साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
अक्टूबर-2013 अंक
युवा कवि और उनकी कविताएँ
विपुल शुक्ला -क्षणिकाएँ, मैं और मैं, बात, बुधिया
अखिलेश औदिच्य - अभिशप्त, गुड़िया, चाँद-रोटी, पिता, दंगों पर
माणिक - गुरूघंटाल, माँ-पिताजी, त्रासदी के बाद आदिवासी ।
अब थोड़ा वक्त निकाल भी लो,
छायांकन हेमंत शेष का है |
युवा कवि और उनकी कविताएँ
विपुल शुक्ला -क्षणिकाएँ, मैं और मैं, बात, बुधिया
अखिलेश औदिच्य - अभिशप्त, गुड़िया, चाँद-रोटी, पिता, दंगों पर
माणिक - गुरूघंटाल, माँ-पिताजी, त्रासदी के बाद आदिवासी ।
यदि इन कविताओं का मूल्यांकन किसी बने बनाये
साँचे में न किया जाय, तो ऐसा लगेगा कि यही ‘कविता का
वर्तमान’ है। इन कविताओं की छोटी-छोटी पंक्तियों के बीच केमरे के फ्लेश की भांति हमारे बीच का समय गुजरता हुआ दिखाई देता है। छोटे-छोटे संकेत भयावह
विडम्बनाओं की ओर इशारा करते हैं तो आदमी को पंगु बनाने की कोशिश के प्रतिरोध में
तीखी प्रतिक्रिया भी मिलती है।यहाँ सपनों की उड़ान नहीं, बल्कि
हकीकत के धरातल पर बेबाक टिप्पणियों से झिंझोड़ने की तरूण कोशिश है। विचारों को
परोसने का अंदाज़ इतना लज़ीज है, कि पता ही नहीं चलता कि खूबसूरती भाव
में है या भाषा में।
इस सच से कोई भी इनकार नहीं करेगा कि भूख और
शोषण आज भी मानवता का सबसे बड़ा कलंक बनकर हमारे सामने खड़ा है। सदियों से चली आ
रही परम्परा ‘जीवो जीवस्य भोजनम्’ की मौन-स्वीकृति
संवेदनशील व सृजनशील इंसान को विद्रोह पर उतारू करने के लिए काफी है। यदि रामैया
को काम नहीं मिला तो थाली में रोटी की जगह चाँद दिखेगा और रोटी आसमान में टंगी रह
जाएगी । इस दर्द भरे दृश्य के बाद भी रामैया के सब्र की पराकाष्ठा हमारी चेतना को
कैसे सोने दे सकती है-
जिस दिन चाँद आता है थाली में
ना जाने क्यों उस दिन
भूख ही नहीं लगती । ( चाँद-रोटी )
दूसरा दृश्य, बुधिया जैसी
बच्ची अपने परिवार को पाल रही है, बीमारी से अब मरणासन्न है । छुटकी को
आभास है कि यह जिम्मेदारी उसे ढोनी है, पर काम पर जाने के लिए उसके पास कपड़े
नहीं है । छुटकी का यह कथन हमारा खून सुखा देने के लिए काफी है-
सच ! मैं सब कर लूँगी
सबको संभाल लूँगी ।
बस जब जीजी मर जाए
तो उसके कपड़े उतार कर
चुपके से मुझे दे देना । (बुधिया)
इतना ही नहीं इसी भूख और शोषण का कहर आदिवासी
जीवन पर भी आ गिरा है, जो कभी अभी अपनी सीमाओं में जीवन जीता रहा,
जंगलों,
पहाड़ों,
गुफाओं
में उल्लसित रहा । उसी को अब इस सभ्य समाज ने नहीं छोड़ा, तो परिणाम सामने
है-
लकीरें खींच गई हैं उनके माथों पर
कुछ सालों से
हाथों में आ गए हैं उनके अनायास
तीर कमान और देसी कट्टे
अपने बचाव में/तन गए हैं ये सभी । (आदिवासी)
ज्यों-ज्यों हम भू-मण्डल की ओर उन्मुख होते हैं,
बाजार
का घेरा फाँस लगाकर अपनी ओर खींचता है। ‘अर्थ’ से लकदक इस
दुनिया में यदि हमने कुछ खोया है तो वह है- रिश्तों की बुनियाद। बुजुर्गों से
भरी हुई कोलोनियाँ, पोते-पोतियों, नवासों को तरसती
दादी-नानी की सूनी गोदियाँ इसकी गवाह हैं। लेकिन इस पीड़ा को आज का यह तरूण कवि
पहचान रहा है, जो सुनहले स्वप्न का आभास देती है, वह
कहता है-
माँ के लिए स्व हूँ मैं,
और माँ/दुनिया में सबसे बड़ी स्वार्थी है । (क्षणिकाएँ)
और पिता के वात्सल्य में डूबा हुआ बचपन की
यादों को ताजा करती हुई पंक्तियाँ-
जब नींद नहीं आती थीं मुझे
