शोध आलेख : चित्तौड़गढ़ दुर्ग के स्थापत्य परिदृश्य में गणेश प्रतिमाओं का स्थान और संदर्भ / संजय कुमार मोची एवं लक्ष्मण लाल सरगडा

चित्तौड़गढ़ दुर्ग के स्थापत्य में गणेश प्रतिमाओं कलात्मक स्वरुप 

- लक्ष्मण लाल सरगडा एवं संजय कुमार मोची 


शोध सार : चित्तौडगढ़ दुर्ग राजस्थान में स्थित एक महत्वपूर्ण स्थल है जहां स्थापत्य और सांस्कृतिक विरासत का संगम देखने को मिलता है। यह दुर्ग अपने धार्मिक महत्त्व के साथ-साथ संरचनात्मक विविधता के लिए भी प्रसिद्ध है। दुर्ग के भीतर विभिन्न प्रकार के राजसी भवन, मंदिर और महल है जहां निर्मित गणेश प्रतिमाएं अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यहाँ पर विभिन्न देवी-देवताओं को समर्पित कई मंदिर निर्मित है, इन मंदिरों में गणेश, जो विघ्नहर्ता और नवाचार के देवता के स्वरूप में प्रतिष्ठित किए गए हैं। उनकी प्रतिमाएं पूजा स्थल तथा प्रवेश द्वार पर स्थापित की गई है, जिनका यह महत्त्व है की वे नवीन कार्यों की शुरुआत हेतु सुख, समृद्धि और विघ्न रहित यात्रा का संकेत दे रहे हैं। दुर्ग में निर्मित गणेश प्रतिमाएं ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व रखती है, जो यहाँ के इतिहास के साथ जुडी हुई है। तथा चित्तौड़गढ़ के मंदिरों के विभिन्न खंडों में तथा विजय स्तंभ के आंतरिक द्वार पर मूल मूर्तियां सुशोभित हैं, जबकि मंदिर के बाह्य स्वरूपों में, सरोवरों के किनारों पर, साथ ही चबूतरों पर पूजा के लिए रखे गए खंडित अवशेष तथा यहां के संग्रहालय में संरक्षित भगवान गणपति की मूर्तियां इस स्थान पर गणपति पूजा की लोकप्रियता को स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं।


बीज शब्द : गणेश, विनायक, गणपति, विघ्नहर्ता, दुर्ग, स्थापत्य, प्रतिमा, मूर्तिशिल्प, मंदिर, पूजा स्थल, 


मूल आलेख : चित्तौड़गढ़ की मूर्तियों में गणपति के विभिन्न रूपों को दर्शाया गया है। बाईं ओर मुड़ी हुई सूंड वाली गणपति मूर्तियों के पारंपरिक रूप के अलावा, दाईं ओर मुड़ी हुई सूंड वाली मूर्तियों की उल्लेखनीय उपस्थिति है, जो अन्यत्र असामान्य है। चित्तौड़गढ़ में गणपति की मूर्तियों की एक और विशिष्ट विशेषता यह है कि मूर्तियों को बैठे हुए रूपों के अलावा नृत्य मुद्राओं में भी दर्शाया गया है। बैठे हुए गणपति की एकल मूर्तियों के अलावा, गणपति को उनकी पत्नी के साथ भी दर्शाया गया है। इन मूर्तियों में नक्काशीदार गणपति मूर्तियों को निम्न प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है:-


1. बैठी हुई गणपती प्रतिमा –

क) बाईं ओर मुड़ी हुई सूंड –

ख) दाईं ओर मुड़ी हुई सूंड

2. शक्ति गणपती प्रतिमा –

3. नृत्य गणपती प्रतिमा –

अन्य गणेश प्रतिमा –


1. बैठी हुई गणेश प्रतिमा -

भगवान गणेश की एक तरफ मुड़ी हुई सूंड के कारण ही गणेश जी को वक्रतुण्ड कहा जाता है।  भगवान गणेश के वक्रतुंड स्वरूप भी दो प्रकार के हैं। कुछ प्रतिमाओं में गणेशजी की सूंड बाईं ओर घूमी हुई होती है तो कुछ में दाईं ओर। गणपति जी की बाईं सूंड में चंद्रमा का और दाईं में सूर्य का प्रभाव माना गया है।1


क) बाईं ओर मुड़ी हुई सूंड –

गणेशजी की वह प्रतिमा जो सिंहासन पर बैठी हुई तथा सूंड बाईं ओर मुड़ी होती है एसी प्रतिमाएं सुख-शांति व समृद्धि का प्रतीक मानी जाती है। बायीं ओर घूमी हुई सूंड वाले गणेशजी विघ्न विनाशक कहलाते हैं।2 इस परम्परा के अंतर्गत निर्मित द्विभुज प्रतिमा कालिका माता मंदिर जो 8वीं शताब्दी में बना अपने मूल स्वरूपों में एक सूर्य मंदिर था3 इस मंदिर के समक्ष तालाब के समीप स्थित क्षेमंकरी मंदिर या स्मारक मंदिर में खंडित पड़े उटुम्बर में गणपति4 प्रतिमा स्थित है यह क्षेमंकरी मंदिर फतेश्वर महादेव के नाम से भी जाना जाता है। इस मूर्ति में भगवान गणपति सुखासन मुद्रा में बैठे हैं और उनका दाहिना हाथ ज्ञान मुद्रा में है, जबकि उनके बाएँ हाथ में मोदक से भरा बर्तन है। गणपति की एक और दो भुजाओं वाली बैठी हुई मूर्ति कालिका माता मंदिर के दक्षिण में स्थित है। इस मूर्ति में भी सुखासन मुद्रा में बैठे हुए देवता की सूंड बाएं हाथ में पकड़े हुए मोदक के बर्तन को छू रही है, हालाँकि दाहिना हाथ क्षतिग्रस्त होने के कारण स्पष्ट नहीं है।


