अगस्त-2013
लाभ आमजन तक पहूँचेगा और रोशनी में सब पिछड़े धाप के नहाएँगे। दिल बहलाने को ग़ालिब ख़याल अच्छा है। अब भी हमारे सत्तर फीसदी गांवों में कुछ लोग हैं जो राजधानी की तरफ देखते हैं। हथेली में बची हुई कुछ लकीरें हैं जिनके हित लोग आशान्वित हैं। खैर इधर योजनाएं भी अपने रास्ते में लगातार पैदल सफ़र कर रही हैं। खबर ये भी है कि बजट खर्च होने के हित एकदम मुस्तेद हैं बस कम्बख्त 'परिणाम' ही है जो वश में नहीं आ रहा है। ये सच है कि हमारा आसपास बदल रहा है मगर इसका सीधा फायदा राष्ट्र के अधिसंख्य को कम और मुठ्ठीभर पूंजीपतियों को ज्यादा पहुँच रहा है। सालाना रस्मों की तरह हम यदा-कदा देशभक्ति के नारे लगाते रहते हैं बस इससे ज्यादा राष्ट्रहित में हम कर भी क्या सकते हैं। अपने अन्दर झाँक कर देखें पाएँगे कि हमें निजी हितों से उपजे रतौंधी रोग के चलते रात तो क्या दिन में भी स्वार्थ के सिवाय कुछ भी नहीं दिख रहा है। विकास की गेलसप्पी परिभाषाओं और मानकों के चलते हमने अपने घरों को दुकानों में और खुद को मशीनों में बदल कर रख दिया है। फिर भी परिणाम जस-का-तस।
घर-परिवार से ही फुरसत नहीं मिलती फिर देश का ख़याल तो बेमानी होगा। असल में हमने साझे में सपने देखना ही बंद कर दिया है। हर आदमी अपने में खोया है।एक का सपना दूजे से मेल नहीं खाता। आज समाज में किसी संगठन, संस्था या अनौपचारिक समूह के कामकाज को ठालेगिरी की संज्ञा दी जाती है। एक आदमी अगर समाज के हित कुछ वक़्त खर्च कर समाज में सर्जनात्मक करने की सोचे तो उसे दस दूजे नोचने में लगते हैं। सही मामला यों समझिएगा कि हमारे दिलो-दिमाग में अब एक भी सपना ऐसा नहीं बचा या देखा गया कि जिसमें स्वस्थ मानसिकता से भरा समाज आगे बढ़ता हुआ दिखे। समाज में बहुतेरे स्वार्थी किसिम के लोग एकदम पशुवत लगते हैं। क्योंकि किसी ने कहा था कि साहित्य और संगीत की ज़रूरत तब तक रहेगी जब तक समाज में इंसान रहेगा,जानवरों को इसकी ज़रूरत नहीं होती। मेरा इशारा वहाँ तक पहुंचे बस यही मंतव्य था। ये गलघोंटू टाइप के आदमी अगर अपने से ज्यादा सक्रीय और समाज सापेक्ष किसी जानकार को सलाह के बहाने अपने स्वयंकेंद्रित एक सूत्रीय एजेंडे को पेलने बैठे तो उनसे बड़ा कोई मूर्ख नहीं है। धन्य हैं उनका वो सुदर्शन चेहरा और सुझाव देने की वे सभी बेतुकी मुद्राएँ। खैर। अब इन सुदर्शन चेहरों पर तीन लाइन से ज्यादा लिखना?
