रामगोपाल विजयवर्गीय के चित्र सृजन में नारी सौन्दर्य का रूपांकन
- सुनिता मीणा
शोध सार : राजस्थान में प्रारम्भ से ही चित्रकला का सम्पन्न स्वरूप देखा जा सकता है, जहाँ विभिन्न कला शैलियों में राजस्थान की भिन्न-भिन्न रियासतों ने कलात्मक स्वरूप का विकास पाया। 15वीं से 19वीं सदी तक राजस्थान में निरन्तर लघुचित्र कला का प्रसार होता रहा तथा 19वीं सदी से 20वीं सदी तक आते-आते सम्पूर्ण देश के कला जगत् में एक नवीन वातावरण दृष्टिगोचर होने लगा। अतः ऐसा कहना अनुचित न होगा कि भारतीय कला के स्वरूप में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक बदलाव आए। इन नवीन कलात्मक परिवर्तनों से राजस्थान की कला भी अछुती नहीं रह सकी और यहाँ के तत्कालीन कलाकारों ने अपने प्रयासों से राजस्थान की कला को नवीन स्वरूप में स्थापित किया। कई युवा कलाकारों ने कला साहित्य में अपनी मिट्टी की गंध को सम्मिलित करना आरम्भ कर दिया। इस क्रम में स्व. रामगोपाल विजयवर्गीय जी का नाम अग्रणीय है, जिन्होंने अपने कला सृजन को किसी एक विषय व सिमित दायरे में बाँधकर नहीं रखा, बल्कि उन्होंने सभी परम्परागत, पुराणों, इतिहास, धर्म, साहित्य, कथाओं के साथ सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक जीवन के अनेक विषयों एवं प्रकृति के सैकड़ों चित्र अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति से बनाये। उन्होंने राजस्थान के लोकजीवन एवं राजस्थानी शैली का बहुत सूक्ष्मता से निरीक्षण किया तथा वहाँ के ग्रामीण जीवन को यथार्थ रूप में चित्रण करना आरम्भ किया। उनके नारी चित्रों में लावण्य युक्त रूप, आकर्षक रेखांकन, कोमल रंगों का विधान दर्शनीय है। अतः कला के नवीनीकरण में जो स्थान राजा रवि वर्मा तथा अवनीन्द्रनाथ ठाकुर का माना गया है, राजस्थान के सन्दर्भ में वही स्थान रामगोपाल विजयवर्गीय जी का है।
बीज शब्द : समसामयिक, नवाचार, मेघदूत, रघुवंश, कुमारसंभव, गीत-गोविन्द, अभिज्ञानशकुन्तलम्, उमर-खैय्याम, काव्यात्मकता, सृजनशीलता, कथात्मकता, लयबद्धता, भावपूर्णता, रागात्मकता।
मूल आलेख : रामगोपाल विजयवर्गीय बहुमखी प्रतिभा के धनी थे, जिन्होंने अवनीन्द्रनाथ टैगोर की शैली का गहराई से विश्लेषण किया। उन्होंने अजन्ता एवं राजस्थानी कला के मर्म को पहचाना, साथ ही परम्परागत और नवीन शैलियों के संश्लेषण से अपनी चित्र शैली निर्मित की तथा अवनीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा प्रारम्भ किये गये बंगाल स्कूल का राजस्थान में सूत्रपात किया। उन्होंने अपने गुरु शैलेन्द्रनाथ डे से प्रभावित होकर, अपनी मौलिक अभिव्यक्ति द्वारा भारतीय कला को समृद्ध किया। उनकी शैली में अनुकरणात्मकता न होकर मौलिकता दृष्टिगत होती है और यह मौलिकता ही उनकी शैली को सबसे पृथक करती है, जिसे “विजयवर्गीय शैली’’ के नाम से जाना गया। उनकी कला में तीन रूपांकन शैलियों – राजस्थानी शैली, बंगाल स्कूल तथा अजंता चित्रशैली का प्रभाव दिखाई देता है। उनके चित्र बंगाल शैली से अनुप्राणित होने पर भी भिन्न, नवीन और निजी लगते हैं। अत: राजस्थान की कला के पुनरूत्थान का रामगोपाल विजयवर्गीय जी को मूल प्रणेता माना जा सकता है।(1) उन्होंने केवल चित्रकला में ही नहीं बल्कि अन्य कई विधाओं जैसे काव्य, साहित्य-लेखन और सम्भाषण इत्यादि में भी रूचि रखी। उनके चित्र अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुये तथा विजयवर्गीय जी को उनकी अनवरत कला साधना के लिए अनेकों राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय सम्मान दिये गये। राजस्थान के कला-संसार में भी कलाकार का विशेष योगदान रहा है, इसके लिए विजयवर्गीय जी को सर्वप्रथम राजस्थान ललित कला अकादमी द्वारा राजस्थान का सर्वोच्च “कलाविद्“ सम्मान प्रदान किया गया।
