''राजभाषा हिंदी में राजनीतिक कुचक्रों का मनोविज्ञान''-डॉ. मनोज श्रीवास्तव


ग़ुलामी के दौर में हिंदी ने अंग्रेज़ों की छलनीति को झेला और आज़ादी के दौर में वह हिंदुस्तानी नेताओं की कुनीतियों और भ्रष्ट राजनीति के दुष्प्रभावों को झेल रही है। इन दोनों कालखंडों में हिंदी भाषा केभविष्य को निर्धारित करने वालों में कहीं भी भाषाई प्रेम लेशमात्र नहीं रहा है। अगर यह कहा जाए कि अंग्रेज़ोंने अपनी भाषाई कुनीति अंग्रेज़ी लादने के लिए अपनाई थी तो यह बात शत-प्रतिशत सही प्रतीत नहीं होती।वास्तव में, ग़ुलामी के दौरान अंग्रेज़ों का मक़सद भाषाई द्वेष पैदा करके देशप्रेमियों के दिल में आपसी मतभेदउत्पन्न करना और  देश में फूट डालना था ताकि आज़ादी की लड़ाई कमजोर पड़ जाए और वे हिंदुस्तान परनिष्कंटक राज कर सके। उस समय देश की बहुसंख्यक जनता या तो हिंदू थी या मुसलमान और आज़ादी कीलड़ाई में ये दोनों संप्रदाय ही सबसे आगे थे। आज़ादी की आवाज़ को बुलंद करने के लिए उनके पास बस, एकही जुबान थी--हिंदी। ऐसी हिंदी जिसमें वे वार्तालाप करते थे। यह उनकी जुबान थी, भाषा थी। वे इसकी लिपिऔर भाषागत विलक्षणताओं के चक्कर में नहीं पड़ना चाहते थे। उन्हें यह भी पता नहीं था कि हिंदी की जड़ों कोसींचने वाली हिंदी की जननी कौन है। उन्हें तो बस, हिंदी राष्ट्रीयता से सराबोर एक भावपूर्ण भाषा लगती थी औरइसीलिए उन्होंने इसे अपना माध्यम बनाया।

उल्लेख्य है कि हिंदी, क्षेत्रीय और प्रादेशिक भाषाओं के बीच एक जनभाषा का रूप ले रही थी औरआज़ादी के रणबाँकुरों के लिए एकमात्र संपर्कभाषा का कार्य भी कर रही थी। इसके विपरीत आंग्लसत्ता कीकार्यालयीन भाषा अंग्रेज़ी थी क्योंकि अंग्रेज़ अपने साथ भाषा की विरासत के रूप में सिर्फ़अंग्रेज़ी लेकर आएथे। इसके बिना वे गूंगे और बहरे थे। दूसरी ओर उन्हें हिंदुस्तान में भाषाई एकता बेहद खलती थी। वे लाखकोशिश करके भी इस देश में अंग्रेज़ी को जनभाषा नहीं बना सके। इतना ही नहीं, वे इस बात से भी बड़े भयभीतथे कि देश के इतने बड़े भूभाग पर हिंदू और मुसलमान केवल भारतीय संस्कृति में साझादारी करते हैं अपितुसंवाद-संपर्क स्थापित करने के लिए भी हिंदी जुबान का ही प्रयोग करते हैं। उत्तर भारत में तो--जहाँ स्वतंत्रताका संघर्ष पुरजोर था, इन दोनों संप्रदायों में सांस्कृतिक और साहित्यिक समानता और सहभागिता मिसालियाथी। विश्व के इतिहास में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जैसा आपसी भाईचारा हिंदुस्तान में देखने कोमिलता है, वैसा किसी अन्य देश में दुर्लभ है। यहाँ के मध्यकालीन मुसलमान शासकों ने केवल यहाँ कीसंस्कृति को अपनाया; बल्कि मूल भारतीयों के साथ सामाजिक और पारिवारिक संबंधों का भी भलीभाँतिनिर्वाह किया। उनमें वैवाहिक संबंध तक स्थापित थे। ऐसी स्थिति में उनमें भाषाई एकता का होना बिल्कुललाज़मी था।

