बी.एच.यूं.से बी.ए. आनर्स (अंग्रेज़ी साहित्य) से किया है. प्रतीक सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यकर्ता के तौर पर अपने इलाके में पहचाने जाते हैं.एक जुझारु पत्रकार हैं.ख़ास तौर पर लोकप्रिय टी.वी. कामेडी 'पप्पू चायवाला' के लेखक आप ही हैं. 'वी-विटनेस' हिंदी पत्रिका के सम्पादन के अलावा कई पत्र-पत्रिकाओं में पारियां खेल चुके हैं. जैसे 'वाराणसी टाइम्स', बिहारी टाइम्स. आपने विद्या श्री फाउन्डेशन, वाराणसी की स्थापना भी की है. संपर्क सूत्र मकान नं. 37/170-39,गिरि नगर कालोनी, बिरदोपुर, महमूरगंज, वाराणसी, उ.प्र., ई-मेल-editor_wewitness@rediffmail.com
डॉ. मनोज श्रीवास्तव
प्रखर विचारों और सहज अभिव्यक्तियों के सचेतक कवि
आज का कवि आत्यांतिक
रूप से उपेक्षा का शिकार है। महत्वपूर्ण बात यह है कि वह बहुत कुछ सार्थक लिखता
है, लेकिन उसके बारे में आलोचकों-समीक्षकों द्वारा कुछ भी नहीं लिखा जा रहा है।
हाँ, नामी-गिरामी सहित्यकारों द्वारा प्रायोजित कवियों के बारे में लिखने और मंचों
से उसके प्रशस्तिगान करने की धृष्टता तो आए दिन की जाती रही है। परंतु, इस सापेक्ष
प्रयास में अच्छी कविताएं लिखने वाले कवि उपेक्षित होकर नामहीनता के अंधकूप में समाते
जा रहे हैं। एक बड़ी वज़ह यह है कि नई युवा पीढ़ी में कुछ रोमानी कविताएं लिखकर छा
जाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। अलपटप कविताओं की भीड़ में अच्छी कविताओं का
हश्र अच्छा नहीं होता। प्रकाशक तो उन्हीं कवियों के पीछे पड़ जाते हैं जिनकी एकाध
कविताएं पुरस्कृत और सम्मानित हो जाती हैं और वे गंभीर रचनाकारों को एक सिरे से ख़ारिज़
कर देते हैं।
हिंदी कविता के समकालीन दौर में कुछ कवियों के
नाम ज़ेहन में बार-बार कौंध जाते हैं। उन्हीं नामों में एक नाम डा. मनोज श्रीवास्तव का
है। दूसरे रचनाकारों की भाँति डा. श्रीवास्तव ने भी साहित्य लेखन की शुरुआत
कविताओं से की है; यद्यपि उन्होंने अन्य विधाओं में भी काफ़ी कुछ लिखा है।
कहानियाँ, व्यंग्य, नाटक आदि विधाओं में भी उन्होंने प्रचुर साहित्य का सृजन किया
है। अपनी रचना-प्रक्रिया के आरंभिक दौर में कम कविताएं ही लिखीं; किंतु काल के
अग्रगामी कवायद के साथ-साथ उनकी कलम में तेजी आ रही है और इस समय वे सघन रचना-कर्म
में प्रवृत्त हो चुके हैं। वैचारिक और भावनात्मक स्तर पर गंभीर कविताएं रचने वाले
डा. श्रीवास्तव अन्य समकालीन कवियों से एकदम भिन्न नज़र आते हैं।
अस्तु, उनकी कविताएं
ऊर्जस्व भावों और विचारों तथा तथ्यों की गरमाहट के माध्यम से पहली दृष्टि में ही
पाठकों का ध्यान आकृष्ट करती हैं। अब तक उनके दो काव्य संग्रह ('पगडंडियाँ'--ज्ञानभारती
प्रकाशन, नई दिल्ली और 'चाहता हूँ पागल भीड़'--विद्याश्री पब्लिकेशन्स, वाराणसी) क्रमशः
वर्ष 2000 और 2006 में प्रकाशित हो चुके हैं। तीसरा काव्य संग्रह--'परकटी कविताओं
की उड़ान' प्रकाशनाधीन है और चौथे संग्रह का प्रकाशन भी शीघ्र
होने वाला है।
डॉ. श्रीवास्तव प्रखर
विचारों और सहज अभिव्यक्तियों के सचेतक कवि हैं जिनका लक्ष्य प्रभावशाली अभिव्यंजना
के लिए नए प्रतिमानों, उपमाओं और प्रतीकों की तलाश करना है। उनका बिंब-विधान