इधर कँवल भारती जैसे चिन्तनशील लेखक द्वारा अपनी खुली अभिव्यक्ति देने के बाद के हालात पर मन बड़े गुस्सा मिश्रित आश्चर्य से सना है।असमंजस्य में हैं कि हम आज़ाद है। ऐसे मुआमले में लेखक साथियों की ओर से लगातार आ रहे समर्थनभरे बयान एक आशावाद तो जगाते हैं फिर भी बहुतेरे तो अब भी इस सीजन में मौनीबाबा बन चुके हैं। सच में सच बड़ा कड़वा होता है। आओ हम सभी मिलकर 'कसम' खाएँ कि कड़वी बात नहीं बोलेंगे। सच तो बिलकुल भी नहीं। हमारे आका भी यही तो चाहते हैं कि हम भी उनके नाच/तमाशे में खुद को शामिल कर लें और आप हैं कि जाने अनजाने उन्हीं की मिन्नतें पूरने में मस्त है। बातें बहुत सी है फिर कभी संक्षेप में छेड़ेंगे। संक्षेप में इसलिए क्योंकि विस्तार देने से 'अभिव्यक्ति' सभी की समझ में आ जाती है।इसी माथापच्चीभरी ज़िंदगी में हमें खुद के ,घर के और देश-समाज लिए वक़्त निकालना होगा। कोशिश ये हो कि हमारी प्राथमिकताओं में कहीं देश भी दिखे। हिम्मत कर हम अपने भीतर के दोगलेपन से बाहर आएँ और किसी समतामूलक समाज को उकेरें।प्रयत्न ये भी हो सके तो भला होगा कि हम वो ज़रूर करें जो अपने कहे में हमने व्यक्त किया हो। तनिक साहस इस बात का भी किया जाए कि हम दिखावे की दुनिया को नकारे और बेहूदा सपनों के हित उड़ने के बजाय यथार्थ की ज़मीन पर संभले हुए दो कदम धरे।
इसी बीच कुछ अच्छी खबरें यह भी कि बोधि प्रकाशन,जयपुर चौदह सितम्बर,2013 से 'उत्पल' शीर्षक से एक हिन्दी मासिक पत्रिका निकाल रहा है। जनवादी लेखक संघ की मुख पत्रिका ने इस बार के जनवरी-जून अंक को सिनेमा विशेषांक के रूप में बहुत मेहनत के साथ प्रकाशित किया है। सिनेमा को लेकर ऐसे संग्रहणीय अंकों का स्वागत किया जाना चाहिए।गौरतलब बात यह भी कि साल 2013 जानेमाने लेखक, मार्क्सवादी कार्यकर्ता, इप्टा के सक्रीय साथी एवं अभिनेता बलराज साहनी और गीतकार नरेन्द्र शर्मा का जन्म शताब्दी वर्ष हैं। दोनों प्रतिशील नेतृत्वकर्ताओं को सलाम।
'अपनी माटी' के अगस्त अंक में आलेख कम कविताएँ ज्यादा है। इस कविता विरोधी समय में कविताएँ लिखना सबसे कठिन काम भी है और कभी हमारे आसपास को देख अनुभव होता है 'कविता' से सरल कुछ भी नहीं।खैर इस अंक में हमारी पत्रिका में पहली बार प्रकाशित हो रहे मित्रों का स्वागत करेंगे जिनमें शिक्षाविद एम एल डाकोत, युवा और प्रतिबद्ध कवि प्रांजल धर, युवा और उत्साही रचनाकार रजनी मोरवाल, हमारे ही साथी कौशल किशोर, अपरिचित साथी रामनिवास बांयला शामिल हैं। इस बार अंक में डॉ मनोज श्रीवास्तव की कलम से एक कहानी और अशोक कुमार पाण्डेय के हाथ के कुछ जनगीत भी हैं। बतौर पाठकीय टिप्पणी सुरेन्द्र डी सोनी के कविता संग्रह पर भी चर्चा शामिल हैं। पुन:प्रकाशन के तौर पर इस बार कथाकार रमेश उपाध्याय का एक आलेख और पीडीफ संस्करण में चित्तौड़गढ़ की चंद्रकांता व्यास का लोकगीतों का एक संकलन प्रकाशित कर रहे हैं। वरिष्ठ लेखक उदभ्रांत की दो कविताएँ इस अंक की जान बनेगी ऐसा हमारा मानना है। कुछ इतर व्यस्तताओं के चलते अंक में कुछ कमी तो है। बस आप कमियों पर अंगुली उठाएँ, अच्छा लगेगा।
