“ कबीर के राम ”
कबीर भया है केतकी, भँवर भये सब दास ।
जहाँ-जहाँ भक्ति कबीर की, तहँ-तहँ राम-निवास ।।
अर्थात् कबीर के ‘राम’ महान् भारतीय संस्कृति के न केवल पर्याय मात्र, वरन् आस्था के विराट स्रोत हैं । महात्मा कबीर ने श्रीराम का आश्रय लेकर तद्युगीन भारतीय जन-मानस को विदेशी आक्रांताओं के प्रभाव से बचाये हीं नहीं रखा, बल्कि भारत-भूमि की सांस्कृतिक धरोहर को अक्षुण्ण भी रखा । यही कारण है कि यवनों से त्रस्त भारतीय समाज व हिन्दू-संस्कृति संक्रांतिकालीन वेला को सहजता से पार कर गई ।
युगद्रष्टा कबीर ने जब इस भूमि पर अवतरण लिया, वह युग हिन्दुओं के लिए घोर निराशा का था । उनकी संस्कृति व राष्ट्र दोनों ही पद-दलित हो रहे थे । समाज दिशाविहीन था तो संक्रमणकाल में महात्मा कबीर ने भारत-भूमि के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय आदर्श को कायम रखने के लिए लोक-मानस का नेतृत्व किया और अपने प्रखर व्यक्तित्व से घोर-निराशा के दलदल में फँसी भारतीय जनता को नव-जीवन प्रदान किया, अतः उन्हें सांस्कृतिक विरासत के संवाहक की संज्ञा से अभिहित किया जाये, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं ।
संस्कृति और राष्ट्र ये दोनों शब्द किसी भी जाति के गौरव के परिचायक होते हैं । समाज केवल व्यक्तियों का समूह ही नहीं, वरन् एक सावयव सत्ता है और भूमि विशेष के प्रति रागात्मक भाव रखकर चलने वाले समाज से राष्ट्र बनता है । इस प्रकार भूमि, जन और संस्कृति राष्ट्ररूपी त्रिभुज की तीन भुजाएँ हैं । डॉ. सुधीन्द्र के अनुसार “ भूमि, जन और जन-संस्कृति ही राष्ट्र की आत्मा का विधान करते हैं ।”1 राष्ट्र की आधारशिला सांस्कृतिक वैभव से पुष्ट होती है, क्योंकि संस्कृति के बिना राष्ट्र का अस्तित्व नहीं होता । प्रखर चिन्तक दीनदयाल उपाध्याय ने इस तथ्य का विश्लेषण करते हुए लिखा है, “संस्कृति किसी भी राष्ट्र की आत्मा होती है और कोई भी राष्ट्र तभी तक जीवित माना जा सकता है, जब तक उसकी आत्मा उसके भीतर विद्यमान है, केवल बाह्य उपकरणों से राष्ट्र जीवित नहीं रहता ।”2
महात्मा कबीर एक ऐसे महामानव थे, जिन्होंने मध्ययुग के तमसाच्छन्न वातावरण में ज्ञानाभा प्रदान करने वाले धर्म-सूर्य की तरह तेजोमयी रश्मियों द्वारा मानवता के मार्ग का निर्देशन किया । डॉ. बैजनाथ प्रसाद शुक्ल के मतानुसार कबीर का युग महान् संघर्षों से गुजर रहा था । समाज विशृंखलित था । हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य चरम पर था।विधर्मी शासकों की तलवारें हिन्दू खून की प्यासी रहती थी, क्योंकि यह युग तुर्कों का था । हिन्दू इस समय नैराश्यता के सिन्धु में डूब-उतरा रहे थे, परन्तु राष्ट्र धर्म के प्रति उनके हृदय में स्नेह बढ़ता ही गया।3
भारतीय जन मानस अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठावान था, तो बाह्याडम्बरों से उसमें विकृतियाँ भी व्याप्त हो गई थी । आचरण की अपेक्षा उपासना पद्धति महत्त्वपूर्ण हो गई थी । महात्मा कबीर ने सर्वप्रथम सरल-जीवन के महत्त्व को रूपायित करते हुए कहा-
सहज सहज सबहीं कहे, सहज न चीन्हें कोय ।
जो कबिरा विषया तजै, सहज कही जै सोय ।।
