शोध:कहानी-कला और निराला/कविता उपाध्याय(दिल्ली )

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati )                 मार्च-2014 
                 

चित्रांकन
वरिष्ठ कवि और चित्रकार विजेंद्र जी
 
“कहानी का यह दुर्भाग्य रहा है कि वह मनोरंजन के रूप में पढ़ी जाती है और शिल्प के रूप में आलोचित होती है| मनोरंजन उसकी सफलता है तो शिल्प सार्थकता|”1 डॉ० नामवर सिंह का यह कथन कहानी के मूल्यांकन के एक सीमित दायरे की ओर संकेत करता है| वस्तुतः साहित्य के सभी रूप मात्र शिल्प ही नहीं हैं यह मनुष्य के जीवन को समझने के भिन्न-भिन्न साधन भी हैं| जहां एक माध्यम चुक जाता है वहीं दूसरे माध्यम का निर्माण हो जाता है| इस कारण कहानी के शिल्प में उसकी सार्थकता एवं मनोरंजन मात्र में सफलता मानना उचित नहीं है|

      किस्से-कहानियाँ तो मनुष्य के आदिकाल से ही उसके सम्प्रेषण एवं मनोयोग का एक हिस्सा रहे हैं| आधुनिक समय में जब कहानी को एक साहित्यिक विधा के रूप में पढ़ा जाने लगा तो सहज ही उसकी आलोचना के मानदंड भी बनाए गए| एक साहित्य के रूप में कहानी के कहानीपन की सफलता का अर्थ है उसकी सार्थकता| साहित्य का कोई भी रूप- कविता, उपन्यास, निबंध अथवा कहानी साहित्य की कोटि में तभी उल्लेखनीय हैं जब वह सार्थक हों|

      बहरहाल जब बात उठती है महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ को कहानीकार के रूप में मूल्यांकित करने की तब लाजमी हो जाता है कहानी को एक साहित्यिक रूप में समझना| महाकवि ने लगभग दो दर्जन के करीब कहानियाँ लिखीं पर क्या वजह है कि निराला को जितनी ख्याति कवि रूप में मिली, कहानीकार के रूप में नहीं? क्या उनकी कहानियाँ मनोरंजन नहीं करतीं अथवा शिल्प की दृष्टि से कमजोर हैं? क्या निराला की कहानियाँ सार्थक नहीं? या निराला एक सफल कहानीकार नहीं? एक और बात पर गौर करें तो देखेंगे कि निराला ने जितनी कविताएँ लिखीं, कहानियाँ उस मात्रा में कम लिखीं| किन्तु गुलेरी जी मात्र तीन कहानियाँ लिख कर हिंदी साहित्य में अमर हो गए तो निराला ने तो कुल चौबीस कहानियाँ लिखी हैं| अतः संक्षेप में निराला की कहानियों का जिक्र करना यहाँ जरूरी हो जाता है कि क्या वजह है कि उनकी कविताएँ जितना प्रभावित करती हैं उतनी कहानियाँ नहीं?