इसी परम्परा के अंतर्गत निर्मित भगवान गणपति की चतुर्भुज प्राचीन प्रतिमा कालिका माता मंदिर के समक्ष तालाब के समीप स्थित क्षेमंकरी मंदिर स्मारक मंदिर की दक्षिणी वेदी पर उकेरी गयी है। गणपति की इस बैठी हुई मूर्ति में, पैरों की मुद्रा पहले बताई गई मूर्ति से मिलती जुलती है। यहाँ, देवता का दाहिना हाथ क्षतिग्रस्त होने के कारण अस्पष्ट है। अन्य हाथों में क्रमशः कमल का फूल, एक कुल्हाड़ी और मोदक से भरा एक बर्तन पकड़े हुए दिखाया गया है। अतः गोमुख कुण्ड के समीप समाधिश्वर मंदिर के उत्तरी भाग में गुप्त काल का एक मंदिर निर्मित है जिसकी पूर्वी वेदी पर उत्कीर्ण गणेश प्रतिमा का एक पैर पाद पीठ पर तथा दुसरा आसन पर रखा हुआ है। जिसका दाहिना हाथ क्षतिग्रस्त है बाएं हाथ में पाश तथा अधः हाथ में मोदक पात्र लिए हुए है। 


8वीं शताब्दी में निर्मित एक वैष्णव मंदिर जिसका 1505 ई. में महाराणा कुम्भा द्वारा जीर्णोद्धार करवाया गया जिस कारण इस मंदिर को कुम्भ श्याम/कुम्भ स्वामी मंदिर कहा जाता है5 इस मंदिर के गर्भगृह के अन्तरंग भाग पर सुन्दर नक्काशी है। ऊपर के भाग में छोटी सी गणेश की चतुर्भुजी मूर्ति है।6 अतः यह दक्षिणी वेदी पर उत्कीर्ण है जो मोदक पात्र, परशु, पद्म तथा स्वदंत से युक्त है। रामपोल के समीप एक फलक पर उत्कीर्ण है प्रतिमा के दोनों ओर उनकी पत्नी रिद्धी और बुद्धि चामर धारण किए हुए है।


कीर्ति स्तम्भ के भीतर द्वार के ऊपरी भाग में गणपती की चतुर्भुजी प्रतिमाएँ उत्कीर्ण है। जिसके हाथों में मोदक पात्र, परशु, पुष्प तथा स्वदंत है अतः यह प्रतिमा आभिषणों से अलंकृत है। कीर्ति स्तम्भ के दक्षिणी द्वार के ऊपरी भाग में गणेश की चतुर्भुजी प्रतिमा स्थित है जिसके हाथों में त्रिशूल, मोदक पात्र, परशु एवं सर्प है और एक पैर पाद पीठ पर तथा दूसरा पैर आसन पर स्थित है। महालक्ष्मी मंदिर के गर्भगृह के द्वार के ऊपरी भाग पर प्रतिमा स्थापित है जिसका एक हाथ खंडित है तथा अन्य हाथों में पुष्प, मोदक पात्र और परशु है। मुनी जी का मंदिर तथा चंद्रेश्वर मंदिर के गर्भगृह के द्वार के ऊपरी भाग में तथा चित्तौडगढ़ के राजकीय संग्रहालय में इसी प्रकार की प्रतिमाएं प्राप्त होती है। दुर्ग पर मीरा मंदिर के उत्तरी दिशा में रिद्वी सिद्वी विनायक प्रतिमा लगी है. जिसमें गणेश मूर्ति की सूंड बाईं ओर है7


ख) दाईं ओर मुड़ी हुई सूंड –

गणेश की सूंड का दाईं ओर मुडा हुआ होना, जिसे दक्षिणामुखी के रूप में जाना जाता है, एसी प्रतिमाएं कभी-कभी ही देखी जाती है। इसे काफी दुर्लभ माना जाता है और सांस्कृतिक और क्षेत्रीय मान्यताओं के आधार पर इसकी अलग-अलग व्याख्याएँ होती हैं। कुछ व्याख्याओं में दाईं ओर मुड़ी हुई सूंड वाली गणेश मूर्ति को अपने भक्तों को आशीर्वाद देने और वरदान देने वाला माना जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हिंदू परंपरा में दाईं ओर को अक्सर शुभता और आशीर्वाद से जोड़ा जाता है। कुछ लोग इसे अपरंपरागत या गणेश के बहुमुखी व्यक्तित्व या दैवीय गुणों के किसी विशेष पहलू का प्रतिनिधित्व करने वाला मानते हैं। 