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह पाया जाता है कि यदि दो भिन्न मूल की प्रजातियों के लोग एक ही भाषा मेंसवाद-संपर्क स्थापित करने में सफल होते हैं तो उनमें आपसी मैत्री आसानी से स्थापित हो जाती है। हिंदू औरमुसलमान धार्मिक रूप से विरोधात्मक दर्शनों के अनुयायी तो हैं ही; पहला बहुदेववाद और ईश्वर केअवतारवादमें विश्वास करता है तो दूसरा एकेश्वरवाद और ईश्वर के निरंकार स्वरूप में। पहला मूर्तिपूजक है तो दूसरामूर्तिभंजक। ऐसी स्थिति में संतों और विशेष रूप से सूफी कवियों ने एक ही भाषा अर्थात हिंदी का प्रयोग करतेहुए इन दोनों धर्मों के अनुयायियों को ईश्वरीय एकता का पाठ पढ़ाया। इस प्रकार दोनों ही धर्मों के ऐसेबुद्धिजीवियों की एक अच्छी जमात तैयार हो गई जो दोनों के हितों की रक्षा के लिए कुछ भी करने के लिएहमेशा तत्पर रहने लगी। इतिहास साक्षी है कि बुद्धिजीवियों की इसी जमात ने स्वतंत्रता-संग्राम में भी कंधे सेकंधा मिलाकर आत्मोत्सर्ग किया। इस संबंध में श्री रामविलास शर्मा का आह्वान अनुकरणीय है:
“ØÆü¤üß और उर्दू को एक होना चाहिए--यह हमारे ऐतिहासिक विकास की माँग है। इसके लिएआवश्यक साँस्कृतिक आधार यह है कि साधारण जनता की बोलचाल की भाषा एक है।...उर्दू अलग किसी कौमकी भाषा नहीं है, इसलिए इसे इलाकाई जबान मनवाने के आंदोलन का विरोध करना उचित है।...व्याकरण औरमूल शब्द-भंडार की दृष्टि से उर्दू संस्कृत-परिवार की भाषा है, कि अरबी-परिवार ''

इस सांस्कृतिक, साहित्यिक और सामाजिक एकता में सेंध डालने के लिए अंग्रेज़ों को पर्याप्त आधारमिल गया था-- और वह था, हिंदू और मुसलमान के धार्मिक भेदभाव का आधार--जिस पर खड़े होकर उन्होंनेभाषाई पक्षपात किया और आज़ादी की धारदार जंग को भोथरा बनाया। उन्होंने ऐसा करने में बेशक! बड़ीसफलता हासिल की।यह अंग्रेज़ों की एक सोची-समझी रणनीति थी। उन्होंने वर्ष 1801 में फोर्टविलियम कालेज कीस्थापना की और उस कालेज में हिंदी और उर्दू के पठन-पाठन के लिए अलग से संकाय और विभाग खोले।ख़ासतौर से अल्पसंख्यक नासमळा मुसलमानों ने अंग्रेज़ों के इस पहल को अपने हक़ में मानते हुए उन्हें अपनेअधिकारों का हिमायती समझा और इस तरह वे  उनकी तरफ़दारी करने लगे। दूसरी ओर हिंदू तो अच्छी तरहसमझ गए थे कि यह उनकी राष्ट्रीय एकता पर कुठाराघात है जिसे अंग्रेज़ों की "फूट डालो और शासन करो कीनीति के तहत किया गया है।

