शोध आलेख : के. लक्ष्मा गौड की प्रिंटमेकिंग में मौलिकता / महेश सिंह

के. लक्ष्मा गौड की प्रिंटमेकिंग में मौलिकता
- महेश सिंह
शोध सार : वे शुरुआती चित्र जो ग्रामीण संदर्भ में कामुकता को दर्शाते हैं और उनकी नक्काशी और एक्वाटिंट की मौलिकता और गुणवत्ता के लिए भी जाने जाते हैं। उनके काम में बिना किसी प्रतीकात्मक अर्थ के यौन क्रीड़ा का स्पष्ट चित्रण शामिल है जिनमें आलंकारिक रूप से सहवास की मुद्रा में मानव, पशु और प्रकृति के रूप गुंथे हुए, रात की रोशनी में दुश्मनी का आह्वान और कोमल करुणा से युक्त नर-मादा संबंधों का एक सूक्ष्म, मनोवैज्ञानिक अन्वेषण विषयों को चित्रित किया। उसकी जीती हुई कामुक संवेदनशीलता की सहज खोज ने उसकी कल्पना को गति दी और उसे क्रियान्वित करते हुए अभिव्यक्ति किया। दिलचस्प बात यह है कि यह शहरी शिक्षा ही थी जिसने गौड़ को अपनी जड़ों की खोज कराई और इस गहराई से प्रभावित होते हुए उसे समृद्ध और कायम रखा। उन्होंने विभिन्न प्रकार की सामग्रियों के साथ प्रयोग किया है - कलम और स्याही, पेंसिल, वॉटरकलर, प्रिंटमेकिंग, ग्लास पेंटिंग, सिरेमिक, मिट्टी और गॅुवास के साथ अपने आंतरिक दृष्टिकोण के जवाब में समय के साथ अपनी कलात्मकता को विकसित किया है। 

बीज शब्द : कामुकता, करुणा, मनोवैज्ञानिक, संवेदनशीलता, कलात्मकता

मूल आलेख : कलाल लक्ष्मा गौड़ एक भारतीय चित्रकार, प्रिंटमेकर और म्यूरलिस्ट हैं। वह नक्काशी, गवा्स, पेस्टल, मूर्तिकला और ग्लास पेंटिंग सहित विभिन्न माध्यमों में काम करते हैं। 1970 के दशक तक गौड़ ने अपनी नक्काशी में एक्वाटिंट और अधिक गहन यौन विषयों का पता लगाना शुरू कर दिया। लेकिन 1980 के दशक तक कलाकार अपनी पारंपरिक जड़ों की ओर लौटता दिखा और अधिक शांत और सजावटी शैली में टेराकोटा और रिवर्स ग्लास पेंटिंग जैसे विभिन्न शिल्प रूपों की खोज की। वे हैदराबाद विश्वविद्यालय के सरोजिनी नायडू स्कूल ऑफ परफॉर्मिंग आर्ट, फाइन आर्ट एंड कम्युनिकेशन के प्रमुख और शिक्षक भी रहे। और 2001 में आर्ट स्कूल के डीन के पद से सेवानिवृत्त हुए।

प्रारंभिक जीवन- लक्ष्मा गौड़ का जन्म 21 अगस्त 1940 में हैदराबाद राज्य के मेडक जिले के निजामपुर में वेंका गौड़ और अनथम्मा के घर हुआ था। वह अपने परिवार में पांच बेटों और दो बेटियों में से एक थे। उनका बचपन गाँव के माहौल में बीता, जहाँ वे ग्रामीण परंपरा और शिल्प के प्रत्यक्ष अवलोकन के माध्यम में गहराई से जागरूक हुए। बचपन में उन्होने आंध्रप्रदेश के चमड़े की कठपुतली और टेराकोटा अलंकरण का निर्माण देखा। उन्होंने हैदराबाद के गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ फाइन आर्ट्स एंड आर्किटेक्चर में ड्राइंग और पेंटिंग का अध्ययन किया। गौड़ ने 1963 से 1965 तक बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के ललित कला संकाय में के.जी. सुब्रमण्यन के तहत पारंपरिक फ्रेस्को भित्तिचित्र व समकालीन कला का अध्ययन किया। बड़ौदा में ही गौड़ को प्रिंटमेकिंग के प्रति अपने प्रेम का पता चला और प्रिंट के लिए एक मजबूत और विश्वसनीय आवाज बनाने में विश्वविद्यालय के ललित कला संकाय में ही एक प्रेरक शक्ति बन गए।

