किसी अज्ञात कवि रचनाकार की खोज करना बहुत कठिन होता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कवि कबीर की खोज की और कबीर को उस रुप में समाज के सम्मुख रखा जिस रुप में उनको बहुत पहले रखे जाने की जरुरत थी। कबीर का हिन्दी साहित्य पर वही प्रभाव है जो कार्ल माक्र्स का समाजवादी साहित्य पर, रवीन्द्रनाथ टैगोर का आधुनिक साहित्य पर और गांधी जी का भारतीय राजनीति पर। ऐसे में हजारी प्रसाद द्विवेदी के कवि कबीर की तरह अर्जुन कवि की खोज शंभु गुप्त ने की, यह कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं है। यहां दोनों की खोज में अंतर इतना ही है कि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर के ऐसे पक्ष को उजागर किया था जो अभी तक उजागर नहीं हुआ था। वहीं शंभु गुप्त ने अर्जुन कवि की रचनात्मकता की पहचान करते हुए उसको दिशा दी और वह दिशा उसी तरह की है जिस तरह रामविलासजी ने केदारनाथ अग्रवाल को दी। यह द्रष्टि माक्र्सवाद की द्रष्टि थी जिसने केदार को क्या से क्या बना दिया? अर्जुन कवि के साथ भी वही हुआ। एक रचनाकार की पहचान कर उसकी रचनात्मकता को उचित दिशा प्रदान करने का कार्य उसकी पहचान रखनेवाला ही कर सकता है। इसे आलोचकीय द्रष्टि कहा जाता है। जो हर महान् रचनाकार में होती है।
अर्जुन कवि के पास उसी का अभाव था, जैसे ही वह अर्जुन कवि को मिली मानो अर्जुन कवि की रोशनी लौट आयी। सीखने की कोई उम्र नहीं होती, अर्जुन कवि ने पचास की उम्र में सीखा, उसके बाद इस कवि का दुनिया को देखने का नजरिया ही बदल गया। जिस आदमी को रास्ते चलते हुए गालियां दी जाती हो, जिस पर गोबर फैंका जाता हो और तब भी वह दोहे लिखता रहता हो और उसको यह सब खिताब इस कारण दिये जाते रहे क्योंकि वह वह तथाकथित श्रेष्ठ समाज के बीच नीची जाति का था और कुछ लिखता था, लेकिन अपनी सोच और विचार मंे वह कहीं भी किसी से कमतर नहीं था। अर्जुन कवि का जन्म 1936 ई. में ब्रज प्रदेश (राजस्थान) के करौली कस्बे क एक दलित परिवार में हुआ। कक्षा चार तक पढ़ाई। उसी में मन में आता और लिखते रहते। इक्यावन वर्ष की आयु में यह कवि अपने वास्तविक रचनाकर्म की शुरुआत करता है, वह प्रगतिशील लेखे संघ के सम्पर्क में आने से संभव होता है। ऐसे गुमनाम कवि की पहचान करना और उसको ‘पहल‘ जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका से हिन्दी समाज के सामने लाना अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण कदम था। अर्जुन कवि ने अपनी बात कहने के लिए दोहे जैसी ठेठ विधा का चुनाव करते हैं। दोहा अपभ्रंश का छंद है और हिन्दी में वहीं से ग्रहण किया गया है। कबीर ने इसको बहुत प्रतिष्ठा दी। जिस तरह कबीर के दोहो में सामाजिक विषमता के प्रति गहरा आक्रोश है।
कबीर विभेद पैदा करनेवालों को बहुत आक्रोश के साथ फटकार लगाते हैं।
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पुजू पहार।
तासे तो चाकी भली की पीस खाय संसार।।