     
निराला जी 
निराला का पहला कहानी-संग्रह 1933 ई० में प्रकाशित हुआ| इस समय छायावादी साहित्य अपने उत्कर्ष-स्तर पर था| कहानी के क्षेत्र में प्रेमचंद जैसे मूर्धन्य कहानीकार प्रतिष्ठित हो चुके थे| हिंदी साहित्य में प्रगतिशील मूल्य आकार ग्रहण कर रहे थे| साथ ही साहित्यिक विधाओं के मूल्यांकन का शास्त्र भी निर्मित हो गया था| निराला के उपन्यासों के ही तर्ज पर उनकी कहानियों को भी दो कोटि में रखा गया है| 1936 से पहले का कथा-साहित्य एवं 1936 के बाद का कथा साहित्य| ‘अप्सरा’, ‘अलका’, ‘प्रभावती’, ‘निरुपमा’ 1936 से पहले के उपन्यास हैं इसी प्रकार निराला की प्रारंभिक कहानियाँ मानो उनके उपन्यासों का ही छोटा रूप हैं| लगभग सभी स्त्री-प्रधान कहानियाँ हैं| जिनमें रोमैंटिक एवं सुधारवादी पद्धति अपनाई गई है| कहानी की नायिकाएँ प्रायः सभी सोलह साल की अधखिली कलियाँ हैं और नायक या तो बड़े बाप का बेटा है या पढ़-लिख कर खुद उतना ही बड़ा बन जाता है| प्रेमचंद के प्रारंभिक आदर्शवादी तत्व हमें यहाँ भी मिल जाते हैं| निराला की नायिकाओं के कुछ चित्र देखिए-“ पद्मा के चन्द्रमुख पर षोडश कला की शुभ्र चन्द्रिका अम्लान खिल रही है| एकांत-कुञ्ज की कली सी प्रणय के वासन्ती मलय स्पर्श से हिल उठी विकास के लिए व्याकुल हो रही|”
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“ कमला सोलहवें साल की अधखुली कलिका है| हृदय का रस अमृत-स्नेह से भरा हुआ, खुली नावों सी आँखें चपल लहरों पर अदृश्य प्रिय की ओर परा और अपरा की तरह बही जा रही है|”3 इन सभी चित्रों में उनकी छायावादी कविताओं की स्पष्ट छाप है| कवि प्रसाद भी जब गद्य लिखते हैं तो ऐसी ही तत्सम प्रधान काव्यात्मक भाषा का प्रयोग करते हैं किन्तु निरला की कहानियों में प्रकृति चित्रण एवं नायिकाओं के रूप चित्रण में जो काव्यात्मक भाषा मिलती है वह पूरी कहानी पर प्रक्षेपित नहीं है| वहीं प्रसाद के नाटकों में सभी पात्र, सभी वर्णन काव्यात्मक ही नजर आते हैं| निराला की कविताओं में जो डाईमेंशन भाषा, छंद, विषय को लेकर है वही उनकी कहानियों में भी दीखता है| हिंदी कथा-साहित्य में निराला ने छायावादी नायिकाओं की उपस्थिति दर्ज करायी| इसी तरह निराला जब प्रकृति का वर्णन करते हैं तो पाठक के सामने एक चित्र सा प्रस्तुत हो जाता है| यथा- “ जेठ का महीना, सूरज डूब रहा है| जोरों से बहती हुई मलय वायु में षोडशी का स्पर्श मिलता है| यह अकेली दक्षिणी हवा बंगाल की आधी कविता है|”4 प्रकृति  के भीषण रूप का चित्रण भी निराला करते हैं-“ कृष्णा की बाढ़ बह चुकी है, सुतीक्ष्ण, रक्तलिप्त अदृश्य दाँतों का लाल जिह्व योज्नों तक, क्रूर, भीषण मुख फैलाकर प्राण-सुरा पीती हुई मृत्यु तांडव कर रही है| सहस्त्रों गृहशून्य, क्षुधा-क्लिष्ट, निःस्व, जीवित कंकाल साक्षात प्रेतों से इधर-उधर घूम रहें हैं| आर्तनाद, चित्कार, करुणानुरोधों में सेनापति अकाल की पुनः पुनः शंख-ध्वनि हो रही है|”5 प्रकृति का मनोरम चित्र हो अथवा भीषण, निराला के कवि रूप का स्पष्ट प्रभाव है यहाँ|


सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की अधिकतर कहानियां प्रायः नायिका प्रधान हैं| ‘पद्मा और लिली’, ‘सखी’, ‘ज्योतिर्मयी’, ‘कमला’, ‘श्यामा’, ‘देवी’, ‘हिरनी’, ‘पुष्कर-कुमारी’, ‘चंपा’ ये सभी नारी-पात्र हैं जो अपनी-अपनी समस्याओं से ग्रस्त हैं| ‘पद्मा और लिली’ की नायिका जहां जाति-बंधन तोड़कर विवाह नहीं कर सकती वहीं ‘सुकुल की बीवी’ की पुष्कर-कुमारी दूसरे धर्म में विवाह कर सकती है| पद्मा ने इसका समाधान अखंड ब्रह्मचर्य में ढूंढा तो पुष्कर कुमारी कथावाचक की सहायता से सुकुल से विवाह करती है| जाहिर है ‘लिली’ कहानी के लेखन व ‘सुकुल की बीवी’ कहानी के लेखन में सात साल का अंतर है| ‘लिली’ कहानी में निराला पर गांधी जी के आदर्शवाद का स्पष्ट प्रभाव है| ‘सखी’ कहानी में भी परोपकार का एक पक्ष सामने आता है| निर्धन लीला की सखी का आशिक हिंदी फ़िल्मों की तरह लीला को गुंडों से बचाता है| लीला की सखी इसी से लीला के विवाह का प्रस्ताव करती है| ‘कमला’ कहानी की नायिका पति द्वारा तिरस्कृत होने के बाद उसकी बहन की धर्म-रक्षा के लिए अपने भाई से उसका विवाह करा देती है| इस पर पति के वापस बुलाने का प्रस्ताव आने पर भी स्वीकृत नहीं करती| इस तरह हम देखते हैं कि निराला की नायिकाएँ एक सशक्त पात्र के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत होती हैं| एक अन्य कहानी ‘न्याय’ में भी जब नायक एक घायल आदमी को घर लाने के कारण पुलिस के चंगुल में फंस जाता है| तब अप्सरा की तरह उसकी सहपाठिनी प्रेमिका अपनी विलक्षण बुद्धि से उसे छुड़ा लाती है| इसी प्रकार प्रतिशोध की आग में जलती हुई श्यामा भी अपने पिता के अपमान का बदला पंडित दयाराम से अपने पति के सहयोग से लेती है| इसी तरह का प्रतिशोध ‘सफलता’ के नायक ने भी अपने विरोधियों से लिया| साहित्यकार नरेंद्र के माध्यम से निराला ने अपनी पीड़ा भी व्यक्त की है| पैसों का मोहताज नरेंद्र अपनी प्रेमिका को अपने साथ नहीं रख सकता| प्रकाशक की उपेक्षा से नरेंद्र आभा के साथ दिल्ली आ जाता है एवं उसे गीत-संगीत आदि की शिक्षा दिलाकर कर बढ़ते-बढ़ते अभिनेता से कम्पनी का मालिक बन जाता है| जब नरेंद्र वापस उसी नगर पहुँचता है तो उसी प्रकाशक के आग्रह पर उसे मुंहतोड़ जवाब देता है-“ बाबू धनीरामजी! मैं छः महीने में एक किताब लिखता था पर उसके लिए आपने मुझे पन्द्रह रुपया सैकड़ा भी नहीं दिया|”6 

इसी प्रकार ‘अर्थ’ का नायक राजकुमार उपन्यासकार है| पिता की मृत्यु के बाद वो निर्धन हो जाता है| वह धर्म में आस्था रखता है| वह चित्रकूट जाता है एवं रामचंद्र जी का स्मरण करता है| स्वप्न में भगवान उसे अर्थ प्रदान करते हैं| इस प्रकार एक धार्मिक कथा की तरह ही उसके ‘दिन फिर जाते हैं’ और चार साल में ही वह उपन्यासकार के रूप में ख्याति प्राप्त कर लेता है| धार्मिक आस्था की कहानी ‘भक्त और भगवान’ में भी निराला ने प्रस्तुत की है| कहानी का भक्त प्रश्न करता है कि-“ ये गरीब मरे जा रहे हैं, इनके लिए क्या होगा?” महावीर जी उत्तर देते हैं- “ इन्हें वही उभाड़ेगा जो वहाँ के राजा को उभाड़ता है| तुम अपने में रहो, दूर मत आओ|”7 इस तरह भक्त और भगवान कहानी के माध्यम से निराला ने वस्तुतः अपने जीवन के अकाल और महामारी को प्रस्तुत किया है| भक्त की पत्नी का स्वर्गवास हो जाता है यथा निराला की पत्नी का भी| पड़ोस की एक भाभी उसकी प्रशंसा में कहती है—“ भैया, ऐसी देवी तुम्हें दूसरी नहीं मिल सकती, चाहे तुम दुनिया देख डालो|”8 इस प्रकार ‘चतुरी’ भी निराला की पत्नी की प्रशंसा में कहता है—“ तुम ब्याह करते नहीं, नहीं तो तेरह काकी आ जाएँ, हां वैसी तो . . . |”9 वैसी तो के आगे की रिक्तता काकी जैसी मिलना मुश्किल है की तरफ़ संकेत करती है| आगे चतुरी निराला की पत्नी की और तारीफें करता है| इस तरह हम देखते हैं कि निराला ने अपने जीवन के कुछ पक्षों को कथा के माध्यम से भी व्यक्त किया है|

