चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-20,(अक्टूबर,2015 )
(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-20,(अक्टूबर,2015 )
अपनी माटी विशेष:भारतीय सिनेमा में दलित आदिवासी विमर्श
सम्पादन:पुखराज जांगिड़ और प्रमोद मीणा , चित्रांकन:डिम्पल चंडात
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5-6 अक्टूबर 2015 को पांडिचेरी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा भारतीय
सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद् के सहयोग से ‘हिंदी
सिनेमा : दलित और आदिवासी विमर्श’ विषय पर दो दिवसीय
राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजित हुई। इसका शुभारम्भ पांडिचेरी विश्वविद्यालय की
कुलपति प्रो. अनीशा बशीर खान और ‘जनसत्ता’ के पूर्व संपादक ओम थानवी ने नागराज मंजुले, दिलीप मंडल, प्रो.
श्योराज सिंह बेचैन, प्रो. विजयलक्ष्मी व उद्घाटन-सत्र की अध्यक्षा डॉ. एस.
पद्मप्रिया के साथ मिलकर किया। स्वागत-वक्तव्य में प्रो.
विजयलक्ष्मी ने बताया कि 1994 में जब मेरी नियुक्ति हुई तब हिंदी विभाग संस्कृत
विभाग के साथ संचालित हुआ करता था। उद्घाटन-सत्र के संचालक और संगोष्ठी-समन्वयक डॉ.
प्रमोद मीणा ने बताया कि हमलोग इस संगोष्ठी के लिए पिछले ढाई साल से प्रशासन के
साथ जूझ रहे थे, इसलिए इसके आयोजन में आने वाली दुश्वारियां स्वयं प्रशासन और
समाज के जातीय दुराग्रहों और संगोष्ठी की प्रासंगिकता, दोनों की सूचक हैं। कुलपति
प्रो. अनीशा बशीर खान ने कहा कि अगर हमारे देश को समावेशी और ठोस तरक्की करनी है
तो उसे दलितों और आदिवासियों को साथ लेकर चलना होगा।
उद्घाटन वक्तव्य में सिनेमर्मज्ञ ओम थानवी ने दलित-आदिवासी समाज को जागरूक करने में फिल्मों की भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा कि फिल्में वंचित समुदाय तथा उच्चवर्ग के बच्चों की मन:स्थितियों के अंतराल को अधिक स्पष्टता से अभिव्यक्त करती है और उनका काम संवेदना का परिष्कार करना होता है, न कि ज्यादा बोलना। ‘इंडिया टुडे’ के पूर्व संपादक दिलीप मंडल ने अपने बीजवक्तव्य में सिनेमा में दलितों- आदिवासियों की सहभागिता के संदर्भ में ‘हॉलीवुड डाइवर्सिटी रिपोर्ट’ के आधार पर हॉलीवुड और बॉलीवुड की तुलना करते हुए कहा कि यह अत्यन्त चिन्तनीय है कि आजादी के छः दशक बाद भी हिंदी और हिंदीतर फिल्मों में दलितों और आदिवासियों को न तो उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व मिल रहा है और न वे सिनेमा उद्योग में अपेक्षित पहचान पा