- अद्भुत्तनाथजीः चित्तौड़ किले का प्राचीनतम् शिवालय
- नटवर त्रिपाठी
(आपको हम बताना चाहते हैं कि दुर्ग चित्तौड़ पर ही अद्भुत्नाथ मंदिर के नाम से और भी मंदिर है जो सूरजपोल के पास स्थित महालक्ष्मी जी के मंदिर के पास स्थित है।-सम्पादक)
विश्व विख्यात चित्तौड़ दुर्ग पर अद्भुत्तनाथजी का मन्दिर कई दृष्टियों से अद्भुत है। 11वीं शताब्दी में निर्मित इस इस शिवालय को भोजस्वामी, समिद्धेश्वर, समाधीश, समाधीश्वर, अद्बदजी और मोकलजी के मन्दिर के नाम से जानते रहे हैं। वर्तमान में इसे समिद्धेश्वर मन्दिर के नाम से जाना जाता है, परन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के आसपास के लोग इसे अद्भुतनाथजी के मन्दिर के नाम से जानते थे। इस शिवालय की त्रिमूर्ति विशाल और आश्चर्यजनक है। सन् 1010 से 1031 के मध्य राजा भोज द्वारा अपने ईष्टदेव भगवान शिव को समर्पित इस विलक्षण मूर्ति के तीन स्वरूप हैं। भगवान शिव का रौद्र स्वरूप है, और दो अन्य स्वरूप ब्रह्मा तथा विष्णु के हैं।
लगभग 6 फीट ऊंची इस शिला पर उत्कीर्ण त्रिमूर्ति के नीचे गणिका को गदा हाथ में लिए हुए बताया गया है। नीचे एक साधू को भी दर्शाया गया है। सम्पूर्ण मन्दिर में नक्काशी और खुदाई का कार्य किया हुआ है। मध्य का मण्डप नयनाभिराम बेल-बूंटे , पूजा सामग्री एवं गण-गणिकाओं से अभिमण्डित है। इस मन्दिर के प्राचीन स्तम्भ माउन्ट आबू के विमलशाह के मन्दिरों के स्तम्भों के ही समान हैं। मन्दिर के बाहर का शिल्प 400 वर्ष उपरान्त दुर्ग पर बनाये कंुभा के मन्दिरों के शिल्प सौन्दर्य से भी कहीं अधिक सुन्दर है। यहीं नहीं यह त्रिमूर्ति, इसकी बनावट, भव्यता, आकर्षण, स्वाभाविकता, स्वरूप, परिकल्पना, अभिव्यंजना, शिल्प सौन्दर्य, भव्यता अद्भुत तथा अकल्पनीय है। शिव की अद्भुत मूर्ति के ऐसे दर्शन से ही आम लोग इसे अद्भुतनाथजी कहते हैं।
मेवाड़ और मालवा के लोग तीर्थ यात्रा करके आने के पश्चात पुष्कर में स्नान किए बिना जैसे उनकी यात्रा पूरी नहीं मानी जाती है वैसे ही दुर्ग स्थित गौमुख में स्नान और इस शिवालय के दर्शन से यात्रा को पूर्ण कहा जाता है। यूं भी दुर्ग दर्शनार्थी इस विशालकाय स्वरूप के दर्शन कर धन्य महसूस करता है। इस मन्दिर के स्तम्भों की भी विशेषता है। मन्दिर के अष्ट कोण के 16 स्तम्भ उस काल की शिल्प कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। इनमें से कुछ स्तम्भ बाद में जीर्णोद्धार के कारण बदले गये वे सपाट हैं।
विजयस्तम्भ के दक्षिण में गौ-मुख जलाशय के उपरी हिस्से पर बना मन्दिर सर्वप्रथम त्रिभुवनारायण का था। पं. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने विभिन्न ऐतिहासिक प्रमाण जुटा कर यह तथ्य स्थापित किया। परमार राजा भोज यहां रहा करता था और ई.स. 1010-31 में इसका निर्माण कराया था। हटूंडी के राष्ट्रकूट राजा धसवल के वि.स. 1053 के शिलालेख से यह स्पष्ट है कि राजा भोज के पिता सिन्धुराज के ज्येष्ट भ्राता मुन्ज ने मेवाड़ के गुहिलवंशी नरेशों के समृद्ध नगर आघटपुर (आहाड़) को उजाड़ा था। उसी काल में चित्तौड़ को अपने अधिकार में लिया। भोज की मृत्य के बाद परमारों का पतन हो गया और परमारों के शत्रु सौलंकी कुमार पाल चित्तौड़ की भव्यता देखने आया तथा मन्दिरको एक गांव अर्पित किया। उसी दौरान मन्दिर में एक प्रशस्ति लगाई गई। उसमें इस मन्दिर को ‘श्री समीद्धेश्वरम् प्रसिद्धम जगती’ होना बतलाया। इसके अलावा ई.स. 1429 की महाराणा मोकल की प्रशस्ति मन्दिर में लगी हुई हैं जिसमें देवालय का नाम ‘समिद्धेश’ और ‘समाधीश दिया है। महाराणा कुंभा की प्रशस्ति ई.स. 1460 कुम्भलगढ़ में भी इस प्रकार के नामों का उल्लेख है।
अलाउद्दीन के समय चित्तौड़ में तोड़फोड़ हुई। उस तोड़फोड़ में इस मन्दिर को बहुत क्षतिग्रस्त किया गया। मोकलजी ने इसका जीर्णोद्धार कराया। इसके 400 वर्ष उपरान्त तक कोई जीर्णोद्धार नहीं हुआ। गुजरात के सुलतान एवं बहादुरशाह तथा अकबर के आक्रमणों तथा तूफानों और वर्षा के कारण सहते-सहते यह भव्य मन्दिर भग्नावशेष होगया। 20 वहीं सदी के अन्त में फतहसिंहजी के समय इस पर ध्यान दिया और वह कार्य भूपालसिंहजी के काल में समाप्त हुआ।
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(समाज,मीडिया और राष्ट्र के हालातों पर विशिष्ट समझ और राय रखते हैं। मूल रूप से चित्तौड़,राजस्थान के वासी हैं। राजस्थान सरकार में जीवनभर सूचना और जनसंपर्क विभाग में विभिन्न पदों पर सेवा की और आखिर में 1997 में उप-निदेशक पद से सेवानिवृति। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।
कुछ सालों से फीचर लेखन में व्यस्त। वेस्ट ज़ोन कल्चरल सेंटर,उदयपुर से 'मोर', 'थेवा कला', 'अग्नि नृत्य' आदि सांस्कृतिक अध्ययनों पर लघु शोधपरक डोक्युमेंटेशन छप चुके हैं। पूरा परिचय
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