- डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी
छायाचित्र चितौड़ के युवा पत्रकार साथी रमेश टेलर से साभार |
अरावली की पर्वतीय उपत्यकाओं से आच्छादित, शोणित की धारा से सिंचित, गोरा-बादल और जयमल-फत्ता की हुँकारों से ऊर्जस्वित, भक्तिमती मीरा, वीरांगना पद्मिनी, त्यागमूर्ति पन्ना की पावन धरा चित्तौड़गढ़ विश्व विख्यात नगरी है । इस नगरी को जीवन रस से सिंचित किया है- गंभीरी और बेड़च ने, जिसके रस से आप्लावित यहाँ का पौरूष इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, साहित्य एवं आध्यात्मिक विरासत के पटल पर हमें अपूर्व गौरव प्रदान करता है । किसी कवि ने चित्तौड़गढ़ की प्रशस्ति में गाया है-
वीरता के रस लिए ये झरने बह रहे हैं,
चित्तौड़ के इतिहास की कहानी कह रहे हैं ।
विजय स्तंभ कह रहा है कीर्ति स्तंभ से,
मेवाड़ भारत का मुकुट है, साक्षी दे रहे हैं ।
चित्तौड़गढ़ राजस्थान राज्य का प्रमुख शहर है । वीर भूमि मेवाड़ का यह प्रसिद्ध नगर रहा है, जो भारत के इतिहास में सिसोदिया राजपूतों की वीरगाथाओं के लिए अमर है । प्राचीन नगर चित्तौड़गढ़ रेल्वे जंक्शन से चार कि.मी. दूर है । भूमितल से 508 फुट एवं समुद्रतल से 1338 फुट की ऊँचाई पर एक विशाल ह्वेल आकार का दुर्ग इस नगर के गौरव का प्रमुख केन्द्र है । दुर्ग के भीतर ही चित्तौड़गढ़ का प्राचीन नगर बसा है। जिसकी लम्बाई साढ़े तीन मील और चौड़ा है एक मील है । किले के परकोटे की परिधि 12 मील है । कहा जाता है कि चित्तौड़गढ़ से 8 मील उत्तर की ओर नगरी नामक प्राचीन बस्ती है जो महाभारतकालीन माध्यमिका है । चित्तौड़गढ़ का निर्माण इसी के खंडहरों से प्राप्त सामग्री से किया गया था ।
चित्तौड़गढ, वह वीरभूमि है, जिसने समूचे भारत के सम्मुख अपूर्व शौर्य, विराट बलिदान और स्वातंत्र्य प्रेम का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया । बेड़च की लहरों में यहाँ के असंख्य राजपूत वीरों ने अपने देश तथा धर्म की रक्षा के लिए असिधारा रूपी तीर्थ में स्नान किया । वहीं राजपूत वीरांगनाओं ने कई अवसर पर अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अपने बाल-बच्चों सहित जौहर की अग्नि में प्रवेश कर आदर्श उपस्थित किए । स्वाभिमानी देशप्रेमी योद्धाओं से भरी पड़ी यह भूमि पूरे भारत वर्ष के लिए प्रेरणा स्रोत बनकर देश प्रेम का ज्वार उत्पन्न करने में अपनी भूमिका आज भी अदा करती है । वीरांगनाओं की स्मृति स्वरूप खड़े दुर्ग के ये स्मारक अपनी मूक भाषा में अतीत की गौरव गाथाएँ सुनाते दिखाई पड़ते हैं ।
मरू प्रदेश को प्रकृति द्वारा प्रदत्त जीवनदायिनी जलधाराएँ प्रदान करने वाली बेड़च और गंभीरी नदियाँ चित्तौड़गढ शहर के मध्य से गुजरती हैं । अतीत के जिस गौरव पर हम अभिमान करते हैं, यह गौरव-रस इन्हीं नदियों के किनारे फलित हुआ और संभवतः वैभवशाली इतिहास का साक्षी भी बना । इन दोनों नदियों ने चित्तौड़वासियों को फलने-फूलने का सदैव अवसर दिया और आज भी दे रही हैं । उदयपुर की गोगुन्दा-पहाड़ियों से निकलने वाली बेड़च राजस्थन की प्राचीन नदी है । अब तक यह जीवनदायिनी नदी किसानों की फसलों को सींचने के साथ, भूजल में वृद्धि करने वाली रही है, जिसके कारण कुओं और नलकूपों के माध्यम से आमजन की प्यास बुझती आई है । चित्तौड़वासियों के लिए यह मातृ-स्वरूपा रही है । गंभीरी ने भी यही कर्तव्य निभाया । इन दोनों नदियों का मिलन चित्तौड़गढ जिले में ही होता है ।