सके हैं। ओम थानवी के साथ उन्होंने सबका ध्यान इस ओर दिलाया कि पूरे भारत में दलित और आदिवासी सिनेमा पर होने वाली यह पहली राष्ट्रीय संगोष्ठी है। ‘फैंड्री’ फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त निर्देशक नागराज मंजुले ने एक दलित फिल्मकार के रूप में अपने जीवन की कठिनाइयों, पहचान से जुड़े संघर्षों और फिल्म निर्माण की समस्याओं पर अनुभव साझा किए। प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन ने अपने विद्यार्थी जीवन के सिनेमाई अनुभव साझा करते हुए कहा कि दलित-आदिवासी सिनेमा के विकास के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि अन्य विषयों के साथ-साथ दलित-आदिवासी विषयों पर केन्द्रित कहानियों पर भी फ़िल्मों का निर्माण हो और इसके लिए पहल स्वयं दलित-आदिवासी फिल्मकारों को करनी चाहिए।
कुलमिलाकर संगोष्ठी कई मामलों में ऐतिहासिक रही। एक, गोष्ठी पूरी तरह
अकादमिक रही, जबकि आमतौर पर ऐसा हो नहीं पाता। आप कितना भी बचें, कोई-न-कोई राजनीतिक/प्रशासनिक अधिकारी अपनी टाँग-पूंछ
अड़ा ही देता है। दो, इसमें स्त्री विमर्शकारों (दलित, आदिवासी,
पिछड़ी व अल्पसंख्यक सहित), दलित, आदिवासी,
पिछड़े और अल्पसंख्यक विद्वानों-शोधार्थियों की बड़ी संख्या में
बहसतलब भागीदारी हुई, जो अन्यत्र दुर्लभ होती है। जहाँ तक मुझे याद है किसी
राष्ट्रीय संगोष्ठी में ऐसा पहली बार हुआ है, जो अपने आपमें बड़ी उपलब्धि है। तीन,
इसने युवाओं की बौद्धिक क्षमता पर विश्वास दर्शाया (आमन्त्रित वक्ताओं में आधे से
अधिक विद्वान 40से कम उम्र के थे), जबकि भारतीय
विश्वविद्यालयीय परम्परा इसके उलट रही है। चार, आमतौर पर ऐसी गोष्ठियों में एक वक्ता
के व्याख्यान के बाद (सत्र विशेष के अध्यक्ष की मौजूदगी में बल्कि उनकी शह में), अन्य
विरोधी वक्ता पूर्ववक्ता के विचारों का मखौल उड़ाते नजर आते हैं, लेकिन इस गोष्ठी में यह कु-परम्परा पूर्णतः ध्वस्त हुई। (उद्घाटन-सत्र में
दिलीप मंडल ने हॉलीवुड द्वारा जारी ‘विविधता-रपट’ के माध्यम से वहाँ के सिनेमा के सन्दर्भ में बताया कि अमरीकी सिनेमा-जगत ने
अपनी सामाजिक-संरचना (स्त्री-पुरूष, काले-गोरे, अमरीकी-एशियाई, आदि) को समझते हुए उसपर काबू पाया और
आज वहाँ की सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्में और टेलीविजन धारावाहिक वे हैं, जिनमें पूरा
अमरीकी समाज (स्त्री-पुरूष, गोरे-काले, एशियन-योरोपीय, आदि) शामिल है। लेकिन बाद
में जब अन्य वक्ताओं ने उसे गलत सन्दर्भों में जोड़ा तो उस सत्र-विशेष के अध्यक्ष प्रो.