इस प्रकार की विशेषता युक्त प्रतिमा अन्नपूर्णा मंदिर के दक्षिणी जंघा के भद्र राधिका में आसन मूर्ति उत्कीर्ण है। इस प्रतिमा के हाथ खंडित होने के कारणवश हाथों की स्थिति स्पष्ट नहीं है। दोनों दाहिने हाथ क्षतिग्रस्त हो चुके है। परन्तु दाहिने अधः हाथ में स्वदंत होने का आभास होता है। अतः बाएँ हाथों में पद्म और मोदक पात्र है जिसे इनके समीप नीचे बैठी पहली पत्नी द्वारा आधार दिए हुए है तथा गणेश की दाईं ओर उठी सूंड को दूसरी पत्नी द्वारा स्पर्श करते हुए उत्कीर्ण किया गया है। इसी प्रकार की एक अन्य प्रतिमा अद्भुत नाथ मंदिर के गर्भगृह के द्वार के ऊपरी भाग में निर्मित है। जिसका एक पैर पाद पीठ पर तथा दूसरा आसन पर रखा हुआ है एक हाथ क्षतिग्रस्त है अन्य हाथों में मोदक पात्र, पुष्प तथा त्रिशूल है। तथा एक अन्य प्रतिमा रत्नेश्वर मंदिर के गर्भगृह में स्थित है। जो अत्यधिक क्षतिग्रस्त अवस्था में है। रत्नेश्वरकुण्ड स्थित सप्तमातृका के फलक में इसी प्रकार की एक मुकुट धारण किए हुए गणेश प्रतिमा (चित्र सं. 1) प्राप्त होती है जिसके दोनों हाथ क्षतिग्रस्त हो चुके हैं।


2. शक्ति-गणेश प्रतिमा –

यहाँ गणपति का शक्ति पहलू देवी की ऊर्जा और शक्ति पर जोर देता है, जो गणपति के पारंपरिक गुणों को अधिक गतिशील और शक्तिशाली रूप में व्यक्त करता है। ऐतिहासिक वास्तुकला और धार्मिक महत्व का संयोजन शक्ति गणपति प्रतिमा को चित्तौड़गढ़ किले की विरासत का एक महत्वपूर्ण पहलू बनाता है। चित्तौड दुर्ग पर इस प्रकार कि चार प्रतिमाएं प्राप्त होती है। जो अपनी शक्तियों अर्थात पत्नियों के साथ आलिंगन मुद्रा में अंकित है। तथा यह समस्त प्रतिमाएं मंदिर के बाह्य भाग में अंकित है।


कालिका माता मंदिर के मण्डप के उत्तरी सम्मुख कर्ण के बाहरी भाग में स्थित है। यह प्रतिमा सुखासन मुद्रा में विराजित है तथा यह एक चतुर्भुज प्रतिमा (चित्र सं. 2) है जिसकी वर्तुलाकार सूंड दाईं ओर मुड़ी हुई है जिसे इनकी प्रथम पत्नी अपने हाथों से स्पर्श कर रही है। प्रतिमा के दोनों दायें हाथ क्रमशः स्वदन्त एवं परशु की अस्पष्ट आकृति से युक्त है। बायाँ उर्ध्व हाथ द्वितीय पत्नी के कमर के पीछे स्थित है तथा अधः बायाँ हाथ मोदक से युक्त निर्मित किया गया है। इस प्रतिमा को विभिन्न आभूषणों से अलंकृत किया गया है। कुम्भ श्याम मंदिर के दक्षिणी प्राकार स्थित रथिका में स्थित शक्ति गणेश की प्रतिमा (चित्र सं. 3) उत्तरमुखी है  इस प्रतिमा के कमर से नीचे का भाग क्षतिग्रस्त हो चुका है। 


समाधिश्वर मंदिर के बाहर रथिका में निर्मित शक्ति गणपति प्रतिमा ललितासन में बैठी है, इसके दोनों दाहिने हाथ नष्ट हो चुके है। यहाँ भी गणपति की क्षतिग्रस्त सूंड दाईं ओर मुड़ी हुई है। तथा इनके दोनों ओर इनकी पत्नियाँ उत्कीर्ण है। दाईं ओर इनकी पत्नि के द्वारा गणपति के उर्ध्व हाथ की कोहनी को स्पर्श करते हुए अंकित किया गया है। बाईं ओर इनकी पत्नी का एक हाथ परिचारक द्वारा उठाये हुए मोदक पात्र को एक हाथ से पकड़े हुए तथा दूसरे से गणपति के मुख में मोदक खिलाते हुए प्रदर्शित है। तथा एक बायाँ हाथ इनकी गोद में बैठी इनकी पत्नी के गुटनों पर रखा हुआ है। शक्ति गणेश की यह प्रतिमा अपेक्षाकृत अधिक सुगठित है। शक्ति गणपति की एक और प्रतिमा रत्नेश्वर कुण्ड के पश्चिमी में स्थित रथिका में उत्कीर्ण है। यहाँ पर गणेश की बायीं गोद में बैठी उनकी पत्नी का चित्रण पूर्व वर्णित प्रतिमाओं के समान है, किन्तु दायीं ओर खड़ी हुई उनकी अन्य पत्नी का अंकन नहीं किया गया है। यहाँ भी गणेश की सूंड दायीं ओर मुड़ी हुई प्रदर्शित की गयी है।


