चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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हस्तक्षेप:-सॉफ्ट पोर्न बनता हुआ भोजपुरी गीत -बृजेश यादव
(भोजपुरी लोकप्रिय गीतों में स्त्री
विरोधी स्वर)
आमतौर पर माना
जाता है कि जो साहित्य और कला व्यापक जनसमुदाय के बीच सहज रूप में ग्राह्य हो वह
लोकप्रिय है |”1 लोकप्रिय
साहित्य के तर्ज़ पर ही हम लोकप्रियता का संबंध हिंदी के गीतों से जोड़ सकते हैं,
जो बड़ी संख्या में सुने और पसंद किये जाते हैं
लेकिन, यह लोकप्रियता का
राष्ट्रीय (भौगोलिक दायरे में) पक्ष है। लोकप्रियता का एक स्थानीय पक्ष भी है। क्षेत्रीय
बोलियों में लोगों के मनोरंजन के तौर पर गाये गए गीतों को, जिसे हम ‘लोकप्रिय गीत’
भी कह सकते हैं, बड़ी संख्या में सुना और पसंद किया जाता रहा है। इसे हम
लोकप्रियता का स्थानीय पक्ष कह सकते हैं। हिंदी की बोलियों में भोजपुरी सबसे बड़ी
संख्या में बोली और समझी जाती है (लगभग बीस करोड़ लोग पूरी दुनिया में भोजपुरी
बोलते और समझते हैं)। आज भोजपुरी समाज के मनोरंजन के लिए लोकप्रिय गायकों की
संख्या सैकड़ों में है, जिसमें महिलाएं भी
शामिल हैं। पिछले कुछ वर्षों में हिंदी सिनेमा जगत में जो बदलाव आया है उसका असर
भोजपुरी समाज और संस्कृति पर भी पड़ा है। आर्थिक नवउदारवाद ने सिनेमा जगत को जिस
व्यावसायिकता की तरफ धकेला है, मनोरंजन के नाम
पर जिस फूहड़ता भरे आइटम सोंगों की फ़िल्म और एल्बमों में छौंक-बघार लगी है तथा
कॉर्पोरेट और बाजारू मीडिया ने उसे जिस रूप में प्रायोजित किया है, उसके प्रभाव से कोई अछूता नहीं रह पाया है। कहने
को तो पिछले कुछ वर्षों में भोजपुरी सिनेमा और कलाकारों का सम्मान बढ़ा है लेकिन इन
कलाकरों ने अभी तक एक भी ऐसी फिल्म नहीं दिया है जो बौद्धिक जगत का ध्यान अपनी ओर
आकर्षित कर सके। जबकि ठीक उसके बरक्स दूसरी भाषाओँ – बोलियों में कोर्ट है, सैराट है, तिथि जैसी अनेक
फ़िल्में हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर की ख्याति अर्जित कर चुकी हैं |मैं किसी भी तरह की शुचिता और पवित्रता का
पक्षधर नहीं हूँ और ना ही किसी अतीत मोह से ग्रसित। लेकिन, इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं लगाना चाहिए कि मैं फूहड़ता का
पक्षधर हूँ।
मैंने गौर किया है कि पिछले कुछ वर्षों में भोजपुरी समाज में मनोरंजन के नाम पर जिस फूहड़ता और स्त्री विरोधी संस्कृति तथा मानसिकता का विकास हुआ है वह स्त्री के प्रति पारंपरिक सामंती मानसिकता का बाजारवादी संस्करण है। तकनीकी विकास तथावैश्वीकरण ने नवउदारवादी बाजारवादी संस्कृति की प्रक्रिया को गति प्रदान किया है। वैसे तो भारतीय समाज (कुछ आदिवासी क्षेत्रों को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाय) तो एक सशक्त पितृसत्तात्मक समाज है, जिसकी संरचना में पुरुषवादी दृष्टिकोण प्रभावी है। तमाम आघातों के बावजूद इसकी मानसिकता आज भी पुरुष वर्चस्व से उबर नहीं पाई है। स्त्री को समाज में उचित और सम्मान जनक स्थान आज भी हासिल नहीं है, जिसके लिए वह वर्षों से संघर्षरत है ।