श्यौराजसिंह बेचैन ने हस्तक्षेप
करते हुए दिलीप मंडल को पुनः अपनी बात रखने के लिए आमन्त्रित किया, तिस पर मैंने सभागार में अपने अगल-बगल बैठे लगभग सभी
विद्वजनों से कानाफूसी की शैली में यही सुना कि ‘यह ठीक नहीं
है।’ यह ऐसी घटना थी, जिसकी कल्पना भारतीय
अकादमिक जगत में असम्भव है और ऐसा संभव हुआ मंचीय विविधता के कारण।
पाँचवा, इसमें खुलकर जाति और सिनेमा के रिश्ते पर बात हुई, भारतीय विश्वविद्यालयों द्वारा आयोजित गोष्ठियों में इसकी सम्भावना कम ही होती है। अगर ऐसा होता भी है तो उस पर बोलने वाले वह नहीं होती, जिनकी पीड़ा पर वह बात कर रहे होते हैं। कुल मिलाकर इस गोष्ठी ने जो अर्जित किया वह अनुकरणीय है। इसके लिए आयोजकों (विशेष रूप से संगोष्ठी-समन्वयक डॉ. प्रमोद मीणा) का आभार। आपने वो कर दिखाया, जिसकी कल्पना उत्तरभारतीय विश्वविद्यालयों में असम्भव है। सम्भव है भविष्य में हम इससे सीखें, सीखना ही होगा - 'जाके पैर न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई।'
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दलित-आदिवासी सिनेमा पर पहली राष्ट्रीय संगोष्ठी
पुखराज जाँगिड़
उद्घाटन वक्तव्य में सिनेमर्मज्ञ ओम थानवी ने दलित-आदिवासी समाज को जागरूक करने में फिल्मों की भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा कि फिल्में वंचित समुदाय तथा उच्चवर्ग के बच्चों की मन:स्थितियों के अंतराल को अधिक स्पष्टता से अभिव्यक्त करती है और उनका काम संवेदना का परिष्कार करना होता है, न कि ज्यादा बोलना। ‘इंडिया टुडे’ के पूर्व संपादक दिलीप मंडल ने अपने बीजवक्तव्य में सिनेमा में दलितों- आदिवासियों की सहभागिता के संदर्भ में ‘हॉलीवुड डाइवर्सिटी रिपोर्ट’ के आधार पर हॉलीवुड और बॉलीवुड की तुलना करते हुए कहा कि यह अत्यन्त चिन्तनीय है कि आजादी के छः दशक बाद भी हिंदी और हिंदीतर फिल्मों में दलितों और आदिवासियों को न तो उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व मिल रहा है और न वे सिनेमा उद्योग में अपेक्षित पहचान पा सके हैं। ओम थानवी के साथ उन्होंने सबका ध्यान इस ओर दिलाया कि पूरे भारत में दलित और आदिवासी सिनेमा पर होने वाली यह पहली राष्ट्रीय संगोष्ठी है। ‘फैंड्री’ फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त निर्देशक नागराज मंजुले ने एक दलित फिल्मकार के रूप में अपने जीवन की कठिनाइयों, पहचान से जुड़े संघर्षों और फिल्म निर्माण की समस्याओं पर अनुभव साझा किए। प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन ने अपने विद्यार्थी जीवन के सिनेमाई अनुभव साझा करते हुए कहा कि दलित-आदिवासी सिनेमा के विकास के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि अन्य विषयों के साथ-साथ दलित-आदिवासी विषयों पर केन्द्रित कहानियों पर भी फ़िल्मों का निर्माण हो और इसके लिए पहल स्वयं दलित-आदिवासी फिल्मकारों को करनी चाहिए।
संगोष्ठी के पहले सत्र (नवउदारीकरण के दौर में दलित आदिवासी सिनेमा) में
पुखराज जाँगिड़ ने पर्यावरणीय चेतना से सम्पन्न दलित-आदिवासी सिनेमा को देशज
भारतीय सिनेमा के रूप में चिह्नित करते हुए कहा कि विकास की एकतरफा दौड़ तथा हाशिए
की अस्मिताओं की अनवरत बेदखली पर सवाल खड़े करता यह सिनेमा प्रकृति और मनुष्य के
आपसी साझे को महत्त्व देने के कारण भविष्य का सिनेमा है। युवा फिल्म आलोचक मिहिर
पंड्या ने नेहरुवादी आधुनिकता के साथ स्त्री और आदिवासी अस्मिता के संबंध को
