Tweet
सन् 1857 का महासमर और सोंधवाड़ - मालवा की भूमिका
सन् 1857 का महासमर और सोंधवाड़ - मालवा की भूमिका
1857 की क्रांति एक राष्ट्रीय क्रांति थी, जिसे शताब्दियों से गुलामी की बेड़ियों में जकड़े भारतवासियों के आत्मविश्वास और आक्रोश की स्वाभाविक अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए। यद्यपि इसे अलग-अलग निहितार्थों के साथ देखते हुए अलग-अलग संज्ञाएँ मिली हैं, किन्तु निर्विवाद रूप से इस क्रांति को ब्रिटिश सत्ता और सामंती व्यवस्था-दोनों को उखाड फेंकने के सबसे सबल जन-आन्दोलन के रूप में चिह्नित किया जा सकता है। आज इस महासमर को 'नीचे से' इतिहास लेखन की प्रवृत्ति के साथ पुनर्परिभाषित किया जा रहा है तो इसके बीज स्वयं इस क्रांति की प्रक्रिया परिणति तथ मौखिक साहित्य में सहज ही उपलब्ध हैं। यह क्रांति नहीं हुई होती, तो परवर्ती भारत का वह चेहरा नहीं होता, जिसे देख हम इठलाते हैं। एक साथ कई दिशाओं में इस महासमर का प्रभाव पड़ा है। इसका सीधा असर देश के बड़े हिस्से पर तो हुआ ही, ब्रिटिश हुकूमत को झकझोर देने में भी यह क्रांति सफल रही। यह एक ऐसा अपूर्व अवसर था जब धर्म, भाषा, क्षेत्र, वर्ग की दीवारों को तोड कर भारतवासी विदेशी सत्ता को उखाड फेंकने के लिए लामबंद हुए थे। 1857 के बाद ब्रिटिश सत्ता द्वारा प्रशासनिक एवं आर्थिक क्षेत्र में किए गए व्यापक बदलाव इस बात की ओर साफ इशारा करते हैं कि 57 के महासमर ने उन्हें अन्दर से हिलाकर रख दिया था। जो ब्रिटिश हुकूमत तत्कालीन सामंती व्यवस्था के स्थान पर सत्ता को सीधे अपने हाथों से नियंत्रित करने को तत्पर थी, उसने अपना इरादा बदल लिया और सामंती तंत्र के जरिये ही जनता पर लगाम कसना शुरू कर दिया।
परवर्ती काल में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में यदि बाहरी और अंदरूनी दोनों व्यवस्थाओं को बदलने के लिए पुकार लगाई गई तो वह अकारण न थी। उसके पीछे 57 की क्रांति के बीज छुपे हुए थे। क्या सैनिक, क्या किसान, क्या आम जनता, क्या छोटे जमींदार और ठिकानेदार - सबने मिलकर इस महायज्ञ में प्राणों की आहुति दी थी, जो निष्फल नहीं गई है।सन् 1857 के महासमर में मालवांचल की विशिष्ट भूमिका रही है। यद्यपि यह प्रयास अंग्रेज सत्ता को समाप्त करने अथवा देशी रियासतों में प्रभावी परिवर्तन लाने में असफल रहा, किन्तु इसने जनमानस में छुपे असंतोष को तीखा स्वर दिया था। पुनर्जागरण और भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की पृष्ठभूमि में इस महासमर की अविस्मरणीय भूमिका रही है, साथ ही इसने जनसमुदाय के बीच नए किस्म के लोकनायकत्व की प्रतिष्ठा की, जो अपनी प्रक्रिया और प्रभाव में जातिगत या धार्मिक संकीर्णता से ऊपर उठकर मातृभूमि के प्रति अटूट प्रेम को मूर्त करता है। ब्रिटिश भारत के व्यापक हिस्सों में फैली विद्रोह की आग में मालवा के अन्तर्वर्ती क्षेत्र 'सोंधवाड़' ने भी भरपूर ऊर्जा उपलब्ध करवायी थी। १८५७ के महासमर में सक्रिय रहे सोंधवाड के रणबाँकुरों में कलस्या (आलोट) के अमर जी - अभय जी, महिदपुर के हीरासिंह जमादार, आलोट के समियत खाँ, फरीद खाँ, करनाली के बापू खाँ दण्डी तथा आगर एवं महिदपुर छावनी के विद्रोही सैनिकों सहित अनेक मालवा का उत्सर्ग अविस्मरणीय है।