3. नृत्य गणेश प्रतिमा –

नृत्य करने वाली गणपति की मूर्ति भगवान गणेश का जीवंत और गतिशील प्रतिनिधित्व कराती है, मूर्ति में गणपति को ऊर्जावान नृत्य मुद्रा में दर्शाया जाता है, जिसमें एक पैर उठा हुआ और दूसरा जमीन पर टिका हुआ होता है। नृत्य गणपति को गणपति के 32 विभिन्न रूपों में से 15वां स्वरुप माना जाता है।8 इनकी कई भुजाओं को मोदक, कुल्हाड़ी, कमल और रस्सी जैसी विभिन्न प्रतीकात्मक वस्तुओं को पकड़े हुए दिखाया जाता है, जो गतिशील एहसास को बढ़ाता है। पारंपरिक आभूषण और अलंकरण सहित उनकी पोशाक पर जटिल विवरण लालित्य को दर्शाया गया होता है। सूंड में एक चंचलता होती है, जो नृत्य में योगदान देती हुई प्रदर्शित होती है। तथा कमल के फूल, लय और गति को दर्शाने वाले स्वरुप जैसे तत्वों को जोड़ने से समग्र प्रसंग में वृद्धि होती है। चित्तौडगढ़ में तीन नृत्य गणपती प्रतिमाओं का उल्लेख प्राप्त होता है।


चित्तौड़गढ़ दुर्ग के राजकीय संग्रहालय में नृत्य गणपति की एक प्रतिमा संरक्षित है। यहाँ पर गणपति की द्विभुजी त्रिभङ्ग प्रतिमा नृत्य मुद्रा में प्रदर्शित है। इस प्रतिमा में देवता की सूंड परम्परागत ढंग से बायीं ओर वार्तुलाकार प्रदर्शित है। जिनके मस्तक पर स्थित छोटा मुकुट तथा विभिन्न आभूषणों से विभूषित इस प्रतिमा में गणेश का दायाँ हाथ सीधे नीचे लटका हुआ तथा बायाँ घुटनों पर स्थित है जो नृत्य मुद्रा संचालन में सहायक प्रतीत हो रहा है।


समाधिश्वर मंदिर के पूर्व दिशा में स्थित जौहर द्वार की रथिका पर नृत्य गणपति की प्रतिमा (चित्र सं. 4) उत्कीर्ण हैं। मुख, सूंड तथा दोनों अधः हाथ क्षतिग्रस्त हो चुके है। इस प्रतिमा में गणपति मस्तक पर करण्ड- मुकुट धारण किये हुए तथा विविध आभूषणों से पूर्णतः अलंकृत हैं। त्रिभङ्ग नृत्य मुद्रा में लीन चतुर्भुजी गणपति के तथा उर्ध्व हाथों में सर्प को ऊपर उठाये हुए प्रदर्शित हैं। इस चित्रण में गणेश के दोनों पावों में लघु स्त्री आकृतियाँ भी नृत्य में संलग्न निर्मित हैं।


नृत्य गणपति की अन्य प्रतिमा कुकड़ेश्वर महादेव मंदिर में स्थापित बाल गोपाल गणेशजी की इस प्रतिमा की खास बात यह है कि महादेव जी के मंदिर में बाल गणेश हर समय नृत्य की मुद्रा में रहते हैं9 यह प्रतिमा गर्भगृह की बाहरी दीवार पर स्थित रथिका में नृत्य स्वरुप की अष्टभुजी प्रतिमा है। 11वीं शताब्दी में स्थापित किए गए इस मंदिर के बारे में बताया जाता है कि यह नृत्य मुद्रा वाली गणेश जी प्रतिमा तब पहली और अपने आप में इकलौती थी।10 इस प्रतिमा में गणपति को करण्ड मुकुट, बाजूबन्द, कंकण, कटि मेखला एवं कर्धनी आदि विविध आभूषणों से सुशोभित किया गया है। यहाँ पर देवता के वक्षस्थल पर हार के स्थान पर सर्प निर्मित है। दायें अधः हाथ में स्वदन्त, द्वितीय भग्न, तथा अन्य हाथ में सर्प के अवशेष हैं, जिसे गणेश अपने बायें उर्ध्व से पकड़ रहे हैं। इसके अतिरिक्त अन्य बायें हाथ में मोदक पात्र तथा अधः हाथ जंगा पर लटका हुआ परशु हाथ में लिए हुए है तथा एक हाथ गज हस्त मुद्रा में है। इस चित्रण में गणपति के दायीं ओर एक स्त्री घटम बजाती हुई एवं बायीं ओर देवता का वाहन मूषक बैठा हुआ प्रदर्शित है। गणपति की इस प्रतिमा में देवता की सूंड परम्परागत ढंग से बायीं ओर मुड़ी है। यह मूर्ति पहले मंदिर के अंदर शिवलिंग के साथ ही स्थपित हुआ करती थी लेकिन इसे बाद में मंदिर के सभामंडल में नंदी के पास में स्थापित किया गया।11


