-नए सिद्धांत गढ़े और आगे चलकर ख़ुद ही ख़ारिज किए। हालाँकि कहा जाए तो यह विकास की एक प्रक्रिया है। यह आदमी की ईमानदारी का तकाज़ा है। संज्ञानात्मक विकास के क्रम में आदमी की बेचैनी बढ़ती गई और उसकी कोशिश रही कि इस दुनिया-जहान को मैं जानूँ। और जब थोड़ा-बहुत उसके जानने में आया तो उसमें एक भाव यह उठा कि अब इस प्रकृति पर विजय प्राप्त करूँ। साथ हीइस प्रकृति पर विजय प्राप्त करूँका उसका स्वयं का यह विजय या श्रेष्ठता का भाव आदमी के मन में कहाँ से रहा है, इस पर भी उसने चिंतन-मनन किया। ख़ासकर इस देश में इस पर ख़ूब विचार हुआ। आदमी को ख़ुद को जानने का काम शायद इस देश में जितना हुआ उतना दुनिया में कहीं नहीं हुआ। लेकिन आदमी तो अनोखा जीव है ! आत्मज्ञान की इस सर्वश्रेष्ठ विधा को सबसे पहले इस देश के बाशिंदों ने ही बिसराया। यही उनकी पराजय का कारण भी बना। वह दुनियाभर के आक्रांताओं से लुटा-पिटा और लतियाया गया। हालाँकि आत्मज्ञान की एक पतली धार हमेशा ही यहाँ बहती रही।इस प्रकृति पर विजय प्राप्त करूँके विचार के मद्देनजर आदमी ने गढ़ा एक और सिद्धांत ; और उसे नाम दिया- ‘मानवतावाद इस सिद्धांत के केंद्र में रखा उसने स्वयं को रखा। अन्य जीवों या प्रकृति की तुलना में उसने स्वयं को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया। अपनी चिंता के केंद्र में केवल स्वयं को रखा। प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय उपभोग किया। फलतः जलवायु परिवर्तन के रूप में परिणाम हमारे सामने हैं। और उससे उत्पन्न समस्याओं से जूझ रहा है अब यह आदमी। इतिहास ने जाने ख़ुद को कितनी ही बार दोहराया लेकिन आदमी फिर गलती पर गलती करता रहा। क्या ठोकर खाकर सीखना ही इसकी नियति है?

