शोध आलेख : कला में सामग्रियों का नव विनियोग / रमाकांत

कला में सामग्रियों का नव विनियोग
- रमाकांत

शोध सार : उपर्युक्त विषय के अध्ययन में हम कलाकृतियों के निर्माण में सामग्रियों के नवीनतम उपयोग और उसके उद्देश्यों को जानने का प्रयास करेंगे। भारतीय कलाकारों की कलाकृतियों का विवेचन करना हमारा प्रथम लक्ष्य होगा। वैश्विक स्तर पर इन कलाकारों ने भारतीय कलात्मकता के उन्नयन के लिए कैसी स्थिति प्रदान करने का प्रयास किया है, इस बात का चिंतन अति आवश्यक है। हमारे आसपास बिखरे अपशिष्ट सामग्रियाँ भी कैसे कलाकारों की कल्पना से एक विशिष्ट कलाकृतियों में परिवर्तित हो जाती है इस संदर्भ में चर्चा करेंगे। सामग्रियों के चक्रीकरण को इन कलाकृतियों में शामिल कर स्थायित्व प्रदान करने का प्रयास किया जा रहा है। इन कलाकृतियों का आंकलन सौन्दर्य की दृष्टि से किस प्रकार किया जा रहा है, इस दृष्टिकोण से भी देखना अपेक्षित होगा। इस प्रकार की कलाकृतियों के निर्माण का एक व्यापक सरोकार क्यों है और इसके ऐतिहासिक संदर्भों पर कलाविदों के विचार साझा करना इस शोधलेख का उद्देश्य है। 

बीज शब्द : कल्पना, बिंब, अनुकरण, विनियोग, सामग्री, निरूपण, आरेखण, संवेदना, तर्कशील संस्थापन-कला।

मूल आलेख : कला के माध्यम के रूप में रंग, तूलिका, कागज, कैनवास, पत्थर, लकड़ी, मिट्टी, धातु और अन्य पारंपरिक सामग्रियों की जगह कुछ बनी-बनाई वस्तुओं का भी प्रयोग 20वीं शताब्दी के शुरुआती दौर में किया जाने लगा था। दादावाद का यह प्रयोग कला के क्षेत्र में एक अविश्वसनीय घटना के लिए प्रचलित हुआ। आज के समय में यह प्रक्रिया प्रचलित है की हर-एक वस्तु का प्रदर्शन कलाकृतियों के रूप में किया जा सकता है। कलाकार किसी भी वस्तु को अपने अनुभव अपने ज्ञान (ज्ञान वहीं जो हमें अपने इंद्रियों के सहारे प्राप्त सूचना से बनता है) के अनुरूप विवेचित करता है, उसे कलाकार की कल्पना कहते हैं। कल्पना तो यथार्थ की अनुभूतियों के आधार पर ही बनती हैं। खैर... हम यहाँ कुछ कलाकारों के उन कलाकृतियों की विवेचना करने का प्रयास कर रहे हैं जिन कलाकृतियों में वस्तु अपना मूल धर्म छोड़ कर किसी और कारण से प्रदर्शित किए गए हैं। एक सामान्य चर्चा कला कल्पना की करेंगे अपितु जिन कलाकृतियों को हम यहाँ देखेंगे वह कला और कल्पना का मूर्त रूप है। कल्पना के बिना कला की संभावना नहीं उपजती है। 

जब मनुष्य अपने अनुभव अपनी कल्पना को मूर्त रूप देता है तो वह कला की संज्ञा धारण करने के योग्य हो जाती है। टॉमस हॉब्स कहते हैं “कल्पना संवेदन का मूल होता है।”(1) इमैजिनेशन एक लैटिन शब्द है जो इमेज से संबंधित है। कल्पना मानव-मस्तिष्क की बिंब-विधायिनी शक्ति है। अनुभव से प्राप्त बिंब को संचित करना मानव-मस्तिष्क का प्राथमिक कार्य है जिसके आधार पर हमारी कल्पना जन्म लेती है। 

लोंगिनुस ने कहा है कि बिंब और कल्पना के लिए ग्रीक शब्द ‘फेंटेसिया’ उपयुक्त है।(2) जिसका उपयोग काव्य और दृश्य कलाओं के लिए किया जाता है। 

अरस्तू ने अनुकरण शब्द का प्रयोग कला के संदर्भ में किया है(3), तात्पर्य यह कि कला मूल का पुनरुत्पादन मात्र है और जिसका मूल अनुभूति और कल्पना को माना है। कलाकृति तो निर्माता के मन में उपजे बिंब का प्रतिफल है।