विधर्मियों के उपहास से आहत भारतीय लोक मानस को अपने आन्तरिक आचरण को शुद्ध करने पर बल दिया और आत्म-ज्योति को जाग्रत करने का आह्वान करते हुए कहा कि इस मन को मथुरा, दिल को द्वारका और काया को काशी समझो । दस द्वारों वाला देवालय रूपी शरीर तुम्हारे पास है, उसी में आत्म-ज्योति को तलाश करो, यथा-
मन मथुरा, दिल द्वारिक, काश कासी जाँनि ।
दस द्वारे का देहरा, तामें जोति पिछांनि ।।
इन पंक्तियों में महात्मा कबीर ने जनता की उपासना पद्धति को परिष्कृत कर उसे भारतीय मूल्यों की ओर अग्रसर किया, जिसमें आत्म-ज्योति का अवलोकन महत्त्वपूर्ण तत्त्व है । हिन्दुस्तान की सांस्कृतिक गत्यात्मकता ने रूढ़ियों को तोड़कर परम्पराओं को परिष्कृत किया । जातिगत दुर्व्यवहार से त्रस्त हिन्दू समाज को मुक्ति दिलाने में महात्मा कबीर का अद्वितीय योगदान रहा । वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा के नाम पर जब हिन्दू समाज अस्पृश्यता के दलदल में फँस गया, तो उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा-
काहै को कीजै पांडे छोति विचारा, छोति हि ते उपजा संसारा ।
हमारे कैसे लोहू, तुम्हारे कैसे दूध, तुम कैसे ब्राह्मन पांडे, हम कैसे सूद ।।
संस्कृति का अस्तित्व परम्पराओं पर ही निर्भर करता है । अपसंस्कृति में रूढ़ियाँ निवास करती हैं । इस स्थिति में सांस्कृतिक चेतना अवरूद्ध होती है । महात्मा कबीर के समय में धर्म एवं आचार का वास्तविक रूप कृत्रिमता के कारण दब गया । डॉ. द्वारिकाप्रसाद सक्सेना ने लिखा कि उस समय कोई शैव मत का अनुयायी था,तो कोई नाथ-पंथी था, तो कोई तांत्रिक। ये सभी दुराचारों में लीन थे, मांसाहारी थे, मदिरा-पान करते थे, व्यभिचारी थे, अनाचारी थे और अपनी-अपनी धुन में मस्त रहकर दूसरों को दोषी बताया करते थे ।4 जब महात्मा कबीर को यह लगा कि कतिपय धर्म के ठेकेदार सनातन धर्म की परम्पराओं को विकृत रूप में प्रस्तुत कर आमजन को न केवल भ्रमित कर रहे हैं, बल्कि हमारे आध्यात्मिक गौरव को भी चोट पहुँचा रहे हैं । तब उन्होंने अपनी पैनी दृष्टि से उन सबके कृत्यों का पर्दाफाश किया और कहा कि-
इक दूँहि दीन इक देहि दान, इक करै कलापी सुरापान ।
सब मदमाते, कोऊ न जागै, संग ही चोर घेरे मुसन लागै ।।
भारतीय संस्कृति अखिल विश्व के समस्त संस्कारों, परम्पराओं, सभ्यता के विभिन्न तत्त्वों, लौकिक, आध्यात्मिक एवं धार्मिक मान्यताओं को समाविष्ट किए हुए हैं । इसलिए मनीषियों ने इसे ‘सा प्रथमा संस्कृति विश्वधारा’ के रूप में बोधित किया है ।5 इसी सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय मनीषा ने राष्ट्र को भी परिभाषित किया है । उनके अनुसार राष्ट्र एक जीवन्त, जाग्रत इकाई है । राष्ट्र स्वयंभू है, सृष्टि की रचना ही इस बात का निर्धारण करती है कि किस राष्ट्र का सृजन, अभ्युदय, पतन अथवा पुनरूत्थान हो, क्योंकि राष्ट्र का भी जीवनोद्देश्य होता है । अतः प्रत्येक राष्ट्र में अस्तित्व बोध होना सहज स्वाभाविक है ।६