4. अन्य गणेश प्रतिमा –

दुर्ग पर तुलजा भवानी मंदिर के पास राजपुरोहित गणेश मंदिर है मृगवन के अलावा सूरजपोल गेट के पास भी गणेश प्रतिमा लगी है सतबीस देवरी जैन मंदिर के सामने ही एक गणेश प्रतिमा स्थाापित है जिसे बरखा गणेश कहा जाता है नीलकंठ महादेव मंदिर सहित अन्य जगहों पर भी प्राचीन गणेश प्रतिमाएं लगी है राजकीय फतहप्रकाश महल संग्रहालय में मुख्य एंट्री गेट हाल का नामकरण भगवान गणेश को ही समर्पित है इस हाल में कांच के घर में चित्तौड़ किले का व्यू प्रदर्शित है, इसके सामने ही एक दीवार में गणेश की छह फीट लंबी आदमकद गणेश प्रतिमा है, जो उत्तरी मुखी है12 कुंभा महल में भी लक्ष्मी गणेश प्रतिमा है13 कुम्भ श्याम मंदिर के दक्षिणी भाग में गणेश की द्विभुजी प्रतिमा उत्कीर्ण है। रामपोल के समीप गणेश की चतुर्भुजी प्रतिमा उत्कीर्ण है तथा गणेश पोल के पास भगवान गणेश का प्राचीन छोटा मंदिर स्थित है14 कीर्ति स्तम्भ के छटे तल में नीचे की तरफ द्विभुजी गणेश प्रतिमा स्थित है।15 रत्नेश्वर कुण्ड के समीप एक द्विभुजी प्रतिमा स्थापित है।


5. कलात्मक स्वरुप और प्रतिक

गणेश के लम्बोदर को देख के ऐसा प्रतीत जान पड़ता है मानो समस्त सृष्टि इनके उदर में ही विचरण करती है अतः यह आध्यात्मिक ज्ञान और संतोष का प्रतीक है जो यह दर्शाता है कि भौतिक समृद्धि के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास भी आवश्यक है। इनके कान यह दिखाता है कि हमें अपनी संवेदनाओं और भावनाओं के प्रति संवेदनशील रहना चाहिए है, ताकि हम अपने और दूसरों के अनुभवों को समझ सकें। गणेश जी की बड़ी और चमकदार आंखें ज्ञान और जागरूकता को दर्शाती हैं आंखों का आकर्षण कलात्मकता को बढ़ाता है। गणेश की सूंड ज्ञान और बुद्धिमत्ता का प्रतीक मानी जाती है। सूंड का आकार यह दर्शाता है कि सभी प्रकार के जीवन और संसाधनों को समाहित कर उदारता और समर्पण का भाव व्यक्त होता दिखाई देता है। गणेश जी की सूंड आध्यात्मिक और भौतिक जीवन के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रतीक है। यह बताती है कि हमें भौतिक इच्छाओं और आध्यात्मिक ज्ञान के बीच सामंजस्य बनाए रखना चाहिए। गणेश जी के दांत, विशेष रूप से उनका एक दांत, कलात्मक दृष्टिकोण से कई महत्वपूर्ण प्रतीकों और अर्थों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका दांत दृढ़ता और संकल्प का प्रतीक है तथा यह सकारात्मकता और खुशी के भावों को दर्शाता है। इनका वाहन मुसक है जो अज्ञानता को दूर कर ज्ञान को प्रत्यक्ष करने के भाव को दर्शाता है।

गणेश का ऊपर उठा हुआ हाथ रक्षा के भाव को तथा नीचे झुका हुआ हाथ दान देने और झुकने के भाव को व्यक्त करता है। अतः इनकी चारो भुजाएँ चारों दिशाओं का प्रतिक है। गणेश की हस्त मुद्राएँ केवल शारीरिक मुद्रा नहीं, बल्कि गहरे तात्त्विक और सांस्कृतिक संदेशों को दर्शाती हैं। हर मुद्रा उनके एक विशेष गुण या शक्ति को व्यक्त करती है। कला के दृष्टिकोण से, इन मुद्राओं का विवेचन केवल शारीरिक प्रस्तुति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह दर्शाता है कि कैसे कला, धर्म, और जीवन के गहरे अर्थ आपस में जुड़ते हैं। गणेश की हस्त मुद्राएँ उन्हें न केवल भगवान के रूप में, बल्कि एक प्रेरणा स्रोत के रूप में स्थापित करती हैं। उनकी विभिन्न मुद्राएँ (हस्तमुद्राएँ) उनके आंतरिक गुणों, शक्तियों और भक्तों के प्रति उनके संदेश को व्यक्त करती हैं।


1. वरमुद्रा /अभय मुद्रा

वरमुद्रा का अर्थ होता है "आशीर्वाद की मुद्रा"। इसमें भगवान गणेश अपनी दाहिनी हाथ की तर्जनी और अंगूठे को मिलाकर ऊपर की ओर रखते हैं, जबकि बाकी उंगलियाँ फैल होती हैं। इस मुद्रा का अर्थ होता है "भय से मुक्त होना", जिससे भगवान गणेश अपने भक्तों को सुरक्षा और आशीर्वाद प्रदान करते हैं। यह मुद्रा भक्तों को मानसिक शांति और आत्मविश्वास का संदेश देती है।


कलात्मक दृष्टिकोण: वरमुद्रा में उच्चारणा और संवेदनशीलता का संकेत होता है। यह मुद्रा शांति और सुरक्षा का प्रतीक है, जो कला के माध्यम से निखर कर उभरती है। यहां भगवान गणेश का एक शांति भरा चेहरा और आत्मविश्वास से भरे शारीरिक आभास को दर्शाया जाता है।