कैरियर- वे स्कूल की पढ़ाई में अच्छे नहीं थे, बहुत चंचल थे। लेकिन उनके पिता ने संभवतः खेल में भी मिट्टी से ढलाई जैसी एक संगठित गतिविधि देखी थी। उनके पिता एक गाँव के मुंसिफ (न्यायिक कलेक्टर) थे। जब उनके पिताजी अपनी खूबसूरत लिखावट की नकल करते हुए कलम की निब और स्याही से लिखते थे तो उन्हे पास बैठना अच्छा लगता था। स्कूल के बाद, उन्होंन गवर्नमेंट कॉलेज फॉर आर्ट्स, हैदराबाद में दाखिला लिया। अपने प्रथम वर्ष में वे प्रथम स्थान पर रहे। उनके पिता बहुत खुश थे किन्तु दूसरे वर्ष में उनकी मृत्यु हो गई और बड़े भाई ने उनकी देखभाल की। उनके अच्छे कौशल और ड्राइंग क्षमता ने उन्हे बड़ौदा स्कूल में राज्य छात्रवृत्ति दिला दी।

स्नातक स्तर की पढ़ाई के बाद, गौड़ ने अपने गांव निजामपुर लौटने का अप्रत्याशित कदम उठाया। शहरी परिष्कृतता के नव शिक्षित दृष्टिकोण के साथ, कलाकार ने खुद को कामुकता के प्रति निःस्वार्थ दृष्टिकोण से आकर्षित पाया, जिसने ग्रामीण जीवन के आरामदायक माहौल में योगदान दिया। यह शिथिल कामुकता भारतीय मध्यवर्ग की कठोर यौन प्रथाओं के बिल्कुल विपरीत थी, जिसका सामना उन्होंने शहरों में किया था। यहां, उन्हें एक व्यक्ति के रूप में जीवन और कला में बुनियादी समस्याओं‘ का एहसास हुआ, जो उन्हें अपने गांव वापस ले आया जहां उन्हें पता चला कि स्कूली शिक्षा और कला महाविद्यालयों में अध्ययन के दौरान उन्हें क्या नहीं मिला था। गौड़ को शुरुआती चित्रों में उनके कार्यों में कामुकता के चित्रण के लिए जाना जाता था, जो 1970 के दशक में उनके करियर की शुरुआत से लगातार और स्पष्ट है। कामुकता के प्रति इस जुनून का पता गांव में उनके जीवन से लगाया जा सकता है, जहां कामुक अनुभव के प्रति उनकी प्रतिक्रिया सबसे संवेदनशील और ज्वलंत है। 

उन्होंने गाँव में सेक्स के बारे में वर्जनाओं और अवरोधों का अभाव पाया, जो शहरी समाज में इतना प्रबल था कि वह वर्तमान में रह रहे थे। उन्होंने गाँव में अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए यौन संबंध की पहली उत्तेजना के अनुभवों को याद किया, उन्हें ‘करीब रहने वाले लोगों‘ की याद आई। 

