“ पता नहीं कितना अंधकार था मुझमें
मैं सारी उम्र चमकने की कोशिश में
बीत गया ”1
चित्रकार:अमित कल्ला,जयपुर |
धूमिल
के काव्य-लोक पर विचार-विमर्श करने से पहले उनके साहित्य और समाज संबंधी मान्यताओं
को जान लेना जरूरी है, धूमिल
के लिए कविता वैचारिक-औजार थी, आदमीयत के निर्माण की | धूमिल
के शब्दों में “ कविता का एक मतलब यह है कि आप आज तक और अब तक कितना आदमी
हो सके हैं |…कविता की असली शर्त आदमी होना है |”5इस आदमीयत की तलाश वे जीवन पर्यंत कविता में मानवता की पक्षधरता की लड़ाई
के लिए करते रहे | मानव-मूल्यों की इस अंतहीन लड़ाई को वे
जीवन भर लड़ते रहे इसी कारण उनके काव्य लोक में आमजन,
ग्राम-समाज और शहरी निम्न और मध्यवर्ग के लिए स्नेह और सत्ताधारी और पूंजीपति वर्ग
के लिए आक्रोश है| धूमिल के लिए कविता की सार्थकता इसी में
थी कि वह समकालीन समाज से जुड़ी हो | उनके शब्दों में “
समकालीनता क्या है? रूप रंग और अर्थ के स्तर पर आजाद रहने की, सामने बैठे आदमी के गिरफ्त में ना आने की एक तड़प,
एक आवश्यक और समझदार इच्छा, जो आदमी को आदमी से जोड़ती है, मगर आदमी को जेब में या जूते में नहीं डालती |”6
स्वतन्त्रता की तीव्र इच्छा और उसके लिए पहल के समर्थन में लिखा गया
साहित्य ही समकालीन साहित्य है | इससे एक बात तो यह स्पष्ट है कि धूमिल के लिए स्वतन्त्रता, आजादी, उन्मुक्तता ही काव्य और समकालीन होने की
पहली शर्त थी | स्वतन्त्रता की भावना उनके पूरे साहित्य की
मूल संवेदना है जो जीवन पर्यंत उनके काव्य और उनके जीवन पर कार्यरत थी जिसके कारण
कवि किसी एक विचारधारा की संकीर्ण सीमा में बंधें नहीं रहे और ना ही आलोचक-गण
उन्हें किसी एक काव्य-आंदोलन में समाहित कर पाए | धूमिल जिस
दौर में साहित्य के क्षेत्र में आए वह अकवितावादियों का दौर था | गिंसबर्ग और बांग्ला साहित्य से हिन्दी का साहित्यकार प्रभावित था | धूमिल भी कुछ समय तक अकविता से प्रभावित रहे पर बहुत जल्द इन्होंने खुद
को उससे मुक्त कर लिया और साठोत्तरी की आक्रामक भाषा के अगुवा बने | धूमिल की स्वतंत्रा की भावना ही उन्हें अकविता से जनवादी कविता की ओर ले
गयी | विचारगत स्वतन्त्रता की भावना से ही उन्होंने राजकमल
चौधरी की स्मरण में कविता लिखा | यह उन्मुक्तता की भावना
धूमिल केवल अपने ऊपर लागू नहीं करते थे, वे पूरे समाज को इसी
तरह शोषण-मुक्त बनाने की कल्पना किया करते थे इसी कारण उनकी कविताओं में
सत्ताधारियों और पूँजीपतियों के प्रति आक्रोश था | अपने
कविता-लेखन मे वे प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह की आलोचनाओं से प्रभावित
होने के कारण तथा शोषण के विरुद्ध की मानसिकता निर्मित होने के कारण सर्वहारा वर्ग
के पक्ष और शोषकों के विरोध में कवितायें लिखते थे | धूमिल
ने इसी कारण कई राजनीतिक कवितायें लिखी हैं | उनका मानना था “युवा लेखन के लिए राजनीतिक समझदारी जरूरी है| बिना
राजनीतिक समझदारी के आज का लेखन संभव नहीं | ”7
धूमिल ने राजनीति को भी साहित्य की विषय-वस्तु बना दिया |
राजनीतिक अंतर्विरोधों और वैचारिक दिवालियेपन को अपने कविता में प्रमुखता से स्थान