आप चिपका लिया करते/अपने सीने से
और थपकियाँ देते
गुनगुनाते थे हमेशा एक ही
अपना पसंदीदा धुन । (पिता)
परन्तु, हम गाँव छोड़कर
शहर में आ गए हैं। माँ-बाप पथराई आँखों से इंतजार करते हैं और हमें वक्त ही नहीं
मिलता। तब-
उनके पास सब्र रखने के सिवाय
अब कोई रास्ता भी तो नहीं रहा अफ़सोस
वे मेरे आने का सिर्फ़ इंतज़ार ही कर सकते
वे दोनों के दोनों ।
खुद से ही पूछते होंगे, बार-बार मेरे
आने की खबर,
फिर देर तक चुप हो जाते होंगे ।
(माँ-पिताजी)
नई पीढ़ी समसामयिक घटनाओं पर मुखर है । दंगों को
देखकर आक्रोशित है, उत्तराखंड की त्रासदी के बाद विचलित है तो धर्म
के नाम पर ढोंग की बखिया उधेड़ने में पीछे नहीं है । वह साफगोई से स्वीकार करता है-
भगवान है/पहचानता हूँ ।
भगवान सब कर सकता है/मानता हूँ ।
भगवान कुछ नहीं करता/जानता हूँ । (क्षणिकाएँ)
साथ ही भगवान से शिकायत भी करता है-
ओ मेरे खुदा ।
इंसान को/अपने ही खून की
लत लग गई है । (दंगों पर)
जब भगवान के नाम पर मठ खोलकर गुरू-घंटाल अपनी
दुकानें चलाते हैं और धर्म के नाम पर भोली जनता को गुमराह करते हैं तो वह कह उठता
है-
हम गुरू नहीं कहला सके इस सदी में
मुआफ़ करना हम नहीं जमा सके
अपनी झाँकी/ न हम खरे उतर सके
तुम्हारे तेल-मालिश-चंपी के मापदंडों पर । (गुरू-घंटाल)
भावों को संवारने का काम भाषा करती है। उस
भाषा में आँचलिक शब्दावली की सौंधी गंध प्रविष्ट हो जाय तो रस की धारा बहने लगती
है, बिम्ब आँखों के सामने उतरने लगता है।आँचलिक शब्दावली से युक्त कुछ पंक्तियाँ हैं-
(1) इस पहले तेवार भी बैठने आए थे
गाँव
गुवाड़ी के मोतबीर लोग आदतवश
(2) बाप तो दारूखोर है ।
(3) जमात इकट्ठी हुई, दिहाड़ी मजदूरों
की ।
(4) गले में लटकाए चटकों की मालाएँ ।
इसी तरह बिम्बात्मक पदावलियाँ-
(1) वाकई खुदा बड़ा व्यस्त है ।
(2) चश्मे में पिरोई धुंधलाई आँखें ।
(3) चौराहे की तरह पड़ा हूँ सड़क पर ।
(4) होक वाली चाँदी या भोडर की राखियाँ ।
सच यह है कि इन युवा कवियों की ये ताजा कविताएँ
चाहे किसी वर्ग की धारा हो या न हो, इनमें किसी बड़े कवि की छाया हो या न हो,
किसी
बड़ी पत्रिका में छपने का इनका माद्दा हो या न हो, पर आम आदमी की
धड़कन को उसी के अंदाज़ में स्वर देने का साहस इन्हें ऊँचाई तक पहुँचाएगा ।
(युवा समीक्षक, महाराणा प्रताप राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय चित्तौड़गढ़ में हिन्दी प्राध्यापक हैं।आचार्य तुलसी के कृतित्व और व्यक्तित्व पर शोध भी किया है। शैक्षिक अनुसंधान और समीक्षा आदि में विशेष रूचि रही है।हाल ही में आपकी 'राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी' से 'सामान्य हिंदी' शीर्षक से व्याकारा की पुस्तक चर्चा में हैं.)
घर का पता-77, नगरपालिका कर्मचारी नगर, आदर्श कॉलोनी
तह.-निम्बाहेड़ा, जिला-चित्तौड़गढ़,पिन कोड़-312601
मेरी कविताओं सहित अपने दो मित्रों की कविताओं पर समीक्षात्मक आलेख पहली बार पढ़कर मन गदगद है,राजेन्द्र जी सकारात्मक टिप्पणियों हेतु शुक्रिया।फिलहाल सार्वजनिक रूप से आपकी तारीफ़ में यही कहना चाहूँगा कि आप लिखने के साथ ही उसे प्रस्तुत करने में भी माहिर हो.एक तो आपका चेहरा बड़ा सुदर्शन है दूसरा आपकी शुद्ध उच्चारण वाली आवाज़।अनुजों को बढ़ावा देने के आपके इस अंदाज़ को पसंद करता हूँ.
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