भारत में कबीर का जन्म ऐसे समय हुआ जब यवनों का आक्रमण, विदेशियों का भारत में प्रवेश एवं हिन्दू जनता पर अत्याचारों का बोलबाला था । तुगलकों के भीषण अत्याचारों को यहाँ की जनता झेल ही नहीं पाई थी कि तैमूर का भारत पर आक्रमण होता है । इस युद्ध ने हिन्दुओं की बची-खुची प्रतिष्ठा एवं शान्ति को नष्ट किया तथा नर हत्याओं के द्वारा ऐसी रक्त की नदियाँ बहाई कि धैर्य की धनी भारतीय जनता की आत्मा सिसक-सिसक कर रो उठी । तैमूर ने तो स्पष्ट शब्दों में यह स्वीकार करते हुए लिखा है कि भारत पर आक्रमण करने का मेरा लक्ष्य काफिरों को दण्ड देना, बहुदेववाद और मूर्तिपूजा का विनाश करके गाजी और मुबाहिद बनाना है ।७
ऐसे विकट समय में भारतीय जनता को ऐसे कर्णधार की आवश्यकता थी जो उसका नेतृत्व कर उसकी आन-बान और मर्यादा को बचा सके । संभवतः युग ने ऐसे महान कार्य के लिए ‘राम-दीवाने’ कबीर को प्रेरित किया, जिसने इस राष्ट्र के गौरव को बनाये रख लिया । महात्मा कबीर ने विधर्मी राष्ट्र-विध्वंसकों का प्रत्युत्तर देने हेतु जन-जन की आस्था के केन्द्र ‘राम’ को जाग्रत किया और उनकी दृढ़ता को निर्गुण ब्रह्म में रूपायित कर दिया, जिससे कि उनका विश्वास बना रहे । उन्होंने कहा-
कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउँ ।
गलै राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाऊँ ।।
इस प्रकार के आह्वान से भारतीय लोक-मानस की घोर निराशा व दारिद्रय की मनःप्रवृत्ति को राजनीति से विलग किया और उन्हें समझाया कि ‘राम पत्थर में नहीं, वरन् तुम्हारे भीतर है’ अतः निराश होने की आवश्यकता नहीं है ।
राष्ट्रवाद में ‘जन’ की आत्माभिव्यक्ति महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है, क्योंकि इसी पर राष्ट्र के भव्य रूप का निर्माण संभव है । सन्त कबीर ने उनके रोग-शोक को दूर करने का प्रयास किया । उन्हें स्वयं से और मानवता से प्रेम करने का पाठ पढ़ाया । उन्होंने कहा-
पोथि पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई आखर प्रेम का, पढै सो पंडित होय ।।
समग्र विवेचन से यह भाव प्रकट होता है कि देश जिन विषम परिस्थितियों में गुजर रहा था, उस समय संस्कृति और राष्ट्र को कायम रखना महात्मा कबीर की पहली प्राथमिकता थी । मस्त मौला सन्त को ये विषम परिस्थितियाँ ही वरदान बनकर अनुकूल हो गई और अपने युग के पुरोधा के रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन किया । हमारा प्राचीन गौरव यदि उस समय विशेष में विद्यमान रहा, तो उसका श्रेय महात्मा कबीर को जाता है ।
संदर्भ-
1. हिन्दी कविता में युगांतर, पृ.167
2. उद्धृत, साहित्य परिक्रमा, अप्रेल-जून 2005, पृ.54
3. कबीर एक नव्य बोध, पृ.58
4. हिन्दी के प्राचीन प्रतिनिधि कवि, पृ.107
5. दिवाकर वर्मा, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद: एक तात्त्विक अवधारणा, उद्धृत, साहित्य परिक्रमा, अप्रेल-जुन, 2005, पृ.55
6. वही, पृ.55
7. एलियस एण्ड डाउसन, पृ.397, उद्धृत, कबीर एक नव्य बोध, पृ.10
(अकादमिक तौर पर डाईट, चित्तौडगढ़ में वरिष्ठ व्याख्याता हैं,आचार्य तुलसी के कृतित्व और व्यक्तित्व पर ही शोध भी किया है.निम्बाहेडा के छोटे से गाँव बिनोता से निकल कर लगातार नवाचारी वृति के चलते यहाँ तक पहुंचे हैं.वर्तमान में अखिल भारतीय साहित्य परिषद् की चित्तौड़ शाखा के जिलाध्यक्ष है.शैक्षिक अनुसंधानों में विशेष रूचि रही है.'अपनी माटी' वेबपत्रिका के सम्पादक मंडल में बतौर सक्रीय सदस्य संपादन कर रहे हैं.)
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