उल्लेखनीय है कि उस काल में जुबान एक थी और वह थी हिंदी। इस हिंदी को कई लिपियों में लिखाजा सकता था अर्थात हिंदी की देवनागरी लिपि के अतिरिक्त फारसी, कैथी, मुड़िया, महाजनी आदि में भी।लेकिन, जिस हिंदी को अरबी लिपि में लिखा गया, उसे उर्दू के नाम से अभिहित किया गया। यह बात अलग हैकि कतिपय हिंदी विद्वान हिंदी में संस्कृत के शब्दों के प्रयोग को प्राथमिकता देते हुए ऐसी भाषा को ही हिंदीमानते थे जबकि कुछ विद्वान अरबी के शब्दों से युक्त भाषा को ही हिंदी मानते थे। दरअसल ऐसा तब हुआजबकि उर्दू मुसलमानों की भाषा के रूप में जनमानस में स्थापित हो चुकी थी। यह विवाद तो बहुत बाद में शुरूहुआ था और इस तरह तत्कालीन हिंदी साहित्यकार दो खेमों में बँट गया था। यहीं से हिंदी और उर्दू दो अलग-अलग भाषाओं के द्वंद्वात्मक रूप में हमारे सामने प्रस्तुत होती हैं। विडंबना यह है कि उर्दू का आधारभूत विकासहिंदुओं की दो प्रखर जातियों अर्थात कायस्थों और ब्राह्मणों ने ही किया है।

उसी काल में एक और बुरी घटना राजनीतिक कुचक्र के रूप में घटित हुई और वह यह थी किराजनीतिक मंच पर जोर-शोर से मुखर हुई कम्युनिस्ट पार्टी ने भी यह ऐलान किया कि हिंदी हिंदुओं की भाषाहै जबकि उर्दू मुस्लिमों की। इस तरह देश में अंग्रेज़ों की भाषाई कुनीति सफल हुई और भाषा के आधार परसांप्रदायिक विभाजन हुआ।यह था--भाषाई विभाजन का षड्यंत्र जिसे अंग्रेज़ों के साथ-साथ हमने बखूबी संपन्न किया। जोसाहित्य संस्कृत की देवनागरी लिपि में लिखा गया, उसे हिंदी साहित्य कहा जाने लगा जबकि अरबी लिपि मेंलिखा गया साहित्य मुसलमानों का उर्दू साहित्य माना गया। ग़ुलाम भारत के इतिहास का यह सबसे शर्मनाक़अध्याय है जबकि हिंदी को सांप्रदायिक आधार पर बाँटा गया और उसका आधा जिस्म उर्दू के नाम से पुकारागया। इस संबंध में यह सवाल किया जा सकता है कि यदि हिंदी साहित्य को रोमन लिपि में लिखा जाए तोक्या उसे अंग्रेज़ी साहित्य कहा जाएगा। इसका उत्तर हमेशा नकारात्मक में होगा।

एक बात विशेष रूप से दृष्टव्य है कि हिंदी और उर्दू के बीच इस लड़ाई के चलते प्रादेशिक और क्षेत्रीयभाषाएं मार खा गईं। उनका विकास बंद हो गया। इसका एक दुष्परिणाम और देखने में आया कि हिंदी और उर्दूमें से कोई भी भाषा पूरी तरह जनभाषा का दर्ज़ा नहीं हासिल कर सकी। उल्लेखनीय है कि यदि हिंदी और उर्दू के बीच भाषाई संघर्ष नहीं छिड़ा होता तो देश की प्रादेशिक भाषाओं में भी उच्च कोटि के साहित्य का सृजन हुआ होता तथा इससे हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में बेहद स्वीकार्यतामिली होती। तत्कालीन कवि राहुल सांकृत्यायन ने देश में सामाजिक जागरुकता लाने के ध्येय से देश की 30जनभाषाओं में साहित्य-सृजन की पेशकश की थी ताकि हिंदी की परिधि के बीच जनभाषाएं मुखर हो सकें।उनके इस प्रस्ताव ने अंग्रेज़ों को भी बौखला दिया था। लिहाजा, राहुलजी का प्रस्ताव अमली रूप नहीं प्राप्त करसका।