अगस्त-2013 अंक अनुक्रमणिका
साहित्य और संस्कृति का प्रकल्प
अपनी माटी
मासिक ई-पत्रिका
चित्र-दीपिका माली,उदयपुर |
मित्रो, नमस्कार, सबसे पहले तो आपको आज़ादी के इस पर्व की बहुत सारी शुभकामनाएं।लग रहा था ये दायित्व का एक ज़रूरी निपटान है मानों इसके बगैर झंडा फहरने से मना कर देगा। क्या पता हमारी खुशहाली में आड़े आ रहे कारणों को ये शुभेच्छाएं ही दुरुस्त कर दे। नई सदी के तेरह साल गुज़र चुके हैं और आंकड़े कागजों में छपी हुई अपनी विलक्षण मुद्राओं से हमारे विकसित होने खबरें गढ़ रहे हैं। हम विकास की राह में कहाँ तक पहुंचे कुछ भी खबर नहीं। हम में से बहुतों को ये पता नहीं होगा कि वह किसके इशारों पर नाच रहे हैं। हमारे आकाओं ने हमारे लिए बाज़ार कितने आकर्षक ढंग से सजाए हैं कि हम खुद ही उसमें फँसकर गुलाटियां खाने के सिवाय कोई दूजा रास्ता अख्तियार नहीं कर पा रहे हैं। एक सच ये कि यह एक आभासी दौड़ है जिसमें सभी एक दूजे को लांघकर कर आगे खिसकना चाहते हैं। लंघियाँ डालने को लेकर सभी में एक अजीब हौड़ाहौड़ी मची हुई है। इस अंधी रेस में मुम्बई पेरिस होना चाहता है और ठेठ गाँवड़ेल बस्ती का हड़माला अब दिल्ली होना चाहता है। ये वही रेस है जिसमें हमने अपने होने का अहसास तक खो दिया है। हमारे दौड़ने के ईनाम कोई ले जाएगा इस बात की भी अनुभूति हमें नहीं रही। भागने और आगे जा निकलने की इस जुस्तजू में बनारस से बनारस खुरचा जा रहा है और हरिद्वार अब हरिद्वार सरीखा नहीं लगता। सबकुछ बेतरतीब ढ़ंग से पलट रहा है। ये तमाम उलजुलूल विचार हैं और ये आज़ादी के दिन की सरकारी छुट्टी है। फुरसत नसीब हो तो कुछ विचारे बाक़ी जीवन का शो जारी है।
लाभ आमजन तक पहूँचेगा और रोशनी में सब पिछड़े धाप के नहाएँगे। दिल बहलाने को ग़ालिब ख़याल अच्छा है। अब भी हमारे सत्तर फीसदी गांवों में कुछ लोग हैं जो राजधानी की तरफ देखते हैं। हथेली में बची हुई कुछ लकीरें हैं जिनके हित लोग आशान्वित हैं। खैर इधर योजनाएं भी अपने रास्ते में लगातार पैदल सफ़र कर रही हैं। खबर ये भी है कि बजट खर्च होने के हित एकदम मुस्तेद हैं बस कम्बख्त 'परिणाम' ही है जो वश में नहीं आ रहा है। ये सच है कि हमारा आसपास बदल रहा है मगर इसका सीधा फायदा राष्ट्र के अधिसंख्य को कम और मुठ्ठीभर पूंजीपतियों को ज्यादा पहुँच रहा है। सालाना रस्मों की तरह हम यदा-कदा देशभक्ति के नारे लगाते रहते हैं बस इससे ज्यादा राष्ट्रहित में हम कर भी क्या सकते हैं। अपने अन्दर झाँक कर देखें पाएँगे कि हमें निजी हितों से उपजे रतौंधी रोग के चलते रात तो क्या दिन में भी स्वार्थ के सिवाय कुछ भी नहीं दिख रहा है। विकास की गेलसप्पी परिभाषाओं और मानकों के चलते हमने अपने घरों को दुकानों में और खुद को मशीनों में बदल कर रख दिया है। फिर भी परिणाम जस-का-तस।
