त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
21वीं सदी के प्रथम दशक की हिन्दी फिल्मों में किसान जीवन/
समकालीन हिन्दी
सिनेमा में बहुत कम फ़िल्में किसानों और मजदूरोंके जीवन संघर्षों को लेकर बनीं हैं, देश में निरंतर
किसानों की सामजिक परिस्थितियाँ खराब होती जा रही हैं।छोटे और मझोले किसानों की
जमीन के कई टुकड़े होते चले गएसाथ ही उद्योगपतियों की नजरें जमीनों पर पड़ गयी
थीं।वे खेती योग्य जमीनों पर मिल या फैक्ट्रियां लगाने के लिए मचल उठे थे जिनका
साथ सरकारों ने दिया। सरकारें योजनायें बनाकर किसानों की जमीनों को औने-पौने दामों
पर खरीद लीं और कंपनियों को बेच दीं जिसके चलते किसानों की आर्थिक स्थिति तो खराब
हुयी ही, पर्यावरण भी
असंतुलित होता चला गया। फैक्ट्रियों से निकलने वाला जहरीला पदार्थ समाज के लिए
नुक्सानदेह साबित हुआ।सरकारें आयीं और गयीं लेकिन वे किसानों के लिए उचित प्रबंधन
करने में नाकाम रहीं, उल्टे विदेशी
कंपनियों के हाँथों में देश को गिरवी रखती जा रही हैं।
समकालीनता को
सिनेमा में परिभाषित करना मुश्किल होगा किन्तु इक्कीसवीं सदी के प्रथम और द्वितीय
दशक में बनी महत्त्वपूर्ण हिन्दी फिल्मों में ‘लगान’, ‘स्वदेश’, ‘किसान’ और ‘पीपली लाइव’ जैसी फिल्में
किसानों के संघर्षों को बहुत ही संजीदगी से उठाती हैं। आज के दौर में किसानों के
सामने अनेक तरह की समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं, अतिवृष्टि-अनावृष्टि, कर्ज का बोझ, दलालों की
मुनाफाखोरी, राजनीतिक
षड्यंत्र, फसलों का बर्बाद
हो जाना, बीटी खेती को
बढ़ावा आदि के कारण किसान संघर्ष करता रहा है।
अनुषा रिजवी
निर्देशित फिल्म “पीपली लाइव”मुख्य प्रदेश (M.P.) के किसानों की
व्यथा-कथा को सम्मुख लाती है, इसमें किसानों को कर्ज से तबाह होने पर आत्महत्या जैसे कदम
की ओर बढ़ना दिखाया गया है एवं आज की मीडिया और राजनीति के दोगले चरित्र को बखूबी
परदे पर उतारा गया है।
रघुवीर यादव और
ओमकार नाथ माणिकपुरी (नत्था) के अभिनय द्वारा बनी फिल्म आज के समाज और राजनीति की
सच्चायी को सामने लाती है। मीडिया,राजनीति और प्रशासन तीनों के बीच में किसान एक शतरंज का
मोहरा बनकर रह जाता है। दोनों भाइयों को किसानी में कुछ हाशिल नहीं हुआ तो
उन्होंने सुन रखा था कि सरकार खुदकुशी करने वाले किसान के परिवार को एक लाख रूपय
का मुआवजा देने का वादा किये है।फिल्म का प्रमुख पात्र बुधिया (रघुवीर यादव) ने
सुन रखा था कि- “आत्महत्या कर लो
तो मुआवजा पक्का” वह आगे कहता है “जमीन गिरवी रख के
बैंक से कर्जा लिया रहा, कर्जा नहीं
चुकाया तो जमीन नीलाम हो जायेगी” बुधिया जैसे किसानों की समस्या से देश के सारे किसान पीड़ित
हैं, छोटे किसानों के
बाप-दादाओं के द्वारा संचित भूमि हाँथ से निकली जा रही है यह किसान की सबसे बड़ी
त्रासदी की ओर संकेत करता है बुधिया की इस बात से उसकी विवशता का अंदाजा लगाया जा
सकता है कि-“कैसी मुश्किल से
बाबा-बाप की जमीन बचा के रखी वो ससुरी हाँथ से जाय रही है” इन किसानों कोजब
सरकारों की ओर से कोई मदद की आशा नहीं रही है, तब एक ही रास्ता बचता है आत्महत्या।आत्महत्या एक ऐसा सरल