रामगोपाल विजयवर्गीय राजस्थान के कला जगत् में एक वट-वृक्ष के रूप में जाने जाते है, जिनके चित्रण का प्रमुख विषय नारी-सौंदर्य रहा है। भारतीय कला परंपरा में ‘नारी का चित्रण’ सदियों से विशिष्ट स्थान रखता है। यह चित्रण केवल सौन्दर्य की भौतिक अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि इसमें भारतीय संस्कृति, आध्यात्मिकता और समाज की संवेदनाओं का प्रतिबिंब भी होता है। रामगोपाल विजयवर्गीय, भारतीय चित्रकला के एक प्रख्यात कलाकार रहे, जिन्होंने अपने सृजन में नारी सौन्दर्य के विभिन्न आयामों को चित्रित किया। उनके चित्र नारी के प्रति उनकी गहरी संवेदनशीलता और भारतीय परंपराओं से उनके गहन जुड़ाव को दर्शाते हैं। उनके मन में नारी चित्रांकन के प्रति एक-विशेष स्वाभाविक मोह था, जो उनकी सृजनरत रचनाओं में देखा जा सकता है, चाहे वह रंगों में रंगी हो या शब्दों में बंधी हो, जीवन की ऊर्जा व आशा से सदैव भरी है। अतः ऐसा कहा जा सकता है कि राजस्थान के कलात्मक वातावरण में रामगोपाल विजयवर्गीय ने अपने चित्रण, शिक्षण व प्रदर्शन के माध्यम से कला के क्षेत्र में एक ऐसी दिव्य ज्योति प्रज्ज्वलित की, जो तात्कालीन कलाकारों के साथ-साथ नव कलाकार पीढ़ी के लिए भी प्रेरणा स्त्रोत बनी। विजयवर्गीय भारतीय कला परम्परा के वरिष्ठ कलाकार थे, जिनकी कला साधना का आधार परम्परागत भारतीय चित्रकला ही रही अर्थात् उन्हें सदैव अजंता-एलोरा की कला से गहरा लगाव रहा। इससे प्रभावित होकर उन्होंने भारतीय इतिहास, पुराण तथा लोक प्रचलित कथाओं के विषयों पर अनेक रेखाचित्र एवं रंगचित्र बनाकर, अक्षुण्य भारतीय कला परम्परा का पोषण किया। विजयवर्गीय जी का नाम भारत के उन यशस्वी कलाचार्यों में लिया जाता है, जिन्होंने कला के नवोत्थान का राजस्थान में सफल नेतृत्व किया।
राजस्थान के “सवाई माधोपुर जिले के एक छोटे से गाँव करौली, ठिकाना बालेर में, 1905 ई. को विजयवर्गीय जी का जन्म हुआ।” इन्हें कला सृजन के प्रति शैशव काल से ही गहरा लगाव था। उनका रूझान कला की ओर होने के कारण ये खड़िया व कोयले से दीवारों पर आकृतियाँ बनाते व रंगीन तस्वीरों को इकट्ठी करते थे। परिवार के सदस्य इनकी इस रूचि को व्यर्थ समझते थे। विजयवर्गीय जी का कला के प्रति अटूट प्रेम देखकर, उनके पिताजी ने महाराजा स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड क्राफ्टस में उनका प्रवेश कराया, जहाँ उनके गुरु के रूप में उन्हें सुप्रसिद्ध चित्रकार शैलेन्द्रनाथ डे का निर्देशन प्राप्त हुआ। यहाँ पूरी निष्ठा व ईमानदारी से कला शिक्षा ग्रहण करने में जुट गये और 1924 ई. में योग्यता के साथ डिप्लोमा प्राप्त किया। बाद में शिक्षक तथा प्रिंसिपल के रूप में इसी संस्था को अपनी सेवाएँ दी व कलारूपी अमृत को अपने विद्यार्थियों में बाँटा।
लघुचित्रों के महत्व को स्वीकारा :
रामगोपाल विजयवर्गीय पहले चित्रकला थे, जिनका ध्यान राजस्थान की पारम्परिक शैली में लघुचित्रों की ओर गया। राय कृष्णदास से प्रेरणा पाकर विजयवर्गीय ने राजस्थान में घूम-घूमकर लघुचित्र खोजने शुरू किए। (2) उनसे लघुचित्रों की दुर्दशा देखी नहीं गयी और वे उनके संग्रह तथा महत्व प्रतिपादन की ओर अग्रसर हुए। उन्होंने भारत की इस अनमोल धरोहर एवं मूल्यवान विधि को संग्रहित तथा संरक्षित करने हेतु कार्य किये और स्वयं ने भी इनकी सुरक्षा का भरक्षक प्रयास किया। राजस्थान की विभिन्न लघुचित्र शैलियों की कृतियों को जवाहरात के समान मूल्यवान बना देने में उनका पर्याप्त योगदान रहा।
चित्रण में मौलिकता और विषय-वैविध्य :
