कैसे और किस तरह से बदल रहे हैं गाँव ? गांवों को लेकर जिस तरह का युटोपिया रचा गया उनके बारे में कुछ कहा जाए। भारत गांवों का देश है। भारत की संस्कृति गाॅवों में बसती है। यहां घी दूध की नदियां बहती है। यो तो गाँवड़ा रो छोरो हैं। एक बात तो तय है कि गांवों को लेकर अनगिनत विरोधाभास हैं। यह संस्कृति शब्द गाॅवों के साथ गहरे से पेबंद किया गया है। दूसरा शब्द धर्म है। जो गांवों की संस्कृति का रक्त संचार तय करता है। कलजुग है धर्म कर्म का नामोनिशान कहां बचा है? अब कौन बा्रहमणों को दान दक्षिणा देता है। आजकाल रा छोरा तो और भी खराब है। माताजी के यहां कहां आते हैं। मोबल ने रहा सहा धर्म भी उठा दिया। अपना तो जीना भी दुभर हो गया। जिन्हें कहावते कहा जाता है वे किसी भी समाज की कितनी सारी बातों को उजागर कर सकती हैं इसकी बानगी। छोरा छोरी घर वसे तो बाबो बुढ़ी क्या लावे! रांडा रा कई भरोसा!,नकरा मति करो पराये घर जाणों है। कन्या दान तो करनो ही है। बेटी तो परायो धन है। आटो साटो तो करनो ही है। वारे रांडया वा,। गाॅवों का जीवन औरतों के प्रति ज्यादा ही निर्दयी होता है। एक तो पितृसत्तात्मक समाज ऊपर से वह पराया धन है। वह दान की वस्तु है?गांवों का समाज आर्थिक रुप से समृद्ध हुआ है। वहां की बेरंग जिंदगी में समृद्धि के कईं रंग समय के साथ पैदा हुए हैं। हमारे बचपन का गाँव और आज का गाँव बहुत बदल गया है।
यह कोई दस-पंद्रह बरस का समय होगा। इसमें बहुत कुछ क्या गांवों का हुलिया ही बदल गया है। कहां हमारे घर में एक साईकिल हुआ करती थी और चलानेवाले हम तीन! पिताजी भाईसाब और मैं। आज उस साईकिल का कहीं पता भी नहीं! घर-घर में गाड़ी। यह तो आम बात है। टेªक्टर, कार, जेसीपी जैसे साधन आ पहुंचे हैं। यह गाड़ी किसी तरह का आश्चर्य नहीं रही, वह गाँव के जीवन का अनिवार्य अंग हो गई। उसके बगेर कोई काम होता ही नहीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि तकनीक ने मनुष्य के कार्यों को आसान किया। मोबाइल, कम्प्युटर क्या नहीं है वहां! न्हीं है तो आलोचनात्मक बोध।गाॅवों के साथ एक बात बहुत गहरे से जुड़ी हैं। ये लोग अंधविश्वासी होते हैं। हर कदम पर देवता विराजते हैं। घर में , आँगन में, दरवाजे पर, रास्ते पर, खेत पर, तालाब के किनारे, ये समझे कि यहां भारी मात्रा में देवताओं का भण्डार है। हिन्दू शास्त्र में तो तैंतीस करोड़ देवता की संख्या है। हर जाति के अपने देवता है। कोई भी सुकून का कार्य हो सबसे पहले देवता भोग लेते हैं। देवताओं के बीच एक वार्ताकार होता है। क्योंकि देवता तो पत्थर के होते हैं और वे जाहिर है बोल नही सकते। तो यह बिचोलिया हर जगह होता है। यह पंडित, या इसको भोपा कहा जाता है। भाई जो कहो पर होती ये बड़ी जादूई चीज है। इसको जादुई यथार्थ के साथ जोड़कर देखे तो बहुत सारे रहस्यों से पर्दा उठ सकता है। इसमें देवता प्रवेश करते हैं और फिर यह अपना करतब दिखाता है। इसके पास जात्री आते हैं। अपने दुखड़े लेकर। जिनकी यह रामबाण औषधी देता है। जात्री के दुखड़े क्या होते हैं, किसी औरत को संतान नहीं हो रही, किसी के बेटे की शादी नहीं हो रही, किसी के पेट में दर्द है, तो किसी की जवान बेटी घर में बैठी है, तो किसी के कुएं में पानी सूख गया, तो किसी का धर्म भ्रष्ट हो गया। इनके साथ बहुत गहरे अंध विश्वास जुड़े हुए हैं। इनके चक्कर में लोग अपने को उलझाये रखते हैं और अपना अपने समाज का दुगुना नुकसान करते हैं।