स्पष्ट करते हुए कहा कि सिनेमा में दलित-आदिवासी विमर्श के लिए हमें न केवल हिंदी
अपितु हिंदीतर सिनेमा को भी ध्यान में रखना चाहिए, विशेषकर उनके प्रस्तुतिकरण पर,
जिसपर अक्सर जबरन शहरी मध्यवर्गीय आकांक्षाएं व समस्याएं थोप दी जाती है। युवा मीडिया
विश्लेषक अकबर रिज़वी ने कहा कि फिल्मों की सफलता राष्ट्रीयता पुरस्कार प्राप्ति न
होकर अपनी सशक्त मौजूदगी दर्ज कराना है। सत्ता और संसाधन में हिस्सेदारी की दृष्टि
से देखें तो दलित-आदिवासी मुद्दों पर निर्मित फिल्मों में करुणा तो है लेकिन
यथार्थ नहीं। ‘संवेद’ व
‘सबलोग’ के सम्पादक किशन कालजयी ने छोटे शहरों
में अनवरत बन्द होते सिनेमाघरों पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि न तो आज की फिल्में
गरीबों के लिए है और न गरीब फिल्मों के लिए, इसलिए हमें फिल्म के सामाजार्थिक दर्शन/दृष्टिकोण
पर विशेष ध्यान देना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि अधिकांश सिनेमाप्रेमी दर्शकों को
दरकिनार करते हुए फिल्में एक वर्ग विशेष के मनोरंजन तक सिमटकर न रह जाए, जैसा अब
हो रहा है। अध्यक्षीय वक्तव्य में पत्रकार दिलीप मंडल ने दलित-आदिवासी समस्याओं के
प्रति सत्ता की अनदेखी पर सवाल उठाए।
संगोष्ठी के दूसरे सत्र (भारतीय राष्ट्र की अवधारणा में दलित-आदिवासी) में
आदिवासी साहित्यकार हरिराम मीणा ने कहा कि भारत ही नहीं बल्कि संसार के सभी देशों के
आदिवासी समाजों के खाने–पीने व वाद्ययंत्रों से लेकर हथियारों
तक में समानता मिलती है। इन प्रकृतिप्रदत्त संसाधनों में उनकी अस्मिता और अस्तित्व
बचा हुआ है, इसीलिए वह इसकी रक्षा के लिए संघर्षरत है। युवा तमिल चिंतक अलुरी
शाहनवाज ने तमिल सिनेमा में दलितों की स्थिति के उल्लेख के साथ भूमंडलीकरण के
संदर्भ में दूरदर्शन की भूमिका पर कई मह्त्ती टिप्पणियाँ की। आलोचक वैभव सिंह ने राष्ट्र
की अवधारणा में दलितविमर्श के महत्त्व एवं वैश्विक सिनेमा में भारतीय दलित सिनेमा
के स्थान का उल्लेख किया। उन्होंने दिलीप मंडल के बीजवक्तव्य में अमेरिकी सिनेमा
में वंचितों की बेहतर उपस्थिति के प्रति अपनी असहमति व्यक्त की जिसपर दिलीप मंडल
ने कहा कि वे मात्र सिनेमा के संदर्भ में अमेरिकी समाज के उदारवादी चरित्र का
उल्लेख कर रहे थे, न कि समग्र अमरीकी समाज पर, इसलिए इसका सामान्यीकरण ठीक नहीं।
प्रो. निर्मल कुमार ने दलित एवं दस्तावेजी सिनेमा के समाजशास्त्र व अर्थशास्त्र को
व्याख्यायित करते हुए दलित सिनेमा के विकास के लिए एक ऐसे संगठन के निर्माण पर बल
दिया जो उसे अपेक्षित धन उपलब्ध करवाए। सत्र की अध्यक्षता प्रो. श्यौराज सिंह
बेचैन ने व संचालन डॉ. सविता खान ने किया।
तीसरे सत्र (दलित और आदिवासी सिनेमा) की अध्यक्षता आदिवासी साहित्यकार व
संस्कृतिकर्मी महादेव टोप्पो ने व संचालन डॉ. जयशंकर बाबु ने किया। इसमें जर्मन
भाषा विशेषज्ञ आरती कुमारी ने ‘एकलव्य’ फिल्म के मनोवैज्ञानिक पक्ष की चर्चा की तो डॉ. सरदार मुजावर ने हिंदी
सिनेमा की सार्थकता को दलित आदिवासी मुद्दों की सार्थकता से जोड़ा। भरत मेहता ने
दर्शकों की अरूचि को दलित आदिवासी सिनेमा की असफलता का कारण माना तो अभिलाषा सिंह
के अनुसार भ्रष्टाचार और पूर्वाग्रह से ग्रस्त फिल्मी जगत दलितों को उचित स्थान
नहीं दे पाता। डॉ. ललिता ने कहा कि दलित सिनेमा के दृष्टिकोण से तमिल सिनेमा हिंदी
सिनेमा की तुलना में अधिक समृद्ध है तो मनोज कुमार के अनुसार मुख्यधारा के सवर्ण
सिनेमा के बाद अब दलित सिनेमा ने भी समाज में अपना स्थान बनाना शुरू कर दिया है। डॉ.