रामगोपाल विजयवर्गीय की चित्रण पद्धति भारतीय षड़ांग एवं शास्त्रीय मापदण्डों पर आधारित है। इनके चित्रों की विषयवस्तु भी भारतीय परम्परा के अनुरूप महाकाव्यों, ग्रन्थों व पुराख्यानों से सम्बद्ध है। इन कलाकृतियों में कालिदास कृत मेघदूत, अभिज्ञानशाकुन्तलम् व वाल्मिकी की रामायण में वर्णित विषयवस्तुओं का चित्रण कर चित्रों को शास्त्र संगत रूप देने में विजयवर्गीय जी का विशेष योगदान रहा है। उनकी नारी चित्राकृतियाँ देखने वाले को जैसे सम्मोहित करती है। कलाकार ने चित्रों में काव्यात्मकता व कथात्मकता को महत्व दिया हैं, जिससे उनके चित्र अधिक भावपूर्ण बने है। इसका प्रमुख कारण यह है कि आप प्रारम्भ से ही संस्कृत साहित्य के अध्येता और एक उच्च कोटि के साहित्यकार रहे हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा समाज को अपनी साहित्यिक भावाव्यक्ति दी है, जिसमें अनेक काव्य एवं कहानियाँ सम्मिलित हैं।(3)
विजयवर्गीय जी के चित्रों में नारी और श्रृंगार का प्राधान्य पाया जाता है तथा उनकी शैली रसात्मकता और लावण्य से भरपूर है।(4) उनके चित्रों में नारी सौन्दर्यता की एक ऐसी छवि मिलती है, जिसमें नारी का सर्वांगीण आदर्श सौंदर्य, विरहणी रसिका, वनकन्या, देवकन्या, मालिन, मजदूरिन आदि स्वरूपों में अभिव्यक्त हुआ है। उनके चित्रों में लयात्मक दिव्य रंगों और उत्कृष्ट भावों के संयोग से रस की जो उत्पत्ति होती है वह ऐसे लोक में ले जाती है, जहाँ दर्शक, कलाकार की भावाभिव्यक्ति से पूर्ण तादात्मय स्थापित कर, आनन्द की अनुभूति करता है। उनके चित्रों में प्रयुक्त मोटी लयपूर्ण रेखाएं, भारतीय लघुचित्रों में प्राप्त रंगों की गहनता, बंगाल शैली के रंगों की सुकोमलता, अण्डाकर मुख पर अधखुली बड़ी आँखें, लम्बे हाथ, पतली अंगुलिया और नारी की विविध मुद्राएं, अंग-प्रत्यंगों की आकर्षक भंगिमाए उनकी कृतियों की पहचान रही है। सृजनशीलता, कल्पनाशीलता, कथात्मकता, काव्यात्मकता, आधुनिकता, चित्रण की मौलिकता, विषय-वैविध्य की अभिव्यंजना उनके चित्रों की प्रमुख विशेषता रही है।
विजयवर्गीय ने ग्रामीण जीवन के वातावरण को कैमरे की भांति यथार्थ रूप में चित्रित करने की शक्ति एवं समर्थ तुलिका ने अनुपम रेखा और रंगों के सामंजस्य से उत्कृष्ट रूपायन प्रस्तुत किया है। इन नारी चित्रकृतियों में प्रमुख है— सुबह का संगीत, सर्दी के दिन, दृश्य चित्र, कुँए पर स्नान के बाद, बाजार की ओर, पनिहारी, पनघट, गाँव की चौपाल, गाँव की झोपड़ियाँ, नागपूजा, संगीत, सितार-वादन, विरह, राधाकृष्ण, मंडली नर्तकियाँ, गपशप, पशु-सेवा, हुक्का तथा झूला आदि शीषर्कों पर बनाये गये रेखाचित्रों के अलावा सैकड़ों रेखाचित्र बनाये है, जो उनकी जीवन्त कूँची के साक्षी के रूप में हमारे सम्मुख है। ये रेखाचित्र उनके सामाजिक सरोकार, अन्वेषणात्मक दृष्टि तथा सहज कला-प्रेम के प्रतीक हैं।(5)
सृजन में भारतीयता की छाप :
विजयवर्गीय आधुनिक कला के विषय में अपना स्पष्ट व उदार मत रखते है।(6) उनके अनुसार, “हम भारतीय है और हमारे सृजन में भारतीयता की छाप होनी चाहिए। हम जो चित्रांकन करें, उसकी आत्मा में भारतीयता होनी चाहिए।” अतः कलाकार द्वारा कहे गये कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं है, क्योंकि उनकी रचनाओं में अजन्ता की आकृतियों के सौन्दर्यतत्व, बंगाल कला की वॉश तकनीक तथा पौराणिक विषयों से उद्धृत समसामयिक प्रासंगिक संदर्भों को अपनी शैली द्वारा अभिव्यक्त किया है। उनके चित्रों में पौराणिक ग्रन्थ जो नीतिशास्त्र की दृष्टि से जीवन की समस्याओं को सुलझाते है, ऐतिहासिक घटनाये जो जीवन को मार्गदर्शित करती है, काल्पनिक विषय जो सौन्दर्य का बोध जगाते है, इन सभी के संयोग से एक सुन्दर कल्पनाशक्ति चित्र के माध्यम से सभी के समक्ष प्रस्तुत की जाती है, जो कि उस सृजन के अदृश्य पुलों के जरिये अतीत को वर्तमान से जोड़ देती है।(7)
