सम्पादकीय :'दतिया' गले का हार


साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 
अपनी माटी
 अक्टूबर-2013 अंक 

छायांकन हेमंत शेष का है
यदि कविता का इतिहास समझना हो तो शुरुआत लोक-गीतों से कीजिये, क्योंकि इनमें से कई गीत मनुष्य और कविता के वर्तमान दौर तक पहुँचने के साक्षी हैं और आदिवासियों के तो कई गीतों में प्रकृति की अनसुनी कई ध्वनियाँ अब भी शेष हैं। इस त्रासदी के बावज़ूद कि प्रकृति के वे उपादान हम अब खो चुके हैं। वैसे इतिहास को समझाने  के अलावा ये गीत बहुधा भारतीय मानस को समझने में भी बहुत मददगार सिद्ध होते हैं। मध्य-प्रदेश के निमाड़ अंचल का एक लोक-गीत है :

निकस चलो दे के टटियां रे
मोढ़ा मोढ़ी के तो भगवान् रे   
निकस चलो हो

तीर्थ यात्रा पर जाने वाले सरल तीर्थ यात्री इस भावना के साथ यह गीत गाते हैं कि हम जिस यात्रा पर जा रहे हैं वहां से न जाने कब लौटेंगे और शायद ना भी लौटें। ऐसे में वे अपने घर और बाल-बच्चों का मोह त्यागकर, उन्हें भगवान् भरोसे छोड़कर जीवन की कोई अनाम सार्थकता ढूँढने की राह पर चल पड़ते हैं। यह गीत उस दौर का है जब तीर्थ यात्रा पर जाने वाले यात्रियों को पूरा का पूरा गाँव इसी भाव के साथ ससम्मान विदा देता था कि अब मिलना हो न हो। और जो यात्रा पूरी करके लौटते थे वे गाँव में उत्सव का कारण बन जाते थे। प्रतीकात्मक रूप में ये परम्पराएँ कहीं-कहीं अब भी जीवित हैं। तीर्थ यात्रियों को माला पहनाकर पूरा गाँव विदा करता है और लौटने पर वे पूरे गाँव के लिए भंडारा करते हैं। पर अब लोक-गीतों के साथ ये परम्पराएँ भी दम तोड़ रहीं हैं क्योंकि अब विकास ने यात्राओं की कई बाधाओं और अनिश्चितताओं का नामो निशान मिटा दिया है। लेकिन तथाकथित तरक्की के इस सोपान पर खड़े होकर भी क्या हम यह दावा कर सकते हैं कि जो घर से निकले हैं वे वापस घर पहुँच ही जायेंगे ? केदारनाथ के ज़ख्म अभी हरे ही हैं कि दतिया में सैकड़ों निर्दोष प्राण स्वाहा हो गए। केदारनाथ की त्रासदी में इंसानी गुस्ताखियाँ कितनी थीं यह तो शोध का विषय है लेकिन दतिया की घटना तो पूर्णरूपेण मानवीय त्रुटियों का परिणाम है। प्रदेश में चुनाव का समय है इसलिए ढाल और तलवार पूर्ण सक्रिय हैं। लेकिन सियासत की बात से पहले कुछ बात दतिया की भी ज़रूरी है।

दतिया मध्य-प्रदेश का एक ऐसा जिला है जिस पर ध्यान दिया गया होता तो आज यह देश के पर्यटन के नक़्शे पर चमकता हुआ सितारा होता। क्या नहीं था इस जिले के पास, खूबसूरत महल, किले, पहाड़ियां , तालाब, नदी , हस्तशिल्प के कुशल कारीगर, आस्था के केंद्र और भी न जाने क्या-क्या था इस अभागे जिले के पास। लेकिन यह आज भी मध्य-प्रदेश के सर्वाधिक पिछड़े जिलों में शुमार होता है। बचपन से ही मैं कई बार दतिया गया हूँ और मेरे देखते ही देखते दतिया ने बहुत कुछ खो दिया विशेष तौर पर ऐतिहासिक इमारतों की एक लंबी श्रंखला न जाने कैसे गायब हो गयी। वैसे तो पूरे देश ने विकास के नाम पर बहुत कुछ मिटाया है लेकिन दतिया का दुर्भाग्य है कि इसे उस तथाकथित विकास ने भी खाली हाथ ही रहने दिया है। भौतिक सुविधाओं के साधन तो गांवों तक पहुँच चुके हैं इसलिए दतिया भी उससे अछूता नहीं है लेकिन शेष कथा तो भयावह है। दतिया में आस्था का सबसे बड़ा केंद्र है - पीताम्बरा पीठ। देश का शायद ही कोई वीआइपी होगा जो यहाँ न गया हो विशेष तौर पर सियासतदां। स्टेशन से इस पवित्र शक्तिपीठ तक जाती सड़क अब बेहतर हो चुकी है क्योंकि देश के मालिकों की इस पर आवाज़ाही है। लेकिन उसके बाद  दतिया शहर में प्रवेश करते ही आपको लगेगा कि आप उन्नीसवी सदी के एक शहर में हैं। तंग गलियों और अव्यवस्था के भयानक शिकार ट्रेफिक में आप इस शहर को देखने की शायद ही हिम्मत जुटा पाएं। लेकिन यह तो सतही समस्या है। असल समस्या है इस शहर का सदियों पुरानी मानसिकता में  ठहर जाना। पूरा का पूरा क्षेत्र आपको दो सदी पहले का देश लगेगा विशेष तौर पर स्त्रियों के मामले में। यहाँ कि महिलाएँ शोषण की ऐसी पीड़ा भोग रहीं हैं जिसे बयान करना मुश्किल है यहाँ यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि दतिया से सटे झांसी ने नारी शक्ति का परचम लहराकर कभी अंग्रेजों के भी होश उड़ा दिए थे। वैसे तो पूरा का पूरा बुंदेलखंड एक त्रासदी से भरा जीवन जी रहा है और कभी-कभी लगता है कि जीवन के बेहद कठिन संघर्ष ने ही शायद इस क्षेत्र के लोगों को अक्खड़, आक्रामक और रूढ़िवादी बना दिया है लेकिन तभी याद आती है आज़ादी की लड़ाई की कहानी जिसमें बुंदेलखंड ने अपना बहुत कुछ न्योछावर कर दिया था लेकिन तब बुंदेलखंड यह नहीं जानता था कि आज़ादी की पूरी कीमत चुकाने के बावज़ूद उसके हिस्से में कुछ भी नहीं आयेगा !  दतिया उसी बुंदेलखंड का एक ऐसा हिस्सा है जिसके बारे में कहा जाता है ' झाँसी गले की फांसी दतिया गले का हार ललितपुर न छोड़िये जब तक मिले उधार' कभी दतिया पूरे बुंदेलखंड का कंठहार था आज वही कंठहार कौड़ियों के मोल बिक रहा है न बिक रहा होता तो क्या सियासतदां और चुनाव आयोग एक जान की कीमत डेढ़ लाख ही लगाते अरे इससे अधिक तो इन मालिक लोगों के महीने भर के वेतन-भत्ते होंगे।