दिया | राजनीति, जनतंत्र, संसद जब सारी चीजें समाज की हैं तो फिर आज के साहित्य के माध्यम से इनमे
विकासात्मक बदलाव लाना उतना ही आवश्यक है | विरोध और सत्ता
के विपक्ष के तौर पर धूमिल जी ने जिस शब्दावली का इस्तेमाल किया वह शब्दावली
मार्क्सवादी विचारधारा और ग्रामीण परिवेश की शब्दावली थी जिसके कारण लोग उनपर
मार्क्सवादी प्रभाव स्वीकार करते हैं परंतु धूमिल जीवन भर रूढ मार्क्सवादी नहीं थे
| ऐसा कहा जा सकता है कि मार्क्सवादी सिद्धांत के बाद आज तक
किसी अन्य विचारधारा ने हिन्दी साहित्य में नए शब्दावली को इतना विकसित किया ही
नहीं कि मार्क्सवादी सिद्धांत के द्वारा दिये गए शब्द विस्थापित हो पाएँ, हिन्दी साहित्य में आज भी पूंजीपति, शोषक-शोषित, वर्ग-विभाजन आदि शब्दों का प्रयोग बहुतायत मात्रा होता है, गैर मार्क्सवादी भी ऐसे ही शब्दों का इस्तेमाल करते हैं; धूमिल भी करते थे|
‘कविता’ धूमिल के लिए सिर्फ एक साहित्यिक विधा
नहीं थी बल्कि कविता उनकी जुबान थी जिसके माध्यम से वे समाज पर चोट करते, समाज की विद्रूपताओं को कविता के ढाल से रोकते ;
आत्मभिव्यक्ति और समाज-विश्लेषण करते | धूमिल के शब्दों में “अकेला कवि कठघरा होता है| / इससे पहले कि‘वह’ तुम्हें / सिलसिले से काटकर अलग कर दे / कविता
पर बहस शुरू करो / और शहर को अपनी ओर / झुका लो |”8 यहाँ ‘वह’ सत्ताधारी व्यक्ति
है “जो आदमी के भेस में - / शातिर दरिंदा है, / जो
हाथों और पैरों से पंगु हो चुका है / मगर नाखून में जिंदा है |”9 समाज को अपनी ओर झुका लेना समाज की चलती गति को
परिवर्तित करना है, क्योंकि यह गति शोषण और दमन चक्र द्वारा
चालित है और इसे बदलना कवि धूमिल की सबसे बड़ी आकांक्षा है |
ऐसी स्थिति ना बन पाने के कारण ही – “ कविता / घेराव
में / किसी बौखलाए हुए आदमी का / संक्षिप्त एकालाप …”10 बन जाती है ; और तब कविता को साजिश के तहत समाज से
काट कर उसकी संप्रेषणीयता को नष्ट कर देने के लिए ऐसे शब्दों को भर दिया जाता है
जिसका “...अब वहाँ कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है / पेशेवर भाषा के
तस्कर-संकेतों / और ‘बैलमूत्ती इबारतों’ में / अर्थ खोजना व्यर्थ है |”11 ऐसी कवितायें जनसाधारण से कटी हुई और उसके लिए निरर्थक हो जाती है | ऐसे समय में धूमिल समाज को वापस सजग करते हैं और कहते हैं-“ वक़्त
बहुत कम है| /...क्योंकि असली अपराधी का / नाम लेने के लिए /
कविता, सिर्फ उतनी देर तक सुरक्षित है / जितनी देर, कीमा होने से पहले, / कसाई के ठीहे और तनी हुई गड़ास
के बीच / बोटी सुरक्षित है |”12 समाज में
इन खूंखार दरिंदों के बीच इसलिए “ कविता- भाषा में / आदमी होने की तमीज है |”13 कुल मिलाकर कहा जाए तो धूमिल सब
बुराइयों के विपक्ष मे सिर्फ कविता को मानते हैं | उनकी
कविताओं मे मार्क्सवादी-प्रगतिशील कवियों की तरह व्यक्तित्व का निषेध नहीं है जो
धूमिल को शुष्क मार्क्सवादी कवि होने से बचाता है , नन्द
किशोर नवल के शब्दों मे कहें तो –“यह बात प्रगतिशील कवियों में केदार-नागार्जुन की अपेक्षा उन्हे मुक्तिबोध