अर्जुन कवि की रचनात्मकता हर तरह की मनुष्य विरोधी गतिविधि का जमकर विरोध करती है। वे मनुष्य के श्रम के साथ खड़े होकर समाज के विकास की बात करते हैं। हर तरह के विभाजन को नकारते हुए मानवता की तर्ज पर मनुष्य के उत्थान का स्वप्न बुनते हैं। उनका एक-एक दोहा नावक के तीर की तरह है।
कागज कम स्याही लगै, दोहा समय न लेत।
दो अक्षर सौ ज्ञान है, लम्बी बुद्धी देत।।
यही मारकता इनके दोहों में भी है। इस शोषणकारी समाज में व्यवस्था तरह-तरह से अपने को कल्याणकारी सिद्ध करती है लेकिन कवि उसकी हकीकत इस तरह बयान करता है
राजन तेरे राज कौ, बिन पै का अहसान।
जिन जन धन धरती नहीं,जीवैं स्वान समान।। पृसं- 24
यह कैसा सामाजिक विभाजन है कि जिसके पास संसाधन नहीं है वह कत्तों की जिंदगी जीने को अभिशप्त है। आजादी क्या है। किसकी जनवरी और किसका अगस्त के तर्ज पर कवि कहता है कि आजादी उसी के लिये हैं जिसके पास पैसा है। जिसके पास पैसा नहीं है वह क्या जाने आजादी क्या है आजादी की बाते क्या है? केदारनाथ अग्रवाल अपनी एक कविता पैतृक सम्पति में इसी तरह की बात कहते हैं कि जिसको विरासत में भूख मिली वह सौगुनी बाप से अधिक मिली वह क्या जाने आजादी क्या है? वह तो अपना पेट खलाये फिरता है?
अर्जुन कवि कहता है
अर्जुन राजन राज में, आजादी क्या चीज।
चाखी नहीं गरीब नैं,देखा कभी बीज।।
उडि़ गए हंसा राज के, आजादी दिलवाय।
रह गये बगुला तीर पै, राजतिलक करवाय।।
ये सब बगुला भक्त लोग आजादी के नाम पर कर्म काण्ड करते हैं और राजतिलक कराते हैं। हंस तो चले गये। ये बगुंले तरह-तरह की बहसे पैदा करते हैं और भूख पर भी बहस करते हैं। पर इनके पास किसी का कोई समाधान नहीं है? बस बहस के लिए बहस चलती है!
अर्जुन कवि अपने समय की तमाम समस्याओं पर बेबाक लिखते हैं। हर शोषणकारी व्यवस्था मनुष्य को, उसके बने रहने में ही मनुष्य के, बने रहने का भ्रम पैदा करती आयी हैं। वह तरह-तरह से मनुष्य को अपना मानसिक गुलाम बनाती है। अर्जुन कवि कहते हैं कि वह किस तरह से मनुष्य को अपना गुलाम बनाता है।
अर्जुन पूंजीवाद तौ, विषधर की संतान।
दौलत को खाता नहीं,खाय कबर इंसान।। पृसं -18
महाजनी सभ्यता मनुष्य के मरने के बाद उसकी कब्र तक पहुंच जाती है।
अर्जुन कवि की चिंताएं बहुत गहरी हैं। हर बदलते घटनाक्रम पर यह कवि लिखता है। कवि कहता है कि ‘मैंने पुस्तक नहीं पढ़ी, मैंने पढ़ा समाज‘। समाज को पढ़ना सबसे कठिन होता है। यह कवि गिनीज बुक आॅफ वल्र्ड रिकाडर््स में दर्ज हो चुका है। अर्जुन कवि महज गणित के आंकड़ों का भ्रम पैदा करने वाले कवि नहीं है। उनकी कला लाखों लोगों के मन तक पहुंच सकने वाली कला है। वहां पौथी नहीं, जग को बांचने की कला है और यह कला किसी भी तरह से छांदस मूर्खो की कला नहीं है। यह गहरे पैठने से पैदा हुई कला है। कवि कहता है
अर्जुन अनपढ़ आदमी, पढ्यौ न काहू ज्ञान।
मैंने तो दुनिया पढ़ी, जन-मन लिखू निदान।।
क्या उर्दू इंगलिश पढू क्या दे हिन्दी ज्ञान।
पढ़े आदमी कूँ पढू भटक रहा इन्सान।।