कॉलरिज ने कल्पना को दो भागों में वर्गीकृत किया है मुख्य कल्पना और गौण कल्पना साथ ही कल्पना और ललित कल्पना (फैंसी) में अंतर दिखला कर दोनों की अलग-अलग विशेषताओं पर विवेचना की है। दार्शनिक दृष्टिकोण से कल्पना की इन शक्तियों का रचनाकर्म में योगदान और भूमिका को स्पष्ट किया है। इन्ही कारणों से शायद कॉलरिज कल्पना को ईश्वर द्वारा मनुष्य को दी गई एक प्रमुख शक्ति माना है।(4) कॉलरिज मुख्य कल्पना को सामान्य व्यक्ति की समझ से परिभाषित करते हैं और गौण कल्पना को तर्कशील दार्शनिक तथा कलाकार के प्रमुख गुण के रूप में देखते हैं। जिस तरह कला और ललित कला में जो अंतर देखा जाता है उसी प्रकार कल्पना और ललित कल्पना की अपनी अलग-अलग विशेषताएँ हैं। जहाँ ललित कल्पना एक मूर्त रूप तैयार करने में सहायक है उसी प्रकार कल्पना उस मूर्त में छिपे भाव और आशय को स्पष्ट करना मुख्य गुण है। 

फ्रायड के अनुसार कला दमित इच्छाओं को, मूर्त रूप देने का साधन है।(5) जब हमारे सामने का परिदृश्य आपको बहुत ही गहरा‌ई तक आत्मसात का रहा है किन्तु हम उन्हें चाह के भी समेट नहीं सकते तो उसे कालांतर में कला के विभिन्न रूपों में  निरूपित करते हैं। यहाँ रूपों का पुन:निरुपण ही कल्पना है। क्योंकि जिसका निरुपण  हम कर रहे होते हैं वह हमारे सामने न हो कर, हमारी चेतना से निकल कर रूप या शब्द या आकार धारण करती है।

भारतीय  मूर्तिकला में कल्पना का बहुत ही सौन्दर्यपूर्ण ‘इमीटेशन’ देखने को मिलता है। साँची के तोरणों  और बाड़े पर अंकित शैल आकृतियाँ इसके जीवंत प्रमाण हैं। यह तो बहुत बाद की बात हो गई जब कल्पना की बात हो रही है तो सुनिए कल्पना का इतिहास मानव-मस्तिष्क के विकास के मूल से जुड़ा है। वैश्विक परिप्रेक्ष्य में कल्पना को मनुष्य के साथ जोड़कर देखें तो ज्ञात होता है कि आरंभिक समय में जब मानव मात्र भोजन की आवश्यकता तक सीमित था तब भी उसकी चेतना कल्पना कर रहीं थीं और आज 21वीं शताब्दी में भी हम कल्पना कर रहे हैं। औचित्य कल्पना हमारे बदलती आवश्यक‌ताओं के साथ अति व्यापक स्थान ग्रहण कर चुकी है। अब हम कल्पना को रूपायित करने के लिए भी नवीनतम तकनीकी सहायता लेने लगे हैं, जिसका प्रभाव आगामी सदियों में कैसा होगा हम इसकी कल्पना मात्र कर सकते हैं।

पत्थरों पर उकेरी गई भावनाएं जिसे देखकर हम इतिहास जान सकते हैं। यह संकलन तत्कालीन सामाजिक  चित्रण है जो अपने में एक पूर्णतः अनुकरण है। कल्पना, अनुकरण और पु:निरूपण का संबंध नैसर्गिक है। 

मार्सेल डुचैंप   

Figure 1: Fountain, Ceramics, 1917, 61cm x 48cm

‘द फाउन्टेन’

मार्सेल डुचैम्प को उनकी कलाकृति ‘द फाउन्टेन’ के लिए कला में नव सामग्रियों के प्रथम प्रयोगकर्ता के रूप में देखा जाता है। इनकी कलाकृतियों में प्रयुक्त सामग्री अपनी मूल प्रकृति से विमुख होकर अपनी अलग धारणा प्रस्तुत करती है। यहाँ प्रत्यक्ष रूप से सामग्रियों का नव विनियोग गोचर होता है यह कलाकार की अप्रतिम कल्पना प्रदर्शित करता है। सन् 1917 में प्रदर्शित उनकी कलाकृति एक मूत्रालय पात्र जो स्टोनवेअर उत्पाद (चीनी मिट्टी) जिसका शीर्षक फव्वारा (‘द फाउन्टेन’) है।(6) इस कलाकृति का वर्गीकरण दादावादी कलाकृति के रूप में किया गया जिसे एक सर्वव्यापी (अवंत-गार्द) कला विरोधी आंदोलन के रूप में स्थापित किया गया है। 20वीं शताब्दी के दुसरे दशक में उपजा यह कला आंदोलन तात्कालिक पूंजीवाद और युद्ध की परिस्थितियों के खिलाफ में एक आवाज थी जो धीरे-धीरे यूरोप से निकल कर ब्रिटेन और अमेरिका तक फैल गई और अंतिम कुछ दशकों में भारत तक पहुँची। अलीना कोहेन कहती हैं कि “जिन सामग्रियों का उपयोग किया गया है वह मशीनों द्वारा बड़े पैमाने में उत्पादित किए गए थे जिसके कारण उसे ‘रेडीमेड’ कहा जाता है। इन सामग्रियों में श्रम तो है किन्तु भावना नदारद है जिस कारण से शायद इसे कला विरोधी आंदोलन कहा जाता है। 