निराला ने मुख्यतः आत्मकथात्मक शैली में कहानियाँ लिखी हैं| ‘चतुरी-चमार’, देवी’, ‘राजा साहब को ठेंगा दिखाया’, ‘प्रेमपूर्ण तरंग’, ‘स्वामी सारदानंद जी महाराज और मैं’, ‘क्या देखा’, ‘सुकुल की बीवी’ इत्यादि में कथावाचक के रूप में लेखक की उपस्थिति दर्ज है| 1936 के पूर्व की कहानियों पर जहां रुमानियत का प्रभाव है वहीं 1936 के बाद की कहानियाँ यथार्थवादी हैं| आत्मकथात्मक शैली में लिखी निराला की कहानियाँ उन बड़े लेखकों की कहानियों से ज्यादा श्रेष्ठ हैं जिसमें कथावाचक मुख्य हो जाता है बाकी के पात्र गौण| बाकी के पात्र कथावाचक के चरित्र के आगे फीके नजर आते हैं| जबकि निराला एक तटस्थ वक्ता की तरह कथा का पूरा कलेवर प्रकाश में ले आते हैं| इसमें कथावाचक कहानी का पात्र हो कर भी दूसरे की संवेदना का अपहरण नहीं करता, बल्कि उसे वह और भी उद्भाषित कर देता है, पाठकीय संवेदना का आधार बना देता है| अपनी ‘मैं’ शैली में लिखी कहानियों में निराला अपनी बेलाग आत्मालोचना भी प्रस्तुत करते है| ‘मैं’ शैली के अहम् में अधिकतर कहानीकार ‘मैं’ को सर्वग्य एवं सर्वव्यापी भी बना देते हैं|

