- ज्ञानमूर्ति मुनि जिन विजय
- लेखक नटवर त्रिपाठी
चंदेरिया ,चित्तौड़गढ़ में लगी प्रतिमा |
15 वर्ष की आयु में अश्विन शुक्ला 13 विक्रम संवत! 1959 में मुनि जिन विजय ने जैन धर्म के एक सम्प्रदाय की साधु दीक्षा ग्रहण की। 6 वर्ष तक दीक्षा का पालन किया और धार, उज्जैन, इन्दौर, रतलाम नगरों में प्रवास किया तथा खानदेश, दक्षिण महाराष्ट्र के कई भागों का परिभ्रमण किया। विद्या पढ़ने की अभिरूचि के चलते सुखानंदजी में भैरवी दीक्षा ग्रहण की और यतिवेश भी धारण किया। विद्याध्यन की परिपाटी ओर पद्धति के अनुसार अनुसरण कर विद्या अर्जन किया। पर इस संप्रदाय में ज्ञानार्जन का विशेष साधन और संयोग नहीं मिलने से संवत् 1965 के भाद्रपद में इस सम्प्रदाय का वेश त्याग दिया। किसी अन्य मार्ग की खोज में निकल पड़े। हालांकि इस साधुमार्ग के कठिन से कठिन आचार विहार का पालन किया और यह जीवनयापन बहुत तपस्या पूर्ण था। तपस्वी होने का अहं भाव भी धारण किया परन्तु विचारों ने करवट ली और उस सारी तपश्चर्या का फल शिप्रा नदी में बहा दिया।
संवत् 1965 के मार्गशीर्ष की शुक्ता 7मी के दिन जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के संवेगीमार्गानुयायी से दीक्षा ग्रहण की और प्रसिद्ध नूतन नाम जिन विजय से स्थापित हुए। पिता का दिया नाम किशनसिंह और माता के मुंह से पुकारा जाने वाला नाम रिणमल सदा के लिए विसर्जित हो गया। इसके बाद साहित्यिक प्रवृतियों में मन बढ़ा और संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, प्राचीन गुजराती, राजस्थानी आदि भाषाओं में लिखित अज्ञात, अप्राप्त, अलभ्य ग्रन्थों का संशोधन, संपादन और प्रकाशन करने के अभीष्ट मनोरथ बढ़ने लगें। 1909 सं 1919 तक 10 वर्ष के संवेगी साधुचर्या का पालन करते हुए 1918 में पूना नगर में जाना हुआ वहां संास्कृतिक शैक्षणिक व राष्ट्रीय जागरण के वातावरण तथा लोकमान्य तिलक, सर रामकृष्ण भॉडारकर, स्त्री जाति उद्धारक तपस्वी महर्षि घोंर्डो केशव कर्व आदि प्रसिद्ध पुरूषों के समागम में आने और उनके साथ विचारों का आदान प्रदान करने का अकल्पित और असाधारण लाभ मिला। यहीं महात्मा गांधी से सम्पर्क और समागम हुआ।
साहित्य, शिक्षा, कला, लेखन, वक्तृत्व गुणों के धनी महानुभावों से सम्पर्क बढ़ता गया और संवेगी साधुमार्ग को भी मोड़ दिया। 1920 में महात्मा गांधी के देश को आजाद करने के लिए उठाये गये बीड़े में शामिल होगये और साधू वेश का त्याग कर दिया। गांधीजी के आदेश पर पूना का कार्य क्षेत्र छोड़ राष्ट्रीय विश्वसविद्यालय विद्यापीठ के प्रथम सेवक बने। आठ वर्ष तक विद्यापीठ के विशिष्ठ सदस्य बने रहे और वहां गुजरात पुरातत्व मन्दिर की स्थापना की। उन्हें सर्व श्रीकाका कालेलकर, डॉ पण्डित सुखलालजी सिंघवी, पं. श्री बेचरदासजी दोशी, प्राध्यापक श्री रसिकलाल छोटालाल परीख तथा बौद्ध विद्धान श्री धर्मानन्द कौसमम्बी, मौलाना अबुजरफर नदवी आदि गण मान्य विद्धानों का सहयोग मिला। इसी विभाग के विकास की दृष्टिसे महात्माजी की शुभेचछा से 1928 के मई मास में योरोप यात्रा के लिए मुनिजी निकल पड़े। करीब एक वर्ष तक जर्मनी की तत्कालीन राजधानी बर्लिन में निवास किया। वहां पर ‘हिन्दुस्तान हाउस’ की स्थापना की। देश को स्वतंत्रता दिलाने कार्यक्रम लाहौर कांग्रेस में निश्चित किया। स्वतंत्रता के आन्दोलन में गांधी जी के अनुगामी होगए। भारत आने के बाद जर्मनी जाने का संकल्प छोड़ गांधीजी के नमक सत्याग्रह में शामिल हुए दाण्डी यात्रा के लिए कूच किया। 1939 में श्री मुन्शीजी के आग्रह से विद्याभवन की योजना बनाई और उॉनरेरी डारेक्टर का पदभार ग्रहण किया। भारतीय विद्याभवन का संचालन करते हुए विद्यार्थियों को अग्रिम अध्ययन व पी.एच.डी. के लिये तैयार करते रहे।