भविष्य में भी प्रादेशिक भाषाओं के पिछड़ने का सबसे बुरा ख़ामियाज़ा यह भुगतना पड़ेगा कि इनकापुरजोर विकास नहीं हो पाएगा। उर्दू और हिंदी तो कभी भी जनभाषाएं नहीं बन पाएंगी। एक तरफ हिंदी और उर्दूकी जंग तो दूसरी तरफ अंग्रेज़ी का वर्चस्व प्रादेशिक साहित्य और भाषा को कभी आगे आने नहीं देगा। इससेहमारी सांस्कृतिक एकता में भी ख़लल पड़ेगा। हमारी साझा संस्कृति हतोत्साहित होगी। हिंदी और उर्दू में तभी से जंग छिड़ी हुई है और इस आपसी जंग में अंग्रेज़ी का पलड़ा भारी पड़ता गया।बंदरों की लड़ाई में उनका हिस्सा चालाक बिल्ली चट्ट कर गई। अंग्रेज़ी राजनीतिक मंच पर हावी होती गईऔर यह आलम आज़ादी के बाद भी बना हुआ है। उर्दू और हिंदी भाषाएं जनसामान्य से दूर होती गईं क्योंकियह भी एक कड़ुवा सच है कि भारत में प्रादेशिक और क्षेत्रीय भाषाएं ही जनभाषाएं हैं। हाँ, इन जनभाषाओं केबीच हिंदी एक कड़ी के रूप में कमोवेश काम करती है और मौज़ूदा संविधान-सम्मत नीति के तहत हम हिंदी मेंही वह सब कुछ करना चाहते हैं, जो प्रादेशिक भाषाएं कर सकती हैं। लेकिन, यह महती कार्य कुछ ऐसे कियाजाना चाहिए कि हिंदी के साथ-साथ प्रादेशिक भाषाओं को भी प्रोत्साहन मिले। इसी में हिंदी-हित साधितहोगा।

आज हिंदी और उर्दू के बीच संघर्ष का राजनीतिक ध्रुवीकरण हो चुका है। सारे देश की अस्मिता हिंदीऔर उर्दू के दो अलग-अलग खेमों में विभाजित सांप्रदायिक वर्गों की सनक पर निर्भर हो गई है। उर्दू को तोअल्पसंख्यक मुसलमानों की अल्पसंख्यक भाषा मान लिया गया है जबकि किसी भी सुसंस्कृत ब्राहमण याकायस्थ परिवार में आप जाइए, वहाँ उर्दू भाषा के मानक रूप के आधार पर दैनिकचर्या में उर्दू शब्दावलियों काप्रयोग बहुतायत में होता है। यह कितना बड़ा मजाक है कि उर्दू जैसे सुविकसित भाषा को एक अल्पविकसितभाषा का दर्ज़ा प्राप्त है। ऐसा सिर्फ़ चुनिंदा लोगों और संस्थाओं को राजनीतिक लाभ पहुँचाने और चुनावों केदौरान जनता का वोट हथियाने के लिए किया जा रहा है। प्रपंची और कपटी राजनेता, जिन्हें भाषा की अस्मितासे कुछ भी लेना-देना नहीं है, उर्दू के रक्षक बनने का स्वांग खेलते हुए उर्दू के लिए राष्ट्रीय नीतियाँ बनाते हैं,मदरसों और उर्दू विश्वविद्यालयों को आर्थिक अनुदान दिलाने के लिए गिरगिट की चाल चलते हैं, शिक्षणसंस्थाओं में उर्दू भाषा और उर्दू माध्यम से पठन-पाठन आरंभ कराने के लिए मंचों पर शेखी बघारते हैं ताकिमुसलमान उन्हें अपना रक्षक-संरक्षक माने और इस तरह ये राजनेता अपना वोटबैंक मुकम्मल कर रहे हैं।