      ‘देवी’ कहानी की शुरुआत ही निराला आत्मालोचना से करते हैं| यह कहानी निराला के मोहभंग संबंधी प्रक्रिया का मर्मांतक दस्तावेज है| इसमें उन्होंने पुनरुत्थानवादी, हिन्दुस्तानी सभ्यता के संकीर्णमना दावेदारों और जीवन तथा साहित्य के क्षेत्रों में दोगले मानदंडो का पालन करने वाले तथाकथित सभ्य समाज पर चोट किया है| निराला निर्णायक रूप से संकल्प लेते है कि अब जरुर संभलूँगा| ‘देवी’ कहानी का यह प्रारम्भ निराला की मनःस्थितियों और सौन्दर्याभिरुचियों में जो गुणात्मक बदलाव आया है उसका सूचक है| इस सन्दर्भ में डॉ० रामविलास शर्मा लिखते है –‘‘देवी का व्यंग एक पूरे आंदोलन पर है, यह व्यंग छायावादी कवि के बड़प्पन पर है, जो विराट की पुकार करता हुआ साधारण जनों की महत्ता भूल जाता है| ‘देवी’ एक अति साधारण पगली स्त्री है| उसमें मातृत्व की भावना भी जागृत है| इसके आगे कवि का अहंकार अति क्षुद्र मालुम होता है| पगली का जीवन कवि पर ही नहीं, समाज के नेतओं, उसके संचालकों, उसकी संस्कृति, कला और साहित्य सभी पर एक तीखा व्यंग्य बन जाता है|”10 निराला का व्यंग्य रामविलास शर्मा को अंग्रेज़ी कवियों में बायरन की याद दिलाता है| छायावादी नायिकाओं का अति रूमानी चित्रण करने वाला कवि एवं कथाकार जहां ‘रानी और कानी’, ‘विधवा’ एवं ‘तोड़ती पत्थर’ जैसी कविताएं लिख कर अपनी काव्य प्रतिभा के कई आयामों को उद्घाटित करता है वहीं ‘देवी’ भी इसी कड़ी की निराला की श्रेष्ठ रचना है| इन चरित्रों में प्रस्तुत व्यंग इतना प्रभावपूर्ण है की यहां एक पात्र के माध्यम से पूरे समाज को लक्ष्य किया गया है| जहां मुफ्तखोरों का बोलबाला है| पूजनीय पात्र ठोकरे खाते हैं| समाज का क्रूरतम यथार्थ चित्रित है| धर्म, राजनीति, समाज-सुधार की आड़ में न जाने कितने सत्ता में बैठे लोग अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे है| पगली का ध्यान ही कथावाचक का ज्ञान हो जाता है| पगली यद्यपि गूंगी है लेकिन उसकी “मौन महिमा आकार, इंगितों की बड़े-बड़े कवियों ने कल्पना नहीं की होगी| भाव भाषण मैंने पढ़ा था, दर्शनशास्त्र में मानसिक सूक्ष्मता के विश्लेषण देखे, रंगमंच पर रवीन्द्रनाथ का किया अभिनय देखा था,..... बच्चा माँ को कुछ कहकर न पुकारता था, केवल एक नजर देखता था, जिसके भाव में वह माँ को क्या कहता आप समझिए; उसकी माँ समझती थी, तो क्या पगली और गूंगी थी?"11 माँ और बच्चे के मौन संवाद को निराला समझने और समझाने का अद्भुत प्रयत्न करते हैं| जहां ‘देवी’ पूरे भारत की निर्धनता एवं उसका बच्चा भारत के भविष्य का प्रतीक बन जाता है| यह निराला की अति महत्वपूर्ण कहानी है| भाषा में बहुत सी विद्रूपता, व्यंगात्म्कता एवं विडंबना है| कहानी की शुरुआत में आत्मालाप एवं मुहावरेदार भाषा का प्रयोग है| संगम लाल को ‘संग’- ‘मलाल’- पुकारना निराला के भावबोध का एक पक्ष है| सहते-सहते देवी को दुःख का अहसास ही नहीं होता जैसे अमरकांत के पात्र रजुआ (जिंदगी ओर जोंक )को| बच्चे का इतिहास लेखक मात्र दो पंक्तियों में बता देते हैं| इस तरह कई जगह रेखाचित्र की भी छाप हमें कहानी में दिखाई देती है| निराला अपनी भावनाओं को देवी के माध्यम से दर्शाते हैं| इस कारण उनकी कहानियों पर विचार प्रधान होने का आरोप भी लगता है|

      निराला की किस्सागोई का एक बेजोड़ नमूना ‘राजा साहब को ठेंगा दिखाया’ एक लघु कथा है| इसमें निराला परिदृश्य के माध्यम से एक सामंती वातावरण प्रस्तुत करते हैं| कहानी का पहला अनुच्छेद कहानी को समझने की ओर संकेत है| इस कहानी में शासन का चरित्र उजागर होता है कि हमारा प्रतिनिधि राजा इतना बेवकूफ है कि ब्राह्मण की तीन प्रतिक्रियाएं नहीं समझ पाया| बात देखने में बहुत सीधी थी लेकिन इतनी सीधी होती तो विश्वम्भर की ये गति न होती इस तरह निराला यह बतलाना चाहते हैं कि भाषा एक छद्म रूप है, उसका मात्र अभिधेयार्थ ही नहीं होता| अलग-अलग सदर्भों एवं भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में व्यक्ति उसके कई अर्थ आयामों को उद्घाटित कर सकता है|