पाब्लो पिकासो

Figure- : Bulls Head, 1942, 33.5cm x 43.5cm x 19cm


बुल हेड

20वीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में कई और भी महत्त्वपूर्ण कला आंदोलन हुए हैं जिनमें घनवाद, अतियथार्थवाद, अभिव्यक्तिवाद, भविष्यवाद, संरचनावाद, शुद्धतावाद आदि। पाब्लो पिकासो जिन्हें कई कला आंदोलनों में सक्रिय कलाकार के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त है और घनवाद के सह-संस्थापक भी हैं। ऐसी ही सामग्रियों के उपयोग से पाब्लो पिकासो ने 1942 ई. में बुल-हेड की रचना की जिसमें एक साईकिल के हैंडल से सिंघ और सीट से बना सिर का भाग दिखाई देता है। बुल का रूपांकन पिकासो ने पहले हीं अपने चित्र ‘ग्वेर्निका’ में उग्रता और क्रूरता प्रदर्शित करने के लिए किया है। बुल की वही अवधारणा तत्कालिक परिस्थितियों से बिखरे सामग्रियों के द्वारा प्रस्तुत किया है। आसपास के परिदृश्य के कारण ही कलाकारों में नई अवधारण कल्पित होती हैं और नए-नए माध्यमों के सहारे कलाकृतियों में परिवर्तित हो जाती है।(7)

सुबोध गुप्ता

इसी संदर्भ में यहाँ एक भारतीय कलाकार की बात करेंगे जिसने कला सामग्रियों की पारंपरिक अवधारणा को तोड़ कर एक नई दिशा अपनायी और खुद को वैश्विक स्तर पर  स्थापित किया है। कलाकार सुबोध गुप्ता रसिया बियोंड में छपी एलेसेंड्रो बेली से बात करते हुए कहते हैं “कला की भूमिका आपके जीवन में क्या महत्व रखती है? वो कहते हैं कि कला विश्व की पहली भाषा है, जिसे समझने के लिए और किसी भाषा की जरूरत नहीं है। यह खुद में एक सार्वभौमिक भाषा है और बेहद शक्तिशाली और मनोरंजक भी है। जब मनुष्य के पास वाक्य क्षमता नहीं थी तब वे अपनी भावना को व्यक्त करने के लिए गुहा दीवारों पर आरेखण किया करते थे। कला के रूप में निरंतर बदलाव आए और आज स्थिति काफी विशिष्ट हो गई है।”(8)

अपने कला में प्रयुक्त सामग्रियों के बारे में कहते हैं कि मैं बचपन से जिन परिस्थितियों और वस्तुओं के साथ जुड़ा हुआ था वह कला के विभिन्न माध्यम के रूप में रूपायित होते चले गए हैं। उन्होंने कहा कि “कला किसी की कल्पना से कहीं ज्यादा शक्तिशाली है।” शीर्षक ‘मेरी माँ और मैं’ इनकी एक ऐसी कलाकृति है जिसकी सामग्री गोईठा (गोबर के उपले) हैं। इसे वह अपने माँ के भोजन बनाने से लेकर पूजा के लिए उपयोग की बात करते हैं। वे कहते हैं कि भोजन बनाना और परोसना कला ही है, जिसके सहारे हम किसी की भूख शांत करने के प्रयास में खुद भी संतुष्टि और आनंद अनुभव करते हैं। 1997 ई. में मोदीनगर के खोज कार्यशाला में निर्मित यह संस्थापन कलाकृति भारत के अलग-अलग हिस्सों में मानसून के आने से पहले लोगों के द्वारा संसाधन संग्रहण शैली को प्रदर्शित करती है।