काव्यकला व चित्रकला का सामंजस्य :
रामगोपाल विजयवर्गीय केवल चित्रकला के ही धनी नहीं हैं, बल्कि यह कहे की वे बहुमुखी कला-प्रतिभा के धनी थे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उन्होंने अपने मन की अभिव्यक्ति को चित्रकला के अतिरिक्त कविता लेखन, कहानी लेखन व साहित्य लेखन के द्वारा भी प्रकट किया है। कलाकार द्वारा काव्य व कला के सामंजस्य से ऐसी कला-धारा प्रवाहित की, जो सत्यम्-शिवम् सुन्दम् के रूप में प्रकट हुई। रामगोपाल विजयवर्गीय जी द्वारा लिखा गया है कि “जो अवस्था कवि की है, व चाँदनी में रजत पूर्ण सुन्दर मुखों में कमल व लता वृक्षों में लावण्य खोजता है, उसी प्रकार चित्रकार भी उषा, संध्या, बसंत व पतझड़ में अलौकिक आनन्द की मंदाकिनी बहती हुए देखता है।(8)
विजयवर्गीय की रचनाओं में संगीत, साहित्य, कला, धर्म व दर्शन इत्यादि सभी सांस्कृतिक उपादानों को समन्वित रूप से अपनाया गया है। उनकी प्रमुख विशेषता काव्य को आधार बनाकर चित्रण करने की रही है। विजयवर्गीय जी ने अपने चित्रण में संस्कृत और हिन्दी काव्यों के मार्मिक स्थलों को आधार बनाकर जो चित्रण किया, वह उनके कृतित्व की पहचान बन गई है। उनके बनाये सभी चित्रण विषयों में कवि व चित्रकार दोनों का सामंजस्य पूर्ण रूप दिखाई देता है। उनकी काव्य रचनाओं में जीवन का ह्रास-विलास, अनुराग-विराग, आशा-निराशा, जीवन की त्रासदी आदि की अत्यन्त मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। उनका प्रकाशित काव्य संग्रह “चिन्गारिया’’ भी कवि की अन्तः वेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति है। इसमें लम्बी, वर्णनात्मक व भावोद्दीपक 28 कविताएँ हैं। इसके अलावा ‘अभिसार-निशा’ खण्ड-काव्य में उन्होंने राधा-कृष्ण के नित्य प्रेम की दिव्यानुभूति को व्यक्त करता 111 छंदों का समायोजन प्रस्तुत किया है, जिसमें राधा-कृष्ण के माध्यम से प्रकृति व पुरुष के आत्मीय सम्बन्धों को पूर्ण तन्मयता से प्रदर्शित किया गया है। इसमें उस प्रेममयी रात्रि का अंकन है, जिसमें प्रेमी युगल निश्चित समय पर संकेत स्थल पर अभिसार हेतु उपस्थित होते हैं, किन्तु संकेत स्थल पर राधा को माधव की प्राप्ति नहीं होती और राधा स्वप्निल अभिसार में मग्न हो जाती है। यह कृति कवि मन की रंग व रेखाओं का संयोजन करने वाली साहित्य भण्डार की अमूल्य निधि है। 1959 ई. में अकादमी द्वारा पुरस्कृत विजयवर्गीय को इसी वर्ष साहित्य अकादमी ने भी इनकी कविता पुस्तक “अभिसार निशा“ के लिए पुरस्कृत किया तथा इसे प्रकाशित भी किया।(9) इनके बाद काव्य व चित्रकला के संगम का अनूठा तथा प्रथम प्रयोग “चित्रगीतिका“ के रूप में सन् 1967 ई. में जयपुर में प्रकाशित हुआ। इस कृति में राजस्थानी चित्रकला की जयपुर, उदयपुर, कोटा, जोधपुर, बूंदी, किशनगढ़, बीकानेर, नाथद्वारा, अलवर तथा जैसलमेर चित्र शैलियों की मूलभूत विशेषताओं को गीतात्मक रूप में लिपिबद्ध किया गया था।(10)
भावपूर्ण चित्र-श्रृंखलाओं का सृजन :
रामगोपाल विजयवर्गीय जी एक ऐसे व्यक्तित्व के धनी थे, जो मात्र चित्रकार ही नहीं अपितु साहित्यकार व कवि भी रहे। विजयवर्गीय जी के शब्दों में “चित्रकला का ध्येय आनन्द की उपलब्धि और परमानन्द की प्राप्ति है। यह लौकिक विषय नहीं, अलौकिक विषय है।’ (11) दोनों विषयों में ही प्रकृति (आत्मा) व पुरुष (परमात्मा) के मधुर मिलन का आह्वान किया है। उन्होंने के कला जगत् में कला रसिकों को एक नई कला शैली से अवगत करवाया तथा भारतीयता की पहचान काव्यात्मक चित्रों के माध्यम से करवाई। विजयवर्गीय जी ने वास्तविक वॉश को अपनी सुविधा, आवश्यकता व रूचि अनुसार प्रयोग किया। इसमें कलाकार ने टेम्परा पद्धति का मिश्रण इस कदर किया की कला समीक्षकों ने इस तकनीक को वॉश मिश्रित टेम्परा नाम दिया। आप इस तकनीक के उन चित्रकारों में जाने गए, जिन्होंने इसे नई दिशा दी तथा इस तकनीक को काल्पनिक संसार से निकालकर राजस्थान के यथार्थ धरातल पर प्रतिष्ठित किया।
