साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
अक्टूबर-2013 अंक
1990 के बाद से लागू
और अब तक जारी मुक्तमंडी वाली नई आर्थिक नीतियों ने जिस तरह और जिस गति से भारतीय
समाज का विरूपण किया है, उसके विविध रूप आलोच्य पुस्तक में हैं।
बौद्धिकों के अखबार जनसत्ता के ‘दुनिया मेरे आगे’ स्तम्भ
तथा अन्यत्र प्रकाशित टिप्पणियाँ/ लघु निबंध समकालिक दृष्टिहीन कथित विकास का
रचनात्मक प्रतिरोध हैं और वैकल्पिक संरचना के संकेत भी।
छायांकन हेमंत शेष का है |
सदाशिव श्रोत्रिय |
लेखक नाथद्वारा के निवासी हैं और जाहिर है वहां के प्रसिद्ध मंदिर की
प्रत्येक गतिविधि के साक्षी भी। ऐतिहासिक दृष्टि से सांस्कृतिक केन्द्र रहे
मंदिरों का मुनाफा देने वाले उद्योग में रूपान्तरण कष्टदायी है तो चढ़ावे के स्थान
पर आय शब्द का प्रयोग चिन्तनीय है। चढ़ावा श्रद्धालु की शब्दावली का हिस्सा है,
आय
व्यापारी की शब्दावली का। यह भाषिक परिवर्तन अकारण अथवा अनायास नहीं है। दरअसल
पर्यटक के तौर पर आए नवधनिक वर्ग के लिए मंदिर गमन प्रदर्शन, मनोरंजन,
दैहिक
विचरण अथवा हद से हद पैसे से पुण्य खरीदने का मामला है। ‘संस्कृति पर
सवार पर्यटन’ शीर्षक निबंध जिसकी व्यंजना सिर पर सवार
मुहावरे की है; में लेखक यह लक्ष्य करता है कि इस भ्रष्ट
मनोवृत्ति ने नाथद्वारा का भूगोल बदल दिया है। काशीनाथ सिंह की ‘पांडे
कौन कुमति तोहे लागी’ कथा की याद दिलाता यह लेख हाल ही में आई
उत्तराखंड की त्रासदी के मूल कारणों की ओर भी ध्यान आकृष्ट करता है। इस निबंध का
सुखद पक्ष यह है कि न तो लेखक अंधश्रद्धालु की तरह मंदिर-मंदिर की गुहार लगाता है
और न ही धुर विरोधी की तरह मंदिर ढहाने की वकालत करता है बल्कि यह संकेत करता है
कि मंदिर यानी तीर्थस्थल से जुड़ी भाव-समृद्धि, सांस्कृतिक-सम्पन्नता
को ढहाने का काम उसके झंडाबरदार ही कर रहे हैं। लेखक की लगभग यही चिंता ‘अतीत
के द्वार’ में है। ऐतिहासिक-सांस्कृतिक स्थलों का पर्यटन एक प्रकार का अध्ययन
भी है पर पैसा खर्च करने के पंूजीवादी मिजाज ने पर्यटन के मूल उद्देश्य को विलुप्त
कर सैर-सपाटे, खाने-पीने, फोटोग्राफी को
ही मुख्य एजेंडा बना दिया है जो लेखक की दृष्टि में ‘पुराने
आक्रान्ताओं जैसा ही बर्बर कृत्य है। विडम्बना है कि पर्यटक के रूप यह नया
आक्रान्ता न विजातीय है और न बाहरी। सही पर्यटन दृष्टि का उदाहरण ‘पिताओं
के सपने’ में है जिसमें लेखक प्रसंगवश अपनी पावागढ़-चांपानेर यात्रा का उल्लेख
करता है, बाकायदा वहां के धार्मिक, भूगर्भशास्त्रीय, ऐतिहासिक
संदर्भो के साथ।
संग्रह के विविध निबंधों में नाथद्वारा का उल्लेख है। इसे स्थानीय रंगत
अथवा जन्मभूमि प्रेम ही समझना चाहिए, दृष्टि-संकुचन नहीं क्योंकि जो
नाथद्वारा में है वह देश के अन्य हिस्सों में भी है। भारत सरकार, कार-उद्योग
