समीक्षा:-''लोर्का को पढ़ते हुए भगतसिंह, सफरद हाशमी, हबीब तनवीर, गदर, शिवराम की रचनाएं कौंधती हैं।''-कालुलाल कुलमी


दूर से खाका खींचते हुए उन्हें याद करना नामुमकिन है। वह तो एक बिजली की तरह थे। उमगती ऊर्जा, खुशी, मेधा और अल्हड़ता, जो पूरी तरह अतिमानवीय थी। उनकी शख्सियत जादुई और असरदार थी। वे मुस्कुराहटें लेकर आते थे।‘ -        पाब्लो नेरुदा  (पृसं-14)   
    
फेदरीको गार्सिया लोर्का 
फेदरीको गार्सिया लोर्का का जन्म 1898 में स्पेन के ग्रानादा इलाके में हुआ। लोक के गहन अध्येता लोर्का का काव्य संसार लोक जीवन के अनुभवों का भण्डार है। यह स्पेन का ऐसा कवि था जिसने गिटार-पियानो बजाते, काॅफी हाउसों में बहस करते, बंजारों-बुद्धिजीवियों-किसानों के बीच रहते हुए अपने सृजन को नये आयाम दिये। मात्र 22 वर्ष की उम्र में प्रकाशित नाटक और 23 वर्ष की आयु में प्रकाशित कविता संग्रह ने उनको अपने लोगों के बीच जरुरी बना दिया। लोर्का को पढ़ते हुए भगतसिंह, सफरद हाशमी, हबीब तनवीर, गदर, शिवराम की रचनाएं कौंधती हैं। भगतसिंह को गुलाम भारत में मारा गया, वहीं सफदर की हत्या कर दी गई थी आजाद भारत के लोकतंत्र में, वही लोर्का के साथ स्पेन में हुआ।

लोक जीवन को साधते हुए रचनात्मक श्रेष्ठता अर्जित करना अपने आप में कठिन साधना है। तमाम तरह की कटट्रवादी ताकतोें का सामना करते हुए अपने को संघर्ष की भूमि पर बनाये रखना ही बहुत कठिन होता है। इस कवि ने अपने जीवन मेंवहकिया, जिसकी कीमत उनको चुकानी पड़ी। मात्र 38 वर्ष की आयु में लोर्का की हत्या कर दी गई। आज तक इसका पता नहीं चला कि लोर्का की मृत देह कहां दफनाई गई। स्पेन के गृहयुद्ध में लोर्का ने तमाम अंधराष्ट्रवादी ताकतों का विरोध किया और लोकतंत्र का पक्ष लिया।

लोर्का अपने समय में किसी भी तरह से अलग-थलग नहीं रहे। वे युवा कवियों के एक पूरे गुट के अगुवा थे। 20वीं सदी की शुरुआत में पनपा यह गुट इस्पानी साहित्य मेंसत्ताइस की पीढ़ीके नाम से जाना जाता है।यह नाम गोंगोरा के जन्म-त्रिशती वर्ष समारोह के आधार पर पड़ा, जिसमें इन सभी कवियों ने शिरकत की थी। (पृसं-15)

प्रगतिशील आंदोलन की समाज सापेक्ष रचनात्मकता, जिसने जाने कितने रचनाकारों को पैदा किया,या फिर नक्सलवादी आंदोलन! समाज की अंतरधारा में उतरकर समाज को बदलने का जोखिम उठाते हुए अपनी रचनात्मकता को नये मुकाम दिया। लोर्का के जीवन को इस तरह के कई पक्षों से देखने की जरुरत है। लोर्का अपने मोर्च पर डटे रहे। आंदोलन समाज को खंगालतें हैं। समाज को जगाते हैं, जागरुक करते हैं। आंदोलनों ने मनुष्य के इतिहास को बहुत प्रभावित किया है! इसलिए उनकी रचनात्मकता को किसी भी तरह से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