विजयवर्गीय ने काव्यात्मक यथार्थ व वॉश तकनीक के मेल से जो चित्र निर्मित किये उनमें अजन्ता का वैभव व बंगाल की रंग तकनीक के तत्व समाहित होते हुए भी इस शैली में निजस्व की भावना प्रदर्शित होती है। विजयवर्गीय के चित्रण के प्रिय विषय अधिकांश कालिदास, तुलसीदास व जयदेव की अमर कृतियों पर आधारित रहे है। इनमें प्रमुखता से रागिनी बिलावल, अलकापुरी का यक्ष, यक्षिणी की प्रतिक्षा (मेघदूत), गीत-गोविन्द, अभिज्ञान शाकुंतलम, कादम्बरी, कुमारसंभव, रघुवंश, रामायण, महाभारत, अमरशतक आदि अनेकानेक कथानकों को कैनवास पर साकार किया गया। इन चित्र श्रृंखलाओं में संवेदनाओं के जरिये कल्पनाओं को जैसे कैनवास पर पंख लगाए गए है अर्थात् उन्होंने परम्परागत काव्यात्मक पहलुओं को अपनी शैली के माध्यम से आधुनिक परिवेश में चित्रित कर, सामान्य-जन को काव्य व चित्र के संयोग से उपजे मर्म से परिचित करवाया है। “कला रसिकों को सरोबार करने वाले श्री रामगोपाल विजयवर्गीय ने महाकवि कलिदास के ‘अभिज्ञानशाकुनतलम्’, ‘कुमार सम्भव्’ व ‘मेघदूत’ के मार्मिक प्रसंगों को अपनी विषय-वस्तु बनाकर पचास-पचास चित्रों की श्रृंखलाएं बनायी, जो उनके कृतित्व की अलग से पहचान बन गई है।”(12) कलाकार द्वारा बनायी गयी चित्र-श्रृंखलाएं अत्यन्त भावपूर्ण है। उनके ‘रामयण’ सीरीज के चित्र देखें अथवा ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ सीरीज के चित्रों पर दृष्टिपात करें, सभी में मानवीय सौन्दर्य के दर्शन होते हैं। ‘गीत गोविन्द’, ‘मेघदूत’ तथा ‘ऋतुसंहार’ सीरीज के चित्रों में हमें भावपूर्ण आलेखन तथा विरह भावना की तीव्र अनुभूति का एहसास होता है। ‘राग-रागनियों’ तथा ‘उमर खय्याम’ सीरीज के चित्र उनके रागात्मक भाव को उजागर करने वाले चित्र बन पड़े है।(13) इन चित्रों में “नारी” का सौन्दर्य स्वरूप कलाकार का केन्द्र बिन्दु रहा है। इनके चित्रों में ‘नारी’ कुछ काल्पनिक व कुछ स्मृति प्रधान है अब चाहे वह लौकिक स्वरूपनी हो अथवा अलौकिक स्वरूपनी। उन्होंने अपने कलात्मक जीवन में नारी का चित्रण सदैव सम्मानीय दृष्टि से किया है, जिनमें नारी के अनेक स्वरूपों के दर्शन कराए है। उन्होंने चित्रण में नारी के बाह्म सौन्दर्य को दर्शाने के लिए गतिमय व सटिक रेखांकन, मुख्य भाग पर एक ही रंग का प्रभाव, पारदर्शी वस्त्र, शारीरिक सुंगठनता व आकृति रचना को स्वयं की शैली में उभारा है। उनकी दृष्टि ने सौन्दर्य को सदैव नारी में खोजा है तथा नारी के संस्कार व उसके अन्दर छिपे प्रत्येक सौन्दर्य को चित्रित करने का प्रयास किया है। इन चित्रों में नारी के दिव्य, आत्मिक व मानसिक सौन्दर्य को कलाकार ने अपनी दृष्टि से चित्रित किया है।
“नारी ब्रह्म की आल्हादिनी शक्ति है– कृष्ण ब्रह्म है और रामेश्वरी राधा माया है। दोनों का मिलन रास लीला है– रास से रस का जन्म होता है– रस ही ब्रह्म है- रस ही आनन्द स्वरूप है।”
– रामगोपाल विजयवर्गीय
नारी इस सृष्टि का अभिन्न अंग है, जिसके अधिकार कर्तव्य, जिम्मेदारियां, निष्ठा, ममता व कर्म सभी में प्रकृति का सम्पूर्ण रस-सौन्दर्य भरा है। एक नारी अपने कर्म से तो सुन्दर है ही साथ ही रूप सौन्दर्य अर्थात् उसका शारीरिक सौन्दर्य भी प्रत्येक को आकर्षित करता है, इसी आकर्षण ने कई कलाकारों, साहित्यकारों व कवियों को अभिव्यक्ति के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। विजयवर्गीय जी ने भी नारी के सभी रूपों का भावपूर्ण चित्रण किया है, जिसमें नारी के पत्नी, प्रेयसी, विरहणी, रसिका, अभिसारिका, वधू, वनकन्या आदि रूपों को प्रमुखता से चित्रित किया है। उनके नारी चित्रों का आधार काव्य रहा है जैसे– रामायण में सीता, गीतगोविन्द में राधा, मेधूदत में अलकापुरी की विरहणी आदि सभी काव्य नारी प्रधान रहे है। “भारतीय साहित्य में भी नारी सौन्दर्य को प्राकृतिक सौन्दर्य माना है।”