कारों की बढ़ती बिक्री को भले ही आर्थिक विकास का पैमाना बताए, मध्यवर्ग
भले ही कार-स्वामी होने को सामाजिक प्रतिष्ठा समझे पर ‘कारवालों के
रास्ते’ में लेखक ने यह असलियत दिखा दी है कि कारों की बढ़ोतरी ने नाथद्वारा
के खेल मैदान को पार्किंग-स्थल में बदल दिया है और बरखंडी महादेव तक कारवालों की
आसान पहुँच बनाने के लिए पर्यावरण, वन्य पक्षियों, प्राणियों की
कीमत पर तीस फीट चौड़ी सड़क बना दी गई है। लेखक की चिंता और दुख प्रेमचंद के रंगभूमि
उपन्यास के सूरदास जैसी है जो गोचर भूमि पर जानसेवक के तंबाकू के कारखाने का
स्थापन नहीं चाहता।
आजकल योग फैशन में है इसीलिए उसे योगा कहा जाता है। टी.वी चैनलों, बड़े-बड़े
शिविरों में योग की मार्केटिंग है। ‘योग का बाजार’ में लेखक कहता
है कि पतंजलि ने जिस योग को ‘आत्मिक उन्नति की एक संपूर्ण प्रणाली
के रूप मंे परिभाषित, प्रतिष्ठापित किया था वह बाजारवादी योगाचार्यो
के हाथों में पड़ कर अब सिर्फ शारीरिक-स्तर पर ही रह गई है।
जो
मीडिया स्वाधीनता आंदोलन का मुख्य घटक था, तोप के मुकाबिल था, जिसे
लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में देखा गया था वह अब अधिकांशतः नकारात्मक भूमिका
में है। निचले स्तर पर जा पहुँची मीडियाई नैतिकता से चिंतित हंस, कथादेश
जैसी बड़ी पत्रिकाओं को स्वतंत्र विशेषांक निकालने पड़े। अब तो पेड न्यूज की कुचर्चा
भी मीडिया के संदर्भ में है। ‘मीडिया की भूमिका’ में
लेखक यह प्रश्न उठाता है कि आज के मीडिया यानी विज्ञापनों और सनसनी से भरे और
रचनात्मक खबरों से खाली अखबार को ‘भारत जैसे देश में क्या अपराध की
श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए?
‘आधुनिक युवा’
व ‘कामकाजी
पत्नियाँ’ को लेखक की स्त्री-दृष्टि के पाठ के रूप में देखा जाना चाहिए। यदि
स्त्री सशक्तीकरण विषय सिर्फ लेखिकाओं के लिए ही आरक्षित न हो और महिलाएँ
आत्मनिरीक्षण के लिए तैयार हों तो उन्हें पता चलेगा कि निष्प्रयोजन अथवा कुप्रयोजन
गतिशीलता गुलामी का ही दूसरा नाम है। ‘आधुनिक युवा’ में लेखक अपने
अध्यापकीय अनुभव को सामने रखता है कि ‘‘छात्राओं के महाविद्यालय में यदि किसी
दिन अरूणा राय जैसी किसी विदुषी की वार्ता रख दी जाये तो पचहत्तर प्रतिशत छात्राएँ
शायद उस दिन कॉलेज ही नहीं आएंगी’’ स्पष्ट है कि सिर्फ मौजमस्ती व
पारिवारिक श्रम से बचने के लिए कॉलेज आना न तो स्त्री शिक्षा है और न ही पितृ
सत्ता को चुनौती। स्त्री शिक्षा का इतिहास बमुश्किल डेढ़ सौ वर्षो का है, ऐसे
में तो अधिक दायित्व-बोध होना चाहिए। ध्यान इस ओर भी जाना चाहिए कि महाविद्यालयों
में स्थापित महिला प्रकोष्ठों में पाक कला, कढ़ाई-बुनाई,
मेंहदी
जैसे आयोजन स्त्री-सशक्तीकरण के नाम पर किए जाते हैं। इन कलाओं से कोई परहेज नहीं
है पर शिक्षण संस्थान की इनके विकास में क्या कोई भूमिका है अथवा होनी चाहिए?
