संकटों कें इस बेहद कठिन दौर में कवि कर्म उत्तरोतर कठिन होता जा रहा है ,मनुष्य की चमड़ी और भी मोटी होती जा रही है। मनुष्य लोथड़े में तब्दील होता जा रहा है, ऐसे में मनुष्य सही और गलत को पहचानने की अंतरद्रष्टि खोता जा रहा है। चमक के आगे सब धुंधला रहा है। शक्ति और नैतिकता के बीच की खायी गहरी होती जा रही है, ऐसे में, जिसे लघु मानव कहें या आम आदमी कहे, वह किस पर भरोसा करे और किस पर नहीं, यह बहुत ही संश्लिष्ट सवाल है।
जय प्रकाश मानस का कविता संग्रह ‘अबोले के विरुद्ध‘ ऐसे ही कईं रहस्यों को भेदता हैं। यह अज्ञेय की उस काव्य पंक्ति की याद दिलाता है कि ‘मौन भी एक अभिव्यंजना है‘ रघुवीर सहाय भूलने के विरुद्ध कहते हैं। केदारनाथ अग्रवाल उसे ‘बोले बोल अबोल‘ कहते हैं। यहां विरुद्ध शब्द की अर्थ गर्भिता की पड़ताल आवश्यक है। आखिर कौन किसके विरुद्ध है? और क्यों है? आज पक्ष और प्रतिपक्ष का भेद बहुत दुसाध्य होता जा रहा है। पंूजीवाद की वैश्विक व्यवस्था पूरी तरह से भ्रष्टाचार और अनैतिकता पर टीकी है। इसे कईं बार देखा जा चका है। वहां नैकितका पूरी तरह से विस्थापित मूल्य है। पालिश कवयित्री विस्लावा शिंबोर्स्का की 1996 में नोबेल पुस्कार के समय पढ़ी कविता याद आती है, ‘‘हमने सोचा था कि आखिर खुदा को भी/एक अच्छे और ताकतवर इंसान में भरोसा करना होगा/लेकिन अफसोस इस सदी में/इंसान अच्छा और ताकतवर एक साथ नहीं हो सकता‘‘ (जनसंदेश टाइम,लखनऊ, 24 जुलाई 2011)
मानस की कविताएं इंसान के अच्छे और ताकतवर होने के विरोधाभास को समेटे हुए आविष्कृत होती चलती हैं। खतरा कविता में कवि कहता है कि मनुष्य के जंगल में खो जाने से कोई खतरा नहीं है असल उसे बाहर से नही ‘खतरा यदि कहीं है तो/मन में घात लगाये बैठे/घुसपैठिये से/ भय से/ पृसं-46‘ यह डर किसका है? यह डर मनुष्य के शक्तिशाली हो जाने पर अच्छे इंसान न रहने का है, उसके इंसान न बने रहने का है। यह डर मनुष्य के जोखिम न उठाने का है! वह सब कुछ आसान चाहता है इसीलिए वह अबोला रहता है, बोल की लब आजाद है तेरे से डरता है।जबकि उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है और पाने के लिए सारी दुनियां है। यह अबोले तटस्थ लोग‘कौउ नृप हो हमें का हानि, के सिद्धांत पर चलते हैं या फिर‘सबसे बड़े वे मूढ़ जिन्हें न व्यापे जगत गति‘ की जड़ता के शिकार लोग है। पंजाबी के प्रसिद्ध कवि पाश जिसे‘सबसे खतरनाक होता है किसी के सपनो का मर जाना कहते हैं‘ कवि कहता है‘जो नहीं उठाते जोखिम/जो नहीं खड़े होते तनकर/जो कह नही पाते बेलाग बात/जो नहीं बचा पाते धूप-छॉह/यदि तटस्थता यही है/तो सर्वाधिक खतरा/तटस्थ लोगों से है।‘ पृसं-41 यह कवि जिस जगह पर बैठकर कविता लिखता है उस जगह से सभी परिचित है। वहां राज्य की जितनी किरकिरी होनी, हो चुकी है। वैसे भी जल जमीन और जंगल की लूट का खेल उजागर हो चुका है। कौन किस मौर्च पर किसके साथ है? सवाल यही है। लालगढ़ हो या पूर्वोत्तर के हालात या फिर आये दिन घटनेवाली घटनाएं मारी जनता ही जाती है! कश्मीर और पूर्व में सेना का खेल चल रहा है और उसकी आड़ में राष्ट्र-राज्य की अपधारणा मजबूत हो रही है! कवि कहता है‘‘जब आप दोनों तरफ से घिरे होंगे/गोली कहीं से भी चले/ मारे सिर्फ आप ही जाएंगे'‘ पृसं-९५
'अपनी माटी' वेबपत्रिका के सम्पादन मंडल सलाहकार जय प्रकाश मानस जी |
मानस की कविताएं हिंसा के शिकार मनुष्य की पीड़ा को व्यक्त करती है। वह अपने आसपास के संवेदन जगत की यात्राएं करते हुए चिड़िया,पेड़,हवा, बच्चों का खेलना, शब्दों का बचना, उनके अर्थों का बचा रहना, हवा में सुवास का बचना, रास्तों की धूल,मनुष्य को अपने होने की सुवास का बचना, ऐसे बहुत बिम्ब है मानस की कविताओं में! यदि कविता शब्दों का कहीं न कहीं शब्दों में अर्थों का आविष्कार है और जीवन की छोटी-छोटी प्रक्रियाओं में सुकून खोजना है, तो इन कविताओं से गुजरते हुए पाठक अपने संवेदन जगत को झंकृत कर सकता है। वह अपने को और अपने आपसास को बचाये रखने की जोखिम ले सकता है।
‘‘बची रहती हैं दो-चार बालियॉं
पूरी फसल कट जाने के बावजूद
भारी-भरमक चट्टान के नीचे
बची होती हैं चींटियॉं
बचे रहेंगे ठीक उसी तरह
सूखे के बाद भी
रेत के गर्भ में थोड़ी-सी नमी
अटाटूट अंधियारे वाले जंगल में
आदिवासी के चकमक में आग ‘‘
पृसं-‘119
पृसं-‘119
पुस्तक- अबोले के विरुद्ध, जयप्रकाश मानस का (कविता संग्रह)
शिल्पायन प्रकाशन पंसं-2010
मूल्य-175
एक टिप्पणी भेजें