      निराला की सर्वाधिक चर्चित एवं महत्वपूर्ण कहानी है ‘चतुरी-चमार’| वर्तमान समय में निम्नवर्गीय-विमर्श की दृष्टि से उल्लेखनीय कहानी है| कहानी की शुरुआत निराला वर्णात्मक पद्धति में करते हैं-“चतुरी चमार डाकखाना चमियानी मौजागढाकोला, जिला उन्नाव का एक कर्दायी बाशिंदा है|12 ‘कुकुरमुत्ता’ को साहित्य में प्रतिष्ठित करने वाले निराला ने चतुरी की अलौकिक शक्ति को पहचाना और उसे अपनी कहानी का विषय बनाया| चतुरी जमींदारों और ऊँचे वर्णों के जाल में फंसा है, इस “जाल को वह काटना चाहता है, भीतर से इसका पूरा जोड़ उमड़ रहा है पर एक कमजोरी है, जिसमें बार-बार उलझ कर रह जाता है|”13 निराला जुर्म करने वालों को कटुक्ति तो कहते हैं साथ ही जुर्म सहने वालों की दुर्बलता की ओर भी इशारा करते हैं| चतुरी को इस बात का मलाल है कि उसे जमींदार के सिपाही को हर साल एक जोड़ी जूता देना पड़ता है| निराला सार निकालते हैं कि ‘चमार दबेंगे तो ब्राहमण दबाएंगे’| अतः दोनों की जड़ें माँर दी जाए पर यह सहज-साध्य नहीं| इससे स्पष्ट है कि निराला समतावादी समाज की कल्पना करते हैं| निराला चतुरी की सहायता करते हैं| जमींदार को किसानों के खिलाफ डीग्री मिल जाती है तो चतुरी मुकदमा लड़ता है| ध्यातव्य है कि प्रेमचंद भी गरीब-भूखे किसान-मजदूर वर्ग के आंदोलन (कर्मभूमि, गोदान) अथवा शोषण से मुक्ति के ठीक यही उपाय निकालते हैं| मध्यवर्गीय बौद्धिक वर्ग के प्रोत्साहन से ही इनके सत्याग्रह का पथ प्रदर्शित होता है| निराला चाहते हैं कि गाँव के किसान संगठित होकर जुल्म का विरोध करें पर ऐसा नहीं होता| यहाँ पर निराला प्रेमचंद से ज्यादा यथार्थवादी दृष्टि अपनाते हैं| अंततः चतुरी जीत जाता है| ‘न्याय’ कहानी में भी निराला ने पुलिस की न्याय प्रणाली का नक्शा खींचा है| हत्यारा तो भाग जाता है लेकिन मददगार पकड़ा जाता है स्वतंत्रता के बाद की न्याय-व्यवस्था का यही चरित्र है|

      चतुरी निराला के लिए अति महत्वपूर्ण है क्योंकि वह समाज के लिए उपयोगी है| ततकालीन किसान आंदोलन एवं कांग्रेस की भूमिका का प्रभाव भी इस कहानी पर दीखता है| राष्ट्रीय आंदोलन की एक लहर उसके जीवन से भी टकराती है| वह पढ़ा-लिखा न होकर भी बुद्धिमान है, विद्या प्राप्त करने की उसकी इच्छा है| इसलिए वह अपने बेटे को निराला से शिक्षा दिलाता है| अकेले अपने दम पर वह जमींदार के शोषण से मुक्ति पा लेता है जिस दिन चतुरी जैसे साधारण व्यक्ति को अपने अधिकार का, अपने मनुष्यत्व का ज्ञान हो जाता है, उस दिन उसमें असाधारण शक्ति आ जाती है| अब्दुल-अर्ज में जूतों के दर्ज न होने पर चतुरी को जो खुशी होती है, वह इसलिए कि उसकी गुलामी मिट रही है| इस तरह निरर्थक प्रतीत होने वाले चतुरी के जीवन में वर्तमान शक्ति और सौंदर्य दिखाकर जीवन की सार्थकता की आशा बंधाई गई है|

निराला की कहानियों में समाज में व्याप्त लोक-रूढियां, अन्धविश्वास इत्यादि भी दिखाई देता है| ‘देवर क इंद्रजाल’ भी ‘मैं’ शैली में लिखी ऐसी ही कहानी है| यह एक छोटी सी कहानी है जिसमें सामाजिक नैतिकता एवं काम संबंधों के बीच की आपसी समझ का जिक्र है| इसमें रिपोर्ताज, रेखाचित्र, संस्मरण का आभास मिलता है|

