(1)
तेज़ बुखार के बाद
गले में बची
हल्की खरास की तरह है
एक उदास रविवार के बाद
आने वाला सोमवार
(2)
हम क्या जाने
सोमवार की
उस प्रसव पीड़ा को
जना है मुश्किल से
जिसने ये मंगलवार
(3)
पीछे छूटते संस्कारों की तरह
मंगलवार
अब नज़रंदाज़ दिन है
बुधवार के आगे
सिनेरियो से गायब है
ये बीता दिन
याद नहीं आता
बूढ़े माँ-बाप की तरह
अफसोस
क्या करे टिप्पणी
बुधवार के इस तसल्लीभरे जीवन पर
जिसमें मंगलवार का असर गायब है
(4)
आज गुरुवार है
जिस पर
बहुत सी संज्ञाएँ कब्जा जमाना चाहती है
मसलन
ग्यारस-बारस-प्रदोष
एच्छिक और राजकीय अवकाश
सहित जयंतिया,पूण्य तिथियाँ
एकटक नज़र जमाये
छूट्टी के तमाम हथकंडे
अफसोस
मेरे लिए अर्थ दूजा है इसका
मसलन
बुधवार के बीतते ही
रात के सभी पहर आये नज़र
घर में रिक्त होते आटे-दाल
के फीफे
और तेल की बाटली
ऐसे ही मंजरों के बीच
आ धमका है मेरी देहलीज़
'गुरुवार'
दिहाड़ी के सामान्य दिन की शक्ल ओढ़े
(5)
गृहस्थी के छातीकुटे
सरीखे गुरुवार
से बच निकल
आया है आज
मेरे आँगन
एक हंसता हुआ शुक्रवार
जिसके चेहरे पर
साफ़ झलकती है
मुश्किलों से पार
इस तरफ
आ जाने की तसल्ली
(6)
मालुम है
शुक्रवार ने अपनी
नयी हवेली
के नांगल में
किया था कल
एक जंगी समारोह
जिसके जीमण वाली
पंगत का अवशिष्ट
बन
बू पसारता रहा
शनिवार
सप्ताहभर की झूठन की-सी
तक़दीर लिए
ताकता रहा
लकीरें हाथों की
थकनभरा बदन लिए
आखिर
आया मेरे हिस्से
रोता-बिलखता
पूरे सप्ताह को
बकता हुआ बेहिसाब गालियाँ
(7)
एक ही जमात के शब्द है
आवेदन,योग्यता,पोस्टल ऑर्डर
और तो और
अंतिम तिथि ,पता,लिफ़ाफ़े और डाक टिकट
एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं
पुरस्कार,ज्यूरी,स्क्रीनिंग,
तमगे,शॉल ,नारियल
और कुछ अखबारी करतनें
मोसेरे भाई की तरह
बरताव करते हैं
कुछ एक सरीखे शब्द
आयोजन,आमंत्रण और प्रेस विज्ञप्तियां
टेंट,वक्ता,भाषण और सञ्चालन
नास्ते का मीनू,प्लास्टिक की गिलासों
(8)
किधर करूँ गमन
तुम्ही कह दो
अक्सर होती
घटनाओं की तरह
महिलामित्र से लम्बी बात के
ऐनवक्त
वेटिंग कोल में
माँ का नंबर आता है
जानता हूँ
जिसे लगाने में
माँ ने गाँव के कितने
आते जाते लोगों के नोरे (मनुहार) किये होंगे
जतन से संभाली
पल्लू बंधी परची
से दड़बेदार आखर
फिर हुए होंगे पुलकित
जिन्हें मिलाने से
माँ का मोबाईल नंबर
मेरे सेल पर आता है
और मैं फटाक से
बकरे की गरदन की तरह
महिलामित्र को 'बाई' कह
फोन काट देना चाहता हूँ
माँ से बतियाने की जुस्तजू में
(9)
माँ के मौन को
नहीं समझ पाया
इस बार फिर
कथित तौर पर मैं पढ़ा लिखा
साबित हुआ
बहुत से बेकाम निबटाने की
दुहाई देते हुए
आखिर लौट आया
गाँव से यहाँ
अपनी दुनिया में
जब आया
गाँव छोड़ कर पीछे
एक दिन के फेरे से
वापसी में
केवल एकाएक ठोर
शहर ही दिखा मुझे
अफसोस
मगर
मन फुसफुसाता रहा
माँ की अनकही बातें
मेरे ही कानों में
रातभर
शहरी चकाचौन्धियाते
सन्नाटे
के बीच
मैं करता रहा
असफल कोशिशें
माँ के मौन
का सरलार्थ
समझने की
saare behtareeen..
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