के निकट ले जाती है, जिनमें रचना मे व्यक्तित्व का निषेध
नहीं, उसके विनियोग का आग्रह था |”14
वर्षों तक अनवरत संघर्ष से मिली आजादी के बाद जनता ने शासन व्यवस्था से यह
तो उम्मीद की ही थी कि वे आम आदमी को रोटी-कपड़ा-मकान जैसी बुनियादी आवश्यकताओं को
आसानी से उपलब्ध करा सकेंगे,
बेकारी दूर हो जाएगी, सब को शिक्षा और रोजगार मिलेगा | परंतु स्थिति ठीक विपरीत थी, पंचवर्षीय योजनाएं, हरित क्रांति, पंचशील के सिद्धांत, नेहरू का समाजवाद सब के सब नाकाम रहे और समाज में व्यक्ति की दशा दुर्दशा
में बदलती जा रही थी | ऐसे समय में कवि धूमिल की वाणी खुद ब
खुद आक्रोश युक्त होने लगी|“हवा से फड़फड़ाते हुए
हिंदुस्तान के नक्शे पर / गाय ने गोबर कर दिया है |”15 स्वातंत्र्योत्तर भारत की विसंगत स्थिति को संवेदनशील धूमिल अपनी कविताओं
मे पूरी ताकत से व्यक्त करते हैं| मूल्यहीनता के इस बदलते
दौर में जब जनतंत्र, प्रजातन्त्र,
आजादी जैसे शब्द अपना अर्थ ही खो बैठते हैं तब हर नागरिक को यह सोचना ही चाहिए कि “क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है / जिन्हें एक पहिया ढोता है
/ या इसका कोई खास मतलब होता है?”16 और इस
‘मतलब’ की तलाश में वे देश के हर
हिस्से को देखते और टटोलते हैं और अंततः वे कहते हैं –“उस मुहाविरे को समझ गया हूँ / जो आजादी और गांधी के नाम पर चल रहा है /
जिससे ना भूख मिटती रही है न मौसम / बदल रहा है ”17
प्रत्येक चुनाव के बाद धूमिल के समय तक अजेय
काँग्रेस सरकार जो जनतंत्र को चुनावी घोषणापत्र में तो बहुत चमकदार तरीके से
प्रस्तुत करती थी, परंतु
भारत के मूल चरित्र में इस ‘जनतंत्र’
ने कोई फर्क नही लाया था | अपने मूल चरित्र में यह ‘जनतंत्र’ तब तक साम्राज्यवादपरस्ती नीतियों का
सहयोगी था ना कि विरोधी | इसी कारण धूमिल लिखते भी हैं कि“ उन्होंने जनता और जरायमपेशा / औरतों के बीच की / सरल रेखा को काटकर /
स्वस्तिक चिन्ह बना दिया है / और हवा में एक चमकदार गोल शब्द / फेंक दिया है-
जनतंत्र / जिसकी रोज सैकड़ों बार हत्या होती है / और हर बार / वह भेड़ियों की जुबान
पर जिंदा है |”18यह स्वस्तिक चिन्ह झूठे
वादों के झूठ को मंगल भाव बनाकर प्रस्तुत करने के लिए है तो इसके मूल में निहित
जर्मनी की नाजी पार्टियों की हिंसा तत्व भी मंगल के अमंगल के रूप में चित्रित है | यह
भेड़िया नीति ही हो सकती है जो तत्कालीन शासकों के लिए प्रयुक्त किया गया है |
धूमिल की कविता देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, चालबाजी, ढोंग,
पाखंड, बेकारी, हिंसा, और सत्ताधारियों के प्रति तीखे आक्रोश युक्त असंतोष को जाहिर करती है| धूमिल आत्मलीन नहीं है बल्कि समाज के प्रति जागरूक और प्रतिबद्ध हैं| इसलिए उनकी कविताओं में आवेगपूर्ण प्रतिक्रिया है|
यह प्रतिक्रिया मतवादों द्वारा पूर्व चालित प्रतिक्रिया नही है बल्कि स्वतः
स्फूर्त और जीवंत प्रतिक्रिया है| इस प्रतिक्रिया और आवेग के
उतार चढ़ाव के कारण ही उनकी कविताओं मे मुक्तिबोध की कविताओं की ही तरह
द्वंद्वग्रस्त अंतर्विरोध और वर्ग प्रतिबद्धता नजर आती है|