उपाय जिससे वह सदा के लिए इस नारकीय जिन्दगी से मुक्त हो जाता है।आज के समय में
आंध्रप्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक जैसे
राज्यों में किसानों ने बड़ी संख्या में आत्महत्याएँ की हैं।
“पीपली लाइव” गाँव उस समय
सुर्ख़ियों में आ जाता है जब दो भाई आत्महत्या के लिए एक दूसरे को उकसाते हैं, मीडियाकर
राकेश(नवाजुद्दीन सिद्दीकी) के आर्टिकल से राजनीति और मीडिया में भूचाल आ जाता है।
मीडिया को अपनी टी.आर.पी. और राजनेताओं को विरोधियों को कुर्सी से हटाने का बहाना मिला
जाता है।बुधिया उस भारतीय किसान की व्यथा का पात्र है जो विवश है, वह कहता है-“हमारा बस चलता तो
अपनी जान देके जमीन बचा लेते” यह उस पूरी व्यवस्था का द्योतन करता है जो तत्कालीन समय में
किसान परिवार करने को मजबूर होता है। राजनेता उसकी मौत पर भी राजनीति शुरू कर देते
हैं। एक भोले-भाले गंवई किसान मजदूर की पीड़ा को मीडिया के लोग समझने की कोशिश नहीं
करते हैं इसके बजाय उन्हें बालीवुड की हीरोइनों के चुम्बन ज्यादा महत्त्वपूर्ण
खबरें लगती हैं। आज के प्रिंट जगत और टेलीविजन मीडिया की यह सच्चाई है कि वह अपराध, बलात्कार, फैसन, महंगी गाड़ियों का
प्रचार, सेक्स पावर बढ़ाने
की दवा, राजनीतिक
जुमलेबाजी, राष्ट्रवाद के
किस्से, खेलों की
सुर्खियाँ, धार्मिक उन्माद
को हवा देने का काम करता है। उसके सम्मुख नदियों की समस्या, सूखा-बाढ़, किसानों की
आत्महत्या, बंजर होती जमीनों
की समस्या, मजदूरों का
संघर्ष, गरीब और उसकी
गरीबी,महंगाई जैसी
समस्याओं के लिए वक्त नहीं बचा है।
इस फ़िल्म का यह
लोकप्रिय गीत सब कुछ कह देता है-“सखी सैयां तो खूबही कमात है महंगाई डायन खाए जात है” अथवा सूखा पर
पत्रकार राकेश का यह जुमला भी फिट बैठता है “कपड़ा है बहुत ज्यादा/ कमीज बहुत तंग है/ बादल हैं इतना
ज्यादा/ पर बरसते बहुत कम हैं” आज के राजनेताओं की सूझबूझ पर भी तीखा व्यंग्य किया गया
है।केन्द्रीयसंस्कृति मंत्री सलीम (नसीरुद्दीन शाह) से यह पूछे जाने पर कि किसानों
की आत्महत्या कैसे रुके?इस सवाल का जवाब देते
हुए सलीम कहता है कि-“इंडस्ट्रीयलाइजेसन” से किसानों
कीआत्महत्या रुक सकती है”। एक तरफ किसान
भूमिहीन होता जा रहा है, दूसरी तरफ विदेशी
मल्टीनेशनल कम्पनियाँ जमीनों को अधिग्रहीत करके
आईआईटियनों के हांथों में सौंप रही है, ऐसे में किसान या उसका परिवार रोजगार के लिए कहाँ जायेगा।
देश में अस्सी प्रतिशत जनसँख्या खेती और किसानी में लगी हुयी है। औद्योगीकरण से
कितने परिवार जीविका कमा सकते हैं। वोट और नोट की राजनीति तथा पूंजीपतियों से
सांठ-गाँठ राजनेताओं की पुरानी नीति रही है। वे आज कैसे उसे बदल देंगे। सरकार किसी
की आये उनकी कारगुजारी एक ही रहती है, इसीलिये मंत्री का कहना है कि-“राजनीति में
मतभेद हो सकता है, दुश्मनी नहीं”।
मीडिया के खबर के
मुताबिक़-“पीपली लाइव गाँव
में किसान ने किया मौत का ऐलान” प्रिंटमीडिया ने लिखा-“नाथ्थादास माणिककपुरी ने कहा कि वे अपने फैसले से पीछे नहीं
हटेंगे” इस ऐलान के पीछे
छिपी हुयी विवशता मीडिया और राजनेता नहीं देखना चाहते। बुधिया और नत्था नहीं चाहते