विशिष्ट है।
उनकी कविताओं में एक
ख़ास बात यह है कि वह शीघ्र ही राष्ट्रीय समाज से ऊपर उठकर वैश्विक समाज की बेहतरी
के लिए चिंतित हो उठते हैं। उनके अनुसार, मानव-मात्र के उत्थान के लिए वैश्विक
प्रयास होने चाहिए। लेकिन, यह कार्य इतना आसान नहीं है। क्योंकि वह पाते हैं कि
मनुष्य सिर्फ़ ऐसे सवालों का पुलिंदा है जिसका कोई समाधान या हल नहीं है :
'सवालों की ऊसर ज़मीन
पर
बुतनुमा खड़े होकर
सिर पर सवालों का
आसमान ढोते
चतुर्दिक भनभनाते
सवालों से
घिरे रहना ही
हमारी नियति है।'
('सवाल',
'पगडंडियाँ', पृ. 2)
उसका विश्वास है कि
साहित्य मानव-मात्र के विकास के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा। तभी तो, वह काव्य साधकों
की कविताओं के सार्थक होने के बारे में कामना करता है:
'काश! कविताएं हादसा होतीं
तो हादसों के कुछ और
मायने होते,
हादसे मंदिर की नींव
डालते
असंख्य काबा और काशी
बनाते'
(काश, कविताएं हादसा
होतीं, 'पगडंडियाँ', पृ. 7)
ग्रामीण जीवन की
सहजता से कवि हमेशा प्रभावित रहा है। गाँवों के शहरीकरण के संबंध में उसकी चिंताएं
आम आदमी को भी झंकझोर जाती है। 'पगडंडियाँ' शीर्षक से कविता में जहाँ पगडंडियाँ
ग्रामीण-जीवन का प्रतीक है, जो ग्रामीणजन शहरीकरण के प्रलोभन में अपनी मूल अस्मिता
भूल चुके हैं, उनके बारे में कवि का रुदन कुछ इस प्रकार है :
'उन भूले-भटकों को
घर लौटाने
उनके कदमों-निशां
टटोलती
पगडंडियां शहर जोहने
निकली हैं,
पर अकेली फिल्म
देखने गई
सामूहिक बलाकृत हुई
और लोक-लाज के भय से
नदी-नाबदानों में
समा गई
दुधमुँही लौंडिए की
तरह
वे भी गुम हो गई हैं
अख़बारों के हाशिए की
उपेक्षित ख़बर बन गई
हैं।'
(पगडंडियां,
'पगडंडियाँ', पृ. 10)
गाँव के प्रति उसके आकर्षण का एक मुख्य कारण उसकी सहजता और भोलापन है:
'गांव अबोध बिटिया है
मां की गोद में उसकी जम्हाई है
उसके होठों पर पहली खिलखिलाहट है
उसकी आँखों का भोलापन है
उसके मन-उपवन में
लहलहाते सपनों की फसल है
उसकी तेज का उनीदापन है'
मां की गोद में उसकी जम्हाई है
उसके होठों पर पहली खिलखिलाहट है
उसकी आँखों का भोलापन है
उसके मन-उपवन में
लहलहाते सपनों की फसल है
उसकी तेज का उनीदापन है'
('परकटी कविताओं की उड़ान' से)
कवि मानवीय
कुकृत्यों से प्रकृति पर हो रहे घातक हमलों को
लेकर अत्यंत
चिंतित है। जीवनाधार नदियों के धीरे-धीरे लुप्त होने पर वह आतंकित है क्योंकि इस
परिवर्तन के कारण उसे सृष्टि-विसर्जन का भय खाए जा रहा है। नदी का यह आलाप-विलाप
बहुत मार्मिक है --
'हाँ, यह कैक्टसी गबरू शहर
मेरी जर्जर बाँहों में निडर
अपनी विष-बुझी जड़ें
चुभो-चुभोकर
अपनी हब्शी भुजाओं में खींच
और दैत्याकार जिस्म में दबोच
शिवालय की निचाट छाया में
मेरा घातक बलात्कार कर रहा है।'
('चाहता हूँ पागल भीड़', पृ. 57)
ऐसी स्थिति में,
प्रकृति पर दैवी प्रकोप भी सृजन के लिए कम खतरनाक नहीं है। पहाड़ी प्रदेशों में
बादल फटने की विभीषिका का वर्णन कितना मार्मिक और सजीव है--
कहाँ से आए वे
घुमावदार घाटियों से
घासी-मखमली जीनों से चढ़कर
मुड़कर देखे बिना
बढ़ते ही गए वे
और दिव्याकार शिलाओं में
समाकर कच्ची नींद
सो गए
('चाहता हूँ पागल भीड़', पृ.
