साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
क्षणिकायें
(1)
माँ के लिये 'स्व' हूँ मैं
और माँ
दुनिया में सबसे बड़ी 'स्वार्थी' है !
(2)
दोस्त,
बात बस इतनी नहीं..
हमने
बहुत सा अच्छा समय साथ गुज़ारा.
असल बात तो यह है...
हमने साथ गुज़ारा समय,
बहुत अच्छी तरह !
(3)
जाने कितनी बार..
जागा हूँ तमाम रात
तेरा सपना देखने को सुबह-सुबह.
माँ कहती है..
‘सुबह का सपना सच होता है’
झूठ कहती है !
(4)
कुछ दिखाई नहीं दे रहा आज..
सोकर उठा तो पता चला,
कल रात
कुछ सपनों ने
चुरा ली मेरी आंखें !
(5)
सुना है..
चाँद पर मिला है पानी
मैं तो सोचता था
वो पत्थर है !
(6)
दिन भर रहता है मेरे साथ
रात को चला जाता है.
खुद को
सूरज समझता है मेरा चाँद !
(7)
इस क़दर
गहरी थी रात
नहीं दिखता था अन्धेरा भी.
मैनें रोशनी मारी..
तो बुरा मान गया !
(8)
आज सुबह से
उदास है खुशी.
उसे
सबसे अज़ीज़ था जो ग़म
वो नहीं रहा कल रात !
(9)
कुछ लोग
हम पर छत की तरह होते हैं
और कुछ
आसमान की तरह!
(10)
आसमान से होती बारिश से
मुझे छत ने बचाया.
मैं तो सोचता था
आसमान से ऊंचा कोई नहीं !
(11)
भगवान है,
पहचानता हूँ.
भगवान सब कर सकता है,
मानता हूँ.
भगवान कुछ नहीं करता,
जानता हूँ.
(12)
कहते हैं
खुदा खुद में रहता है.
कहीं मिले जो मुझे..
खुद का पता पूछ लूं !
(13)
आज किसी ने बताया
दर्द ज़ख्म में रहता है.
मैं तो सोचता था..
मुझ में रहता है !
(14)
भविष्य बीत चुका है,
अतीत चल रहा है.
अब इंतज़ार है उसका
जिसे कहा जा सके..
अपना वर्तमान !
(15)
चौराहे की तरह पड़ा हूँ सड़क पर.
जा सकता हूं चारों ओर..
जा भी रहा हूँ.
मगर पड़ा हूं सड़क पर
महज़ चौराहे की तरह !
बात
सुनो..
आज एक बात बतलाता हूँ तुमको
अपनी कविता में
तुमको बहुत कुछ लिखा है मैंने..
लिखा है तुम्हें मासूम
नवजात शिशु की पहली रुलाई की तरह..
सुन्दर लिखा है ऐसे
जैसे हो
संसार की सबसे प्यारी मुस्कान से
गाल पर पड़ती डिंपल !
लिखा है मैंने तुम्हे सिर्फ मेरा
जैसे मेरी और सिर्फ मेरी है मेरी आत्मा..
सच कहता हूँ सच लिखा है तुम्हें
एकदम मौत की तरह..
शायद कहीं ज़िद्दी भी लिखा है
बार-बार मूंड देने पर भी
उग आती दाढ़ी के जैसा !
तुम्हें पता नहीं..
कभी-कभी खतरनाक भी होती हो तुम
खुद पर केरोसिन डालकर
आग लगाने के लिये खोजी जा रही
माचिस की तरह खतरनाक...
और गुस्सैल बेवकूफ तो हो ही
उस शोले के जैसी
जो मुझे जलाने के लिये
जल जाता है खुद भी !
चाहे जैसी भी हो तुम
ज़रूरी लिखा है ऐसे..
मानो खाने में नमक !
पता है..
अपनी किसी कविता में
तुम्हें ‘स्वीट’
लिखा है मैंने
करेले में भरे शहद की तरह !
मगर ’स्वीट’ कह देने से
कहीं चढ ना जाओ
इसीलिये लिखना पड़ा फिर
तीखा भी
चाशनी चढ़ी मिर्ची के जैसा !
ऐसा नहीं
कि सब कुछ ही लिखा दिया तुम्हें
ऐसा भी है कुछ
जो नहीं लिखा पाया..
एक बार
चांद को लिख ही रहा था
तुम्हारा तिल..
कि पता चल गया उसे
और अपने दाग दिखलाकर
मुझसे बच गया कम्बख़्त !
तुम्हें लिखने के बाद यह सब,
सोचता हूँ एक बात..
बात यह कुछ भी नहीं
तुम्हें लिखा है यह सब
अजी..
बात तो यह है
अपनी कविता में
तुम्हें लिखा है यह सब..
जानते हुए भी
कि तुम
कवितायें बिल्कुल नहीं समझतीं !
मैं और मैं
इक बार
मैं खुद से रूठा
और छुप गया.
ढूंढा बहुत
मगर मैं मिला नहीं.
ढूंढते हुए सोचा मैनें
कि कुछ दिनों में
खुद मिल जाऊंगा मुझको
उधर..
छुपे हुए भी सोचा ऐसे ही
कि कुछ दिनों में
ढूंढ ही लेगा मुझे मैं.
दिन बीते..
कुछ दिन, कुछ नहीं रहे..
बहुत हो गये..
और अब
हालात ये हैं..
कि मैं
छुपा भी हुआ हूँ
और खुद को
ढूंढता भी नहीं !
मैं खुद से रूठा
और छुप गया.
ढूंढा बहुत
मगर मैं मिला नहीं.
ढूंढते हुए सोचा मैनें
कि कुछ दिनों में
खुद मिल जाऊंगा मुझको
उधर..
छुपे हुए भी सोचा ऐसे ही
कि कुछ दिनों में
ढूंढ ही लेगा मुझे मैं.
दिन बीते..
कुछ दिन, कुछ नहीं रहे..
बहुत हो गये..
और अब
हालात ये हैं..
कि मैं
छुपा भी हुआ हूँ
और खुद को
ढूंढता भी नहीं !
विपुल की कवितायेँ पढ़ते समय दिल और दिमाग दोनों की एक साथ ज़रूरत होती है.वे बिम्ब रचने की कला के साथ ही कई बार विज्ञान का सहारा लेते है.अचानक उनकी कविता में भावात्मक रिश्तों पर भी कवितांश पढने को मिल जाते हैं.विपुल असल में एक विचार के साथ कविता आरम्भ करे हैं और वे कभी-क को छोड़कर सफल होते हैं-माणिक
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