स्रोत: एलेसेंड्रो बेली

सुबोध गुप्ता की एक और कलाकृति जिसका शीर्षक ‘लाइन ऑफ कंट्रोल’(9) है जिसे धातु के बर्तनों को संयोजित कर एक संरचनात्मक प्रक्रिया में बनाया गया है। जिसका आकार कुकुरमुत्ते के जैसा दिखाया है। वो बताते हैं कि  सन् 1999 में जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध भयावह रूप ले चुका था और परमाणु हमले हो जाने का डर सभी के मन को सता रहा था, तब मैंने इसे पहली बार आरेखित की थी और 2008 में इसे पूर्ण रूप दे पाया। इसके बनाने के पीछे कारण यह था कि जापान पर हुए हमले की भयावहता मैंने भी महसूस की थी। कितने लोग एक साथ मिट्टी और धूएं के बादलों जैसे हवा में बिखर जाएंगे। यहाँ बर्तनों को इंसान के रूप में देखे जा सकते हैं। जिस तरह सुबोध गुप्ता ने अपने भावनाओं  का मूर्त रूपांतरण किया है वह बेहद मार्मिक है। कलाकार का संवेदनशील होना अति आवश्यक होता है क्योंकि जब तक वो आसपास के वातावरण को महसूस नहीं करता है तब तक बस शिल्प गढ़ रहा होता है। भाव वेदना उनके कार्यों को कालजयी कलाकृति में परिणत कर देती है। सुबोध गुप्ता के कलाकृति में जो रूप है वह अमूर्त नहीं बल्कि अभिव्यंजक और गैर-आनुपातिक है। उनके कलाकृति को समझने के लिए सिर्फ ज्ञानी होना आवश्यक नहीं है बल्कि दृष्टि में भावुकता होना ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। समाज की परिस्थितियों का एक परिणाम स्थापित करना, जो समकालीन मूर्त की पहचान होती है। कोई भी कलाकृति बनाने में कलाकार का कोई भावनात्मक जुड़ाव जरूर होता है जो कलाकृति को समझने के लिए बेहद आवश्यक है। सुबोध गुप्ता के लगभग सभी कलाकृति में सामाजिक वातावरण का संलयन है, यही कारण है कि दर्शक उससे आकर्षित हो जाते हैं। इन सब विशेषताओं के कारण ही सुबोध गुप्ता की कृतियाँ समाजिक कलाकृति के रूप में अपना स्थायित्व प्रकट करतीं हैं।




अब जो सुबोध गुप्ता जी की तीसरी कलाकृति के बारे में बात करूँगा जिसकी चर्चा ऊपर की गई है। ‘द टेलिग्राफ’ में आरोही केशव ने इसकी भूरी-भूरी प्रशंसा की है, वे कहते हैं 26 फूट ऊँची यह कलाकृति बिहार के सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में हुए समारोह के दौरान स्थापित की गई। स्टील के बर्तनों से बनी इस कलाकृति में दो लाल रंग के फूल बनाए गए हैं। वे बताते हैं कि कैक्टस बहुत ही मजबूत अस्तित्व का प्रतीकात्मक रूप है, जिसमें किसी भी परिस्थितियों से निपटने का मजबूत आत्मबल है। यह बहुत सुंदर तो नहीं होता किन्तु जब इसमें फूल खिलते हैं तो काफी आकर्षक होता है। वे कहते हैं कि “कैक्टस उन सभी लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जो अंधकार युग में भी दृढ़ संकल्पित रहे हैं और दो लाल फूल उभरते हुए परिस्थितियों को प्रदर्शित करता है।”(10) 

कैक्टस 26 फूट  

दृढ़ संकल्पित होना नागफनी के अस्तित्व को अमरत्व प्रदान करता है किन्तु बिना कांटे का नागफनी (कैक्टस) एक कलाकार की कल्पना है या चूक यह प्रश्न मेरे मन में बार-बार उत्पन्न होता रहता है। मुझे जहाँ अनुभव है नागफनी कोई भी प्रजाति बिना कांटे का नहीं होता है कांटे ही नागफनी के अस्तित्व की पहचान है। हाल के कुछ वर्षों से मैंने अपने कलाभ्यास को कई अलग-अलग रूप में व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूँ जिसमें कविता और प्रकृति के साथ जुड़ाव को एकात्मकता देना मूल उद्देश्य है। इस बीच मैं नागफनी को जिद्द के रूप में संदर्भित कर कुछ पंक्ति लिखी हैं-

“हम में तुम या हमीं हो तुम
दहकते रेगिस्तान में नागफनी हो तुम”