मानवतावाद से समस्याएँ उत्पन्न हुई तो आयाउत्तर-मानवतावाद मानव-मानव का परस्पर संबंध, मानव और अन्य जीवों का संबंध, मानव और मशीन का संबंध और पूरे में कहें तो मानव और प्रकृति के बीच का संबंध इसके केंद्र में हैं। इस दर्शन या सिद्धांत की चिंताएँ बहुत वाज़िब हैं लेकिन तौर-तरीके फिर गड़बड़ हैं। दर्शन और नैतिकता के तौर पर यह सैद्धांतिकी प्रकृति में सह-अस्तित्व की बात करती है। मनुष्य की अस्मिता, स्वतंत्रता और गौरवपूर्ण जीवन; बहुलता का सम्मान, पर्यावरण सम्यक विकास इसकी प्राथमिकताएँ हैं। वहीं जैव-प्रत्यारोपण, बायो-हैकिंग, कृत्रिम बुद्धिमता... इसके टूल हैं। उत्तर-मानवतावादी दार्शनिक डोना हरावे का तर्क है किमनुष्य और प्रौद्योगिकी का विलय शारीरिक रूप से मानवता को नहीं बढ़ाएगा बल्कि हमें खुद को गैर-मानव प्राणियों से अलग होने की बजाय परस्पर जुड़े हुए के रूप में देखने में मदद करेगा यह सही है कि कृत्रिम बुद्धिमता आने के बाद आदमी को अपने जिस बुद्धि-बल पर भरोसा और श्रेष्ठता का बोध था, वह भी धराशायी होता नज़र रहा है लेकिन उत्तर मानवतावादी विचारक मनुष्य और प्रौद्योगिकी के विलय द्वारा भविष्य के जिस सह-अस्तित्ववादी मानव को बनाने में तुले हैं, वह तकनीक द्वारा संभव नहीं। मनुष्य-मनुष्य के बीच ऊँच-नीच के भेद का भाव पैदा करने वाला, अन्य जीवों से श्रेष्ठता का बोध पैदा करने वाला, ‘इस प्रकृति पर विजय प्राप्त करूँभाव पैदा करने वाला सॉफ्टवेयर जन्म से ही आदमी के भीतर इन-बिल्ट होता है। अद्वैत वेदांत की भाषा में उस सॉफ्टवेयर का नाम है- ‘अहम् और इस अहम् को जानने का नाम ही आत्मज्ञान है। यह अहम् ही है जो खुद को श्रेष्ठ और दूसरों को कमतर आँकता है। यह अहम् ही है जो कह उठता है- “सुंदर है सुमन, विहग सुंदर, मानव तुम सबसे सुंदरतम।यह अहम् ही है जो कहता है कि मनुष्य के जीवन की हानि न्यायालय में दंडनीय है लेकिन पशु जीवन की हानि हमारे लिए बेहतरीन स्वाद है। यह अहम् ही जो कहता है कि गाय के दूध पर उसके बछड़े का नहीं हमारा हक़ है। हम इससे स्वादिष्ट मिठाइयाँ, पनीर के पकवान, चाय-कॉफ़ी-आइसक्रीम बनाएँगे और खाएँगे-खिलाएँगे। यह अहम् ही है जो कहता है कि हमारा धर्म, जाति और लिंग दूसरे से श्रेष्ठ है। इस अहम् से आत्म की यात्रा ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। और असल में इसी का नाम इंसानियत है। भारतीय मनीषा से इसे बहुत सुंदर और ऊँचा नाम दिया- ‘आत्मा लेकिन हमारे अज्ञानरूपी अहम् ने उसे भी विकृत कर दिया तो फिर एक मनीषी महात्मा गौतम बुद्ध को कहना पड़ा- ‘अनात्मा यानी जिसे तुम आत्मा कह रहे हो वह आत्मा नहीं है। और हमने बुद्ध को ही इस देश से धक्का मारकर बाहर निकाल दिया। बुद्ध के अनुयायियों का उपहास करने के लिए शब्द गढ़ दिया- ‘बुद्धू लेकिन प्रकाश को कौन रोक सका है भला? महामना बुद्ध की यह रौशनी पूरी दुनिया में फैली और दीये तले अँधेरा रह गया। पुतिन और जेलिंस्की के अहम् ने दो देशों को ढाई साल से युद्ध में झोंक रखा है। कुछ लोगों के इस अहम् के कारण ही सैंतालिस में इस देश को विभाजन की विभीषिका झेलनी पड़ी। दुनिया में गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, असमानता... के मूल में यह अहम् प्रवृत्ति ही है। कोई मशीन ऐसा आदमी नहीं बना सकती जो न्यायपूर्ण और समतामूलक भाव वाला हो। इसी आदमी को हमें ठीक से पहचानना है। इसी को ठीक करना है। औरइसीकी शुरुआत करने के लिए सबसे मुफ़ीद आदमी हम ख़ुद हैं। मेरा अनुभव यही रहा है कि ये कामसही शिक्षाके द्वारा संभव है। कृष्ण की निष्कामता, बुद्ध की मैत्री, महावीर की अहिंसा, हज़रत मोहम्मद की दया और ईसा मसीह का क्षमा भाव आत्मज्ञान का ही प्रतिफलन है। कबीर-सूर-तुलसी और जायसी से सरल भाषा में कौन बता सकता है इस बात को?