कि मीडिया और पुलिस प्रशासन का, राजनेता का उनके जिन्दगी में दखल हो। बात गाँव से उठकर
मुख्य प्रदेश में मंत्री,
केन्द्रीय मंत्रियों, संसद भवन से होती
हुयी विदेशों तक में पहुँच जाती है। लोग सड़कों पर उतर आते हैं, आत्महत्या को और
बढ़ावा देने के लिए स्थानीय नेता से लेकर केन्द्रीय नेताओं की ओर से जमीन-आसमान एक
कर दिया जाता है। सरकार की ओर से नत्था के घरवालो को लालबहादुर शास्त्री योजना के
तहत नल दिया जाता है, जिससे वह और
सरकारी फंदे में फंसजाता है।देश में गरीब किसानों हेतु जारी की गयी योजनाओं में-‘इंदिरा गांधी
आवास योजना, जवाहर रोज़गार
योजना, अन्नपूर्णा योजना, ग्रमीण विकास
योजना, शान्ति सम्पदा, अवरुद्ध तरक्की’ जैसी योजनाओं
केये किसान काबिल नहीं हैं। वे इन सब योजनाओं के दायरे में नहीं आते हैं, क्योंकि कागज़ों
पर वे ग़रीब नहीं है। नत्था के आत्महत्या की उड़ी खबर से नयी योजना के तहत “नत्था कार्ड” बनाया जाता है
जिसमें गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले किसानों को सुसाइड करने पर मुआवजा दिया
जायेगा”। मुख्यमंत्री के
द्वारा अनाज, बीज और खाद का
ठेका अमरीकन कंपनी को सौंप दिया जाता है।
फिल्म के अंत में
नत्था को मीडिया और समाज की नज़रों में मार दिया जाता है, नत्था की
मासूमियत भरा चेहरा आज के बुद्धि प्रधान युग में वह सब कुछ कह जाता है जिसके लिए
फिल्म का निर्माण किया गया था। गाँव से दूर मीडिया और अपने लोगों की नजरों से
छुपकर नत्था मजदूरी करने शहर चला जाता है, जहाँ उसे न जीने का शौक होता है और न मरने का डर। शहर पलायन
करके जीने और मरने के बीच बहुत सारे सन्देश देती हुयी यह फ़िल्म अपने लक्ष्य को
प्राप्त करने में सफल हो जाती है।
‘स्वदेश फिल्म’ में नासा में
वैज्ञानिक नौजवान मोहन का अपने भारत के प्रति प्यार छलक उठता है, वह भारत वापस आकर
यहाँ की समस्याओं को हल करने का प्रयत्न करता है, उसे यहाँ की मिट्टी, वायु, जल, उसकी माँ, धरती माँ, प्रेयसी और यहाँ
के भोले-भाले ग्रामीण किसान उनकी संस्कृति, सभ्यता से बेहद लगाव है, वह भी अपने देश की माटी में खेल कर बड़ा हुआ है,वह बचपन में
बिताये दिनों को याद करता है और अमरीका छोड़ कर वापस अपने देश की सेवा में लग जाता
है।
पीपली लाइव फिल्म
में जिस अमरीकी कंपनी के प्रति मुख्यमंत्री वफादारी दिखाता है, “स्वदेश फिल्म” का मोहन उसी देश
की नासा जैसी स्पेस एजेंसी को छोड़कर अपने वतन लौट आता है, वह भारत को उस
ऊँचाई पर ले जाने का स्वप्न देखता है जहाँ से भारत की गरिमा बनी रहे।फिल्म में
शिक्षा व्यवस्था, जातिप्रथा, छुआछूत, ऊंचनीच का भेदभाव, बालविवाह, स्त्रीशिक्षा, बाल मजदूरी, गाँवों की बदहाल
स्थिति, बेरोजगारी, सामाजिक विकास के
कार्य, राजनीति, पंचायतों की
रवायतें, बिजली की समस्या
आदि पर प्रकाश डाला गया है।
“स्वदेश फिल्म” का हरिदास किसान यहाँ
के लोगों के रवैय्ये से खेती किसानी में तकलीफ उठाता है उसका कहना है, गाँव वाले चाहते
हैं-“जुलाहा जुलाहा ही
रहे, किसान न बने, खेतों की सिंचाई
के लिए, लोगों ने पानी
नहीं दिया फसलें बर्बाद हो गयीं, खेतों की फसल को बेचने से लोगों ने हाँथ खींच लिया, क्योंकि वह अछूत