सम्पूर्णता में देखें तो निराला ने प्रायः समाज के प्रत्येक स्तर को अपनी कहानियों में स्पर्श किया है| लगभग आधी दर्जन कहानियों में पीड़ितों की गाथा है| जहां प्रथम चरण की कहानियां एक आदर्श प्रस्तुत करती हैं वहीँ दूसरे चरण की कहानियां यथार्थवादी हैं| स्त्री पात्रों की प्रधानता है| निराला ने मुख्यतः दो पद्धतियाँ अपनाई हैं एक ऐतिहासिक दूसरी आत्मचरित् पद्धति | कुछ पत्र शैली में भी हैं जैसे- ‘प्रेमिका परिचय’, ‘सखी’, ‘प्रेमपूर्ण-तरंग’, ‘क्या देखा’ आदि| ‘सुकुल की बीवी’, ‘कला की रुपरेखा’, ‘क्या देखा’, ‘चतुरी-चमार’, ‘प्रेमपूर्ण-तरंग’ आदि में संस्मरण के तत्व की प्रधानता है| किन्तु कहानीपन के गठन व तंत्र की वजह से यह शुद्ध कहानियाँ हैं|

      निराला की कहानियों में संरचना, शिल्प प्रमुख नहीं है| इसलिए उसमें आरम्भ, चरमोत्कर्ष और अंत, कथानक के इन तीन महत्वपूर्ण स्थलों का कलात्मक संयोजन नहीं है| समग्र प्रभाव की दृष्टि से ही निराला की कहानियाँ परीक्षणीय है| निराला ने अपनी खुद की शर्तों पर अपनी कथाएं को एक अलग रूप दिया है| किसी बने बनाए मानदंडों पर खरा उतरने के लिए नहीं| इसीलिए उनकी कहानियों की बनावट एवं बुनावट भी ‘निराली’ है| कविताओं में ‘छंद-मुक्ति’ का आग्रही कवि भला कथाओं में लीक पर कैसे चल सकता है?

      उनकी अधिकांश कहानियों का आरम्भ इतिवृत्तात्मक, चित्रात्मक, नाटकीय भूमिका के साथ अलग तरह का होता है| निराला ने कहानी के अंत पर भी ध्यान नहीं दिया, ऐसा लगता है कभी कोई बात, घटना, विचार, ध्यान में आया उसे ही पृष्ठ पर उतार दिया| प्रायः समस्या का समाधान दे दिया गया है| ‘देवी’, ‘राजा साहब को ठेंगा दिखाया’ कहानी इसके अपवाद हैं| ‘राजा साहब को ठेंगा दिखाया’ कहानी से हिंदी साहित्य में आधुनिक जनवादी कहानी की शुरुआत मानी जा सकती है| अधिकांश कहानियाँ कौतुहल जगाए रहती हैं|

      कहानी जीवन के टुकड़े में निहित अन्तःविरोध, द्वंद्व, संक्रांति अथवा क्राईसिस को पकड़ने की कोशिश करती है| वह वर्तमान समाज के व्यापक अंतर्विरोधों की ओर संकेत करती है| ‘देवी’, ‘चतुरी-चमार’,   ‘राजा साहब को ठेंगा दिखाया’ कहानी समाज की विडंबना को तो प्रस्तुत करती है पर द्वंद्व, संक्रान्ति, तनाव आदि की दृष्टि से कमजोर है| प्रेमचंद की ‘कफ़न’, ‘सवा सेर गेहूं’, प्रसाद की ‘गुंडा कहानियों की तरह पाठक को अंदर तक झकझोरती नहीं|