कवि, नाटककार, चित्रकार, आंदोलनकारी, का्रंतिकारी- फेदरीको गार्सिया लोर्का को उनके पत्रों से जानना अद्भूत अनुभव है। उनके पत्र रचनात्मकता के अनोखे प्रयोग कहे जा सकते हैं। लोर्का किसी रचना की तरह ही पत्रों को रचते हैं। यहां लोर्का के 1918 से 1936 में लिखे कुछ चुनिंदा पत्रों को लिया गया है। 1920 में अपने मित्र अंतोनियोतो को लिखे पत्र में वह कहते हैं, ‘यहां इन दिनों बहुत अच्छा मौसम है.... तुम यहां थोड़े दिनों के लिए क्यों नहीं जाते? इस पूरे देहाती परिवेश के साथ मैं अपनी आत्मा में गहरे बसा हुआ हूँ। काश! तुम सतरंगी ओस से भरे सूर्यास्त देख सकते। वह संध्या पूर्व की ओस, जो मृतकों और निराश पे्रमियों के लिए एक-सी है। अगर तुम तंद्रिल नहरों की उदासी और पनचक्कियों की प्रार्थनाएं सुन सकते! मैं उम्मीद रखता हूं कि इस सुखद वर्ष यह देहात अपनी अपराहों के सुर्ख चाकुओं से मेरी कविता की टहनियों को तराशकर रख देगा।‘( पृस-31)

यह एक कवि के खत है, जो किसी कविता की तरह है। टहनियों को तराशकर रखना! प्रकृति के साथ संवाद, उसके चक्र की गति को पकड़ना, कवि को बखूबी आता है। जैसे कवि केदारनाथ अग्रवाल कहते हैं 

'पेड़ नहीं/
पृथ्वी के वंशज है/
फूल लिए/
फल लिए/
मानव के अग्रज है

लोर्का प्रकृति के सौंदर्य को अपनी अनुभूतियों में ग्रहण करते हैं। महसूस करते हैं। आचार्य शुक्ल देश प्रेम कोअपने देश के बारे में जाननाको कहते हैं। आप अपने देश की प्रकृति, लोक जीवन के बारे में नहीं जानते, फिर काय का देश पे्रम! आज के कवि कविता के लिए कहां जाते हैं? कविता उनके पास स्वयं आती है! लोर्का के यहां कविता क्या है? ‘मैं कल्पना करने लगा हूं जैसे मैं भावनाओं के डबरे पर मंडराने वाला विशाल काय गहरे रंग का मछर हूं। सीवन-दर-सीवन.... किसी मोची की तरह सीते चले जाना। इन दिनों मैं खुद को भरा हुआ महसूस करता हूं। पानी के बारे में कितनी जबरदस्त बाते कहीं जा सकती है! पानी की ध्यानावस्था और प्रतीक गाथाएं। ईसाइयत और यूरोप के बीच कहीं कहीं पानी की एक महान कविता देखता हूं। कविता, जिसमें पानी की ज्वार भरी जिंदगी और उसकी शहादत को गद्य या पद्य में पूरी तरह गाया जा सके। एक महान जीवन जिसमें ब्योरो और परछाईयों के छल्ले हो।‘ (पृसं-55)

नदी  के तल में तैरती मेरी आँखें/
तल में नदी के.......
नदी के तल में बसता मेरा प्यार/
तल में नदी के ......

(मेरा हृदय गिनता है वक्त/जबकि सो रही है)
नदी बहा ले जाती पत्तियां सूखी/
नदिया रे..../
साफ और गहरी नदिया रे.... (पृसं-56)

पे्रम का रागात्मक लोक जीवन को सदा ही आगे की और गति देता है! वह नदी की उदासी हो या फिर नदी का बहाव या फिर नदी की सांस्कृतिक प्रकृति! कवि पानी के कितने ही बिम्ब रचता है। उसे हरेक में नयापन दिखता है। नदी जीवन की गत्यात्मक संघर्षधर्मिता है! उसमें जितनी गति होती है उतनी ही बीहड़ता होती है। वह मनुष्य के संघर्ष को धार देती है!