है”। नयी रोशनी में
पला-बढ़ा मोहन बड़ी मुश्किल से गाँव के लोगों को सही राह पर ले आता है। यहाँ की
परंपरा और संस्कृति को श्रेष्ठ समझने वाले लोगों पर वह बहुत तीखा प्रहार भी करता
है-“मैं नहीं मानता
कि हमारा देश दुनिया का सबसे महान देश है, हमारा देश ही सब कुछ कर सकता है और कोई नहीं, यह हमारा अहंकार
है...लेकिन ये जरूर मानता हूँ कि हममें काबिलियत है,ताकत है अपने देश को महान बनाने की” उसका यह वक्तव्य
अपने को अतीत मोह से दूर करने और समय के साथ चलने की ओर संकेत भी करता है।‘चरनपुर’ गाँव के परंपरावादी लोग
इस विचारधारा का विरोध करते हैं, किन्तु अंततः वे मोहन की बातों से सहमत भी हो जाते हैं।
जाति व्यवस्था
जिसे किसान और मजदूर वर्ग ज्यादा सीने से लगाए फिरता है, उस पर भी मोहन की
वैज्ञानिक सोंच प्रभावी होती है-“दलित ब्राह्मण को दोष देते हैं, ब्राह्मण कहते
हैं कि उनकी जाति को भ्रष्ट कर रहे हो। लुहार और कुम्हार लाला के कर्ज को दोष देते
हैं, जमींदार किसान को
दोष देते हैं, लेकिन उनका हक
नही देते। तो फिर हम महान कैसे हुए” यह उस समाज की ओर इशारा है जिस समाज में हम जी रहे हैं।आज
हम शीत युद्ध की कगार पर हैं, जातिवाद का अहंकार, दूसरे वर्ग के ऊपर वर्चस्व की लालसा, और सामन्ती
व्यवस्था के प्रति इसमें विद्रोह दिखाया गया है।मोहन का साफ़ कहना है कि “हम सब दोषी हैं, सच्चाई है कि हम
सब ही दोषी हैं”। फिल्म में
यथार्थवादी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समय एवं समाज को देखने का प्रयत्न किया गया
है। यह दृष्टिकोण फ़िल्म को सार्थकता प्रदान करता है।
सोहा अली खां
प्रोडक्सन एवं पुनीत सेरा के निर्देशन में बनी फिल्म ‘किसान’ पंजाबी किसानों
की व्यथा को प्रस्तुत करती है। भारत के बेहद उपजाऊ प्रदेशों में से एक पंजाब में
किसान, सरकार के
नुमाइंदों से बेहद परेशान हैं। कंपनियों का बढ़ता आतंक और गाँव के सरपंचोंके भीतर
बढ़ता हुआ पैसे का लालच, राजनीति का सहयोग
एवं पूंजीपतियों का सहारा तथा भूमाफियों के आतंक से किसान अपनी जमीन कंपनियों को
बेचता जा रहा है। जैकी श्राफ, अरबाज खान, सोहेल खां की भूमिकाओं से निर्मित फिल्म उस ट्रेंड को तोड़ती
है जिसमें ‘जय जवान और जय
किसान’ का नारा दिया
जाता था।फिल्म में यह दर्शाया गया है कि आज आवश्यकता है किसान और वकील की।दयाल
(जैकी श्राफ) एक बेटे जिगर (सोहेल खां)को किसान बनाना चाहता है तो दूसरे बेट अमन
(अरबाज खां) को वकील।सरपंचों के गुंडों से प्रताड़ित किसान की व्यथा में सारे देश
का अक्स दिख जाता है, जब मजबूरन उससे
जमीन छीनी जाती है तब वह कहता है-“जिस जमीन ने बुजुर्गों को रोजी-रोटी दी थी, वो जमीन नहीं
बेचूँगा” ऐसे में जब
पूँजीपति शासन और सत्ता से हाँथ मिलाकर जमीन हड़पना चाहता हो तो कोई भी किसान यह
चाहेगा कि वह भी कानून का सहारा लेकर अपनी मिल्कियत को बचा सके। दयाल चाहता है कि
जमीन को बचाने के लिए पढ़ाई और लड़ाई दो ही माध्यम हैं।अमन कानून की पढ़ाई पढ़ने के
बाद गाँव आये खरीददारों को कानून की भाषा में जवाब देते हुए कहता है-“गाँव के विकास
हेतु सरकार की योजनाओं में जमीन की खरीद भी शामिल है, सरकार भी
