अनंत भटनागर की चार कवितायेँ

(डॉ अनंत भटनागर का अपनी माटी पर स्वागत है। चित्तौड़ निवासी समीक्षक डॉ राजेश चौधरी की माने तो अनंत भटनागर समकालीन हिन्दी कविता में राजस्थान से एक प्रतिबद्ध कवि का हस्तक्षेप है। वे सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर भी अपनी सार्थक पहचान रखते हैं। रचना को परिवर्तन का औज़ार मानने  वाले अनंत भटनागर में एक कमिटमेंट की झलक साफ़ तौर पर दिखती है।-सम्पादक)

(आउटलुक में प्रकाशित दो कवितायेँ यहाँ साभार)

(1 )हम भी मनाएंगे नया साल

नऐ साल की नई  सुबह
मालकिन ने दिए हैं 
सालों से बक्से में बन्द 
पुरानी साड़ियाँ और 
रोएंदार स्वेटर 

बच्चों के लिए भी दिए हैं 
बच्चों के मन से उतर चुके 
बिल्कुल साबुत व मजबूत जूते
इस्तरी किए हुए कपडे़
और कुछ ठीक
कुछ नकचढ़े खिलौने.....

पुराना ही नहीं दिया है सबकुछ
नया का नया दिया हैं
नाईट गाऊन/कल ही खरीदा था
और मालिक को
नहीं आया था उसका 
रंग पसन्द......

नए साल की नई सुबह 
मरद को भी मिली हैं
रात की बाकी 
आधा बोतल रम खुरदरी जींस
और बड़ी बक्सीस........

नए साल की नई शाम 
हमारे घर में 
होगी खास...
बच्चे खेलेंगे
खिलखिलाएंगे खिलौनों से 
मैं गाऊँगी कजरारे वाला गीत
मरद पहनेगा जींस और 
सिर पर हैट लगाकर 
उतारेगा 
साहब की नकल.......

ठीक हुआ मूड
अगर ठेकेदारी का 
तो माँग लाएंगे
उससे
मोटर साईकिल उधार 
घुमाने ले जाएंगे बच्चों को 
दिखला देंगे
हाट-बाजार 

नए साल की नई शाम
घर में 
खाना नहीं पकाएंगे हम
यू तो पड़ी हैं 
सुबह को मिली 
कल रात की बची
रोटियां और 
ढेंर सारा गोश्त
लेकिन वो भी नहीं 
खाएंगे हम 
डाल देंगे सब 
गली के बाहर 
कुत्तों को ...

नए साल की नई शाम 
कलुआ के ढ़ाबे पर 
खाएंगे खाना 
आखिरी शो में 
देखेंगे पिक्चर 
घर लौटते ही 
पहनूंगी नाईट-गाऊन
बच्चों के 
सो जाने के बाद ....

नए साल का
स्वागत कर 
रात भर जागी/झूमी/
नाची/गाई दुनिया
जब सो रही होगी 
थक-हार 
तब
नए साल की नई शाम 
हम भी मनाएंगे 
नया साल.....


(2 )मैं जिन्दा रहूँगी 

मैं जिन्दा रहूँगी 
तुम्हारी ऑखों में
पीर के पोरों को 
देते हुए। करूण जल


मैं जिन्दा रहूँगी 
तुम्हारी मुट्ठियों में 
संघर्ष की सॉच को 
देते हुए। प्राण वायु


मैं जिन्दा रहूँगी 
तुम्हारी शिराओं में 
प्रतिरोध के प्रवाह को
देते हुए। प्रचंड अग्नि


मैं जिन्दा रहूँगी
तुम्हारी पगतलियों में 
कदमों की थाप को
देते हुए दृढ धरती


मैं जिन्दा रहूँगी 
तुम्हारी चेतना में
सोच की सींखचों को  
देते हुए। उन्मुक्त आकाश


न्यौछावर कर
जल ,वायु, अग्नि
धरती, आकाश 
रचित
यह देह
मैं जिन्दा रहूँगी 
फिर भी
पंच तत्वों में 
मुझे
जिन्दा रखोगे
तुम!

(बोधि प्रकाशन की एक पुस्तक में संगृहीत है यहाँ साभार )

(3 )वह लड़की जो मोटरसाईकिल चलाती है

संकड़ी सड़कों पर 
दाएं-बाएं
आजू-बाजू से काट
वाहनों की भीड़ में 
अक्सर
सबसे आगे 
निकल जाती है
वो लड़की 
जो 
मोटर साईकिल
चलाती हैं .

सोचता हूँ 
जब लड़कियों के लिए 
दुनिया में 
वाहन चलाने के 
अनेकानेक
सुन्दर व कोमल
विकल्प मौजूद हैं
तब भी आखिर
वह लड़की
मोटर साईकिल ही
क्यों चलाती है ?