अंदाज- लक्ष्मा गौड़ ने ग्रामीण और आदिवासी जीवंतता की अपनी बचपन की यादों की व्याख्या एक शहरी ग्रिड के माध्यम से करना शुरू किया, जिसमें अतियथार्थवादी, कामुक स्वर कल्पना और कविता मिश्रित थे। उन्होंने मोनोक्रोम व ग्रे रंगों में ग्रामीण जीवन की उत्कृष्ट छोटी पेंटिंग बनाईं। उन्होंने कलम और स्याही से भी चित्रकारी की और इस अवधि के उनके चित्र और नक्काशी गाँव की पुरानी यादों, अतियथार्थवादी और कामुकता का एक दिलचस्प संयोजन था। दृश्य-कामुक अन्वेषण के इस दौर के बारे में कलाकार को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है, ‘‘हम एक ऐसी संस्कृति से आते हैं जो पुरुष-महिला संबंधों, प्रजनन क्षमता के बारे में खुलकर बात करती है। जब यह समकालीन संदर्भ में दोहराया जाता है, तो किसी को इससे मुंह क्यों बनाना चाहिए?‘‘ भरे-भरे थनों वाली बकरियाँ एक विशिष्ट आकृति बन गईं। ये बकरियां सिर्फ ग्रामीण भारत का प्रतीक नहीं हैं. गौड़ के शब्दों में, ‘‘किसी को भी बकरी की परवाह नहीं है सिवाय शायद उस कलाकार के जो उस प्राणी में उन लोगों के दृढ़ संकल्प को देखता है जिन्होंने अपने परिदृश्य से जो कुछ भी प्राप्त कर सकते हैं उसकी तलाश करके जीना सीख लिया है।‘‘

पुरस्कार- अपने पूरे करियर के दौरान लक्ष्मा गौड़ ने देश और विदेश में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों प्रदर्शनियों में भाग लिया, और कई वन मैन शो भी किए, जिनमें मु़ख्यतः जयपुर, हैदराबाद, बॉम्बे, नई दिल्ली, लंदन, वारसॉ, बुडापेस्ट, म्यूनिख, ग्रिफेलकुंस्ट, हैम्बर्ग, ब्राजील, एम्स्टर्डम, संयुक्त राज्य अमेरिका, द हर्विट्ज कलेक्शन, यूएसए, चीन महोत्सव, जिनेवा, स्विट्जरलैंड, ताइवान। इसके अतिरिक्त उनकी कलाकृतियों का संग्रह भी निम्नलिखित जगहों पर रहा जिनमें मु़ख्यतः इब्राहिम अलकाजी और कला विरासत, नई दिल्ली, मसानोरी फुकुओका और ग्लेनबारा कला संग्रहालय, हेमाजी, जापान। फिलिप्स कलेक्शन, वाशिंगटन डी.सी.। सालार जंग संग्रहालय, हैदराबाद। ग्लेनबारा संग्रहालय, जापान। देविंदर और कंवलदीप साहनी, बॉम्बे। राष्ट्रीय आधुनिक कला गैलरी, दिल्ली आर्ट गैलरी, नई दिल्ली। जहांगीर निकोलसन आर्ट फाउंडेशन, मुंबई। गौड़ को 1962, 1966 और 1971 में आंध्र प्रदेश राज्य ललित कला अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। भारत सरकार ने उन्हें 2016 में पद्म श्री से सम्मानित किया।

कलात्मकता- कला कलाकार के जीवन में झाँकती है। वे ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते थे, जहां एक पुरुष और एक महिला के बीच जमीनी संबंध इशारों में नजर आते हैं। एक जैविक लय है, बैलगाड़ी में किसान आगे चल रही महिला के बारे में गाता है, उसके शरीर की प्रशंसा करता है क्योंकि वह महिला कामुकता से चलती हैं, ‘‘इमली की तरह मुंह में पानी लाने वाले‘‘ जैसी। यह काव्यात्मक और दार्शनिक है, क्योंकि गाँव में इमली के पेड़ का बहुत महत्व है। ये सभी अनुभव उनके अवचेतन और चेतन में हैं।

उनके सपनों की दुनिया से एक प्रवाह आता है - एक निरा ब्रह्मांड। प्रत्येक माध्यम एक अलग प्रस्ताव की मांग करता है और अपनी अभिव्यक्ति के लिए उस माध्यम को नियोजित करते हुए उचित ठहराने की आवश्यकता है। कलाकार और मूर्तिकार के. लक्ष्मा गौड़ की कृतियों से गुजरने वाले एक अद्वितीय सूत्र की खोज करना भी एक व्यर्थ खोज है। जो इस 84 वर्षीय कलाकार की पेंटिंग, प्रिंट, चित्र, भित्ति चित्र और मूर्तिकला सहित कला कार्यों के विशाल समूह को दर्शाता है। के. लक्ष्मा गौड के काम का वर्णन करने के लिए, शायद, जो सबसे करीब आ सकता है, वह यह है कि यह एक निर्लज्ज देहातीपन का प्रतीक है जो एक ही समय में अपनी रचना में स्पष्ट है, जबकि इसके रूपकों में सूक्ष्म है।