जबरदस्ती आपकी जमीन नहीं छीन सकती। किसान अपनी जमीन बेचे या न बेचे, इसकी इजाज़त सरकार
ने कानूनन दिया है।”
किन्तु “उद्योग लगाने के
वास्ते कंपनी जमीन की खरीददारी करना चाहती है जिसका साथ पंचायत भी देती है।” सेठ, अमन की साफगोई से
खौफ़ खाता है वह दयाल के बेटे और घर को बाँट देने के षड्यंत्र में लग जाता है, उसका मानना है
कि-“एक घर को अगर दो
हिस्सों में बाँटना हो तो एक हिस्से में खुशियों की रोशनी भर दो, दूसरे हिस्से में
अँधेरा खुद-ब-ख़ुद चला आयेगा” पूंजीपतियों ने देश की तरह गाँव एवं समाज को भी बाँट कर राज
किया है। अंग्रेजों की तरह आज इस देश के काले अंग्रेज हैं जो अपने घर, खेत-बरी, नदियाँ, तालाब आदि को
विदेशियों के हवाले कर रहे हैं।
पंजाब का किसान अपनी
इच्छा से आत्महत्या नहीं करता। ठेकेदारों के गुंडों के द्वारा उसकी हत्या करवाकर
कुएं से लटका देना, नदी में फेंक
देना, या गला दबाकर कर
दी जाती है। जिससे यह सिद्ध भी नही होने पाता कि हत्या है कि आत्महत्या।अमन और
जिगर दयाल के दोनों बेटों में से अमन अपनी माटी में लौटकर किसान बने रहना चाहते
हैं। फिल्म में प्रेम सम्बन्ध, गुंडागर्दी, हत्या, बलात्कार, नशाखोरी, अशिक्षा, साहूकार पद्धति, आदि को भी जगह दी गयी है। अमन और जिगर उस पेशे की ओर नहीं
जाते जिसे आज का समाज गर्व की नजरों से देखता है, वे लौटकर अपनी माटी से जुड़ जाते हैं, फिल्मकार ने कृषि
व्यवस्था को अन्य की अपेक्षा अधिक महत्व दिया है। यह फ़िल्म पराजित और हताश किसानी
जीवन में एक नया स्वर भरती है।
आमिर खां के
निर्देशन में बनी फिल्म ‘लगान’ 1893 ई० में चंपानेर
(मध्य-भारत) रियासत के राजा पूरन सिंह के साम्राज्य को केंद्र में रखकर बनी है।
चंपानेर के एक छोटे से गाँव में किसानों के द्वारा खेती-बारी की जाती थी और फसल का
एक सिस्सा राजा को दे दिया जाता था बतौर लगान। फिरंगी शासन आने से और उनकी खर्चीली
जिन्दगी की वजह से लगान की रकम बढ़ा दी गयी थी। चंपानेर के राजा पूरनसिंह (कुलभूषण
खरबंदा) अंग्रेजों के वजीफे पर पल रहे थे अतः उनको अंग्रेजों की सारी शर्तें माननी
ही पड़ती थी। अंग्रेज कैप्टन की किसानों के प्रति निरंकुशता बढ़ती जा रही थी।
किसान के ऊपर
अपनी सुख सुविधाओं के लिए लगान बढ़ाने का संकल्प लिया जाता है तो पंचायत के मुखिया
और गाँव वालों के विरोध के चलते क्रिकेट खेल के द्वारा हार-जीत और लगान की वसूली
निर्धारित की जाती है।अंग्रेज अधिकारी के द्वारा यह निर्धारित किया जाता है कि यदि
मैंच में उसकी टीम हार जाती है, तो तीन साल का लगान माफ़ और जीत जाती है तो लगान की रकम तीन
गुना बढ़ा दी जायेगी। अंग्रेज कैपटन ने भुवन और उसके साथियों से कहा कि-“सारे प्रान्त का
कर्ज तीन साल के लिए माफ़ किया जायेगा। यदि तुम हमें खेल में हरा दोगे” किसानों के
सम्मुख कई समस्याएँ एक साथ खड़ी हो जाती हैं, एक तो दो-तीन साल से सूखा पड़ा था, जिसके चलते किसान
दाने-दाने का मोहताज था, उस पर अंग्रेज
हाकिम का यह फरमान जिसे राजा साहब भी नहीं टाल सके थे, फिल्म का नायक
भुवन(अमीर खान) का यह कथन कि-“गोरों के लिए ये सिर्फ खेल है, लेकिन हमारे लिए