अपनी प्रसिद्ध कविता ‘पटकथा’ मे काव्य
नायक का ‘मैं’ का साक्षात्कार अपने ही
हमशक्ल से होना, मुक्तिबोध के ‘चाँद का
मुंह टेढ़ा है’ मे रक्तालोकस्नात पुरुष का अपने ही दूसरे रूप
से मिलने जैसा चित्रण है|
‘पटकथा’ कविता का विकास देश के आशाशील
स्वप्नों के ध्वस्त होकर यथार्थ से साक्षात्कार करने की ओर है| आजादी के शुरुआती वर्षों में जनता सरकार के मोहपाश में बंधकर केवल अच्छे
दिनों का इंतजार करती थी| परंतु असफल होते जनतंत्र तथा चीनी
और पाकिस्तानी आक्रमण ने स्वप्न में सोये देश को तमाचे से जगा दिया जहां उसकी
स्थिति पहले से भी ज्यादा बदतर और कुरूप हो चुकी थी| धूमिल
का कवि मन ऐसी परिस्थितियों से सिहर गया और उन्हें महसूस हुआ “कहीं / कोई खास फर्क नहीं है / जिंदगी उसी पुराने ढर्रे पर चल रही है /
जिसके पीछे कोई तर्क नहीं है / -हर तरफ /
शब्द भेदी सन्नाटा है / -घृणा में / डूबा सारा देश / पहले की ही तरह आज भी / मेरा
कारागार है |”19
अपने देश और जनता से इतना लगाव रखने वाला, स्वप्न देखने वाला, इंतजार करने वाला कवि धूमिल किसी भी तरह इस दुरावस्था, असंगत और विषम स्थिति को स्वीकार न कर पाने की मानसिक यंत्रणा में घिरा
था कि विरोध ही उसके लिए परम लक्ष्य था| इस मानसिक यंत्रणा
और व्यथा में वे सार्थक विश्वसनीय बदलाव की ओर भले इशारा न कर पाएँ परंतु किसी
झूठे आरोपित आशावाद, राजनैतिक नारेबाजी तथा आत्मवंचनापूर्ण
निष्कर्षों तक जाने की बजाय विरोध में खड़े रहना, जनता को
वास्तविकता दिखा देना अपने आप में महत्वपूर्ण कार्य है|“इस वक्त सच्चाई को जानना / विरोध में होना है|”20
‘नक्सलबाड़ी’ कविता में धूमिल ने
स्वातंत्र्योत्तर भारत की उस निराशाजनक परिस्थिति का चित्रण किया है, जिसने नक्सलपंथी आंदोलन को जन्म दिया है| उनका
प्रिय शब्द जंगल इस कविता में संसद के लिए ही प्रयुक्त हुआ है|“और एक जंगल है-| / मतदान के बाद खून में अंधेरा /
पछींटता हुआ |”21‘समकालीनता’ धूमिल के लिए बहुत महत्वपूर्ण थी| समकालीन होना
समकालीन रूप-रस-गंध से वाकिफ होना था और धूमिल सचेत समकालीन कवि होने के नाते समाज
की हर समस्या को अपने काव्य में स्थान देते थे | इसी वजह से
1967 ई. में उत्तरप्रदेश में हुए भाषा संबंधी आंदोलन को केंद्र में रखकर ‘भाषा की रात’ कविता की रचना किए|
इस कविता
में धूमिल ने सत्ताधारी पार्टी की उस राजनीति का पर्दाफाश किया है जो भाषा-समस्या
की आड़ में मुख्य समस्याओं से जनता का ध्यान हटाती है और प्रांतीयतावाद को बढ़ावा
देती है, जो
पूंजीवादियों के लिए लाभ का हथियार है|‘शहर में सूर्यास्त’ नामक कविता में उन्होंने आज की भाषायी पृथकतावाद के मूल कारण का चित्रण
किया है जहां भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ाकर सत्ताधारी,
पूंजीवादियों एवं विदेशी ताकतों की भाषा अंगरेजी को प्रतिष्ठित करने का प्रयास
किया जा रहा है- “इस देश के बातूनी दिमाग में / किसी
विदेशी भाषा का सूर्यास्त / फिर सुलगने लगा है”22इसी की ओर स्पष्ट करते हुए ‘भाषा की रात’ कविता में वे कहते हैं “चंद चालाक लोगों ने-