वी. विजयलक्ष्मी ने सिनेमा को निरक्षर और वंचित तबकों के विकास के सशक्त माध्यम के
रूप में रेखांकित किया तो डॉ. पी. पद्मावती ने दलित-आदिवासी सिनेमा को तथाकथित सवर्णवादी
मानसिक अवधारणा से मुक्त करने की बात कही। अध्यक्षीय भाषण में महादेव टोप्पो ने
स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासियों के सहयोग को रेखांकित करते हुए कहा कि आदिवासी
फिल्मों में हमने वही देखा और दिखाया है जो हम देखना चाहते हैं, न कि वो जो वो
हमें दिखाना चाहते हैं।
विचार गोष्ठी के बाद हुए सांस्कृतिक कार्यक्रम में पुदुच्चेरी के स्थानीय ‘बोधी कला समूह’ द्वारा तमिल दलित कलाप्रस्तुति
‘पड़यी’ और आशुतोष चंदन के निर्देशन में ‘ग्राफिटी इण्डिया’ कृत नाटक ‘हर्फुलाल
पुराण: प्रथम अध्याय’ का मंचन किया गया। नाटक वर्तमान केन्द्र सरकार की उन दक्षिणपंथी
नीतियों की तीखी आलोचना करता है, जो देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र की हत्या कर रही
हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले कर रही है, और इन सबके खिलाफ असहमति दर्ज
कराने वाले बुद्धिजीवियों की हत्याएं कर रही है।
दूसरे दिन संगोष्ठी के चौथे सत्र (लघु कथा सिनेमा और दस्तावेजी सिनेमा
में हाशिये का अस्मिता विमर्श) की अध्यक्षता पत्रकार मनोज सिंह ने व संचालन मिहिर
पंडया ने किया। ‘प्रतिरोध के सिनेमा’ के आंदोलनधर्मी
फिल्मकार संजय जोशी ने दस्तावेजी सिनेमा के कुछेक दृश्यों के माध्यम से हाशिए के
लोगों की सामाजिक स्थिति को रेखांकित करते हुए सस्ते दस्तावेजी सिनेमा के निर्माण
की प्रक्रिया और उस क्षेत्र में होने वाले क्रमिक परिवर्तन पर अपनी बात रखी। पहले
आदिवासी फिल्मकार के रूप में प्रसिद्ध बीजू टोप्पो ने बताया कि किस प्रकार हम कैमरे
का हथियार के रूप में प्रयोग कर सामाजिक आन्दोलनों और हाशिए के समाज की यथार्थस्थिति
दिखा सकते हैंl ऐसी दस्तावेजी फिल्में बनाने के साथ-साथ उसे दिखाना एक महत्वपूर्ण और
चुनौतिपूर्ण कार्य हैl युवा आदिवासी फिल्मकार निरंजन कुजूर ने आदिवासी की पहचान की समस्या, फिल्म-निर्माण की
बारीकियों और उसकी भाषा पर चर्चा करते हुए यथार्थवादी दस्तावेजी सिनेमा के निर्माण
पर विशेष बल दियाl सत्र-अध्यक्ष मनोज सिंह ने दलित और आदिवासी सिनेमा को प्रतिरोधी सिनेमा के रूप में देखने
का आग्रह किया।
पाँचवे सत्र (गैर हिंदी सिनेमा में दलित आदिवासी) की अध्यक्षता प्रो. रवीन्द्रन
ने व संचालन कृष्णकुमार पासवान ने किया। आदिवासी फिल्मकार-साहित्यकार अश्विनी