क्या
अकादमिक गतिविधियों को मुख्य स्थान नहीं मिलना चाहिए?
डॉ. राजेश चौधरी
प्राध्यापक (हिन्दी)
महाराणा प्रताप राजकीय महाविद्यालय,
चित्तौड़गढ़-312001,राजस्थान
ईमेल:
rajeshchoudhary@gmail.com
मोबाईल नंबर-09461068958फेसबुकी संपर्क |
स्त्री सशक्तीकरण की सैद्धांतिकी में आर्थिक आत्मनिर्भरता को अनिवार्य चरण
माना जाता है। लेखक इसके खिलाफ नहीं है पर स्त्री की आर्थिक शक्ति उपभोक्तावाद की
पेटी में बंद हो जाए यह तो कोई अच्छी बात नहीं है। ‘कामकाजी
पत्नियाँ’ में लेखक अर्थसम्पन्न महिलाओं की मानसिकता का बारीकी से विश्लेषण
करता है कि ‘‘पत्नी के धनार्जन में समर्थ होते ही उसकी
इच्छाएँ आकाश को छूने लगती हैं- समाज के उच्चतर और श्रेष्ठतर आर्थिक वर्ग में
सम्मिलित होने की अपनी ख्वाहिश को वह बड़ी मुश्किल से नियंत्रण में रखती है। माना कि
स्त्री सशक्तीकरण के लिहाज से यह संक्रमण काल है पर सवाल है कि कब तक? क्या
स्त्रियों की सारी लड़ाई पुरूष सत्ता केन्द्रो पर काबिज होने की है या सत्ता के
चरित्र में परिवर्तन की? अर्थोपार्जन स्त्री-व्यक्तित्व को
दमदार बनाता है यह माना पर अर्जित धन की उपयोग-दृष्टि भी तो होनी चाहिए। मैनें
वर्षो तक महिला महाविद्यालय में अध्यापन किया है मेरा अपना अनुभव लेखक से भिन्न
नहीं है। उच्च वेतनमान-प्राप्त अध्यापिकाओं में से शायद ही कोई ऐसी थी जो किताब
खरीदना जरूरी समझती हो। सोना, साड़ी, करवाचौथ स्त्री
मुक्ति के नहीं पराधीनता के औजार हैं- यह समझ में आए बगैर आर्थिक शक्तिसंपन्नता
बेमतलब है। यहाँ नंद चतुर्वेदी की बात याद आती है कि स्त्रियाँ यह संसार बनाएँ तो
वह पुरूषों के बनाए इस मौजूदा संसार से भिन्न होना चाहिए। सदाशिव श्रोत्रिय के इस संग्रह का दो कारणों से स्वागत किया जाना चाहिए एक
तो आकारगत लघुता व सरलता दूसरे इसे पढ़ते हुए अपने को व मौजूदा सामाजिक परिदृश्य को
देखने की प्रेरणा इसमें विद्यमान है।
सतत विचार की जरूरतः सदाशिव श्रोत्रियः बोधि
प्रकाशन जयपुर - मूल्य 125/-
राजेश चौधरी जैसे संजीदा और गहरी समझ रखने वाले हिंदी प्राध्यापक ने पढ़ा ज्यादा और लिखा कम है जबकि उनके लिखे में बहुत गहरी समझ की खुशबू आती है.राजेश जी आपको बिना किसी डर और आशंका के अपनी राय ज़ाहिर करनी चाहिए।आपसी बातचीत में भी आपने कई बार कहा है कि क्या पता मेरे लिखे पर किसी को आपत्ति ना हो जाए या पता मेरा लिखा राष्ट्रीय परिदृश्य के खाके से मेल नहीं खाएगा तो लोग क्या समझेंगे। मुझे लगता है आपको एक पाठक होने के नाते अपनी राय प्रकट करनी चाहिए जो आपका अधिकार भी है.यहाँ एक तो सदाशिव जी के लघु आलेखनुमा निबन्ध और उस पर आपकी समीक्षात्मक टिप्पणी अंक में महत्वपूर्ण जुडाव है-माणिक
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