2. दक्षिणामूर्ति मुद्रा /ज्ञान मुद्रा

इस मुद्रा में भगवान गणेश अपनी दाहिनी हथेली को खुला रखते हैं और बाएँ हाथ की तर्जनी उंगली को अंगूठे के साथ मिलाते हैं। यह ज्ञान और विवेक की प्रतीक मानी जाती है। गणेश के इस मुद्रा के माध्यम से यह संदेश दिया जाता है कि ज्ञान और सच्ची समझ से ही जीवन के समस्त विघ्नों का निवारण संभव है।


कलात्मक दृष्टिकोण: इस मुद्रा के माध्यम से गणेश की आकृति में गंभीरता और ध्यान की स्थिति स्पष्ट होती है। यह न केवल उनकी उपस्थिति में सजीवता लाती है, बल्कि भक्तों को ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रेरित भी करती है।


3. लोभ-निवृत्ति मुद्रा /मोदक मुद्रा

इस मुद्रा में भगवान गणेश अपने एक हाथ में मोदक (मिठाई) पकड़े होते हैं, जो उनका प्रिय आहार है। यह मुद्रा समृद्धि, संतोष और भोग के सुख का प्रतीक मानी जाती है। मोदक को सुख, ऐश्वर्य और तृप्ति का प्रतीक माना जाता है। इस मुद्रा का अर्थ है कि भगवान गणेश अपने भक्तों को संतुष्टि और समृद्धि प्रदान करते हैं।


कलात्मक दृष्टिकोण: इस मुद्रा में भगवान गणेश का आहार से जुड़ा संबंध दर्शाने के साथ-साथ कला में यह उन्हें एक आनंदमग्न और संतुष्ट रूप में प्रस्तुत करती है। मोदक का पकड़ा जाना और भगवान गणेश का मधुर रूप इस मुद्रा को विशेष बनाता है।


4. ऋद्धि-सिद्धि मुद्रा

गणेश के हाथ में ऋद्धि और सिद्धि का प्रतीक होते हैं – यह उनके पास कार्य सिद्धि और आंतरिक शक्तियों के प्रतीक होते हैं। भगवान गणेश अपनी एक हाथ में ऋद्धि और दूसरे हाथ में सिद्धि का प्रतीक रखते हैं। यह मुद्रा शुभ कार्यों की सफलता और मानसिक शांति की ओर संकेत करती है।


कलात्मक दृष्टिकोण: यह मुद्रा आंतरिक शांति और तात्त्विक सफलता का प्रतीक है। भगवान गणेश का रूप इस मुद्रा में शक्ति और प्रचंडता के बजाय गहन संतुलन और शांतिपूर्ण आंतरिक सम्पत्ति का संकेत करता है।


5. दंशन मुद्रा

इस मुद्रा में गणेश अपने हाथ में एक दंशन (दांत) को पकड़े रहते हैं। यह उनकी प्रकृति के बल और दृढ़ता को दर्शाता है। यह मुद्रा संकल्प, उद्देश्य और कार्य के प्रति समर्पण का प्रतीक मानी जाती है।


कलात्मक दृष्टिकोण: यह मुद्रा गणेश के साहस और इच्छाशक्ति का प्रतीक होती है। इसे कला में शक्ति और कार्य के प्रति अडिग विश्वास को व्यक्त करने के रूप में चित्रित किया जाता है। गणेश का दृढ़ चेहरा और शांत आत्मविश्वास इसका केंद्रीय तत्व होते हैं।


6. पद्मासन मुद्रा

गणेश पद्मासन मुद्रा में ध्यान की अवस्था में होते हैं, जिससे वे ध्यान, समर्पण और साधना के प्रतीक होते हैं। यह मुद्रा शांति, एकाग्रता और संतुलन का प्रतीक मानी जाती है।


कलात्मक दृष्टिकोण: इस मुद्रा में भगवान गणेश की शांति और ध्यान की अवस्था के चित्रण से व्यक्ति के मानसिक शांति की ओर संकेत मिलता है। कला में यह मुद्रा आंतरिक शांति और आत्म साक्षात्कार का प्रतीक होती है।


7. अश्रुत मुद्राएँ

कभी-कभी गणेश की मूर्तियों में हम उन्हें किसी अन्य चीज़ को पकड़े हुए भी देख सकते हैं, जैसे पुस्तक, पंखुड़ी या फूल। इन मुद्राओं के माध्यम से उनकी विविधता, कला और सांस्कृतिक मान्यताओं का संप्रेषण किया जाता है।


कलात्मक दृष्टिकोण: गणेश की विविध मुद्राएँ उनके तत्वों, शक्तियों, और गुणों को प्रदर्शित करती हैं। इन मुद्राओं के माध्यम से कलाकार उनकी महानता, सौम्यता और वाणी की शक्ति को प्रस्तुत करते हैं, जो उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है।


गणेश की पाद मुद्रा का कलात्मक विवेचन केवल शारीरिक मुद्रा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उनके आंतरिक गुणों, शक्तियों, और भक्तों के प्रति उनके संदेशों को व्यक्त करता है। कला में गणेश की पाद मुद्रा का चित्रण न केवल शांति, समृद्धि, और ध्यान का प्रतीक है, बल्कि यह आध्यात्मिक उन्नति, विनम्रता और जीवन के सही संतुलन का भी आदर्श प्रस्तुत करता है। गणेश की पाद मुद्रा आंतरिक संतुलन और बाह्य समृद्धि का अद्भुत संगम है, जो कला के माध्यम से जीवंत और प्रेरणादायक बनाता है।