रामगोपाल विजयवर्गीय जी ने गीत गोविन्द काव्य पर अनेकों चित्र बनाए है, जिसमें राधा के रूप सौन्दर्य को विभिन्न रंगों, जटिल रेखांकन व संवेदनशील भावों के साथ चित्रित किया है। चित्र संख्या (1) ‘प्रतिक्षारत राधा’ नामक चित्र 1960 में बनाया गया है। नारी आकृत्तियों के समान ही चित्र भी लम्बाकार रूप में बनाया गया है। पाँच नारी आकृतियों के संयोजन में बने इस चित्र में प्रत्येक नारी के अंग-प्रत्यंग, नाक-नक्ष विजयवर्गीय शैली में है, लेकिन मध्य में राधा का अद्भुत अंकन हुआ है, जिसका सौन्दर्य दर्शक के मानसपटल पर अलग ही प्रभाव छोड़ता है। उसके चेहरे का तेज, कृष्ण के प्रति उनकी मनोवृति और चित्रकार की दृढ़ शक्ति राधा के व्यक्तित्व व उसके आध्यत्मिक चिंतन का परिचय देती है। राधा के चारों तरफ उसकी सखियों का इतना सुंदर अंकन किया गया है, जिनकी हस्त-मुद्राओं से तो वे राधा को मनाती हुई दिख रही है, परन्तु राधा का ध्यान किसी ओर ही दिशा में है। चित्र में कोमल व अल्प रंगों का इस्तेमाल किया गया है, जो राधा के मुख के एकाग्र व प्रतीक्षारत भाव को दिखा रहा है।
चित्र संख्या-1 ‘प्रतिक्षारत राधा’
रामगोपाल विजयवर्गीय चित्रों की खास विशेषता यह है कि उन्होंने जितने भी काव्यमयी चित्र बनाए है वे सभी भावात्मक पक्ष को उजागर करते है। प्रस्तुत चित्र संख्या (2) ‘‘यक्ष विरह’’ मेघदूत श्रृंखला से है, जिसमें यक्ष विरह वेदना के आंसुओं को अपने भीतर छिपाएं रखना चाहता है, लेकिन मेघ से वार्तालाप के दौरान भावविभोर होने पर यक्ष के आंसू बाहर निकल आते है। चित्र में विरह, प्रेम की पीड़ा, उत्कण्ठा, करुणा, आशा व विश्वास का मार्मिकता से चित्रण हुआ है साथ ही बादलों की उपस्थिति व उनका गतिमय चित्रांकन का गतिमान होना ऐसा दर्शा रहा है, मानो मेघ बहुत ही उत्सुकता के साथ यक्षिणी को संदेश पहुँचाने को आतुर हो।
चित्र संख्या-2 ‘यक्ष विरह’ (मेघदूत)
प्रस्तुत चित्र संख्या (3) “दिवस गणना करती यक्षिणी” का है, जिसमें यक्ष की प्रतिक्षा में विरह भाव से व्याकुल अवस्था में यक्षिणी दिवस की गणना पुष्पों के माध्यम से कर रही है कि शेष अब कितने महिनों का समय शेष है, जब उसके यक्ष आयेंगे। यक्षी की सौन्दर्यता का जो परिचय काव्य में हुआ है, उसका जीवन्त स्वरूप विजयवर्गीय ने इस चित्र में चित्रण के माध्यम से प्रदर्शित किया है। चित्र को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे काव्य की काल्पनिकता को दृष्टि मिल गयी हो।
चित्र संख्या-3 ‘दिवस गणना करती यक्षिणी’ (मेघदूत)
अभिज्ञान शाकुन्तलम के सभी चित्रों में सबसे श्रेष्ठ चित्र यही प्रतीत होता है। विजयवर्गीय जी द्वारा चित्र संख्या (4) “शकुन्तला व दुष्यन्त” का चित्रांकन 1988 ई. में किया गया था, जिसमें शकुन्तला एवं दुष्यन्त के मिलन का चित्र है। इस चित्र में शकुन्तला की दो सखियां भी अग्रभाग में बैठी है। दुष्यन्त का एक हाथ शकुन्तला के कन्धे पर है तथा दूसरे हाथ में पुष्प है। चित्र देखकर ऐसा लग रहा है, जैसे दुष्यन्त शकुन्तला से अपने प्रेम का इजहार कर रहा हो और इसे देखकर शकुन्तला मन ही मन लज्जा के कारण दुष्यन्त से मुँह मोड लेती है। इस मोहक वातावरण के साक्षी दो हिरण भी है, जो दुष्यन्त व शकुन्तला की ओर देख रहे है। पृष्ठभूमि में पेड़ पर लगे पुष्प भी खुशी के भाव से खिल रहे है और सम्पूर्ण वातावरण काव्यानुसार हरे-भरे वृक्ष, वन के बीच चित्रित किया गया है, जो प्रेम-लज्जा के रूप में रागात्मकता के भाव को प्रदर्शित कर रहा है।