 अपने शहर ग्रानादा के बारे में लोर्का कहते हैंग्रानादा वैसे काबिल--तारीफ है। यहां पतझर कोमलता के साथ और सिएरा पहाड़ से झांकने वाली रोशनी से शुरु होता है। शैलीबद्ध और पूर्णतः अप्राप्य। ग्रानादा निश्चत तौर पर चित्रात्मक नहीं है, किसी प्रभाववादी तक के लिए नहीं। यह चित्रात्मक ठीक वैसे नहीं है, जैसे नदी में कोई शिल्प नहीं होता। कविता के लय से भरा ग्रानादा। बिना ढंाचे का धूसर रंग वाला शहर। रीढ़ की हडिड्यों वाली उदासी।‘ (पृसं-103)

लोर्का की जीवन द्रष्टि और काव्य भाषा को समझने में ये पत्र आलोचनात्मक गद्य की तरह हमारी मदद करते हैं। केदार और रामविलास जी के मित्र संवाद की तरह यह लोर्का के संवाद है। जिनसे लोर्का की जीवन द्रष्टि झांकती है! लोर्का की भाषा में स्पेनी लोक जीवन, प्रकृति, लोकगीत, लोकसंगीत, लोक के आचार-विचार, लोक की कलाएं- सब जींवत हो उठते हैं! वे प्रकृति की भाषा में प्रकृति की गाथा कहते हैं। लोर्का के गद्य (पत्रों) में गजब की काव्यात्मक लयता है। आपको लगता नहीं कि आप पत्र पढ़ रहे हैं। पत्रों के बीच से सूचनाएं विस्मृत कर दी जाए तो पढ़ते हुए यही आभास होगा कि किसी कवि का लयात्मक गद्य पढ़ रहे हैं। या कविता पढ़ रहे हैं। लोर्का की भाषा में सघन ऐंद्रियता है।

मैं हमेशा खुश रहता हूँ और सपने देखने का शगल मेरे लिए खतरनाक नहीं, क्योंकि मेरे पास सुरक्षा के साधन भी है। यह उन लोगों के लिए मुसीबत भरा हो सकता है, जो कविता के विशाल अंधेरे दर्पण से भौंचक रह जाते हैं और जिनकी मनोवृति की गहराई में पागलपन होता है। मुझे ऐसा लगता है और यह मेरा विश्वास है कि मेरे पैर कला की धरती में धंसे हुए हैं। अपने जीवन की हकीकत प्यार और दूसरे से रोजमर्रा की मुठभेड़ में मुझे गर्त और सपनों का डर रहता है। और यह वाकई भयावह और फंतासी से भरपूर है।‘ (पृसं-126)

यूनान के नोबेल पुरस्कार प्राप्त कवि ओदिसियस एलायतिस,लोर्का के बारे में कहते हैं, ‘तुम अच्छी तरह जानते हो कि एक किसान की आँख से टपका आंसू बड़े से बड़े अकादमिक पुरस्कार से बड़ा होता है, कि कुहासों से भरी सुबह में उत्तरी दिशा की ओर चलने वाली हवा के साथ उड़ते हुए पत्ते संघर्षशील विद्रोहियों के लिए जीवन से ज्यादा मायने रखते हैं-- सोने से भी ज्यादा।‘ (पृसं -179) 

 किताब- फेदरीको गार्सिया लोर्का के पत्र की समीक्षा 
 संपादक-डेविड जेर्शेटर
अनुवाद- सुशोभित सक्तावत
संवाद प्रकाशन. मुम्बई
प्रसं-2009
मूल्य-150

उनकी कुछ रचनाएं यहाँ भी पढी जा सकती है-सम्पादक 

योगदानकर्ता / रचनाकार का परिचय :-

कालुलाल कुलमी

(केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं पर शोधरत कालूलाल
मूलत:कानोड़,उदयपुर के रेवासी है.)

वर्तमान पता:-
महात्मा गांधी अंतर राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,
पंचटीला,वर्धा-442001,मो. 09595614315
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