घर-परिवार से ही फुरसत नहीं मिलती फिर देश का ख़याल तो बेमानी होगा। असल में हमने साझे में सपने देखना ही बंद कर दिया है। हर आदमी अपने में खोया है।एक का सपना दूजे से मेल नहीं खाता। आज समाज में किसी संगठन, संस्था या अनौपचारिक समूह के कामकाज को ठालेगिरी की संज्ञा दी जाती है। एक आदमी अगर समाज के हित कुछ वक़्त खर्च कर समाज में सर्जनात्मक करने की सोचे तो उसे दस दूजे नोचने में लगते हैं। सही मामला यों समझिएगा कि हमारे दिलो-दिमाग में अब एक भी सपना ऐसा नहीं बचा या देखा गया कि जिसमें स्वस्थ मानसिकता से भरा समाज आगे बढ़ता हुआ दिखे। समाज में बहुतेरे स्वार्थी किसिम के लोग एकदम पशुवत लगते हैं। क्योंकि किसी ने कहा था कि साहित्य और संगीत की ज़रूरत तब तक रहेगी जब तक समाज में इंसान रहेगा,जानवरों को इसकी ज़रूरत नहीं होती। मेरा इशारा वहाँ तक पहुंचे बस यही मंतव्य था। ये गलघोंटू टाइप के आदमी अगर अपने से ज्यादा सक्रीय और समाज सापेक्ष किसी जानकार को सलाह के बहाने अपने स्वयंकेंद्रित एक सूत्रीय एजेंडे को पेलने बैठे तो उनसे बड़ा कोई मूर्ख नहीं है। धन्य हैं उनका वो सुदर्शन चेहरा और सुझाव देने की वे सभी बेतुकी मुद्राएँ। खैर। अब इन सुदर्शन चेहरों पर तीन लाइन से ज्यादा लिखना?
इधर कँवल भारती जैसे चिन्तनशील लेखक द्वारा अपनी खुली अभिव्यक्ति देने के बाद के हालात पर मन बड़े गुस्सा मिश्रित आश्चर्य से सना है।असमंजस्य में हैं कि हम आज़ाद है। ऐसे मुआमले में लेखक साथियों की ओर से लगातार आ रहे समर्थनभरे बयान एक आशावाद तो जगाते हैं फिर भी बहुतेरे तो अब भी इस सीजन में मौनीबाबा बन चुके हैं। सच में सच बड़ा कड़वा होता है। आओ हम सभी मिलकर 'कसम' खाएँ कि कड़वी बात नहीं बोलेंगे। सच तो बिलकुल भी नहीं। हमारे आका भी यही तो चाहते हैं कि हम भी उनके नाच/तमाशे में खुद को शामिल कर लें और आप हैं कि जाने अनजाने उन्हीं की मिन्नतें पूरने में मस्त है। बातें बहुत सी है फिर कभी संक्षेप में छेड़ेंगे। संक्षेप में इसलिए क्योंकि विस्तार देने से 'अभिव्यक्ति' सभी की समझ में आ जाती है।इसी माथापच्चीभरी ज़िंदगी में हमें खुद के ,घर के और देश-समाज लिए वक़्त निकालना होगा। कोशिश ये हो कि हमारी प्राथमिकताओं में कहीं देश भी दिखे। हिम्मत कर हम अपने भीतर के दोगलेपन से बाहर आएँ और किसी समतामूलक समाज को उकेरें।प्रयत्न ये भी हो सके तो भला होगा कि हम वो ज़रूर करें जो अपने कहे में हमने व्यक्त किया हो। तनिक साहस इस बात का भी किया जाए कि हम दिखावे की दुनिया को नकारे और बेहूदा सपनों के हित उड़ने के बजाय यथार्थ की ज़मीन पर संभले हुए दो कदम धरे।