कुमार पंकज ने समकालीन विमर्शों के दोगलेपन को विश्लेषित करते हुए आदिवासी और गैरआदिवासी
जीवनदर्शन की तुलना में कहा कि आदिवासी जीवनदर्शन विभेदीकरण पर नहीं बल्कि संपत्ति
के समाजीकरण पर जोर देता है जबकि गैरआदिवासी दर्शन निजीकरण परl डॉ. सुरेश
जगन्नाथन ने सिडिक भाषा में बनी ताईवानी फिल्म ‘वॉरियर्स ऑफ द रैनबो’ के माध्यम से वैश्विक
आदिवासी विमर्श को रेखांकित करते हुए आदिवासियों के शोषण के साथ-साथ उनके अधिकार
और सम्मान की बात उठायीl डॉ. जी राजु ने तेलगू फिल्म ‘गौरवम्’ के माध्यम से जातिगत वर्चस्ववादी
मानसिकता की विद्रूपता के बीभत्स पहलू ‘ऑनर किलिंग’ को उद्घाटित किया।
सत्राध्यक्ष प्रो. रवीन्द्रन ने कहा कि यदि आपको दलित-आदिवासी सरीखे ‘सबाल्टर्न
समाज’ को सशक्त करना है तो उन्हें अपनी आवाज उठाने के अवसर देने होंगे।
छठे सत्र (हिंदी सिनेमा में दलित आदिवासी स्त्री) की अध्यक्षता डॉ. सुशीला
टाकभौरे ने और संचालन डॉ. विनीता रानी ने किया। डॉ. सविता खान ने
सिनेमा में प्रस्तुत दलित-आदिवासी स्त्रियों की छवियों का विश्लेषण करते हुए
दलित-आदिवासी स्त्री-विरोधी पुंसवादी सोच पर प्रहार किया तो आदिवासी कवयित्री निर्मला
पुतुल ने आदिवासी स्त्री की पहचान से संबंधित कठिनाइयों के साथ-साथ विज्ञापनों और
सिनेमा में आदिवासी महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डाला। प्रो. प्रमिला
के.पी. ने मलयाली सिनेमा में दलितों की कलात्मक (अ)प्रस्तुति के कारणों को
विश्लेषित करते हुए बताया कि पूँजीनियंत्रित और लाभकेन्द्रित व्यवसायोन्न्मुखता के
कारण आज सिनेमाकला पर नकारात्मक तत्व हावी हो रहे हैं। सत्राध्यक्षा दलित
लेखिका सुशीला टाकभौरे ने महाभारत काल से उत्तरआधुनिक काल तक जारी महिलाओं के शोषण
और अवहेलना को समकालीन सिनेमा में दलित-आदिवासी पात्रों/नायिकाओं की अनुपस्थिति से
जोड़कर सिनेमाजगत की जातिवादी व पुरूषवादी मानसिकता को विश्लेषित किया।
सातवें सत्र (दलित-आदिवासी सिनेमा) की अध्यक्षता किशन कालजयी ने व संचालन महेश
सिंह ने किया। नाटककार आशुतोष प्रताप सिंह ने कला और कलाकार को परिभाषित करते हुए सिनेमा
को एक कला-माध्यम के रूप में स्वीकारते हुए सचेत किया कि मल्टीप्लेक्स सिनेमा की
माँग असल में सिनेमा को (विशेषकर दलित-आदिवासी सिनेमा को) धनाढ्य दर्शकों तक सीमित
कर देने की साजिश है। ‘आदिवासी साहित्य’ के संपादक और युवा आलोचक डॉ. गंगा सहाय मीणा ने आदिवासियों के बारे में विद्यमान
भ्रामक तथ्यों का उल्लेख करते हुए बताया कि जब बिरसा मुंडा पर बनी फिल्म में