सड़के बन गई हैं। नल आ गये हैं। छप्पर के घर की जगह मकान बन गये हैं। घर-घर में गाड़ी है। लोग परदेश कमाने लगे हैं। समृद्धि का आलम यह है कि प्लाट खरीदना आम बात हो रही है। भूमाफिया का कारोबार बहुत फैला है। इस बाजार ने मनुष्य के नैतिक और अनैतिक होने के फर्क को जिस तरह से खत्म किया वही हाल धरती के साथ हुआ। काली मिट्टी और बंजर की फर्क खत्म कर दिया। आज परती जमीन ज्यादा कीमती है। इसीलिए खेती किसानी बहुत महंगा सौदा हो चला है। कल तक जिस जमीन पर घास होती थी वह आज करोड़ो की हो चली है तब किसान खेती क्यों करेगा? वहीं जिस किसान के पास जमीन नहीं है उसके क्या हालात हो सकते हैं उसका अंदाजा लगाया जा सकता है। तमाम नीची जातियों के लोगों के पास जमीन उतनी नहीं है जितनी गाँव के तथाकथित श्रेष्ठों के पास है। विभाजन साफ है।
ये कैसा धर्म का नशा है कि निम्न जातियों के लोग धर्म के नाम पर वही करते हैं जो कार्म काण्ड का हिस्सा है। वे मंदिर बनाना श्रेयकर समझते हैं। अपने लोगों की मदद करना उनको अच्छा नहीं लगता। अपने देवता इजाद कर लेते हैं। बाबा रामदेव का मंदिर बनाकर पूजा करते हैं। भगवा धारण कर अपने को बहुत गोर्वान्वित महसूस करते हैं! जहां उनका रोटी बेटी का रिश्ता नहीं है! वहां वे भगवा पहनकर जाते हैं! पर जाते हैं? समाज का विभाजन इस तरह का है कि धर्म की खोल में क्षणित समय के लिये लोगों का जातिगत भेद खत्म होता है वहीं मनुष्यता के नाम पर समानता के लिए वहां कोई जगह नहीं है। मीरा को यह समाज एक भक्तिन के रुप में ही पचा सकता है विद्रोहीणी के रुप में नहीं, इसकी कुछ तो वजह होगी?
जिनके बर्तन आज भी अलग रखे जाते हैं जिनको आज भी अपनी बात कहने का हक नहीं है। उनको मंदिर बनाने की पड़ी है। यह कैसा रहस्यवाद है? जिसके सामने सामने सारे के सारे यथार्थ बेरंग हो जाते हैं? यह शास्त्रों का मैला कब तक ढ़ोना होगा। पंचायती नौहरे में तुम्हारी पंगत सबसे अलग और सबसे बाद में लगती है। वहां तुम जाते ही क्यों हो? जहां तुम्हारा सम्मान ही नहीं है वह तुम किस मुंह से जाते हो? उसको हमेशा के लिए ठकरा दो! फिर देखो क्या होता है।क्या इस समृद्धि के साथ इस समाज का मानसिक विकास हुआ है? जातिवाद को खत्म करने में इस विकास ने कोई योगदान दिया है? अगड़ों और पिछड़ों में रोटी बेटी का कोई रिश्ता बन पाया है? जाति के नाम पर पंचायती नौहरे बनानेवाले हो वहां समानता कैसे आएगी। यह बा्रहमणों का नौहरा, यह राजपूतों का नौहरा, यह पाटीदारों का नौहरा! यह हरिजनों का नौहरा! हरिजन कहता है अन्नदाता लावजो! मकर सक्रांति पर उनको न तो अन्नदाता कहना होगा न मांगना होगा। उनको इसका जबरदस्त प्रतिवाद करना होगा। सबसे पहले तो अपने मन के गुलाम को मारना होगा और अपने को आजाद करना होगा। अपने पर भरोसा पैदा करना होगा। तभी जाकर यह संभव होगा कि आप अपने को समाज में सामाजिक स्तर पर समानता के स्तर पर खड़ा करेंगे। इससे तथाकथित श्रेष्ठ कहलानेवाले लोग अपने आप ही ठिकाने आने लगेंगे। अपनी गंदगी खूद साफ करेंगें तो आभिज्यात्यपन का नशा आप ही उतरता जाएगा।