मैंने गौर किया है कि पिछले कुछ वर्षों में भोजपुरी समाज में मनोरंजन के नाम पर जिस फूहड़ता और स्त्री विरोधी संस्कृति तथा मानसिकता का विकास हुआ है वह स्त्री के प्रति पारंपरिक सामंती मानसिकता का बाजारवादी संस्करण है। तकनीकी विकास तथावैश्वीकरण ने नवउदारवादी बाजारवादी संस्कृति की प्रक्रिया को गति प्रदान किया है। वैसे तो भारतीय समाज (कुछ आदिवासी क्षेत्रों को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाय) तो एक सशक्त पितृसत्तात्मक समाज है, जिसकी संरचना में पुरुषवादी दृष्टिकोण प्रभावी है। तमाम आघातों के बावजूद इसकी मानसिकता आज भी पुरुष वर्चस्व से उबर नहीं पाई है। स्त्री को समाज में उचित और सम्मान जनक स्थान आज भी हासिल नहीं है, जिसके लिए वह वर्षों से संघर्षरत है
भोजपुरी समाज के
लोकप्रिय कलाकारों,गायकों और
गीतकारों का मुख्य मकसद पैसा कमाना हो गया है। नहीं तो आखिर क्या वज़ह है कि जो
भोजपुरी समाज आर्थिक, शैक्षणिक,
सांस्कृतिक रूप से इतना पिछड़ा है कि भोजपुरी को
उसका संवैधानिक हक़ नहीं प्राप्त है लेकिन उसके लोकप्रिय गीत विदेशी दृश्य पोर्न को
वाचिक संगीत में प्रस्तुत कर रहे हैं और भोजपुरी समाज का युवावर्ग उसपर निछावर हुआ
जाता है। कलाकार खूब धन और वाहवाही लूट रहे हैं। ऐसा तो नहीं है कि भोजपुरी समाज
बहुत विकास कर गया है। ऐसा भी नहीं है कि भोजपुरी समाज की सामाजिक, राजनैतिक, लैंगिक और सांस्कृतिक समस्याओं का निदान हो गया हो। कहना न
होगा कि पूँजीवादी बाज़ार ने पूँजी बनाने के लिए पिछड़े समाज की उस नब्ज को पकड़ा है
जिससे कलाकार भी अनभिज्ञ जान पड़ते हैं। क्षणिक वाहवाही और अर्थ ने उनको वास्तविकता
से बहुत दूर खड़ा कर दिया है।
हम कह सकते हैं कि विज्ञ या अनभिज्ञ भोजपुरी कलाकार अपने थोड़े से स्वार्थ के लिए समाज को सामाजिक समस्याओं से काट कर, सांस्कृतिक भटकाव की ओर ले जा रहे हैं। आज भोजपुरी क्षेत्र का दस से लेकर पचास वर्ष तक का व्यक्ति सार्वजनिक जगहों पर, चाहे वह रेलगाड़ी का डब्बा हो, या स्टेशन, या फिर बस हो या बस स्टैंड, ऐसे गीत जोर-शोर से बजाते और सुनते-सुनाते हुए मिल जायेंगे,जिसे सुनकर शर्म, हँसी और तरस एक साथ आती है। इन गीतों में स्त्रियों को उनके यौनागों से जोड़कर ऐसे पेश किया जाता है कि स्त्रियों के प्रति ऐसी हिंसक मानसिकता का सार्वजानिक जगहों पर प्रदर्शन तो शायद ही कही देखने को मिले !आजकल भोजपुरी में रिलीज होने वाले अलबमों की फूहड़ता को यहाँ लिखने में शर्म महसूस होती है लेकिन वह आज मनोरंजन के नाम पर भोजपुरी समाज की सच्चाई बनी हुई है। इन गीतों में पति-पत्नी या स्त्री–पुरुष के आंतरिक और गोपनीय संबंधों को खुलेआम गीत में पेश कर दिया जाता है। महिलाओं को इतना कामुक रूप में प्रस्तुत किया जाता है कि जैसे उनके लिए सहवास(सेक्स) ही जीवन का चरम सत्य तथा एकमात्र कार्य हो। मसलन ‘दू इंची छेदवा तोहार / नौ इंची गुल्ली डाले दा ’ या जिले का कथित बखान करता ‘जिला आजमगढ़ ह इ / डाली त फाटी हो’ या ‘ऊपर से बत्तीस निचे के छत्तीस, बिचवे के चौबीस बुझाता की ना / बतावा ये गोरी हमरा गन्ना के रस, सही-सही तोहरा ढूंढ़ी में जाता की ना?’ या फिर ‘बोलेरो के चाभी’आदि लोकप्रिय भोजपुरी गीतों पर मुझे नहीं पता कि भोजपुरी फिल्मों और अलबम के कलाकार तथा सेंसर बोर्ड कभी सोचते –विचारते भी हैं कि नहीं।