वर्तमान व्यवस्था का पूरा का पूरा तंत्र लूट में लगा है। राज्य अपने लोकल्याणकारी सरोकारों का त्याग कर बाजार के हवाले लोक के कल्याण का भ्रम रचने में लगा है। बाजार ही आज के मनुष्य का नियंता बन चुका है। ऐसे में आम आदमी के पास बची है तो अपनी ही ताकत, व्यवस्था उसके लिए खुद समस्या बनती जा रही है। ऐसे में मेहनत करनेवालो का क्या? उनका कुछ नहीं है।
राजन बेई मान है, महजब गाल बजाय।
जब धरती भगवान की, सब जन क्यों नहिं पाय।। पृसं-५९
अर्जुन कवि हरेक को बराबर का दर्जा देने की बात करते हैं। यहां हर इंसान बराबर है, फिर इतना विभाजन क्यों है? प्रकृति ने एक ही सृष्टि बनायी और मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए राष्ट्र-राज्य बनाये, तरह-तरह के शक्ति संरचना केन्द्र बनाये और मनुष्य के श्रम का दोहन कर शोषण को अपने शक्ति केन्द्र से मान्य किया! अर्जुन कवि शोषण के हर तरह के सत्ता केन्द्र को चुनौती देते हैं और मनुष्य-मनुष्य को बराबर का दर्जा प्राप्त करने के संघर्ष को अपने दोहों में प्रखरता से प्रस्तुत करते हैं।
कुदरत नैं धरती रची, लिखा न हिन्दुस्तान।
ना अमरीका रूस है, ना हि पाकिस्तान।।
पैगम्बर अवतार तौ, हो-हो मरे जहान।
बीतीं बीस सताबदी, मरा नहीं सैतान।।
मेहनत एक मशाल है, कर देती पिरकास।
कभी अन्धेरा ना रहै,बया बनावै बास।। पृस-31
सृष्टि का सौंदर्य मनुष्य के श्रम का सौंदर्य है। श्रम मनुष्य को अपने होने का अनुभव कराता है यह श्रम का ही प्रतिफल था कि आज के आज के विज्ञान के युग में दशरथ माझी एक अकेला आदमी पहाड़ को काट देता है! और रास्ता बना देता है! वे सुलझाते हैं। जैसा कि
कबीर कहते हैं कि ‘मैं कहता सुरझावन हारि तू रखियों अरुझायी रे।
तेरा मेरा मनुवा कैसे इक होई रे।।
तू कहता कागद की लेखी मैं कहता हूं आँखिन देखी।‘
कबीर की तरह समाज को पढ़नेवाला यह कवि रोजमर्रा की घटनाओं पर भी लिखता है और जीवन-दर्शन पर भी लिखता है। शंभु गुप्त पुस्तक की भूमिका में लिखते है, ‘अर्जुन कवि का निष्कर्ष है कि समूची मौजूदा व्यवस्था जन-विरोधी है। पहले यह तथ्य दबा-ढॅका और अस्पष्ट था लेकिन अब पूरी तरह साफ हो गया है और सतह पर आ गया है। जो लोग इस राज्य को संचालित कर रहे हैं वे और जो इससे शासित हैं वे दोनों ही साफ-साफ समझ गए है कि राज्य अब कल्याणकारी नहीं रहा। यह तो हुआ ही है लेकिन इससे भी खतरनाक बात यह हुई है कि अधिकांश लोग इस बात अब लगभग एकमत है कि राज्य कल्याणकारी नहीं हों सकता, नहीं होता; उसे ऐसा नहीं होना चाहिए! यह सोच नयी विश्व-अर्थ-व्यवस्था और नए विश्व-पूॅजीवादी अर्थशास्त्र का असर है। (भूमिका से)
इस कवि की समाज को पढ़ने की समझ को इससे समझा जा सकता है कि वह किस तरह अपने गाँव के जीवन से लेकर वैश्विक स्तर की हलचलों पर अपनी पैनी नजर रखता है और उसको दोहो में उतारता है।
पुस्तक- दो अक्षर सौ ज्ञान- अर्जुन कवि
संकलन, चयन, पाठ-निद्र्धारण, पाद-टिप्पणी एवं प्रस्तुति - शंभु गुप्त
शिल्पायन प्रकाशन, प्रसं-2010 मूल्य-175
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