त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
कविताएं/शर्मीला
थोड़ा लहू
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मूंडी हुई सरसों
के
तने हुए नाखून
चप्पलों से फिसल
कर
पगथली में जा
लगते हैं
खाल के साथ
थोड़ी मिट्टी
थोड़ा लहू
आने वाली
फसल...
जड़ पकड़ रही है
।
अभिशाप
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हाथ में
फावड़ा लिए
सुनता रहा
पानी और झिंगुरों
का शोर
बीड़ी दहकती रही
दिल के अंगार
लेकर
मैंने मिट्टी
चाही
आकाश चाहा
मैंने प्रेम किया
सदियों का...
अभिशाप लिया ।
गुणा
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खाद-पानी
बीज-बुआई
डूबते-छिपते सूरज
में से
पसीने काटकर
बराबर में चौथाई
बटा कर्ज़ में...
गुणा...किसकी
डकार में ?
दिया तो बहुत !
पर..
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जैसे-जैसे पौधे
बढ़ते रहे
सपने उगते रहे
नरमे का एक-एक
फूल
अपना रंग लेकर
पकता रहा
देखते-देखते...फल
धरती को खींचने
लगे
फिर एक दिन
आसमान धुँधला हुआ
आँधी-बारिश ने
तमाचा दे मारा
डालियाँ..
लड़खड़ाकर गिर पड़ी
अब चुन रहे हैं
झोळी में
थके हाथों से
कुछ अधकचरे ख्वाब
कुछ अधकचरी
नींदें
रोकते-रोकते भी
आवाज की भर्राहट
नहीं जाती-
"मालिक ने दिया तो
बहुत ! पर..."
अहसास
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बैलों की जगह
ट्रैक्टर खड़े हो
गए
घरों के नक्शे
कट कर
नए उग आए
रिश्ते
उधड़ते-बुनते
थोड़े से बह गए
तपती दुपहरी
सर्द रातों में
बदली
देखते-देखते
सिर सफेद हो गया
पीठ मुड़कर घुटनों
में लग गई
और कुर्ते की परत
जमींदारी की हर
मार को
झेलते-झेलते
दम तोड़ गई
धागा-धागा निकल
कर
दिशाओं में बिखर
गया
जिसका अहसास
अक्सर...
धूप
में...बूंद-सा गिरता है।
हम तुम्हारे साथ
हैं !
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मुद्दों के
सरकंडे
अक्सर बात करते
हैं
किसानों की
खेती की
जिन्होंने आज तक
यह नहीं चखा
तावड़े , पसीने और मिट्टी का
संगम कैसा होता
है ?
जो यह भी नहीं
जानते
2 एकड़ में नरमे
का बीज
कितना..
और कैसे लगता है ?
दानों को मंडी
तक...घसीटते-घसीटते
कितना जोर आता है
?
वे भी दोगले
एसी में बैठकर
मच्छरों की तरह
बीन बजाते हैं-
"हम तुम्हारे साथ
हैं !"
बरस गया !
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आँगन में जुड़ आए
बिखरे हुए
फूल-पत्ते
रह-रह कर
काटते रहे चक्करी
झिंझोड़ती रही
शाखों को
मटमैली हवाएँ...
फिर...
टप्...टप्...टप्
गिरती बूँदें
तिरछी बूँदें..
बुझाती रही
धरती की अंतहीन
प्यास
अलसाई
दूब..पौधे-वौधे सब
आँखें मलते हुए
खड़े हो गए
शेरू की टूटी चाल
फिर तन गई
आसमान बिखर गया
किसान की फटी
जेब-सा
मौसम की कुर्सी
थोड़ी
सरक गई...
ओहहहह !!
राम बरस गया !
फटी झोळी
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अपने हाथों से!!!
जमीन को तराश कर
उधार का बीज बोया
अंकुर फूटे..
पौधे लहलहाये...
रातों को जाग-जाग
कर
उन्हें सींचा...
आँखों में चमक
बढ़ी
फल पकेगा..
बिकेगा...
नकद आएगा..
कर्ज उतरेगा...
पर...
फटी झोळी
तो और...फटती है
!
लुटेरी
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सरकार !!
न जाने कितनी आई
कितनी गई...
हमारे-तुम्हारे
हाल वैसे ही हैं
द्रौपदी की
तरह...
हर फसल में
चीरहरण होता है
दो इंच के चिथड़े
को
सरकारी योजना
कभी खींचती
है....
कभी लपेटती
है....
सरकार कागज़ों पर
वादों की खट्टी
लस्सी पिलाती है
पड़ोसियों से
सस्ते दाम पर
पहले ही....
अनाजों के गोदाम
भर लेती है
हम-तुम जमीन
खुरचते रहते हैं
भाव अब आएंगे
!....अब आएंगे !
मुनाफा तो
दूर...लागत भी गई
ऊपर से कर्ज की
जड़
और गहरी हो गई
लो भई !
मुबारक हो !!
एक और लुटेरी आ
गई !
आँकड़ा बनते आदमी
!
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गड्ढों में
सड़क...
सड़क पर तुड़े-मुड़े
परछाई ढ़ोते आदमी
नस-नस में ज़हर...
दाना-दाना होते
आदमी
योजनाओं की होड़
में...
किसान से आँकड़ा
बनते आदमी!
चूल्हा
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आँखें सर्द हो
रही हैं..
माथे में भूचाल
आया हुआ है
आढ़तिया पहाड़
बना रहा है
फसल मरी पड़ी है
...
दो हाथ किताबें
लिए खड़े हैं-
"पापा बैग चाहिए
!"
मन टूट कर रह गया
कैसे मासूम दिमाग
को कुचले-
"बैग पैसे से आता
है ...
पैसा....फसल से
!"
चाय उफन पड़ी...
और चूल्हा बुझ
गया !
ज़मीन
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खेत लहलहा रहे
हैं...
ठंडी पून बह रही है..
सब.....
स्वर्ग लगता है !
मगर...जमीन !!
थोड़ी सख्त है
...
धूप में...कनपटी
से
लहू टपकता है
और एक ख्वाब....
करवट लेता है
इससे ...
कब ? और कितना ?
चूल्हा जलेगा
जब यह आस...सपना
बिखरता है...
पूरी दुनिया
बिखरती है
लटका चेहरा ..
और आवाज़ !!
खोई हुई-सी आती
है...
"यार ई बार आच्छी
कोनी!!"
शर्मीला
(शोधार्थी)
हिंदी-विभाग,पंजाब विश्वविद्यालय,चण्डीगढ़-160014
सम्पर्क- #1469, सेक्टर- 39 बी,चण्डीगढ़-160036, मो०7837723246
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