चित्र संख्या-4 ‘शकुन्तला व दुष्यन्त’ (अभिज्ञान शाकुंतलम्)
प्रस्तुत चित्र सख्या (5) ‘‘मानिनी राधा” गीत-गोविन्द श्रृंखला का चित्र है, जिसमें दो मानव आकृतियाँ बनाई गई है, एक राधा व एक कृष्ण । चित्र को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे कि राधा कृष्ण से रूठी है तथा धरती पर घनी झाड़ियों के मध्य आँखे मूंदे हुए शयन अवस्था में लेटी हुई है। राधा की चिन्ता या परेशानी का भाव उसकी बंद आँखों से भी साफ झलक रहा है। राधा की इस अवस्था को देख कृष्ण भी चिन्तित होकर राधा को मना रहे है। कलाकार द्वारा पूरे चित्र का ऐसा वातावरण चित्रित किया गया है जो राधा की बैचेनी, चिन्ता व व्याकुलता को देख, सम्पूर्ण चित्र वातावरण उदासी की अवस्था में प्रतीत हो रहा है। अतः चित्र का पूर्ण रूप से भाव यह है कि अगर नारी उदास हो तो उसकी छाया रूपी प्रकृति कैसे प्रसन्न हो सकती है।
चित्र संख्या-5 ‘मानिनी राधा’ (गीत गोविन्द)
रामगोपाल विजयवर्गीय जी का मानना है कि कलाकार ही है, जो इस दृष्टिकोण को समाज के समक्ष अपने चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत करता है, ताकि लोग अपनी भारतीय संस्कृति को पहचाने और प्रकृति की छाया स्वरूपी नारी आदर्श रूप को स्वीकार कर, उसे सम्मानीय दृष्टि से देखे। कलाकार ने भी इसीलिए नारी के यथार्थ को आदर्श सौन्दर्य के रूप में अपनी कला रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है, ताकि समाज में नारी स्वरूप का वर्चस्व सुरक्षित व सम्मानीय रखा जा सके।
सम्मान व पुरस्कार :
रामगोपाल विजयवर्गीय जी को उनके निष्ठापूर्ण अनवरत कलाकर्म के लिए अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। 1945 से 1966 ई. तक उन्होंने राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट्स में प्राचार्य के पद पर कार्यभार संभाला। 1958 ई. की द्वितीय वार्षिक कला प्रदर्शनी में उनको पुरस्कृत किया गया। विजयवर्गीय 1958 से 1960 ई. तक राजस्थान ललित कला अकादमी, जयपुर के उपाध्यक्ष पद पर रहे। 1970 ई. में उनको राजस्थान ललित कला अकादमी द्वारा प्रदेश के सर्वोच्च कला सम्मान ‘कलाविद्’ से सम्मानित किया गया। 26 जनवरी, 1984 ई. को भारत सरकार ने उनको ‘पद्मश्री’ की उपाधि से अलंकृत किया। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 1987-88 ई. में ‘फैलोशिप’ तथा 1989 ई. में उनको राष्ट्रीय ललित कला अकादमी, दिल्ली ने ‘रत्न सदस्यता’ के साथ ही ‘आइफैक्स’ की त्रेसठवीं वार्षिक प्रदर्शनी के अवसर पर ‘कला रत्न’ से भी सम्मानित किया।(14) 1992 ई. में भारत के तत्कालीन उप-राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा द्वारा विजयवर्गीय जी के सम्मान में ‘रूपांकन’ अभिनन्दन ग्रन्थ का लोकार्पण किया गया तथा राज्य सरकार द्वारा उनको राजस्थान ललित कला अकादमी के ‘अध्यक्ष’ पद पर भी मनोनीत किया गया। उन्होंने जीवन के अंत तक सक्रिय रहकर चित्रांकन किया और कला के प्रत्येक आयोजन, गोष्ठियों में उत्साह से भाग लेकर अपनी सक्रियता प्रदर्शित करते रहे। इस तरह कलाकार का योगदान कला जगत् में सराहनीय रहा।
अध्ययन का उद्देश्य :
कला जगत् की चेतना के प्रवाह को गतिशील बनाये रखने के लिए दृश्य कला को विकसित किया जाना जरूरी है तथा कलाकार द्वारा अपनी अन्तर्मन की अभिव्यक्ति को चित्रों के माध्यम से बाह्य जगत के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। रामगोपाल विजयवर्गीय जी द्वारा भी लघु चित्रों के महत्व को पहचाना गया तथा काव्यात्मकता के आधार पर नारी सौन्दर्य के विविध स्वरूपों का चित्रण किया गया, जिससे समाज में नारी की आदर्श छवि को ओर सम्माननीय बनाया जा सके।