इसी बीच कुछ अच्छी खबरें यह भी कि बोधि प्रकाशन,जयपुर चौदह सितम्बर,2013 से 'उत्पल' शीर्षक से एक हिन्दी मासिक पत्रिका निकाल रहा है। जनवादी लेखक संघ की मुख पत्रिका ने इस बार के जनवरी-जून अंक को सिनेमा विशेषांक के रूप में बहुत मेहनत के साथ प्रकाशित किया है। सिनेमा को लेकर ऐसे संग्रहणीय अंकों का स्वागत किया जाना चाहिए।गौरतलब बात यह भी कि साल 2013 जानेमाने लेखक, मार्क्सवादी कार्यकर्ता, इप्टा के सक्रीय साथी एवं अभिनेता बलराज साहनी और गीतकार नरेन्द्र शर्मा का जन्म शताब्दी वर्ष हैं। दोनों प्रतिशील नेतृत्वकर्ताओं को सलाम।
'अपनी माटी' के अगस्त अंक में आलेख कम कविताएँ ज्यादा है। इस कविता विरोधी समय में कविताएँ लिखना सबसे कठिन काम भी है और कभी हमारे आसपास को देख अनुभव होता है 'कविता' से सरल कुछ भी नहीं।खैर इस अंक में हमारी पत्रिका में पहली बार प्रकाशित हो रहे मित्रों का स्वागत करेंगे जिनमें शिक्षाविद एम एल डाकोत, युवा और प्रतिबद्ध कवि प्रांजल धर, युवा और उत्साही रचनाकार रजनी मोरवाल, हमारे ही साथी कौशल किशोर, अपरिचित साथी रामनिवास बांयला शामिल हैं। इस बार अंक में डॉ मनोज श्रीवास्तव की कलम से एक कहानी और अशोक कुमार पाण्डेय के हाथ के कुछ जनगीत भी हैं। बतौर पाठकीय टिप्पणी सुरेन्द्र डी सोनी के कविता संग्रह पर भी चर्चा शामिल हैं। पुन:प्रकाशन के तौर पर इस बार कथाकार रमेश उपाध्याय का एक आलेख और पीडीफ संस्करण में चित्तौड़गढ़ की चंद्रकांता व्यास का लोकगीतों का एक संकलन प्रकाशित कर रहे हैं। वरिष्ठ लेखक उदभ्रांत की दो कविताएँ इस अंक की जान बनेगी ऐसा हमारा मानना है। कुछ इतर व्यस्तताओं के चलते अंक में कुछ कमी तो है। बस आप कमियों पर अंगुली उठाएँ, अच्छा लगेगा।
अगस्त-2013 अंक अनुक्रमणिका
- अनुक्रमणिका
- सम्पादकीय:बोल कि शब्द आज़ाद हैं तेरे
- झरोखा:फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
- कविताएँ:कविवर उद्भ्रांत
- कविताएँ:कौशल किशोर
- कविताएँ:प्रांजल धर
- कविताएँ :एम एल डाकोत
- कविताएँ:रामनिवास बांयला
- कहानी: अन्ना की रैली में.../ डॉ मनोज श्रीवास्तव
- जनगीत:अशोक कुमार पाण्डेय
- गीत: रजनी मोरवाल
- टिप्पणी:कविता विरोधी समय में एक ज़रूरी कविता संग्रह है 'मैं एक हरिण और तुम इंसान'
- पुन:प्रकाशन:'भूमंडलीय यथार्थवाद की पृष्ठभूमि' / वरिष्ठ कथाकार रमेश उपाध्याय
- पीडीफ संस्करण:राजस्थानी लोकगीत संकलन /चन्द्रकान्ता व्यास
डॉ. सत्यनारायण व्यास
अध्यक्ष
अपनी माटी संस्थान
29 ,नीलकंठ,छतरी वाली खान,सेंथी, चित्तौड़गढ़-312001,
राजस्थान-भारत,
info@apnimaati.com
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अशोक जमनानी
info@apnimaati.com
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