आदिवासी समाज और उसके नायक की भ्रामक छवि बुनी जा सकती है तो फिर आम आदिवासी की
प्रस्तुति क्या होगी, इस पर गंभीरता से सोचना चाहिए? हेमलता ने ‘भवई भवानी’ फिल्म पर तो कौशल्या ने ‘बवंडर’ फिल्म में चित्रित दलित स्त्री-व्यथा पर अपनी बात रखी। अनीता सिंह ने
सिनेमाई स्त्री-चरित्रों पर, ललित कुमार ने फिल्मों में दलितों के संघर्ष पर और वंदना ने ‘अछूत
कन्या’ व ‘सुजाता’ जैसी दलित फिल्मों पर अपनी बात रखी। इस सत्र में
चुनिंदा प्रतिभागियों को भी शोधप्रत्र-वाचन के लिए आमंत्रित किया गया।
समापन-सत्र की अध्यक्षता डॉ. ए. सुब्रमण्येम राजू ने, मुख्य आतिथ्य
अश्विनी कुमार पंकज, हरिराम मीणा और डॉ. एस. अरूलसेल्वन ने तथा संचालन डॉ. सी. जयशंकर
बाबु ने किया। इसमें पांडिचेरी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के शोधार्थियों
ऋतिका और आनंद ने क्रमश: पहले व दूसरे दिन आयोजित सत्रों की रपटें प्रस्तुत कीं तो
हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. एस. पद्मप्रिया ने आमंत्रित व उपस्थित अतिथियों व
विद्यार्थियों का आभार ज्ञापित किया। समापन-सत्र के बाद के सांस्कृतिक कार्यक्रम
में आशुतोष के निर्देशन में ‘ग्राफिटी इण्डिया’ कृत नाटक ‘इंटरटेनमेंट अनलिमिटेड’
का मंचन हुआ, जिसमें केंद्र सरकार की गरीब दलित-आदिवासी व स्त्रीविरोधी नीतियों,
कार्यक्रमों और जनविरोधी सैन्य-अभियानों के खिलाफ आवाज बुलंद करने का साहसिक
प्रयास किया गया। संगोष्ठी की औपचारिक समाप्ति के बाद तीसरे दिन पांडिचेरी और
आसपास के पर्यटन-स्थलों का भ्रमण-कार्यक्रम तथा चौथे दिन दलित-आदिवासी
कवि-कवयित्रियों की काव्य-गोष्ठी और परिचर्चा आयोजित हुई, जिसमें हरिराम मीणा,
महादेव टोप्पो, सुशीला टाकभौरे और निर्मला पुतुल आदि ने शिरकत की।
पाँचवा, इसमें खुलकर जाति और सिनेमा के रिश्ते पर बात हुई, भारतीय विश्वविद्यालयों द्वारा आयोजित गोष्ठियों में इसकी सम्भावना कम ही होती है। अगर ऐसा होता भी है तो उस पर बोलने वाले वह नहीं होती, जिनकी पीड़ा पर वह बात कर रहे होते हैं। कुल मिलाकर इस गोष्ठी ने जो अर्जित किया वह अनुकरणीय है। इसके लिए आयोजकों (विशेष रूप से संगोष्ठी-समन्वयक डॉ. प्रमोद मीणा) का आभार। आपने वो कर दिखाया, जिसकी कल्पना उत्तरभारतीय विश्वविद्यालयों में असम्भव है। सम्भव है भविष्य में हम इससे सीखें, सीखना ही होगा - 'जाके पैर न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई।'
(सम्पर्क : डॉ. पुखराज जाँगिड़, ईमेल – pukhraj.jnu@gmail.com )
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