मोनोक्रोम या रंग- कला आवश्यक रूप से रंग से नहीं होती, कला किसी भी चीज से होती है जो एक कलाकार करता है। इसलिए यदि आप इन विचारों को एक ही फोकस के साथ बना सकते हैं, तो अद्भुत चीजें सामने आ सकती हैं। इससे उन्हे बहुत आत्मविश्वास पैदा हुआ। काले रंग में, पहले से ही रंग है। या सफेद में, पहले से ही रंग है। यह सवाल है कि आप खुद को लोगों के सामने कैसे पेश करते हैं, यह लोगों की आपसे अपेक्षाओं के बारे में नहीं है।‘‘आप एक कलाकार हैं, आप एक व्यक्ति हैं, इसलिए आपको एक तरह की भाषा, एक तरह का दृष्टिकोण, एक तरह की सौंदर्य संबंधी संवेदनशीलता विकसित करनी होगी, जिसे लोग देखेंगे और मंत्रमुग्ध हो जाएंगे, क्योंकि आपने यह समय मुद्दा समझने में बिताया है।

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चित्र - लक्ष्मा गौड़, माध्यम -एचिंग, श्वेत श्याम

दो आयाम और तीन आयाम- उन्होने खुद को एक चीज के बारे में चिंतित नहीं किया। वे चित्रकारी में जल रंग का उपयोग करते है। वे डिजाइन कर रहे थे, कुछ वर्ष पहले उन्हे भित्ति चित्र डिजाइन करने का प्रशिक्षण मिला और वे शिल्पकला का भी काम करते है। ‘‘लोग सोचते हैं - यह शिल्प है, वह कला है। उन्होनेे प्रो. सुब्रमण्यन जैसे बौद्धिक शिक्षक के साथ काम करने के अपने अनुभव से सीखा है जो शिल्प और कला के बीच कोई सख्त रेखा नहीं खींचते हैं। इसके विपरीत वे कहते हैं, ‘‘एक कारीगर होने में क्या बुराई है?‘‘ हमें अपने शिल्प, अपने वस्त्र, अपने सुनार, अपने लोहार, अपनी बढ़ईगीरी, अपनी नक्काशी और विशेष रूप से दक्षिण से कांस्य ढलाई का सम्मान करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, चोल कांस्य को देखें तो हम कारीगर से क्यों नहीं सीख रहे?‘‘हम कैनवस क्यों पेंट करते हैं? क्या व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए? कला वह नहीं है। आपको इसमें शामिल होना होगा और पता लगाना होगा। 

‘‘उनके शिक्षक हमेशा कहते थे, ‘‘अंदर से काम करो। सामग्री की खोज मत करो, जिस सामग्री को आप छूते हैं - वह कला बन जानी चाहिए।‘‘ यह एक मिली हुई वस्तु की तरह है। आप स्वामी हैं जो आपके पास मौजूद ज्ञान का उपयोग करते हैं। 

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चित्र - लक्ष्मा गौड़, माध्यम -एचिंग, श्वेत श्याम

हाँ, शुरुआती दिनों में उन्होने अपनी कला की कई अभिव्यक्तियाँ आजमाईं क्योंकि वे आजीविका बनाए रखने के लिए रोज शिकार करते थे। वे चाहते थे कि उनकेे काम को पहचाना और स्वीकार किया जाए। जब वे व्यावसायिक दीर्घाओं में जाते थे, तो उनके काम को स्वीकार नहीं किया जाता था क्योंकि वे नग्न प्रिंट बनाते थे और नग्नता वर्जित थी। गैलरियाँ ऐसे कार्यों को प्रदर्शित करने में भी झिझक रही थीं।