हमार जिन्दगी” फिल्म में पहली
बार सामूहिक एकता के द्वारा विदेशियों पर जीत का जज्बा भी भरा है और आजादी की लड़ाई
के वास्ते रास्ते भी तलासता है। फिल्म में आये बहुत सारे दृश्य कथा को नई ऊँचाई
प्रदान करते हैं। लगान फिल्म के गीत-‘कारे मेघा कारे मेघा पानी तो बरसाओ’सालों से सूखी
धरती को फिर से हरा भरा करने की आशा है, किन्तु निष्ठुर बादल उमड़कर वापस लौट जाते हैं, भोले-भाले
किसानों के ऊपर मानों बिजली गिर पड़ती है।
छुआछूत, ऊंच-नीच, जाति-पांत, सम्प्रदाय से ऊपर
उठकर पहली बार गाँव का युवक भुवन विदेशियों पर जीत हाशिल करता है, भुवन को एक
विद्रोही युवक के रूप में भी दिखाया गया है, वह किसी भी अंग्रेजी हुक्म को नहीं मनाता जो उसके और उसके
गाँव वालों के खिलाफ होती है, इसीलिये उसे,उसके गाँव और देश को अंग्रेज कैप्टन ने बेईज्जत करने के लिए
क्रिकेट खेल के लिए उकसाया था। इस फिल्म में गाँव में व्याप्त विखरव को खेल के माध्यम
से एकताबद्ध किया गया है। इस फिल्म में यह भी सन्देश दिया गया है कि समूहबद्ध रहकर
किसी भी सल्तनत से मुकाबला किया जा सकता है। क्रिकेट का खेल मात्र मनोरंजन के लिए
नहीं था अथवा भुवन अकेले ही नहीं खेल सकता था। इसमें इंगित स्वर उस क्रांति की ओर
संकेत करता था जो आने वाले समय में होने वाली थी। भुवन जैसे युवकों ने देश में
बदलाव की शिला स्थापित की थी।जिस पर आगे चलकर देश को आजादी मिली थी।
निष्कर्षतः यह
कहा जा सकता फिल्म निर्देशकों ने समय-समय पर किसानों और मजदूरों की समस्याओं को
केंद्र में रखकर फ़िल्में बनाई हैं। फिल्मों का जुड़ाव सीधे दर्शक वर्ग से होता है, जिस वजह से उसके
ऊपर सीधा प्रभाव पड़ता है।शायद आज के समय में किसान और मजदूर को लोग फिल्मों में
देखना पसंद नहीं करते हैं,
कीचड़ में सने
पाँव, चिपके हुए पेट, सूखा हुआ खुला
बदन, माथे पर
झुर्रियों के निशान, काम और देश के
बोझ से झुकी हुयी कमर शायद इनकी व्यथा और कथा को आज के समाज में पहचान मिल ही जाय।
एक ओर अन्नदाता घोर तकलीफ में रहकर भी देश का भण्डार भर रहा है तो दूसरी ओर उस पर
शियासत की जा रही है।समकालीन समय में सिनेमा और साहित्य के माध्यम से किसानों के
दुःख-दर्द को समाज के सम्मुख लाने का प्रयत्न किया जा रहा है।किसी गजलकार ने लिखा
है कि “खेतों का पानी पी
गयी संसद डकार कर/कंधे पे ले कुदाल बता हम कहाँ जाएँ। शायद इसीलिए देश के प्रबुद्ध
लोग, साहित्यकार, सिनेमा की दुनिया
के बुद्धिजीवी किसानों और उसकी जमीन के बारे में चिंतित है.
सहायक फ़िल्में ----
•पीपली लाइव (13 अगस्त 2010 ): निर्देशक अनुषा रिजवी
निर्माता-आमिर खान (आमिर
खान प्रोडक्सन्स )
अभिनेता-ओमकार दास
माणिकपुरी, रघुवीर यादव
•स्वदेश (2004) : निर्देशक आशुतोष गोवारिकर
अभिनेता शाहरुख खान
•लगान (2001) : निर्देशक आशुतोष गोवारिकर
अभिनेता आमिर खान
•किसान (2009) : निर्देशक पुनीत सेरा
कहानी लेखन, सोहेल खान
अभिनेता- सोहेल खान, अरबाज खान
अनिल कुमार,
शोध-छात्र,
हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद
Mob: 8341399496, Email:anilkumarjee@gmail.com
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