खेद इस बात का है कि भ्रष्ट राजनेता हिंदी के साथ इतना बड़ा छल कर रहे हैं कि आने वाला कल इन्हेंकभी भी माफ़ नहीं करेगा। हर पाँचवें वर्ष वे जनता से हिंदी में वोट मांगने के लिए हर गली और चौराहे पर हिंदीमें पम्फलेट और इश्तेहार बाँटते हैं और मंचों पर हिंदी में ही भाषण देते हैं। लेकिन जब उनकी सरकार सत्तारूढ़होती है तो वे सारा सरकारी कामकाज अंग्रेज़ी में करवाते हैं। यही नीति अंग्रेज़ों ने भी अपनाई थी। जब वे लगानवसूलने गाँवों में जाते थे तो टूटी-फूटी हिंदी का प्रयोगकर भोलेभाले गाँवालों को फुसलाते थे और सिंहासन परविराजमान होते ही वे सारे फरमान अंग्रेज़ी में जारी करते थे।

अस्तु, राजभाषा के रूप में हिंदी का वज़न अंग्रेज़ी से बहुत हल्का मालूम हो रहा है। भारत के संविधानमें एकाधिक उदाहरणों में अंग्रेज़ी को संपर्कभाषा बनाने की हिमायत किन कारणों से की गई है, यह अभी तकस्पष्ट नहीं हो सका है। इस विषय पर हम कई कारणों के संबंध में कयास लगा सकते हैं। बिचारे दक्षिण और पूर्वीभारतीय किस माध्यम से कार्यालयों में कामकाज करेंगे। सो, अंग्रेज़ी को गले लगाया जाए। तृतीय, आज़ादभारत का नौकरशाह तो पढ़ा-लिखा होता है क्योंकि उसे अंग्रेज़ी का ज्ञान होता है। इसलिए, हिंदी में कामकरना तो एक टेढ़ी खीर होगी। चौथे, हिंदी में वह क्षमता नहीं है जो अंग्रेज़ी में है। इन कारणों के अधीन यह भीतय माना जाना चाहिए कि यदि राजनीतिक कुचक्र चलता रहा तो भविष्य में भी हिंदी, अंग्रेज़ी के अधीनस्थ होगी।


योगदानकर्ता / रचनाकार का परिचय :-
डा. मनोज श्रीवास्तव
आप भारतीय संसद की राज्य सभा में सहायक निदेशक है.अंग्रेज़ी साहित्य में काशी हिन्दू विश्वविद्यालयए वाराणसी से स्नातकोत्तर और पीएच.डी.
लिखी गईं पुस्तकें-पगडंडियां(काव्य संग्रह),अक्ल का फलसफा(व्यंग्य संग्रह),चाहता हूँ पागल भीड़ (काव्य संग्रह),धर्मचक्र राजचक्र(कहानी संग्रह),पगली का इन्कलाब(कहानी संग्रह),परकटी कविताओं की उड़ान(काव्य संग्रह,अप्रकाशित)

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1 टिप्पणियाँ

  1. अभिवादन,आपका आलेख बहुत अच्छा है, किन्तु इस सन्दर्भ में मै यह कहना चाहूँगी कि हिंदी का नुकसान स्वयम हिंदीभाषियों ने जितना किया है उतना और किसी ने नहीं किया. हम अहिन्दीभाषी आज भी अपने घरों में अपनी-अपनी भाषा का उपयोग करते हैं.माता-पिता के लिए आज भी आई-बाबा,अप्पा-अम्मा या अन्ना-अम्मा का प्रयोग हमारे घरों में होता है, लेकिन हिन्दीभाषी या यूँ कहें कि हिंदी क्षेत्र के कितने बच्चे माँ-बाबूजी कहते हैं ? मैं एक मराठी-भाषी हूँ और मुझे इस बात का गर्व है कि मराठी में क्रिकेट की शब्दावली तक आसानी से गढ़ ली गई है और उसका उपयोग भी होता है.

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