चलिए अब कुछ बात ढाल और तलवार की भी कर लें। चुनाव है इसलिए आरोप- प्रत्यारोप भी तीखे हैं लेकिन दोनों दलों से एक-एक सवाल पूछना है पहला सवाल सत्तारूढ़ दल से है कि क्यों एक अक्षम व्यवस्था का पोषण किया गया और एक संभावनाओं से भरे जिले को क्यों पिछड़ेपन का अभिशाप झेलना पड़ रहा है ?? दूसरा सवाल हल्ला बोल रही कांग्रेस से पूछना है कि क्यों उन्होंने दतिया को वर्षों से एक ऐसी सड़क का अभिशाप दिया है जिसने वहां के लोगों का जीवन नर्क से बदतर कर दिया है ? इस बारे में यह बताना ज़रूरी है कि दतिया  झाँसी-ग्वालियर मार्ग पर स्थित है। झाँसी से यह तीस किलोमीटर दूर है और ग्वालियर सत्तर किलोमीटर है। कुछ वर्ष पूर्व यहाँ फ़ोरलेन सड़क बनना शुरू हुई।

ठेकेदार पूरा सौ किलोमीटर खोदकर और कुछ टुकड़े बनाकर चला गया और वर्षों से दतिया एक ऐसे अभिशाप को झेल रहा है जिसने उसकी सारी संभावनाओं को ही समाप्त कर दिया। इस सड़क की दुर्दशा का आलम यह है कि कुल सौ किलोमीटर का सफ़र छह घंटे में पूरा होता है और ज़रूरी नहीं है कि आप और आपका वाहन सलामत बचें । यह सड़क केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी है क्या वे बताएँगे कि एक अल्प विकसित जिला किस अपराध का दंड वर्षों से भुगत रहा है ? और क्या ये भी बताएँगे कि यदि घायलों की संख्या अधिक होती तो वे किस तरह इस सड़क से होकर ग्वालियर पहुँचते ? वहां रहने वाले मेरे एक मित्र कहते हैं कि इस बार चुनाव में वे वही बटन दबाएंगे जिसके सामने लिखा है ' इनमें से कोई नहीं ' उनकी पीड़ा का  इस तरह व्यक्त होना जायज़ है लेकिन यह समाधान तो नहीं है। काश सियासत में से कोई आगे आकर आने वाले वक़्त के लिए बेहतर राह बनाने की बात करता बजाय इसके कि कैसे एक-दूसरे को नीचा दिखाया जाए। इसी बुंदेलखंड को केंद्र में रखकर महान कथा शिल्पी वृन्दावन लाल वर्मा ने अनेक कहानियां और उपन्यास लिखे हैं। उन्हें पढ़कर समझ में आता है कि इस क्षेत्र के लोगों में कितनी अद्भुत जिजीविषा है। शायद वही जिजीविषा पूरे देश के लोगों में भी है जो बद से बदतर होते हालात में भी हमें संघर्ष का हौंसला देती है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि यह हौंसला कब तक बना रहेगा ? क्या हम सबको भी अब  ' इनमें से कोई नहीं का बटन दबाकर ' अपना घर-द्वार भगवान् भरोसे छोड़कर अपने पूर्वजों की तरह जीवन के सवालों के जवाब पाने के लिए टेर लगानी होगी  … निकस चलो हो SSSSSS
सम्पादक 
अशोक जमनानी
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1 टिप्पणियाँ

  1. एक सम्पादक जब अपने लेखन में किसी सामाजिक या सार्वजनिक हित के मुद्दे को शामिल करता है तो लेखन के मायने सार्थक होते नज़र आते हैं.अशोक बाबू आप हमेशा अपने सम्पादकीय में मुद्दों पर गलत लोगों को चिंकोटी भरते रहे हो.भाई लगे रहो.एक गुजारिश है सम्पादकीय थोड़ी ओर लम्बी हो लिखो तो भला होगा।एक सम्पादकीय में कई मुद्दे शामिल हो जाए तो भी क्या बुरा।गैर ज़रूरी सलाह के लिए मुआफी-माणिक

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