रामगोपाल विजयवर्गीय जी ने परम्परागत भारतीय काव्यों में नारी सौन्दर्य का जो पक्ष प्रस्तुत किया गया है, उसे चित्रण के माध्यम से दृश्य रूप दिया है। उन्होंने समाज की जननी नारी को प्रकृति की छाया बताया है अर्थात् नारी को ब्रह्म की आदि शक्ति बताया है। नारी के बिना सृष्टि का कोई आधार नहीं है। इन्होंने नारी के चित्रों में वात्सल्य, करुणा, दया, प्रेम, विरह, समर्पण, लज्जा, उत्साह, साहसी आदि भावगत रूपों का चित्रण किया है। रामगोपाल विजयवर्गीय की कला में नारी के इन रूपों से प्रभावित होकर ही उक्त विषय को इस शोध-पत्र के लिए चुना गया। इस शोध पत्र का उद्देश्य वियजवर्गीय जी की कला में नारी-सौन्दर्य के यथार्थ से हर-विशेष को परिचित करवाना रहेगा।
निष्कर्ष : प्रस्तुत शोध-पत्र का विषय “रामगोपाल विजयवर्गीय के चित्र-सृजन में नारी सौन्दर्य का रूपांकन” का अध्ययन है, जिसके अन्तर्गत कलाकार के व्यक्तित्व व कृतित्व पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया है। कलाकार द्वारा काव्य को आधार बनाकर नारी सौन्दर्य के विविध स्वरूपों को चित्रित किया गया है, जिसमें वाश व टेम्परा के सहयोग से चित्रांकन किया गया है और नयी चित्र शैली विकसित की गयी है, जिसे ‘विजयवर्गीय शैली’ कहा गया। इस शोध-अध्ययन के अंतर्गत कलाकार की कल्पना एवं कवि के काव्यात्मक लेखन का सहयोग प्रदर्शित होता है अर्थात् कवि की मानसिकता को चित्रकार कितने सजग रूप में चित्रित कर पाया है, इसी को ध्यान में रखते हुये उनके चित्रों की सौन्दर्य व्याख्या की गई है। कलाकार द्वारा मेघदूत, कुमारसंभव, विक्रमोवर्शीय, अभिज्ञान शाकुंतलम, रामायण व ऋतुसंहार आदि काव्यों में वर्णित नारी सौन्दर्य के यथार्थ को चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। अतः कहा जा सकता है कि रामगोपाल विजयवर्गीय राजस्थान के पहले ऐसे कलाकार हुये, जिन्होंने तत्कालीन प्रभावों से विमुक्त होकर कला जगत् में एक नवीन कला शैली का सूत्रपात किया। यह शैली अजंता की आकृतियों के सौन्दर्यतत्व, बंगाल कला की वाश तकनीक तथा पौराणिक विषयों से उद्धृत समसामयिक प्रासंगिक संदर्भों पर आधारित थी। विजयवर्गीय के चित्रों में ‘नारी’ चित्रण अत्यधिक कमनीय लावण्यमय एवं भावोद्रेक है, जिसमें नारी आकृतियाँ अत्यन्त आकर्षक एवं विभोहित करने वाली है। इनके चित्रों का बहुत सुन्दर पक्ष नारी की सर्जना है, जिसमें भावों की सफल व्यंजना देखी जा सकती है। क्षण-क्षण परिवर्तित होते हुए नारी-सौंदर्य को विजयवर्गीय जी ने अपने कला-कर्म से अमर कर दिया है। आज जो देशज भावना राजस्थान के समकालीन चित्रकारों में प्रतिलक्षित होती है, उसका श्रेय मुख्य रूप से रामगोपाल विजयवर्गीय जी को ही जाता है। उन्होंने कहा था- “हम भारतीय है और हमारे सृजन में भी भारतीयता की छाप होनी चाहिए।’’ इसलिए कहा जा सकता है कि विजयवर्गीय जी एक सुलझे हुए, विचारशील कलाकार हुये, जिनका राजस्थान के कला जगत् में विशेष योगदान रहा, जिनकी कलात्मक उपलब्धियां आज भी गरिमामय एवं मुखर दृष्टिगत होती है।
सन्दर्भ :
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सुनिता मीणा
शोधार्थी, चित्रकला विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
sunitakishor1989@gmail.com, 9024066185
दृश्यकला विशेषांक
अतिथि सम्पादक : तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-55, अक्टूबर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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