65)
रीति-रिवाज़ों
में छिपी सुकोमल मानवीय भावनाओं का चित्रांकन कवि बड़ी आत्मीयता से करता है। पूर्वी
भारत में बच्चे को नहला-धुलाकर उसके माथे पर काजल का टीका (डिठौना) लगाना माताएं
कभी नहीं भूलतीं--
जब भी काजल आँजा
लाल की आँखों में
उजले भाल पर टीप दिया
डिठौना...
डाहती बुरी नज़रों से
टोने-टोटकों, भुतही हवाओं से
कलेज़े को सुरक्षा कवच
पहनाने के लिए
लाल की आँखों में
उजले भाल पर टीप दिया
डिठौना...
डाहती बुरी नज़रों से
टोने-टोटकों, भुतही हवाओं से
कलेज़े को सुरक्षा कवच
पहनाने के लिए
('समकालीन भारतीय साहित्य' में प्रकाशित, मार्च 2008)
'बैलगाड़ियों के
पाँव' कविता में द्रुतगामी वाहनों के कारण बैलगाड़ियों के पतन पर उसका वर्णन
हृदय-स्पर्शीय है--
जब वे गए तो गलियाँ ख़ूंखार सड़कें हो
गईं
... ... ...
मोहल्लों के मकान धुआँ उगलती
फैक्ट्रियाँ हो गईं
... ... ...
गाँव शहर के पीछे बेतहाशा भागते दिखे
... ... ...
उनकी यादों में गीधों तक को उदास
देखा है
और वे उन्हें कहीं जोहने ओझल हो
गए हैं
('परकटी कविताओं की उड़ान' से)
इस लिहाज से
नौनिहालों पर विकृत आधुनिकता के प्रभाव से क्षुब्ध है। कवि राष्ट्रीय जीवन के उन
सभी पक्षों पर गहन दृष्टि डालने के लिए भरपूर कोशिश करता है जिनकी बेहतरी से ही इस
समाज का भविष्य संवर सकता है। बच्चों के बचपन के छू-मंतर होने पर कवि का दुःख असीम
है--
बच्चों को बारूद बनाने की
मनचाही ज़द्दोज़हद में
एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया
सफल प्रयोग के अंतिम चरण में है
सो, बच्चे लोकप्रिय धारणाओं के विपरीत
अपनी विहँसती किलकारियों से
बारूदी विस्फ़ोट कर रहे हैं
भविष्य के अंधकूप में
बारूदी ज़खीरा इकट्ठा कर रहे हैं
('वर्तमान साहित्य', अक्तूबर, 2008)
बच्चों में बचपन
के लुप्तप्राय होने और उनमें बालिगों के आपत्तिजनक लक्षण आने पर कवि का मन
जुगुप्सा से भर उठता है--
खुशफ़हमी नहीं होनी चाहिए
कि बच्चे ज़रूरत से ज़्यादा सयाने होने हो गए हैं
कि वे बलखाती कमर और उत्तल उरोज़ पर
फ़ब्तियाँ कसने लगे हैं
कि वे फिल्मी तारिकाओं संग
प्रणय के सपने संजोने लगे हैं
('परकटी कविताओं की उड़ान')
उसका ऐसे वयस्क
बच्चों से अनुरोध है कि--
इन बालिग बच्चों से प्रार्थना है
कि वे थोड़ा और सब्र करें
और इस गोल-मटोल दुनिया को
फुटबाल न समझें
('परकटी कविताओं की उड़ान')
वह ऐसे निरंकुश
बचपन के प्रति हमें आग़ाह करता है--
...माँएं
वेदना का पर्याय होंगी
पेट में
बलात्कार यंत्रणा
और प्रसव पीड़ा
साथ-साथ झेलेंगी
('पगडंडियाँ', पृ. 20)
डा. श्रीवास्तव की कविताओं में प्रताड़ित नारी का विविध चित्रण
उपलब्ध है। पुरुष और प्रकृति दोनों के हाथों उसका शोषण होता है। "तूफ़ान के
दिन" शीर्षक से कविता में उस पर तूफ़ान द्वारा बरपाया गया कहर लोमहर्षक है--
वह निर्वस्त्र--निष्पात कंपकपाती टहनी
जाती तो किन झुरमुटों की साया में
सिवाय रसोई के कोने से
जिसकी बेबस खिड़कियों से
अपना खौफ़नाक सिर डालकर
वह उसे बदतमीजी से घूर रहा था
कुटिल आँखों से लूट-खसोट रहा था
जाती तो किन झुरमुटों की साया में
सिवाय रसोई के कोने से
जिसकी बेबस खिड़कियों से