प्रायः निराला की कहानियाँ एकोंमुखी हैं| कहानियों में स्वाभाविकता की जगह आकस्मिकता सर्वत्र है| ‘क्या देखा’ में जासूसीपन स्पष्ट है| पात्र भी आरम्भ से अंत तक अपने मूल रूप में रहते हैं| मुख्यतः स्वाभाविक वार्तालाप का प्रयोग हैं पर आरंभिक कहानियों में थोपी हुई भाषा, कथोपकथन का स्पष्ट छाप मिलता है| निराला भाषा की दृष्टि से कविताओं की तरह ही अतिवादी नजर आते हैं| कभी तत्सम प्रधान शैली का प्रयोग करते हैं तो कभी ठेठ गवईं भाषा का| अरबी-फारसी एवं अंग्रेजी शब्द तो प्रायः सभी कहानियों में नजर आते हैं| अधिकतर वैयक्तिक एवं पारिवारिक रूप को रचनाओं में अधिक स्थान दिया है| जो यथार्थ की अपेक्षा ठहरे हुए लगता हैं|

कविता उपाध्याय 
तदर्थ प्रवक्ता 
सत्यवती कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय
ई-मेल kavitajnu7@gmail.com
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एक कहानीकार के रूप में निराला ने बंधी- बंधाई कहानी के फॉर्म को तोड़ा| निराला ने अपनी रचनात्मक शक्ति से उसे विस्तार दिया| कहानी का यह नया ट्रेंड आगे के कथाकारों ने नहीं अपनाया| निराला की कविताओं में जो अंतर्वस्तु है, विविध आयाम है, भाषा, छंद इत्यादि सभी आगे के कवियों ने अपनाया|

      एक समर्थ कहानीकार किस प्रकार छोटी से छोटी घटना में अर्थ के स्तर-स्तर उद्घाटित करता हुआ उसकी व्याप्ति को मानवीय सत्य की सीमा तक पहुंचाता है, इसी अर्थ गर्भत्व में ही कहानी की सार्थकता है| इस दृष्टी से ‘चतुरी’, देवी’, ‘दो दाने’, ‘राजा साहब को ठेंगा दिखाया’ कहानी निराला की श्रेष्ठ रचनाएं हैं| पर एक जागरूक कहानीकार जीवन के प्रत्येक प्रसंग में निहित अंतर्विरोध को पकड़कर उसे सार्थकता प्रदान करता है| यहीं निराला कुछ कमजोर नजर आते हैं| जहां प्रसाद एवं समकालीन कहानीकारों के पात्रों में अंतर्द्वंद्व है, त्रिकोण का द्वंद्व है वहीं निराला की कहानियां मात्र समस्या-प्रधान हैं| वस्तु की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं| अपितु शिल्प की दृष्टि से कुछ कमजोर हैं|


                                                सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची
1.      कहानी नयी कहानी- डॉ० नामवर सिंह, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण-2006, पृष्ठ संख्या -18
2.      निराला रचनावली-4- लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ संख्या -282
3.      वही, पृष्ठ संख्या -296
4.      चतुरी चमार- सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला’, राजकमल प्रकाशन-2010, पृष्ठ संख्या -44
5.      कुल्ली-भाट-  सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला’, राजकमल प्रकाशन-2007, पृष्ठ संख्या -128
6.      चतुरी चमार- सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला’, राजकमल प्रकाशन-2010, पृष्ठ संख्या -85
7.      वही, पृष्ठ संख्या -95
8.      वही, पृष्ठ संख्या -92
9.      वही, पृष्ठ संख्या -13
10.   निराला : रामविलास शर्मा, राधाकृष्ण प्रकाशन-2007, पृष्ठ संख्या -109
11.  चतुरी-चमार- उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या -53
12.  वही, पृष्ठ संख्या -11
13.  वही, पृष्ठ संख्या -16

            अन्य सहायक-ग्रन्थ

1. निराला साहित्य सन्दर्भ-संपादक-सुधाकर पाण्डेय, हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग-1973 
2. साहित्य स्रष्टा निराला- राजकुमार सैनी,पीपुल्स लिटरेसी दिल्ली-1981
3. निराला-संपादक- इंद्रनाथ मदान,लोकभारती प्रकाशन-2004
4. हिंदी कहानी प्रक्रिया और पाठ-सुरेन्द्र चौधरी,राधाकृष्ण प्रकाशन-1995

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