/ (जिनकी नरभक्षी जीभ ने पसीने का स्वाद चख लिया है) / बहस के लिए भूख की जगह भाषा
को रख दिया है” x x x“हाय ! जो असली
कसाई है / उसकी निगाह में / तुम्हारा यह तमिल-दुख / मेरी इस भोजपुरी पीड़ा का / भाई
है / भाषा उस तिकड़मी दरिंदे का कौर है / जो सड़क पर और है / संसद में और है|”23
धूमिल ने
सामाजिक यथार्थ का बेबाक चित्रण किया है शहर और गाँव दोनों पर विमर्श करते हुए
उनकी अलग-अलग विसंगतियों को एक साथ चित्रित करते हैं| शहर और गाँव दोनों से जुड़े रहने के
बावजूद ग्राम-चेतना उनमें प्रधान थी| धूमिल ने समकालीन
राजनीति और व्यवस्था के भ्रष्टाचार और खोखलेपन को उभारने के लिए व्यंग्य का सहारा
लिया | धूमिल ने तथाकथित अवसरवादी बुद्धिजीवियों पर, शोषण को स्वीकार करती हुई जनता पर, स्त्रियों पर भी
व्यंग्योक्तियां लिखीं हैं| गाँव से वे स्वयं निर्मित थे औए
गाँव मे वे स्वयं सबके लिए उपस्थित थे, गाँव की पास-पड़ोस की
राजनीति में गहराई से शामिल होने के कारण ही उनके ऊपर मरणोपरांत तक कई मुकदमे चल
रहे थे| धूमिल अपने गाँव मे जितना कवि रूप में नहीं विख्यात
थे उससे अधिक गाँव वासियो के हमदर्द और सामाजिक सक्रियता के लिए विख्यात थे| धूमिल गाँव के लोगों के समस्त पीड़ा के सहभागी अपने जीवन के अंतिम काल तक
थे इसी जुड़ाव के कारण वह भारत सरकार की ‘हरित क्रांति’ जैसी नीतियों की भ्रमात्मकता को भी अपनी कविता मे व्यंग्यात्मक रूप में
प्रकट कर पाये“मैंनें ज़ोर से कहा-हरित / और धीरे से
कहा-क्रांति / नन्हीं चिड़िया नहीं जानती / एक समकालीन शब्द धीरे से कहने पर / पेट
में कितने चाकू उतरते हैं |”24
कविता
को भाषा और भाषा को कविता बनाने वाले धूमिल की कविताओं की संप्रेषणीयता पर गौर
करें तो हम पाते हैं कि धूमिल की कविताओं में शामिल विषय-वस्तु जितना आम लोगों के
रोज़मर्रा के जीवन से जुड़ीहै उतनी ही उनकी भाषा और उनके शब्द भी दैनिक जीवन में
शामिल हैं, भारत के
आम-आदमी की भाषा के हैं| धूमिल की भाषा को लेकर जितने भी
विवाद उठाए गए हों उन सबका जवाब स्वयं धूमिल की भाषा ही है|
इस भाषा की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि इसमें सारे शब्द साधारण-जन से लेकर
विद्वत-जनों को भी कविता के अंदर कविता के अर्थ को भटकाने का स्पेस नहीं देते | भाषा की विलक्षणता के आधार पर हम धूमिल के समकालीन कवियों को देखें तो
हमारे सामने तीन ही प्रमुख कवि उभर कर आते हैं एक तो अज्ञेय,
दूसरे मुक्तिबोध और तीसरे स्वयं धूमिल| अज्ञेय जिनकी भाषा और
शैली उद्दातता और अभिजात्यता से परिपूर्ण अलंकृत युक्त भाषा स्वीकारी गयी है और
मुक्तिबोध की भाषा आधुनिक, मार्क्सवादी पारिभाषिक शब्दावली
से युक्त, गंभीर विचारों की अभिव्यक्ति के लिए फैंटेसी-विधान
से युक्त शिक्षित शहरी मध्यवर्ग की भाषा रही है| जबकि धूमिल
की भाषा अपने गाँव की शब्दावली से युक्त मुहावरेदार और सूक्तिपरक जीवंत भाषा है जो
परिस्थितियों की कोमलता और क्रूरता को उसी तरह उसी रूप में सामने रख देती है जिससे
कि आम आदमी जीवन भर मुठभेड़ करता जीता लड़ता रहता है| धूमिल