मालवा की उत्तर-पश्चिमी सीमा को तय करने वाली चम्बल नदी के पूर्वी तट के विस्तृत भू-भाग को सोंधवाड़ के नाम से जाना जाता है, जिसकी बोली 'सोंधवाड़ी मालवी की उपबोलियों में परिगणित होती है। यह क्षेत्र पूर्व में मध्यप्रदेश के शाजापुर जिले, उत्तर में रामपुरा (जिला मंदसौर) तथा पश्चिम में राजस्थान के राजपुताना क्षेत्र तक फैला है, जिसके मध्यवर्ती भाग में आगर (जिला शाजापुर), महिदपुर (जिला उज्जैन) और आलोट (जिला-रतलाम) प्रमुख कस्बे स्थित हैं। १८५७ की क्रांति में इन कस्बों के साथ ही एक छोटे से ग्राम कलस्या (तहसील आलोट) की भी अहम भूमिका रही है। 'कलस्या' ग्राम सोंधवाड के मध्यवर्ती हिस्से में आलोट तहसील की सीमान्तर्गत आलोट से ग्यारह किलोमीटर पूर्व में तथा महिदपुर से लगभग तीस किलोमीटर उत्तर में स्थित है। 'कलस्या' पुरातत्त्वीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहाँ किए गए सर्वेक्षण में मालवा ताम्राश्मकाल से लेकर शक-कुषाण काल के मृत्तिका पात्रों के अवशेषों के साथ ही परमारकालीन मन्दिर की अनेक प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं। परमारकाल के पश्चात् यह बस्ती चिरागगुल हो गयी थी। लगभग चार सौ वर्ष पूर्व कलस्या की वर्तमान बस्ती अस्तित्व में आई, जिसमें राजस्थान से अनेक जातियों के लोग आकर बसे। ब्रिटिश भारत में यहाँ के परिहार वीरों ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अनेक बार तीव्र प्रतिकार किया था, साथ ही मन्दसौर, आगरा और दिल्ली की ओर जाने वाले कई विद्रोही इसी क्षेत्र से गुजरे थे, जिनके संघर्ष में सोंधवाड के वीरों ने भी पर्याप्त सहभागिता की थी।
सितम्बर 1,1859 की रात्रि सोंधवाड़ के विद्रोहियों ने दो-तीन सौ की संखया में एकत्र होकर सीतामऊ इलाके के महुवी ग्राम में डाका डाला। वहाँ से बहुत-सा सामान और अनेक पशु ले गये। नवम्बर 1858 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी का भारतीय साम्राज्य इंग्लैण्ड की साम्राज्ञी द्वारा अपने अधिकार में ले लिया गया। इस अवसर पर अंग्रेजों द्वारा विभिन्न रियासतों के प्रमुखों को उत्सव मनाने के लिए निर्देशित किया गया। इधर कलस्या सहित सोंधवाड क्षेत्र के विद्रोहियों की गतिविधियाँ जारी रहीं। उनके दमन के लिए जनरल सर ह्यूरोज तथा बटन साहब अपने सैन्यदल और तोपखाने के साथ गंगधार की ओर आये। उनके साथ तीन-चार हजार सैनिकों का दल था, किन्तु विद्रोही सुसनेर की ओर चले गये। फलतः सैन्यदल ने पुनः कूच किया, लेकिन विद्रोही हाथ न आये। जनवरी १८५९ में पाटन (झालावाड ) के वकील रामदयाल को पाटन से इंदौर की ओर लौटते हुए डग-गंगधार क्षेत्र में लूट लिया था। उनसे घोड़ा , सामान आदि छीन लिया गया। इस लूट में कलस्या के विद्रोही अमरसिंह प्रमुख थे। यह बात गंगाबाई (कलस्या) से प्राप्त लोकगीत में दृष्टव्य है- ''पाटन का पटवारी लुट्या, हीरा लुट्या व्यापारी हो।''