कामुक विषयों के प्रति उनका अत्यधिक आकर्षण है। उन्हेे आलोचकों की प्रशंसा के साथ-साथ तीखी आलोचना भी मिली लेकिन न तो उन पर और न ही उनकी कला पर कोई प्रभाव पड़ा। उनके कार्यों से कामुकता कम नहीं हुई क्योंकि यह प्रकृति ही है। आप देखते हैं कि अब वे जो कुछ भी बनाते है उसमें यह शायद अधिक सूक्ष्मता से व्यक्त होता है।

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चित्र - लक्ष्मा गौड़, माध्यम –एचिंग

यह अभ्यास और निरंतरता पर निर्भर करता है कि आप प्रिंटमेकिंग की पूरी प्रक्रिया को कैसे आगे बढ़ाते हैं। उन्होने अपनी शिक्षाओं और खोजों को अपने छात्रों तक पहुंचाया, जिनके बारे में मेरा मानना है कि वे इस परंपरा को जीवित रखेंगे। आज की नई पीढ़ी बहुत मेहनती और सफलता की भूखी है। वे पुरानी तकनीकें सीखते हैं और कला में आधुनिक इनपुट के साथ खुद को अपग्रेड भी करते रहते हैं। आज, उनमें ऐसे लाभ जुड़ गए हैं जो उन्हे कलाकार के रूप में कभी नहीं मिले।

हालाँकि लक्ष्मा गौड़ ने कभी भी उचित पूर्वव्यापी दृष्टिकोण नहीं रखा, उनकी रचनाएँ एक कलाकार के रूप में लंबी यात्रा के दौरान आंतरिक बातचीत के बारे में बताती हैं। कभी-कभी वे नए सिरे से देखते है कि उसने शुरुआती दिनों में एक निश्चित तरीके से क्या किया था। विभिन्न तकनीकें नए रूप और लोकाचार खोलती हैं जो परस्पर प्रभाव डालते हैं। ग्रामीण परिदृश्य के प्रति उनके आकर्षण के साथ, एक अंदरूनी सूत्र के रूप में विभिन्न अनुभवों से छवियां आती हैं, जो गांव की गहन स्पष्टता और संवेदनशीलता के साथ जांच करता है। परिचित पोशाक, आभूषण, हाव-भाव और रूखे लेकिन प्रफुल्लित भाव वाले उनके पात्र व्यक्ति नहीं बल्कि देहातीपन के प्रतीक हैं।

इसके बाद वह ग्राफिक कलाकार के रूप में दूरदर्शन हैदराबाद से जुड़ गए। उन्होने वहां उस दौरान काम किया जब कंप्यूटर नहीं थे। एक कलाकार के तौर पर उनकी भूमिका काफी चुनौतीपूर्ण थी। ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने के कारण उनकेे कौशल का उपयोग वहां किया गया जहां  मिट्टी, लकड़ी, कपास, टहनियाँ आदि से कटोरे बनाए। वास्तव में, बच्चे उन विचारों से आश्चर्यचकित थे जो सरल, प्राकृतिक सामग्रियों से निकले थे। उन्हे एक उद्देश्य, अवधारणा के लिए काम करना था और सीमा यह थी कि यह सब काले और सफेद रंग में था। वास्तव में, वे एक श्वेत-श्याम कलाकार थे, जो प्रिंट-मेकिंग के लिए जाने जाते थे।

निष्कर्ष : ये हर कलाकार की सामान्य प्रथाएं हैं, कलाकार चित्र, डूडल, पेंटिंग, स्केच बनाता हैं।  एक कलाकार को कला के बहुत ही ऊर्ध्वाधर क्षेत्र में पूर्णता प्राप्त करने की आवश्यकता होती है तभी वह स्वयं को स्वामी कह सकता है। हमें हर दिन खुद को परखते रहना होगा। उन्होने कला विद्यालय से यही सीखा। पूरी गतिविधि बहुत सुखदायक और संतुष्टिदायक है। उन्हेे महान प्रोफेसर केजी सुब्रमण्यन से बहुत सी चीजें विरासत में मिली। उन्होंने कला पर एक दृष्टिकोण विकसित करने में उनकी मदद की। 