अपनी माटीके संपादन-कार्य से लगभग दो वर्ष से जुड़ा हूँ लेकिन स्वतंत्र रूप से एक अंक के संपादन करने का यह पहला अवसर है। इस अवसर को देने और मुझमें विश्वास जताने के लिए भाई माणिक का शुक्रिया। जीवन-दर्शन की सह-यात्रा में हमने साथ में यह जाना कि जो ख़ुद पर विश्वास करता है, वही दूसरे पर विश्वास जताता है। शून्य से एक ऊँचे मुकाम पर पहुँची पत्रिका के इस अंक को परवान चढ़ा सकूँ तो कम से कम जिस धरातल पर वह कल तक पाँव टिकाए खड़ी थी, वहाँ खड़ी रखना मेरे लिए एक चुनौती थी। कितना सफल रहा हूँ इसका निर्णय पाठकों के हाथ में है। पराजित के पक्ष में खड़े रहने का हमारा दशक भर पुराना निर्णय है। हम इस पर अटल हैं। इसी क्रम में इस अंक में हमने अबूझमाड़िया, बैगा और जौनसारी जनजाति की सांस्कृतिक परम्पराओं और दलित साहित्य पर आलेख शामिल किए हैं। एक ओर अंकुश गुप्ता का आलेखभारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में किशोरों का योगदानइतिहास के कम गौर किए गए पहलू से आपको रूबरू कराएगा तो दूजी ओर कविता सिंह का लेखकौवा-कोयल के मुहावरे का राजनीतिक-सांस्कृतिक मूल्यों के सन्दर्भ में पुनर्पाठहमारे सोचने-विचारने के पैटर्न को एक झटका देगा।ऑनलाइन समाचार के उपभोक्ता व्यवहार पर क्लिकबेट हेडलाइंस का  प्रभावऔरवेब सीरीज : भाषा और संवाद की नई प्रवृत्तियाँ जैसे आलेखों द्वारा हमने समकालीनता पर भी अपनी गहरी दीठ रखी है। कुमार अम्बुज की कविताओं पर शम्भु गुप्त का आलेख पत्रिका के लिए बड़ी उपलब्धि है। 

रचनात्मक लेखन मेंरिश्तों का संसारकॉलम में संध्या दुबे का पिता के नाम लम्बी चिट्ठी और अनाम प्रेयसी के नाम अखिल की चिट्ठी के द्वारा गुम हुई इस विधा को फिर से सहेजने का प्रयास है। बकौल बाबुषा कोहलीकि तूने केवल स्टेटस बदलते देखा है। मैंने सिगड़ी को गैस चूल्हे में, चिट्ठी को टेलीफोन में और आदमी को मशीन में बदलते देखा है हमारे संस्मरण कॉलम के नियमित स्तंभकार हेमंत कुमार आपके लिए लेकर आए हैं एक और बेजोड़ रचनारतन कुआँ मुख साँकड़ा और चीकू के बीज में है बिलकुल नई रौशनी। कुमार अम्बुज की कविताओं पर शम्भु गुप्त का आलेख और सत्यनारायण व्यास की डायरी पत्रिका के लिए बड़ी उपलब्धि है।

और आख़िर में-
मोगरे से इसलिए नफ़रत मत करो
कि वह गुलाब नहीं है।
दुनिया में जितनी क्रूरता है,
उस हिसाब से कविता अब भी कम है।
(रचो, बसो)”
-गीत चतुर्वेदी

इस अंक में जो कुछ अच्छा बन पड़ा है उसके लिए माणिक औरअपनी माटीकी पूरी टीम को बधाई दें और जो कमियाँ रह गई हैं उनकी जिम्मेवारी मेरी है।

आपका
विष्णु कुमार शर्मा

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन  चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

2 टिप्पणियाँ

  1. ये एक शानदार सम्पादकीय और जबर्दस्त अंक है। इस संपादकीय, इस अंक और आप पर विश्वास के निश्चित रूप से पत्रिका का कद बढ़ा दिया है।

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  2. बेहतरीन, पढ़कर अच्छा लगा ❤️❤️❤️

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