कभी लगता है कि
यह उसके भाई ने 
खरीदी होगी 
और वह 
छोड़ गया होगा
घर परिवार
या फिर
यह उसके पिता की
अन्तिम निशानी होगी
और ,
बेचना उसे 
नहीं होगा
स्वीकार.

हो सकता है
कि 
वह लड़की 
एक्टिविस्ट हो 
और 
मर्दों की दुनिया के 
अभेद्य दुर्ग को 
सुनाना चाहती हो
अपनी 
ललकार

कभी-कभी
सोचने लगता हूँ कि 
क्या करती होगी 
वह लड़की
जब कभी जाती होगी
अपने बॉय फ्रेंड के साथ 
मोटर साईकिल पर 
पीछे बैठकर
क्या
बलखाती ! मुस्काती
लतिका सी पुलकित
सिमट जाती होगी
अपने हर अंग में 
हर वांछित/ अवांछित 
ब्रेक पर 
या
झुंझलाती/झल्लाती 
रहती होगी 
उसकी 
धीमी रफ्तार पर. 

अवसरों की वर्षा में 
दिनोदिन 
धुलती दुनिया में 
जल , थल वायु
के भेद भुलाकर 
जब 
लड़कियां चलाने लगी हैं
रेल, जहाज, हवाई जहाज
एक लड़की के 
मोटर साईकिल चलाने पर 
इतना
सोच-विचार
आपको 
बेमानी लग सकता है.

मगर,
इन दकियानूसी सवालों की 
गर्द 
आप हटाएं
इससे पहले ही 
पूछ लेना चाहता हूँ 
एक सवाल!
क्या 
आप नहीं चौंके थे
उस दिन
जब आपने 
पहली बार किसी
एक लड़की को 
मोटर साईकिल चलाते हुए देखा था ? 

विरासत में मिले 
हजारों साल पुराने 
खजाने को 
मस्तिष्क में समेटते हुए 
क्या आपको नहीं लगता 
कि 
आकाश पाताल को 
पाटने से 
कठिन होता है
सोच की खाईयों को 
भर पाना. 
जल थल
भेदने से 
कठिन होता है
जड़ तन्तुओं को 
सिल पाना
हाथ पैर 
काटने से
कठिन होता है
सड़े घावों को 
चीर पाना.

इसीलिए
उस लड़की के 
सामने से गुजरते हुए 
सोचता हूँ
क्या
शादी के बाद भी 
चला पाएगी 
वह 
मोटर साईकिल
क्या 
बदल पाएगी
वह
वक्त के पहिए की 
रफ्तार 
क्या 
वह आगे बैठी होगी 
और पति 
होगा
पीछे सवार ?


अभी तक की अप्रकाशित कविता 
(4 ) सुकून भरी नींद

इस कठिन समय में 
चैन से सोते हुए 
लोगों को देख
संघर्ष सिरहाने रख 
मैं भी चाहने लगा हूँ
सुकून भरी नींद.

मगर,
फूल से खिले
तकिये पर 
सिर का भार रखते ही 
कोमल सेमल 
की आहें
गूंजने लगती हैं
और
मस्तिष्क में 
उमड़ आती हैं
सदियों से
दबती। घुटती 
स्त्रियों की कराहें
याद

सभ्यता की शैया पर 
करवटें बदलते हुए 
मासूम चूलों की चरमराहट 
बन जाती है
असंख्य मजदूरों की 
कुलबुलाती
आवाज


और,
मन की मुट्ठियों में 
दौड़ पड़ता है
फिर से 
लड़ने का जोश

पलकों की 
चरम सीमाओं को  
बाँधें रखने के
प्रयास में 
जब नींद 
देने लगती है
अपने होने का आभास
लाल सपनों की 
चिंगारियों से 
रोशन
हो उठती है
आँख

जब जागता हो 
मस्तिष्क
तन की खड़ी हों
मन की मुट्ठियां
आँखे रोशन हों
लाल चिंगारियों से 
कैसे
रखा जा सकता है
संघर्ष को सिरहाने 
कैसे 
आ सकती है
सुकून की नींद

अनंत भटनागर
प्रतिबद्ध कवि हैं
सामाजिक संगठनों से सक्रियता के साथ जुड़ाव है 
अजमेर में ही कोलेज प्राध्यापक हैं
दूरदर्शन और आकाशवाणी से प्रसारित हैं
राजस्थान माध्यमिक  शिक्षा बोर्ड का पाठ्यक्रम भी संपादित किया है

66, कैलाशपुरी,अजमेर,राजस्थान
सम्पर्क-0145-2627917
फेसबुकी संपर्क -https://www.facebook.com/anant.bhatnagar.39
ई-मेल-anant_bhatnagar@yahoo.com

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