पद्मश्री के. लक्ष्मा गौड़ का दावा है कि कला जन्म से ही उनके जीवन का हिस्सा रही है। उन्हें पूरा यकीन था कि कला एक दिन उनका पेशा बनेगी और वह इस दिशा में काम करने से कभी पीछे नहीं हटे। आज, वह सबसे अधिक मांग वाले कलाकारों में से एक हैं और उन्होंने सफलतापूर्वक अपना नाम कमाया है। उस समय, अकेले कला जीवित रहने के लिए पर्याप्त नहीं थी, स्वाभाविक रूप से गुजारा करना मुश्किल हो रहा था। दूरदर्शन ने निर्देशात्मक कार्यक्रम प्रसारित किए और उन्होनें उनके लिए चित्र बनाए। अपने खाली समय में, वे कलाकृतियाँ बनाने में व्यस्त रहे। धीरे-धीरे, उनकी प्रतिभा को पहचान मिली और उनकी प्रिंट व पेंटिंग्स को प्रदर्शित करने के लिए कई गैलरियां तैयार हो गईं। 50 साल पहले उन्होने कभी नहीं सोचा था कि प्रसिद्धि इतनी ईमानदारी से उनके दरवाजे पर बैठेगी। 

सन्दर्भ :
1. झावेरी, अमृता, ए बी सी डी, 101 आधुनिक और समकालीन भारतीय कलाकारों के लिए एक गाइड,, इंडिया बुक हाउस, 2005 आईएसबीएन 81-7508-423-5
2. अदजानिया, नैन्सी, प्रारंभिक चित्रः एफ.एन. सूजा और के. लक्ष्मा गौड़, द गिल्ड आर्ट गैलरी, 2004
3. तूलिका पब्लिशर्स, बड़ौदा में समकालीन कला, 1997, आईएसबीएन 81-85229-04-एक्स
4.नेविल, तुली, इंडियन कंटेम्परेरी पेंटिंग, हैरी एन. अब्राम्स इनकॉर्पोरेटेड, 1998, आईएसबीएन    0-8109-3472-8
5. गीता डॉक्टर, मैनिफेस्टेशंस प्प्प् दिल्ली आर्ट गैलरी, 2005, आईएसबीएन 81-902104-1-6
6. दिल्ली आर्ट गैलरी www.delhiartgallery.com
7. ‘‘पद्म पुरस्कार 2016‘‘। प्रेस सूचना ब्यूरो, भारत सरकार। 2016. 2 फरवरी 2016 को लिया गया।
8. गुप्ता, नमिता (13 जून 2016)। ‘‘लक्ष्म इन रेट्रोस्पेक्टः कलाकार अपनी कला, कामुकता के चित्रण के बारे में बात करता है‘‘। डेक्कन क्रॉनिकल. 29 दिसंबर 2018 को लिया गया
9. Sheikh, Gulam Mohammed, Erotic art, Andhra Pradesh Lalit Kala Akademy, 1981 
10. http://laxma-goud.com
11. Susan S Bean,The Art of K. Laxma Goud, 2012, ISBN: 978-81-906463-4-5
12. Goud K. Laxma, K. Laxma Goud - Terracotta .Ceramic .Bronze Sculptures Card Book, Pundole Art Gallery,   1 January 2006, ASIN ‏ : ‎ B09TQZYLFQ
13. A Collection of M.F. Husain, Dilip Ranade, K. Laxma Goud and Krishen Khanna Card Book, Pundole Art Gallery – 1 January 2003
14. https://onlineonly.christies.com/s/south-asian-modern-contemporary-art-online/k-laxma-  goud-b-1940-11/213275
15. https://www.saffronart.com/auctions/postcatalog.aspx?eid=4094&s=1&sq=&lr=123-150

महेश सिंह

सह आर्चाय, चित्रकला विभाग, दृश्य कला संकाय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी- 221005

Mahesh.singh1@bhu.ac.in 


दृश्यकला विशेषांक
अतिथि सम्पादक  तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-55, अक्टूबर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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