शिक्षा के नाम पर वही स्कूल जहां बाप पढ़ता था वहीं बेटा भी पढ़ रहा है। वही मास्टर वही किताबें बस हर्फ बदल गये हैं। ज्ञान के नाम पर यही है। दसवीं या बाहरवीं की कि परदेश चले गये। लम्बा चोड़ा परिवार, सारे काम करने हैं। तमाम सामाजिक रीति-रिवाजों का निर्वाह करना है। जात के बगेर कैसे काम चलेगा। वही करते रहना जो बाप-दादा करते रहे। उससे आगे क्या है? वही चक्र उसी में पैदा होना है उसी में मरना है। शिक्षा के प्रति इतनी वितृष्णा क्यों हैं। मां-बाप कितनी श्रृद्धा से अपने मां-बाप का क्रिया कर्म करते हैं उससे आधे मन से भी अपने बेटे को पढ़ाना पंसद नहीं करते। बेटी की बात तो छोड़ दीजिए। वह कितना पढ़ेगी! ज्यादा से ज्यादा दसवीं या बाहरवीं। बहुत है। कितना भी पढ़ले चलना तो घुंघट में ही है। और वैसे भी जाना कहां है? चुल्हा चैका ही तो करना है। बाप- दादाओं की मौत होने पर रोना-धोना करना। यही तो काम है औरतों का।
बवंडर में जो दिखाया वह क्या है? ‘यो तो आखातिज रो सावो है, थे तो जाणों हो , थे तो राजपूत हो‘ यो तो पुरखा सू चली आई रीत है, कानून तो अब बण्यो है। या कई वात करो बेनजी! थाणे कथे फुर्सत है। मारे कने फुर्सत कौनी मैं अपनी गृस्ती कोनी सुखी हा। मारी छोरी भी परण्यो री है। बालपणा में टाबरारो ब्याह हो जावे तो मां-बाप री चिंता मट जावे। खर्चों भी बचे। बचपन में पचपन का बना देनेवाली यह सामाजिक संरचना बहुत गहरे विभेद पर खड़ी है। यहां हर जाति अपने से नीचे की जाति ढूढ़ लेती हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह कथन कहां से गलत हैं। गुलाम के बारे यह सच है कि वह अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर सकता लेकिन आदेश मिलने पर वह कुछ भी कर सकता है। गांवों की औरते राजनीति में आ रही है। महिला कोटा पर कौन लड़ेगा! महिला। पर राजनीति उसका पति करेगा। सरपंच उसे कहा जाएगा। कर्ताधर्ता वही होगा। पत्नी औरत तो मोहरा होगी। राजनीति जैसी फिल्म में बताया है कि औरत मोहरा ही होती है। वह किसी भी रुप में हो।
बाबासाब अम्बेडकर गाॅवों को नरक कहते हैं। निम्न जाति का मजदूर खेत में श्रम कर फसल को संवारता है। वही फसल तैयार होने के बाद जब तथाकथित श्रेष्ठ के घर जाती है और उसका वर्ग बदल जाता है। गाॅवों के जीवन में जिस तरह का खापों का खौफ है। उसका निपटारा कैसे करना है इस पर सोचने की जरुरत है। गाँव के जीवन में सामाजिकता ही निर्णायक होती है। वहां व्यक्ति की सोच को निर्मित होने का अवसर ही कहां मिलता है? सामाजिकता का विधानमूलक दबाव और ज्ञान और उचित मार्ग-दर्शन