हम कह सकते हैं कि विज्ञ या अनभिज्ञ भोजपुरी कलाकार अपने थोड़े से स्वार्थ के लिए समाज को सामाजिक समस्याओं से काट कर, सांस्कृतिक भटकाव की ओर ले जा रहे हैं। आज भोजपुरी क्षेत्र का दस से लेकर पचास वर्ष तक का व्यक्ति सार्वजनिक जगहों पर, चाहे वह रेलगाड़ी का डब्बा हो, या स्टेशन, या फिर बस हो या बस स्टैंड, ऐसे गीत जोर-शोर से बजाते और सुनते-सुनाते हुए मिल जायेंगे,जिसे सुनकर शर्म, हँसी और तरस एक साथ आती है। इन गीतों में स्त्रियों को उनके यौनागों से जोड़कर ऐसे पेश किया जाता है कि स्त्रियों के प्रति ऐसी हिंसक मानसिकता का सार्वजानिक जगहों पर प्रदर्शन तो शायद ही कही देखने को मिले !आजकल भोजपुरी में रिलीज होने वाले अलबमों की फूहड़ता को यहाँ लिखने में शर्म महसूस होती है लेकिन वह आज मनोरंजन के नाम पर भोजपुरी समाज की सच्चाई बनी हुई है। इन गीतों में पति-पत्नी या स्त्री–पुरुष के आंतरिक और गोपनीय संबंधों को खुलेआम गीत में पेश कर दिया जाता है। महिलाओं को इतना कामुक रूप में प्रस्तुत किया जाता है कि जैसे उनके लिए सहवास(सेक्स) ही जीवन का चरम सत्य तथा एकमात्र कार्य हो। मसलन ‘दू इंची छेदवा तोहार / नौ इंची गुल्ली डाले दा ’ या जिले का कथित बखान करता ‘जिला आजमगढ़ ह इ / डाली त फाटी हो’ या ‘ऊपर से बत्तीस निचे के छत्तीस, बिचवे के चौबीस बुझाता की ना / बतावा ये गोरी हमरा गन्ना के रस, सही-सही तोहरा ढूंढ़ी में जाता की ना?’ या फिर ‘बोलेरो के चाभी’आदि लोकप्रिय भोजपुरी गीतों पर मुझे नहीं पता कि भोजपुरी फिल्मों और अलबम के कलाकार तथा सेंसर बोर्ड कभी सोचते –विचारते भी हैं कि नहीं।
संदर्भ :साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका:डॉ. मैनेजर पाण्डेय,हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला
बृजेश कुमार यादव
भारतीय भाषा केंद्र,जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय
नई दिल्ली -110067,सम्पर्क:bkyjnu@gmail.com
मित्र मेरे मुँह की बात छीन लिए हो।
जवाब देंहटाएंमैं बहुत दिन से जब भी घर जाता हूँ एक-दो दिन के लिए तो बस-गाड़ी से लगाय गाँव के लोग सुनते रहते हैं मैं सोचता हूँ इस पर कुछ अच्छा से लिखूँ पर व्यसतता वश लिख नहीं पाता हूँ इस इंतजार में फेसबुक पर भी टिप्पणी नहीं करता था कि विस्तार से लिखूँगा।बहरहाल तुमने अच्छा किया ।भोजपुरी को भाषा का दर्जा हेतु कोरी लड़ाई लड़ने वालों को इसका विरोध करना चाहिए ।
वाकई छौंकने-बघारने वाले बढ़ रहे हैं ।देशी शुद्ध चीज को छौंक-बघार और रेडीमेड चटनी छिड़क के रेस्टुरेंट चला युवाओं को बरगला रहे हैं, युवा से ज्यादा बच्चे रम रहे हैं ।
दोअर्थी गानों की भरमार है भोजपुरी में । नायिका की कला भी अंग दिखा के हिलने में है।
बहुत -बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ मित्र
I am agree with you bhaiya.
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