अपना खौफ़नाक सिर डालकर
वह उसे बदतमीजी से घूर रहा था
कुटिल आँखों से लूट-खसोट रहा था
('परकटी कविताओं की उड़ान')
'अबला-बलात्कार के बाद' में बलात्कृत नारी की दशा जुगुप्सा से भर देती है--
उसके आसपास पडी
थीं
शराब की बोतलें, फ्राई फिश के कांटें
और चिकेन की चिचोरी गयी हड्डियां
ब्रा और अण्डरवियर के चिथड़े
शराब की बोतलें, फ्राई फिश के कांटें
और चिकेन की चिचोरी गयी हड्डियां
ब्रा और अण्डरवियर के चिथड़े
रक्त-रंजित
समीज-शलवार की लुगदियाँ
और उसकी देह और होश के असंख्य हिज्जे
और उसकी देह और होश के असंख्य हिज्जे
उसने बेपर्दा
हुए अंग-प्रत्यंगों को देखा
जिनसे लज्जा का नहीं
दर्द का ज्वालामुखी फूट रहा था
कमनीयता की क्षत-विक्षत लाश बस्सा रही
जिनसे लज्जा का नहीं
दर्द का ज्वालामुखी फूट रहा था
कमनीयता की क्षत-विक्षत लाश बस्सा रही
'अबला-महानगर में भटकने पर' कविता में अपने पति के साथ
शहर घूमने निकली ग्रामीण स्त्री का उससे बिछुड़कर इधर-उधर भटकने का चित्रण दर्शनीय
है--
धूम्र छत्ते के
नीचे
रपटती सड़कों पर
सांप-गाड़ियों, कीट-पसिंजरों
के धक्कमपेल में
बिछुड़ गयी अपने मरद से
रपटती सड़कों पर
सांप-गाड़ियों, कीट-पसिंजरों
के धक्कमपेल में
बिछुड़ गयी अपने मरद से
'परित्यक्ता बनने के बाद' कविता में स्त्रीधन का हश्र इन पंक्तियों में वर्णित
है:
अब वह कोई धन
नहीं रही
कुत्ते तक उसे चाटते नहीं
पराए धन के मालिक भी
इस सामाजिक छीजन पर थूक गए
कुत्ते तक उसे चाटते नहीं
पराए धन के मालिक भी
इस सामाजिक छीजन पर थूक गए
('परकटी कविताओं की उड़ान')
यदि यह कहा जाए कि नारी संसार के भावों-अनुभावों, स्थितियों-परिस्थितियों का
सूक्ष्म चित्रण करते हुए डा. श्रीवास्तव
एक महाकाव्य का सृजन कर रहे हैं तो यह बात अत्युक्ति न होगी। नारी के संघर्ष, उसकी
पीड़ा, उसकी मनःस्थिति, उसकी आपबीती आदि का विवरण वह बड़े सलीके-कायदे देते हैं और
संभवतः कोई कवियत्री भी इतनी सूक्ष्म और मार्मिक नहीं हो सकती तो यह निष्कर्ष सच
की कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरता है। 'चाहता हूं पागल भीड़' संग्रह में 'औरत:
रविवार के दिन' शीर्षक से कविता में जहाँ वह ऐलान करता है कि रविवार
के दिन व्यस्त औरत की 'श्रमशीलता ही उसका अवकाश है' (पृ. 8)
और इस साप्ताहिक पर्व को वह 'मनाती जाएगी पूरे साल/कम से कम बावन बार' (पृ.
9) वहीं 'औरत: त्योहार के दिन' कविता में औरत
अपनी अथक व्यस्तता में ही त्योहार का असली आनन्द लेती है और 'औरत : शेष दिन' कविता में भी गृहिणी की व्यस्तताओं का कम न होना मन को कचोट
जाता है।
कवि को भौतिक संसार से छूटकर दार्शनिक दुनिया में छलांग लगाने में पल-भर का भी
समय नहीं लगता है। किंतु, मोहग्रस्त कवि इहलौकिक जीवन की छड़भंगुरता से ऊबकर ईश्वर
के काल्पनिक लोक में सुकून-शांति तलाशने की कोशिश तो करता है; किंतु, उसे ईश्वर की
निष्ठुरता से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। ऐसे में, वह ईश्वरीय
प्रार्थना-आराधना को भी फ़िज़ूल मानता है--
भूखी नंगी
प्रार्थनाएँ
अब बूढ़ी हो चली हैं,
ईश्वर ने उन्हें कब कृतार्थ किया है ?