चित्तौड़गढ गंभीरी और बेड़च के मध्य स्थित है । यातायात के बढ़ते दबाव को सुगम बनाने की दृष्टि से शहर में गंभीरी नदी पर पन्नाधाय सेतु एवं बेड़च नदी पर नवीन पुल का निर्माण किया गया है, लगभग नौ करोड़ की लागत से बने पुल से शहर के विकास में नया अध्याय जुड़ गया है और इन दोनों नदियों को नया कलेवर भी । ये दोनों नदियाँ प्रवाहित होकर बीसलपुर बांध तक जाती हैं, जो राजधानी जयपुर की प्यास बुझाता है ।
समय के साथ चित्तौड़गढ शहर ने औद्योगिक विकास की राह पकड़ ली और वर्तमान में प्रमुख औद्योगिक शहर के रूप में विकसित होता हुआ प्रगति के पथ पर आगे बढ़ रहा है । प्रगति के दौर में आर्थिक महत्त्वाकांक्षाएँ हावी होना स्वाभाविक हैं, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि हम अपना मौलिक कर्तव्य भूल रहे हैं । वह मौलिक कर्तव्य है- इन दोनों नदियों के स्वच्छ जल को बचाने का कर्तव्य ।
यह सच है कि शहर का विकास इन दो नदियों के केन्द्र में है, उसका अतीत साक्षी है और भावी विकास में भी इन दोनों नदियों की सदैव आवष्यकता रहेगी । फिर भी हमारा ध्यान इस ओर नहीं है कि ये नदियाँ किस सीमा तक प्रदूषित हो चुकी हैं और इस प्रदूषण को रोकने के हमारे द्वारा किये गये प्रयास क्या हैं ? औद्योगिक विकास से रासायनिक कचरों का निष्पादन और उससे इन नदियों का बचा रहना आवष्यक है, किंतु पर्यावरणीय मानकों का निर्वाह कहीं भी दिखाई नहीं देता । औद्योगिक कचरे से जहाँ भूमि बंजर हो रही है, वहीं इन नदियों का पानी भी विषैला हो रहा है । यह कितना भयावह है, यह तो आने वाला समय बताएगा ।
औद्योगिक कचरे के साथ शहरवासियों की नालियों का गंदा पानी कहाँ जा रहा है ? इस विषय पर भी हमारा ध्यान नहीं गया है । यह गंदा पानी घूम-फिरकर इन्हीं नदियों में मिश्रित हो रहा है, जो अन्ततः हमारे ही शरीर में पुनः जहर घोल रहा है । जहरीले पानी से मछलियों का मरना आम बात है, तो सफेद होती चट्टानें, बंजर होती भूमि, जहरीली घास का पैदा होना, तटीय गाँवों में चर्मरोगों का बढ़ना कहीं इनके प्रदूषित होने का प्रमाण तो नहीं है । समय रहते यदि इस ओर हमारा ध्यान नहीं गया, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ नहीं करेंगी।
बेड़च और गंभीरी का कलकल की ध्वनि से निरन्तर बहते रहना और निर्मल धाराओं की श्वेतकणिकाओं से हरीतिमा का अवलोकन करना चित्तौड़गढ की विरासत का बिम्ब रहा है । यह बिम्ब सदैव मुग्धकारी रहा है और भविष्य में भी रहना चाहिए, आवश्यकता है तो मात्र सजग प्रहरी के रूप में हमारे दायित्व बोध की । औद्योगिक समूह पर्यावरणीय मानकों का निर्वाह करे, शासकीय अभिकरण सजग निगरानी रखे और जनता स्वयं चेतनावान बनकर अपने जीवन-रक्त को जहर से बचाये, तो वह दिन स्वर्णिम होगा जब पुनः यह शहर समूचे वैभव के साथ अरावली के अंष को हरितिमा से आच्छादित करता रहेगा और जीवन-रथ को प्रगति के पथ पर अग्रसर करेगा ।
(अकादमिक तौर पर डाईट, चित्तौडगढ़ में वरिष्ठ व्याख्याता हैं,आचार्य तुलसी के कृतित्व और व्यक्तित्व पर ही शोध भी किया है.निम्बाहेडा के छोटे से गाँव बिनोता से निकल कर लगातार नवाचारी वृति के चलते यहाँ तक पहुंचे हैं.शैक्षिक अनुसंधानों में विशेष रूचि रही है. राजस्थान कोलेज शिक्षा में हिन्दी प्राध्यापक पद हेतु चयनित )
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