कहते हैं “ कहीं कोई भाषा नहीं है / भूख के केंद्र में |”25 भाषा की समस्या धूमिल के सामने
एक बड़ी समस्या के रूप खड़ी थी धूमिल परंपरावादी नहीं उन्मुक्ततावादी भाषा के समर्थक
और स्वतंत्र चिंतक थे | धूमिल परंपरागत काव्य-भाषा के पक्के
विरोधी थे, जो तत्कालीन कई कवियों के लिए सर्वमान्य और
प्रयोग सुलभ थी | धूमिल शब्दों के उपयोगिता के कवि थे |भाषा में भदेसपन की शुरुआत हिन्दी में धूमिल के पूर्ववर्ती काव्य में ही
शुरू हो चुकी थी यह आकस्मिक ही नहीं प्रकट हुआ, भदेसपन
मोहभंग की तीव्र प्रतिक्रिया का उत्स था, जो अस्वाभाविक नहीं
था यथास्थिति को तोड़ने के लिए तीव्र नकार भी एक प्रक्रिया है | धूमिल के लिए “ भाषा का अर्थ है जीने की
पद्धति और जीने का ढंग | भाषा यानि जनतंत्र की भाषा, जनतान्त्रिक अधिकारों की भाषा, आजादी और सुखी
जिंदगी के हक की भाषा |”26
अंशकालिक व्याख्याता,
खुदीराम बोस सेंट्रल कॉलेज
13/47, पो.-कांकीनाड़ा,
जिला-उत्तर 24 परगना-743126,
पश्चिम बंगाल
दूरभाष-9903261757
|
संदर्भ-सूची
1.
धूमिल, कल सुनना मुझे, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, आवृत्ति-2010,
पृष्ठ संख्या-86
2. वही, पृष्ठ
संख्या-22
3. धूमिल, संसद से सड़क
तक, राजकमल प्रकाशन,नयी दिल्ली,दूसरी आवृत्ति-2011
पृष्ठ संख्या-104
4. सिंह, काशीनाथ, काशी का अस्सी,राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली,चौथी आवृत्ति-2011,
पृष्ठ संख्या-38
5. धूमिल, कल सुनना मुझे, वाणी
प्रकाशन, नयी दिल्ली,आवृत्ति-2010, पृष्ठ संख्या-37
6. वही, पृष्ठ संख्या-36
7. वही, पृष्ठ संख्या-38
8. धूमिल, संसद से सड़क तक,
राजकमल प्रकाशन, दूसरी आवृत्ति-2011,
पृष्ठ संख्या-82
9. वही, पृष्ठ संख्या-86
10. वही, पृष्ठ संख्या-08
11. वही, पृष्ठ संख्या-08
12. वही, पृष्ठ संख्या-86
13. वही, पृष्ठ संख्या-85
14. नवल, नंदकिशोर, समकालीन
काव्य यात्रा, राजकमल प्रकाशन, नयी
दिल्ली,संस्करण
2004, पृष्ठ
संख्या-267
15. धूमिल, संसद से सड़क तक,
राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, दूसरी
आवृत्ति-2011
पृष्ठ संख्या-10
16. वही, पृष्ठ संख्या-10
17. वही, पृष्ठ संख्या-16
18. वही, पृष्ठ संख्या-44
19. वही, पृष्ठ संख्या-128
20. वही, पृष्ठ
संख्या-84
21. वही, पृष्ठ संख्या-68
22. वही, पृष्ठ संख्या-43
23. वही, पृष्ठ
संख्या-88-96
24. धूमिल, सुदामा
पाण्डेय का प्रजातन्त्र, वाणी प्रकाशन,
दिल्ली, प्रथम संस्करण-1984, पृष्ठ
संख्या-67
25. वही, पृष्ठ
संख्या-59
26. सिंह, काशीनाथ, अपना मोर्चा, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली,
पहली आवृत्ति-2012,पृष्ठ संख्या-100
27. सिंह, काशीनाथ, आलोचना भी
रचना है, किताबघर प्रकाशन, संशोधित
संस्करण-1996, पृष्ठ
संख्या-22
28. धूमिल, कल सुनना
मुझे, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली,आवृत्ति-2010, पृष्ठ संख्या-11
लेख अच्छा है। बधाई।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओम सर जी , आलेख के संबंध में आपसे प्रतिक्रिया पाना मेरे लिए काफी सुखद है, देर हो गयी क्षमा करें |
हटाएंएक टिप्पणी भेजें