1950 में चन्देरिया चित्तौड़गढ़ में ‘‘ सर्वोदय साधना आश्रम’’ की स्थापना की और नूतन संगठित राजस्थान सरकार के विशेष आग्रह से जयपुर में विद्याभवन के अनुरूप ‘राजस्थान पुरातत्व प्रतिष्ठान की स्थापना की। सन् 1950 के मई मास में तत्कालीन मुख्य मंत्री हीरालाल शास्त्री के अनुरोध पर राजस्थान प्राच्य प्रतिष्ठान का ऑनरेरी डारेक्टर का पद ग्रहण किया। 17 वर्ष तक इस प्रतिष्ठान का संचालन किया। भारतीय प्राचीन साहित्य के हजारों अपूर्व ग्रन्थों का संग्रह किया। इसके साथ ही प्रतिष्ठान द्वारा उत्तम साहित्य का प्रकाशन और संपादन किया। उन्हें जीवन में इस बात से बेचेनी और दुःख रहा कि राजस्थान सरकार ने इस संस्थान को सरकारी ढ़र्रे पर डाल दिया और वांछित विकास की धारा को अवरूद्ध कर दिया।
चन्देरिया आश्रम मुनिजी के श्रम का प्रतीक है जो आज अपनी दयनियता के कारण आंसू बहा रहा है। मुनि जी के जीवन में सतत ज्ञान विषयक अभिरूचित प्रावाहित रही तो चन्देरिया में श्रम अभिरूचि का यज्ञ सम्पन्न हुआ। खूब शारीरिक तपस्या इस आश्रम के लिए की। शारीरिक परिश्रम के मोह में उन्होंने यहां ज्ञानात्मक कार्यों की कई बार उपेक्षा की। उन्हें जितना आन्तरिक आनन्द चन्देरिया के ग्राममीण आश्रम में रहते हुए हुआउतना आनन्द पूना, बम्बई, अहमदाबद, शान्ति-निकेतन जयपुर, जोधपुर वाले ज्ञानात्मक केन्द्रों में प्राप्त नहीं कर पाए। वे यहां शान्ति की तलाश में आये थे।
चन्देरिया में रहते हुए दो स्थान और निर्मित करने के अवसर मिले। भामाशाह भारती भवन उनमें से एक है और दूसरा हरिभद्र सूरि स्मृति कन्दिर है। यह मन्दिर उन्होंने उन महान जैनाचार्य के स्मारक के स्मृति में बनाया जिनके ज्ञान और जीवन कार्य के प्रति उनकी अमिट श्रद्धा और भक्ति थी। हरिभद्र सूरि उनकी नजर में महान शास्त्रकार, धर्मोंपदेशक और योगविद् तथा परम कोटि के आध्यात्मिक तत्वदृष्टा थे। मुनि जी ने अपने अन्धकारपूर्ण औरलक्ष्यहीन जीवन मार्ग में उन्हें दीपस्तम्भ चित्तौड़ दुर्ग हरिभद्र सूरि का कार्य क्षेत्र रहा। हालांकि उनकी कल्पना इस मन्दिर के बारे में बड़ी थी परन्तु समाज ने उन्हें किंचित सहयोग नहीं कराई।
यह विडम्बना ही है कि ऐसे उद्भट विद्धान की सेवामें में कोई यथेष्ठ विद्यार्थी नहीं रहा और अपने जीवन के अन्तिम समय में कक्षा 8 में पढ रहे़ विद्यार्थी से अपनी जीवन कथा की प्रतिलिपि करवाई। वि.स. 1957 के जेष्ठ शुक्ला एकादशी को वे अपनी जन्म भूमि से विदा हुए, दुनियां को देखने सीखने चल पड़े लम्बी यात्रा पर। कोई 84 वर्ष की वय के आस पास उसी तिथि को जब गृह त्याग किया था -निर्जला एकदशी को जीवन के संस्मराणत्क चित्र उनके मानस पटल पर उभरे और उन्होंने अपनी आत्म कथा पूरी की।
(समाज,मीडिया और राष्ट्र के हालातों पर विशिष्ट समझ और राय रखते हैं। मूल रूप से चित्तौड़,राजस्थान के वासी हैं। राजस्थान सरकार में जीवनभर सूचना और जनसंपर्क विभाग में विभिन्न पदों पर सेवा की और आखिर में 1997 में उप-निदेशक पद से सेवानिवृति। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।
कुछ सालों से फीचर लेखन में व्यस्त। वेस्ट ज़ोन कल्चरल सेंटर,उदयपुर से 'मोर', 'थेवा कला', 'अग्नि नृत्य' आदि सांस्कृतिक अध्ययनों पर लघु शोधपरक डोक्युमेंटेशन छप चुके हैं। पूरा परिचय
हे भगवान!! पता नहीं कबसे मुनि जिनविजय जी का जीवनवृत जानने की अभिलाषा थी, आपका किन शब्दों में आभार व्यक्त करुँ, आपने आज इस आलेख से बहुप्रतीक्षित मनोकामना पूर्ण कर दी।
जवाब देंहटाएंसिंघी जैन विद्यापीठ ग्रंथमाला के प्रकाशित ग्रंथों का अध्ययन करते हुए अक्सर इन महामना के जीवन के बारे में जानने की इच्छा प्रबल हो जाती थी।
बहुत बहुत आभार!!
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