कलस्या के अमरजी की विद्रोही गतिविधियाँ जारी थीं। उन्होंने अपने दल के लगभग दौ सौ योद्धाओं को एकत्र कर आलोट परगने (देवास बड़ी पाँती) के खजाने को लूटने के लिए कूच किया। कलस्या और आलोट के बीच क्षिप्रा के तट पर पड़ाव डाला गया। अमरसिंह और लालजी ने आलोट के तहसीलदार के पास खजाना लूटने के लिए उनके सैन्य दल के आने की पूर्व सूचना भेजी। तब तहसीलदार के निवेदन पर भोजाखेड़ी जागीरी के ठाकुर के बीच में पड कर समझौता करवाया। सैन्य दल को वापिस लौटाने के बदले अमरजी ने आलोट खजाने से पर्याप्त राशि हर्जे-खर्चे के तौर पर ली। स्थानीय जनश्रुति के अनुसार देवास महाराज रुक्मांगदराव द्वारा कलस्या के अमरसिंह को दी गई राशि के कारण अंग्रेज बहुत नाराज हुए। फलतः उन्होंने इस क्षेत्र की विभिन्न रियासतों एवं राज्यों के प्रमुखों को अमरसिंह के दमन हेतु प्रेरित किया। आलोट खजाने की लूट और देवास महाराज के भय को लोकगीत में कुछ इस प्रकार अभिव्यक्ति मिली है।
गांव लुट्या, खेड़ा लुट्या और लुट्या देवास खजाना।
गांव डराया, शहर डराया और डराया देवास नवाब।
जनवरी १८५९ में अमरसिंह और उनके साथियों ने जावरा के क्षेत्राधिकार के गाँवों में उपद्रव किया। इस घटना का इतिहास ग्रन्थ 'तारीखे जावरा' में बयान किया गया है- ''जावरा पहुँच कर मालूम हुआ के सोंधवाड़ में सोन्धियों ने जाबजा लूटमार मचा रखी है। जावरा के छः सात गाँव भी बर्बाद कर दिए हैं। लुटेरों की सरखूबी के लिए मोहतु (जावरा नवाब गौस मोहम्मद खाँ) बरखेड़ी तशरीफ ले गये। वहाँ पहुँच कर मालूम हुआ कि रेजि. (रेजिडेण्ट हेमिल्टन) कोण्डला वाकये (झालावाड ) में मुकीम हैं। नवाब सा. बहादर चन्द रोज वहाँ कयाम करके लूटमार करने वाले सोंधियों और डाकुओं को मार भगाया। जो पकड़े गये उन्हें जावरा भिजवा दिया। इसके बाद वराहे सीतामऊ सन्जीत तशरीफ ले गए।''सोंधवाड के विद्रोहियों के दमन के लिए जावरा नवाब ने फरवरी १८५९ में इन्दौर स्थित रेजिडेंसी में सर रॉबर्ट नार्थ कोली हेमिल्टन से मिलना तय किया। उधर मन्दसौर से भागकर आए विद्रोही भी सोंधवाड के विद्रोहियों से मिल गए। अमरसिंह के नेतृत्व में समीपवर्ती इलाकों में विद्रोह की आग फैलने लगी। इन लोगों ने आलोट (देवास), गंगराड (गंगधार), पाटन और ताल के इलाकों पर अपना शिकंजा कस लिया था।१९ ये लोग आसपास के इलाकों को लूटकर कलस्या के दक्षिण-पूर्व में स्थित ग्राम बनसिंग (वर्तमान तहसील महिदपुर) तथा ग्राम नरेला (वर्तमान तहसील बडोद) के जंगलों में छुप जाते थे।
फरवरी 1859 में सोंधवाड क्षेत्र के इन रणबाँकुरों के दमन के लिए अंग्रेजी सरकार ने जावरा नवाब गौस मोहम्मद खाँ को अपनी ओर से मालवा की विभिन्न फौजों का सिपहसालार नियुक्त किया। जावरा नवाब के नियंत्रण में समीपवर्ती क्षेत्र की अनेक फौजों ने मिलकर अमरसिंह और उनके सहयोगियों के दमन के लिए बनसिंग-नरेला क्षेत्र पर आक्रमण किया। इन सेनाओं में महिदपुर में नियुक्त होल्कर राज्य की सेना, मन्दसौर में नियुक्त सिन्धिया राज्य की सेना, आलोट में नियुक्त देवास राज्य की सेना और गंगधार में नियुक्त झालावाड की सेनाएँ शामिल थीं। स्वयं जावरा नवाब ने अपनी रियासत के सवार, पल्टन और तोपखाने के साथ बनसिंग-नरेला क्षेत्र पर हमला किया। बनसिंग एवं नरेला ग्रामों के ध्वंसावशेष आज भी इस भयावह हमले की कथा कहते हैं।जाहिर, है देशभक्त रणबाँकुरे और जनता अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष कर रही थी तो बड़े-बड़े राज्य अंग्रेजों का साथ दे रहे थे। जनता का संघर्ष सामंती सेनाओं से भी था। वस्तुतः साम्राज्यवाद और सामंतशाही के विरूद्ध दो तरफा संघर्ष की अभिव्यक्ति लोक साहित्य की अविस्मरणीय धरोहर है।