1. संतुलन और स्थिरता का प्रतीक

गणेश के पाँव जब एक स्थिर और संतुलित स्थिति में होते हैं, तो यह उनके स्थिरता, आंतरिक शांति और संतुलन को दर्शाता है। पाद मुद्रा में उनके चरणों का सही और संतुलित होना यह संदेश देता है कि जीवन में स्थिरता बनाए रखना आवश्यक है। इस मुद्रा के माध्यम से कला में यह दिखाया जाता है कि किसी भी संकट का सामना करने के लिए आंतरिक संतुलन और शांति आवश्यक होती है।


कलात्मक दृष्टिकोण: गणेश की पाद मुद्रा को कला में शांतिपूर्ण और गरिमामयी रूप में चित्रित किया जाता है, जहां उनके पाँव स्थिर और दृढ़ होते हैं। यह स्थिति सामान्यतः आराम, समर्पण और ध्यान की अवस्था में होती है। कला में इस मुद्रा के माध्यम से भगवान गणेश का आंतरिक संयम और उनका समग्र संतुलन व्यक्त होता है।


2. आध्यात्मिक उन्नति और साधना

पाद मुद्रा को ध्यान और साधना के दौरान एक संकेत के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसे एक प्रकार की ध्यान मुद्रा के रूप में देखा जा सकता है, जहां भगवान गणेश की पाँवों की स्थिति उनके आंतरिक ज्ञान और साधना की ओर इशारा करती है। यह पाद मुद्रा साधक को आंतरिक एकाग्रता, ध्यान और अध्यात्मिक उन्नति की ओर प्रेरित करती है।


कलात्मक दृष्टिकोण: कलाकार गणेश की पाद मुद्रा को अक्सर ध्यानमग्न अवस्था में प्रस्तुत करते हैं, जहाँ उनके पाँवों की स्थिति से उनके ध्यान की गहरी अवस्था का बोध होता है। यह मुद्रा कला में विशेष रूप से शांति, स्थिरता, और ध्यान की महत्ता को उजागर करती है। गणेश के पाँवों की गहरी और सटीक स्थिति जीवन में आत्मसाक्षात्कार की दिशा में कदम बढ़ाने का प्रतीक होती है।


3. विघ्नों का निवारण और समृद्धि

गणेश के पाँवों को अभिवादन करना और उनकी पाद मुद्रा में स्थित होना विघ्नों का निवारण और समृद्धि के संकेत के रूप में भी देखा जाता है। गणेश के पाँवों के नीचे, विशेष रूप से उनकी मूर्तियों में अक्सर लड्डू, मोदक या अन्य आभूषण रखे होते हैं, जो उनकी समृद्धि और खुशी का प्रतीक होते हैं। पाद मुद्रा का यह चित्रण यह दर्शाता है कि भगवान गणेश अपने भक्तों को आशीर्वाद देने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं।


कलात्मक दृष्टिकोण: गणेश के पाँवों के चारों ओर कला में विभिन्न प्रतीकों का समावेश किया जाता है, जैसे मोदक, फूल या आभूषण, जो उनके आशीर्वाद और समृद्धि को दर्शाते हैं। कला में पाद मुद्रा के माध्यम से समृद्धि और सुख के संदेश को ध्यान में रखते हुए कलाकार विभिन्न रंगों और रूपों का प्रयोग करते हैं, जिससे यह मुद्रा और भी आकर्षक बनती है।


4. प्राकृतिक और शारीरिक योग्यता

गणेश की पाद मुद्रा में उनके पाँवों की शारीरिक स्थिति उनकी असाधारण शक्ति और क्षमता का भी प्रतीक होती है। पाँवों के माध्यम से भगवान गणेश की प्रकृति, शक्ति, और शारीरिक स्थिति का प्रदर्शन होता है। यह उनके शारीरिक रूप के अद्वितीय गुणों को दर्शाता है, जिसमें उनके स्थिर और शक्तिशाली पाँव जीवन की कठिनाइयों का सामना करने के लिए तैयार रहते हैं।


कलात्मक दृष्टिकोण: गणेश के पाँवों को कला में इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है कि उनके शारीरिक शक्ति का एहसास होता है। उनके पाँवों की मुद्रा न केवल शांति और ध्यान का प्रतीक होती है, बल्कि शक्ति, दृढ़ता और मानसिक साहस की भी प्रस्तुति होती है।


5. आध्यात्मिक समर्पण और विनम्रता

गणेश की पाद मुद्रा उनके विनम्रता और समर्पण के प्रतीक के रूप में भी देखी जाती है। यह मुद्रा भगवान गणेश के चरणों में समर्पण का संकेत देती है, जो भगवान के प्रति श्रद्धा और निष्ठा का आदान-प्रदान करती है। भक्त भगवान गणेश के चरणों में सिर झुकाकर उनकी पाद मुद्रा का सम्मान करते हैं, जिससे यह भी प्रतीत होता है कि आंतरिक विनम्रता और भक्ति के द्वारा ही जीवन में सफलता प्राप्त होती है।