के अभाव में प्रतिभाएं अंकुरित होने से पहले ही कुमला जाती है! यों कहें कि जड़तामूलक सामाजिकता द्वारा शिकार कर ली जाती है। यह विचित्र है कि ये लोग आज भी वंशावली को बनाये रखने और पितृसत्ता को विस्तार देने की चिंता सबसे ज्यादा करते हैं। बेटा नहीं हुआ तो क्यों नहीं हुआ। देवी-देवता की मन्नत में अपनी सम्पूर्ण ताकत और धन खर्च कर देंगे। मातृभूमि फिल्म ‘एक औरत विहिन राष्ट्र‘ की हकीकत को बया करते हैं ये लोग। बेटी को पैदा होते ही मार कर आप बेटी की तलाश कर रहे हैं! जिस गाँव में पंद्रह सालों से कोई शादी नहीं हुई और जब होती है तो वह भी एक लड़के को धोके से लड़की बनाकर ? जहां लड़की मिलती है तो पांचों भाई एक ही लड़की से ब्याह कर लेते हैं और तो और बाप भी उसका पति बनकर उसके साथ राते गुजारता है। लड़की का बाप पांच लाख लेता है। जब उसको यह खबर मिलती है कि उसका ससुर भी उसके साथ राते गुजारता है तो उसका बाप एक लाख और वसूल करता है। यह सब खुली आँखों के सामने होता है। क्या यही दिन देखने के लिए मनुष्य ने यह विकास यात्रा तय की?
गांवों की प्राणवायु कितनी दूषित है। हमारे बुजुर्ग इस तरह की कहानियां बड़े फक्र से सुनाते हैं। एक बार इन मेहतरो ने मोटे कड़ाये में लापी बणायी। इनको यह सब मना था। रावजी को खबर लगी कि दरबार का कारिंदा आया और लापी में रेत मिला कर चला गया। वो जमानो थो कि रावजी री चालती थी। अबे तो कानून वणी ग्या। नी तो गाँव में आवा रा हिम्मत नी करता। आजकाल को गाँव में पंसाती करे। यह वह बुजुर्ग कह रहा है जिसके घर में खाने के दाणे नी हैं। ये तो छोटी सी कहानी है ऐसी कितनी ही कहानियां हैं। जिनके आलोक में समाज की हकीकत को समझा जा सकता है। किसी ने कहा है कि एक दयावान राजा था और एक करुणामयी रानी थी, इन कहानियों को अब बदलना चाहिए, बच्चे बड़े हो रहे हैं।
मृत्यु भोज का क्या क्रेज है इस समाज में। एक आदमी ने एक ही साल में सात बार पूरी जात को खाना खिलाया। मृत्यु भोज के नाम पर। कर्ज ले लेकर। मैं एक कहानी सुनाता हूं। मेरे पिता मुझे सुनाया करते थे। उस जमाने में मृत्यु भोज में मालपुआ बनाने का क्रेज था। दो भाई थे उनमें कभी नहीं पटी। अपने बाप की मौत पर दोनों का काजकर्यावर करना था तो दोनों ने अलग-अलग करने की बात की। दोनों का बायकाट कर दिया। बिरादरी के बगेर कहां इस देश में मुक्ति का कोई रास्ता कहा है ! फिर क्या था फरियाद तो करनी ही थी। दोनो पहुंचे। दोनों ने अपने बाप की मौत के छः माह बाद मृत्युभोज किया और दोनों की अलग-अलग भट्टिया चली एक बार इधर से तो एक बार उधर से। इसका कर्जा दोनों बरसो चुकाते रहे। पर अपने बाप को वैतरणी पार करवा के ही माने
(केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं पर शोधरत कालूलाल
मूलत:कानोड़,उदयपुर के रेवासी है.)
वर्तमान पता:-
महात्मा गांधी अंतर राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,
पंचटीला,वर्धा-442001,मो. 09595614315
थैंक्स सर
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