दरअसल,  नागफनी के कांटे उसके सुरक्षित रहने के लिए बेहद जरूरी हैं, नहीं तो उन्हें कोई भी आसानी से नष्ट कर सकता है। रेगिस्तान में कुछ न होने पर भी नागफनी के अंदर से तरल प्राप्त कर जीवन बचाया जा सकता है। मेरे पास दो नागफनी के पौधे हैं जिन्हें मैं नाम दिया एक जिद्द और दूसरा जिम्मेदारी जिसे मैं साथ लेकर चलता हूँ और उनका ख्याल रखता हूँ। एक तरह से यह मेरा लाइव परफॉरमेंस चल रहा है। इस प्रक्रिया में मैं कुछ बीज और पौधे के साथ अपनी परिस्थितियों को जोड़ने की कोशिश कर रहा हूँ और निरंतर उनमें होते बदलाव को महसूस करने का प्रयास करता हूँ, जिससे मुझे काफी आनंद प्राप्त होता है। मैं इन पौधों को लोगों के सामने कलाकृति के रूप में प्रदर्शित करता हूँ साथ इस प्रक्रिया के बारे में बातें करता हूँ और इनसे जुड़े मेरी कविताएँ सुनाता हूँ। इस तरह मैंने सजीव पौधों को अपनी कला की सामग्रियों के रूप में उपयोग कर रहा हूँ। यहाँ मैं अपनी एक और कल्पना आपके साथ साझा कर रहा हूँ जो तब रूपायित किया था जब सुबोध गुप्ता की कलाकृतियों में से एक कैक्टस पटना  के राजधानी वाटिका में स्थापित करने की बात चल रही थी।

लेकिन क्या बात है?
बस्तियां हटायी जा रही हैं 
सब तोड़ा और बनाया जा रहा है
अपने-अपने मुनाफ़े के लिए
सुना है हमें लड़वाया जा रहा है
क्या कहें भटक जाते हैं हम भी
आओ करें बात उस कैक्टस की
जिसे राजधानी वाटिका में लगवाया जा रहा है
शताब्दी वर्ष की साल, हम हैं अब भी बेहाल
हियाँ कदुआ पे हँसुआ चलाया जा रहा है
सुने कि बिहार दिवस मनाया जा रहा है 

निष्कर्ष : आरंभ से आज तक कला के माध्यम में जो भी बदलाव हुए सभी मनुष्य के मानसिक विकास, कल्पना और तर्कशीलता के कारण हैं। दीवारों के आरेखण से लेकर वस्तुओं के सीधे प्रदर्शित होने तक कला के रूप और प्रयुक्त सामग्रियों में अप्रत्याशित परिणामों को कलाकृतियों के रूप में देखा जा सकता है। कला की मूल अवधारणा को स्थापित करने के लिए अनेकों प्रयोग किए गए हैं और किए जा रहे हैं। यह निरंतर एक बहस का मुद्दा भी रहा है किन्तु हर समय एक समानता देखने को मिलती है कि कल्पना का होना कला के लिए प्राण की भाँति है। कल्पना ही सामग्रियों में छुपे औचित्य को प्रदर्शित कर कलाकार के मनोभावों को साकार रूप प्रदान करने में सहयोग करता है। दुनिया भर में कलाकारों ने अपनी भावनाओं और कल्पना को प्रदर्शित करने के लिए कोई भी सामग्रियों को अछूता नहीं छोड़ा और आज भी निरंतर प्रयास किया जा रहा है।

सन्दर्भ :

1-जैन,निर्मला : पाश्चात्य साहित्य चिंतन,राधाकृष्ण प्रकाशन, 2018 (10वाँ सं.),पृष्ठ- 85 

2-वही, पृष्ठ-64 

3-वही,45 

4-वही,82 

5-मिश्र, डॉ सत्यदेव : पाश्चात्य काव्यशास्त्र : अधुनातन संदर्भ, लोकभारती प्रकाशन, 2021 (6ठा सं.) पृष्ठ-256

6-https://www.artsy.net/article/artsy-editorial-toilet-roomful-kittens-work-art

7-https://www.wikiart.org/en/pablo-picasso/bulls-head-1942

8-https://www.rbth.com/arts/2014/04/17/human_beings_simplicity_and_nature_are_my_inspiration_subodh_gupta_34601

9-https://mymodernmet.com/subodh-gupta-line-of-control/

10-https://www.telegraphindia.com/bihar/cast-in-steel-native-returns-subodh-gupta-hopes-to-inspire-artists-with-cactus/cid/438170


रमाकांत

शोधार्थी ललितकला विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय

ramakantsart@gmail.com8541084141


दृश्यकला विशेषांक
अतिथि सम्पादक  तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-55, अक्टूबर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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