कलात्मक दृष्टिकोण: कला में यह पाद मुद्रा बहुत ही सौम्यता और शांति के साथ चित्रित की जाती है। यहाँ भगवान गणेश के चरणों को केंद्र में रखते हुए विनम्रता और भक्ति के भाव को बहुत सूक्ष्मता से व्यक्त किया जाता है। उनके पाँवों को उच्च और नीचे की स्थिति में प्रस्तुत किया जाता है, जो भक्तों के लिए एक आदर्श स्थिति का निर्माण करती है।


निष्कर्ष : इस अध्ययन के माध्यम से, यह स्पष्ट है कि चित्तौड़गढ़ दुर्ग में गणेश की मूर्तियाँ केवल सजावटी तत्व नहीं हैं, बल्कि महत्वपूर्ण सांस्कृतिक, धार्मिक और स्थापत्य महत्व रखती हैं। किले के प्रवेश द्वारों और कोनों पर इन मूर्तियों की रणनीतिक नियुक्ति किले और उसके निवासियों के संरक्षक और रक्षक के रूप में उनकी भूमिका को प्रकट करती है। गणेश के विभिन्न रूप और चित्रण, जैसे कि नृत्य करने वाले गणेश और योद्धा गणेश, देवता के विविध पहलुओं और मेवाड़ के धार्मिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में उनके महत्व को उजागर करते हैं। वास्तुशिल्प में मूर्तियों के संदर्भ और नियुक्ति को समझने के महत्व को भी रेखांकित करता है, क्योंकि यह इन स्थानों को बनाने और उनमें रहने वाले लोगों की मान्यताओं, मूल्यों और प्रथाओं में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। चित्तौड़गढ़ की सांस्कृतिक विरासत और क्षेत्र के इतिहास और पहचान में गणेश के महत्व को गहराई से समझने में योगदान देते हैं।


इसके अलावा, यह अध्ययन भविष्य की पीढ़ियों के लिए इन मूल्यवान मूर्तियों और किले की स्थापत्य विरासत की रक्षा के लिए संरक्षण और संरक्षण प्रयासों की आवश्यकता पर जोर देता है। चित्तौड़गढ़ के स्थापत्य परिदृश्य में गणेश की मूर्तियों के महत्व को उजागर करके, इस शोध का उद्देश्य भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की अधिक सराहना और समझ को बढ़ावा देना है।


सन्दर्भ :
  1. https://www.amarujala.com/spirituality/religion/lord-ganesha-idol-for-home-and-temple
  2. https://www.amarujala.com/spirituality/religion/lord-ganesha-idol-for-home-and-temple
  3. मीनाक्षी कासलीवाल ‘भारती’, भारतीय मूर्तिशिल्प एवं स्थापत्य कला, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 2022, पृष्ठ-270
  4. शिल्पी गुप्ता, मेनाल एवं बिजोलियाँ के मंदिर, नवजीवन पब्लिकेशन निवाई, टोंक, 2011, पृष्ठ-100
  5. मीनाक्षी कासलीवाल ‘भारती’, भारतीय मूर्तिशिल्प एवं स्थापत्य कला, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 2022, पृष्ठ-271
  6. रामवल्लभ सोमानी, वीरभूमि चित्तौड, मातेश्वरी प्रकाशन गंगापुर, भीलवाड़ा, 1969, पृष्ठ-181
  7. https://zeenews.india.com/hindi/india/rajasthan/udaipur/udaipur-news-there-are-more-than-50-idols-of-ganesh-ji-in-chittorgarh-everyone-has-a-different-story/983270
  8. https://www.astroved.com/astropedia/en/gods/nritya-ganapathi
  9. https://www.bhaskar.com/local/rajasthan/bhilwara/chittorgarh/news/kukdeshwar-mahadev-temple-is-the-only-idol-of-ganesh-ji-the-oldest-dance-this-form-is-believed-to-be-of-bal-ganesh-this-temple-is-the-center-of-attraction-for-everyone-128909279.html
  10. वही
  11. वही
  12. https://zeenews.india.com/hindi/india/rajasthan/udaipur/udaipur-news-there-are-more-than-50-idols-of-ganesh-ji-in-chittorgarh-everyone-has-a-different-story/983270
  13. श्री कृष्ण जुगनू, चित्तौडगढ़ का इतिहास, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 2022, पृष्ठ-172
  14. https://zeenews.india.com/hindi/india/rajasthan/udaipur/udaipur-news-there-are-more-than-50-idols-of-ganesh-ji-in-chittorgarh-everyone-has-a-different-story/983270
  15. रामवल्लभ सोमानी, वीरभूमि चित्तौड, मातेश्वरी प्रकाशन गंगापुर, भीलवाड़ा, 1969, पृष्ठ-190

संजय कुमार मोची

शोधार्थी, दृश्यकला विभाग, गोविन्द गुरु जनजातीय विश्वविद्यालय, बाँसवाड़ा

sanjuart143@gmail.com, 8441820060


लक्ष्मण लाल सरगडा

शोध निर्देशक, सह आचार्य, चित्रकला, श्री गोविन्द गुरु राजकीय, महाविद्यालय, बाँसवाड़ा

laxmanart81@gmail.com 9468698382


दृश्यकला विशेषांक
अतिथि सम्पादक  तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-55, अक्टूबर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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