इस युद्ध में अमरसिंह और उनके साथ वीरतापूर्वक लड़े । उन्होंने शत्रु सेनाओं के अनेक लोगों को मार गिराया। ग्राम कचनारा के मगरे पर भीषण युद्ध हुआ। सेनाओं से घिरते देख अमरसिंह ने निकल भागने का प्रयास किया, किन्तु उन्हें पीठ दिखाना मंजूर न था। अन्ततः ग्राम कचनारा और ग्राम मउडि या के बीच अमरजी ने जीवित रहते अंग्रेजों के हाथों गिरफ्तार होने के बजाय आत्मोत्सर्ग का निश्चय किया। उन्होंने पहले स्वयं के घोड़े को मारा और फिर स्वयं का सिर धड से अलग कर दिया। आज भी उसी स्थान पर अमरजी का पोल्या (मूर्ति) स्थापित है। उस क्षेत्र में उनके साथ वीरगति को प्राप्त हुए अनेक वीर सेनानियों के पोल्ये भी स्थित हैं। श्रद्धालुजन आज भी 'अमर बापजी' के अनूठे उत्सर्ग के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। उनके अपूर्व साहस, शौर्य और मातृभूमि के प्रति निस्वार्थ भक्ति भावना को यहाँ प्रचलित एक सोंधवाड़ी लोकगीत में कुछ इस प्रकार अभिव्यक्ति मिली है -
''चार रियासत की फोजां पड़ी , लड्या उगाड़ी छाती।
अणी मालवा की जमीन के कारण कोई शीश काट दीना।
सोना का तो छोगा मेल्या, खूब बजाई तलवार।
ठिकाना कलस्या के खेड़े शूरा वया अभयसिंह जी का जाया।
धन्य धन्य हो अमरसिंह जी की माता, थणे अमरसिंह जी जाया।
राजा सा. का कोयरसिंह जी करता है दौरा फिरता है घोड़ा ।
प्रोफ़ेसर एवं कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय,
उज्जैन [म.प्र.] 456 010
संपर्क : 'सृजन' 407 ,
सांईनाथ कॉलोनी,
सेठी नगर,
उज्जैन 456010
मोबाईल :098260-47765 ,
निवास : 0734-2515573
|
अद्यावधि अमरजी की वीरता के प्रसंग लोक मानस और गीतों में सुरक्षित हैं। अमरजी के शहीद स्थल पर प्रतिवर्ष आसपास के ग्रामवासी एकत्र होते हैं और लोक गायकों के मुख से उनकी अपूर्व शौर्य गाथा सुनकर पूजन-अर्चन करते हैं। यद्यपि अमरजी के प्राणोत्सर्ग से 1857-59 ई. के महान विद्रोह के दौरान जारी सोंधवाड़ की क्रान्तिकारी गतिविधियों पर विराम चिह्न लग गया, लेकिन उनका श्रद्धापूर्वक स्मरण सोंधवाड के जन-मन में उत्साह का संचार करता रहा है। अमरजी का लोकनायकत्व मातृभूमि के प्रति अद्वितीय अनुराग के लिए आज भी इस क्षेत्र की माटी में सुप्रतिष्ठित और बहुपूजित है, जो देशवासियों को वर्तमान में मौजूद विभेदक तत्त्वों से परे एकसूत्र में बँधने का बोध देता है। सोंधवाड क्षेत्र के हीरासिंह जमादार, अमर जी, अभय जी सहित अनेक रणबाँकुरों की आहुति व्यर्थ नहीं गई। उन्होंने एक ओर अंग्रेज शासकों और सामंतों की आँखें खोल दी, वहीं उन्हें अपनी रीति-नीति बदलने को बाध्य कर दिया। इसके साथ ही भारतवासियों के खोए हुए आत्मगौरव और उत्साह को लौटाने में भी इन रणबाँकुरों के उत्सर्ग ने महती भूमिका निभाई। परवर्ती काल में देशव्यापी जनान्दोलन में 1857 के शहीदों का स्मरण नई ऊर्जा का संचार करता रहा, जिसकी फलश्रुति के रूप में हम आजादी की भोर देख सके।
1857 के महान समर पर लोक समुदाय की ओर से देखने की जरूरत है। इसके अभाव में हम अनेक अनाम - अज्ञात शहीदों के बलिदान के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे।
जवाब देंहटाएंबहुत ही ज्ञानवर्थक आलोख।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें