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वो कहते रहे है ज़िन्दगी उनकी खुली किताब
पर वज़ूद जासूसों का उनसे सहन ना हुआ
पर वज़ूद जासूसों का उनसे सहन ना हुआ
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नींव की दरारों को अनदेखा कर दिया
अब ना बचीं दीवारें ना ही बची है छत
अब ना बचीं दीवारें ना ही बची है छत
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अज़ीब इम्तिहान था मेरे लिए तो वो
दर्द वाली स्याही से लिखने थे कहकहे
दर्द वाली स्याही से लिखने थे कहकहे
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वक़्त कहाँ अब इतना है कि मातम लम्बा हो पाए
लाशें श्मशानों तक पहुँचीं तब तक आंसू सूख गए
लाशें श्मशानों तक पहुँचीं तब तक आंसू सूख गए
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फिर खून लाशें क्रंदन बयान मातम
फिर मर गईं कई कविताएँ मेरे भीतर
फिर मर गईं कई कविताएँ मेरे भीतर
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मांगने वाले ने माफ़ी, मांगी सुकून से
माफ़ करने वाले दिखे बेसब्री से तैयार
माफ़ करने वाले दिखे बेसब्री से तैयार
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बेचने वाले तो बाज़ारों में, न जाने क्या कुछ बेच आये हैं
कभी ये न हमें सुनना पड़े कि 'एक मुल्क था हिंदुस्तान'
कभी ये न हमें सुनना पड़े कि 'एक मुल्क था हिंदुस्तान'
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जब शोर बहुत हो तो वहां ढूँढना आवाज़
ये बहुत ज़रूरी होती है निज़ाम के लिए
ये बहुत ज़रूरी होती है निज़ाम के लिए
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गड़े मुर्दे रात-दिन उखाड़ने वालों को ही
ज़िंदगी का पैगाम देने वाला कहा गया
ज़िंदगी का पैगाम देने वाला कहा गया
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मान गए उस्ताद हम तुम्हारे दांव को
गिराया किसी और को गिरा कोई और
गिराया किसी और को गिरा कोई और
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हर शख़्स कह रहा था उसे सच है बोलना
पूरे सच की शर्त रखी तो कोई नहीं बोला
पूरे सच की शर्त रखी तो कोई नहीं बोला
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सियासत वाला कीचड़ बदन पर सहन नहीं कर पायेगी
तलाश रही है कोई ऐसी जगह जहाँ नदी नहाने जायेगी
तलाश रही है कोई ऐसी जगह जहाँ नदी नहाने जायेगी
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चाकुओं को आवाजें अब दे रहे हैं गुलाब
शाखों से काटकर कोई गुलदान बख़्श दो
शाखों से काटकर कोई गुलदान बख़्श दो
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बड़ी लम्बी बहस हुई इसी बात पर
कि बेवज़ह का बोलना कैसे कम करें
कि बेवज़ह का बोलना कैसे कम करें
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मिश्री के घरोंदे में जाकर रहने ही लगी रानी चींटी
पता न चला कब दीवारें चट कर गयीं सब चींटियाँ
पता न चला कब दीवारें चट कर गयीं सब चींटियाँ
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साफ़ करें गंदे दामन, हम चलो मसीहा बन जायें
अपने हाथों की कालिख तो कभी और धुल जाएगी
अपने हाथों की कालिख तो कभी और धुल जाएगी
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नहीं हुआ शहर में कोई हंगामा आज
अमन पसंद लोग बेरोज़गार बने रहे
अमन पसंद लोग बेरोज़गार बने रहे
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लौटे तो सब कबूतर बहुत ज़्यादा थे लहूलुहान
कहा भी था सियासत वाली छतों पे जाना ना
कहा भी था सियासत वाली छतों पे जाना ना
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मेरी आँखों में शहर का सब हुस्न है समाया
मैंने तो यहाँ आकर, देखा था, बस तुम्हें ही
मैंने तो यहाँ आकर, देखा था, बस तुम्हें ही
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वो शहर बहुत बड़ा वहां हर कूड़ेदान में
रिश्ते भी आते-जाते लोग फेंक जाते है
रिश्ते भी आते-जाते लोग फेंक जाते है
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वो तो न कर सके कभी भी इश्क़ किसी से
पर शायरी में ख़ुद को ग़ालिब समझते हैं
पर शायरी में ख़ुद को ग़ालिब समझते हैं
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सियासत के बारे में लिखने लगा जब से
मेरी शायरी से मोहब्बत चली गयी तब से
मेरी शायरी से मोहब्बत चली गयी तब से
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बद ज़ुबानी सियासत में क़ाबिलीयत है ख़ास
सोच - समझकर बोलेंगे तो चर्चा होगा ख़ाक
सोच - समझकर बोलेंगे तो चर्चा होगा ख़ाक
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चुप रहने का इनाम न इससे बड़ा हुआ
प्यादे को बादशाह का दर्ज़ा दिया गया
प्यादे को बादशाह का दर्ज़ा दिया गया
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हमें दोनों की शक्ल अब एक जैसी दिखायी देती है
कुछ करो सियासत वालों ज़रा जुदा-जुदा तो लगो
कुछ करो सियासत वालों ज़रा जुदा-जुदा तो लगो
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लोग सियासी ही सब थे उस जगह भी मैंने नज़्म कही
बंजर हों ज़मीनें पर फिर भी मैं बीज बिखेरा करता हूँ
बंजर हों ज़मीनें पर फिर भी मैं बीज बिखेरा करता हूँ
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तय तो था कि हक़ होगा इस गुलशन पर हर बुलबुल का
पर चंद गिध्द काबिज़ हो बैठे गुलशन के हर इक गुल पर
पर चंद गिध्द काबिज़ हो बैठे गुलशन के हर इक गुल पर
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मेरे मुल्क के पास हैं सवाल ही सवाल
पर जवाब देने वाले का अंदाज़ ख़ामोशी
पर जवाब देने वाले का अंदाज़ ख़ामोशी
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तुम सिक्के लेकर आये हो कैसे कुछ भी हासिल होगा
जो दुआ में हाथ उठाते हैं वो खाली रक्खे जाते हैं।
जो दुआ में हाथ उठाते हैं वो खाली रक्खे जाते हैं।
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मत राख देख सोचना कि आग बुझ गई
चिंगारियां लिखेंगी फिर इक दास्ताँ नई
चिंगारियां लिखेंगी फिर इक दास्ताँ नई
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