अब बूढ़ी हो चली हैं,
ईश्वर ने उन्हें कब कृतार्थ किया है ?
..... ..... .....
प्रार्थनाओं को देश-निकाला दे दो
उनकी सोहबत ने
ग़ुलामी और मुफ़लिसी के सिवाय
हमें दिया क्या है?
प्रार्थनाओं को देश-निकाला दे दो
उनकी सोहबत ने
ग़ुलामी और मुफ़लिसी के सिवाय
हमें दिया क्या है?
('सृजन संवाद', संपादक-.
ब्रजेश,
अंक ९, २००९)
'एक नदी यह भी' कविता में वह नदी-सभ्यता के विकृत होने पर अत्यंत चिंतित है। जिन
नदियों में अमृतृपय के स्थान पर कालोनियाँ और गंदी बस्तियां कुकुरमुत्ते की शक्ल
में बसती जा रही हैं, उनके पतन पर कवि का हृदय फ़फ़क पड़ता है। कवि कहता है--
तरल बहते लोगों से संडाध उठ रही है
संस्कृतियों के
कल्पतरुओं का कहीं अता-पता नहीं है,
आखिर, जिन तरुओं की जड़ों में दीमक लग गए हों
उनके बचने की
उम्मीद कैसे की जा सकती है?
उम्मीदों पर
पलने वाले मनुष्य का जीवन यूं ही गुजर जाता है और आखिर में उसके हाथ कुछ नहीं आता।
इस संबंध में कवि एक दार्शनिक की भाँति प्रतिपादित करता है--
उम्मीद को पाल-पोसकर
झकड़दार -फलदार बनाने में
भोथरा जाती है
उम्र की धार,
बंद मुट्ठी की
रेत हो जाती है
इस पर चढ़कर
फलों को तोड़ने की क्षमता
('परकटी कविताओं की उड़ान')
कवि बुद्धिजीवियों की अकर्मण्यता और उनकी सुसुप्तावस्था पर अत्यंत चिंतित है।
देश की बेहतरी के लिए उनकी भूमिका नगण्य है। वे कहीं भी अगुवाई नहीं कर रहे हैं।
जिस देश का पथप्रदर्शक वर्ग ही किंकर्तव्यविमूढ़ हो, उसका हश्र क्या होगा, यह हमें
आज प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। देश का राजनीतिक क्षेत्र तो बौद्धिकता से शून्य है
ही, जिन क्षेत्रों में वे मौज़ूद हैं--वहाँ भी वे आलसी बने हुए देश और समाज का
हतभाग्य देख रहे हैं। कवि बुद्धिजीवियों की भूमिका पर कुछ इस तरह से आँसू बहाता
है--
उन्हें बड़ी महारत हासिल है
हादसों के बाद बहस करने में,
हम सभी क्या सारा आवाम जानता है
कि उनकी नपुंसक बहस
कोई नतीजा प्रसवित नहीं कर पाएगी.
('सृजन संवाद', सं. ब्रजेश, अंक ९, २००९, लखनऊ)
कवि डॉ. मनोज श्रीवास्तव बृहत अनुभवों वाले कवि
हैं। वह समाज का कोना-कोना झाँकते हुए समाज और मनुष्य के उन पक्षों पर भी
सकारात्मक और सुधारात्मक दृष्टि डालते हैं, जिन पर दूसरे कवि साधारणतया अपना ध्यान
नहीं दे पाते। वह सूक्ष्म दृष्टि वाले समाज के व्यापक परास पर विचरण करने वाले कवि
हैं।
डा. मनोज श्रीवास्तव
लिखी गईं पुस्तकें-पगडंडियां(काव्य संग्रह),अक्ल का फलसफा(व्यंग्य संग्रह),चाहता हूँ पागल भीड़ (काव्य संग्रह),धर्मचक्र राजचक्र(कहानी संग्रह),पगली का इन्कलाब(कहानी संग्रह),परकटी कविताओं की उड़ान(काव्य संग्रह,अप्रकाशित)
आवासीय पता-.सी.66 ए नई पंचवटीए जी०टी० रोडए ;पवन सिनेमा के सामने,
जिला-गाज़ियाबाद, उ०प्र०,मोबाईल नं० 09910360249,drmanojs5@gmail.com)
बेहतर समीक्षा
जवाब देंहटाएंप्रतीक जी ने लिखा है‘अच्छी कविताओं का हश्र अच्छा नही होता. अलपटप कविताओं की भीड़ में’ और ‘ गंभीररचनाकारों को खारिज कर दिया जाता है।’
यह दर्द खत्म होना चाहिए और अच्छे रचनाकारों को एक होना चाहिए।
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