त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
भारत के किसान आन्दोलनों का
इतिहास: वर्तमान सन्दर्भ/ डॉ. इकरार अहमद
किसानों की यह दुर्दशा कोई नयी बात नहीं है।
भारत में प्राचीन काल से ही किसान सर्वाधिक पीड़ित व शोषित रहा है। किसान अत्यन्त
धैर्यवान समुदाय है परन्तु जब उसका धैर्य टूट जाता है तो उनका आन्दोलित होना
स्वाभाविक है। किसानों के इन आन्दोलनों की पृष्ठभूमि 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से आरम्भ हो जाती है। इन
आन्दोलनों की पृष्ठभूमि को रेखांकित करते हुए इतिहासकार विपिन चन्द्र का मत है-‘‘
अँग्रेजों के उपनिवेशवादी शोषण का कहर भारतीय
किसानों पर ही सबसे ज्यादा बरपा। औपनिवेशिक आर्थिक नीतियाँ, भू-राजस्व की नई प्रणाली और उपनिवेशवादी प्रशासनिक व
न्यायिक व्यवस्था ने किसानों की कमर तोड़ दी। फिर दस्तकारी उद्योगों के तबाह हो
जाने से इन उद्योगों में लगे लोग भी खेती की तरफ वापस लौटने पर मजबूर हुए, जिससे खेती लायक जमीन पर दबाव भी काफी बढ़ गया
और इस तरह कृषि का पूरा-का-पूरा ढाँचा ही बदलने लगा। बड़ी जमींदारी वाले इलाकों में
किसानों पर अत्याचार बढ़ने लगे। जमींदार उनसे मनमाने ढंग से अवैध लगान वसूलते और
बेगार कराते। रैयतवारी इलाकों में लगान की दरें बेतहाशा बढ़ाकर ठीक यही काम सरकार
ने किया। नतीजा यह हुआ कि किसान धीरे-धीरे महाजनों के चंगुल में फँसते गए और इस
तरह उनकी जमीन, फसलें और पशु
उनके हाथ से निकलकर जमींदारों, व्यापारियों-महाजनों
और धनी किसानों के हाथ में पहुँचते गए जमीन के मालिक छोटे किसान की हैसियत महज
काश्तकारों, बँटाईदारों और
खेतिहार मजदूरों की ही रह गई।’(1)
इन परिस्थितियों
के प्रति किसानों ने देश के विभिन्न हिस्सों में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध,
सशस्त्र संग्राम किये। प्रसिद्ध इतिहासकार
अयोध्या सिंह इन किसान विद्रोहों की उपयोगिता पर अपना मत स्पष्ट करते हैं-’’
जब नवोदित बुर्जुआ और पेटी बुर्जुआ वर्ग के लोग
वैधानिक आंदोलन विकसित करने में व्यस्त थे, हमारे देश के किसान ब्रिटिश उपनिवेशवादियों और उनके संरक्षण
में पलने वाले जमींदारों, साहूकारों तथा
सूदखोरों के विरुद्ध सशस्त्र संग्राम का रास्ता अपना रहे थे। ब्रिटिश
उपनिवेशवादियों के विरुद्ध भारत वासियों का जनमत तैयार करने में इन संग्रामों की
भूमिका बहुत बड़ी है। नील विद्रोह (1859-60), जयंतिया विद्रोह (1860-63), कूकी विद्रोह (1860-90), फूलागुड़ी का दंगा (1861), कूका विद्रोह (1869-72), पबना का किसान विद्रोह (1872-73), महाराष्ट्र के किसानों का मोर्चा (1875), पूना में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में
विद्रोह (1879) और रंपा विद्रोह
(1879-80), ऐसे ही विद्रोह थे।’’(2)
यह विद्रोह स्वतः स्फूर्त आन्दोलन थे। जिनका
देशव्यापी एक स्वरूप न होकर स्थानीय स्तर पर किसान संगठित होकर अपनी मुक्ति का
मार्ग तलाश रहे थे। इन विद्रोहों की तीव्रता इतनी भयानक थी कि भारत की तत्कालीन
ब्रिटिश सरकार इन विद्रोहों से घबराती थी। गवर्नर जनरल ‘लार्ड केनिंग’ के शब्दों को इतिहासकार ‘अयोध्या सिंह’
उद्धृत करते हैं- ’’बंगाल में नवोदित मध्य वर्ग और नए जमींदारों की गद्दारी के
कारण किसान 1857 के महाविद्रोह
में भाग न ले सके, किन्तु शीघ्र ही
उन्होंने यह कलंक धो डाला और बंगाल का मुख
उज्जवल कर दिया। उनका विद्रोह नील की खेती कराने वाले गोरों और ब्रिटिश
उपनिवेशवादियों के खिलाफ था। उनके इस विद्रोह से ब्रिटिश शासक किस तरह घबरा गए थे,
उसे खुद भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड
कैनिंग के शब्दों में सुनिएः
‘नील के किसानों के वर्तमान विद्रोह के बारे में
प्रायः एक सप्ताह तक मुझे इतनी चिंता रही जितनी दिल्ली की घटना (अर्थात 1857 का महाविद्रोह) के समय भी नहीं हुई थी। मैं हर
समय सोचता रहता कि अगर किसी अबोध निलहे ने भय या क्रोध से गोली चला दी तो उसी वक्त
दक्षिण बंगाल की सब कोठियों (अर्थात नील की कोठियों) में आग लग जाएगी।’(3)
इन आन्दोलनों के द्वारा किसानों ने बढ़े हुए
लगान के प्रति विद्रोह किया। किसानों का गुस्सा इसलिए भी बढ़ रहा था कि बागान
मालिकों ने उसकी फसल की कीमत घटा दी और अपने खेतों में कौन सी फसल बोएं, यह तय करने की आजादी भी छीन ली जैसा कि नील
आन्दोलन में हुआ। इन आन्दोलनों में किसानों ने जाति-धर्मं के सारे बन्धन तोड़कर
एकजुटता का परिचय दिया। 19 वीं सदी के
किसान आन्दोलन अपने-अपने क्षेत्र में स्वतः स्फूर्त आन्दोलन ये और वह एक
राष्ट्रव्यापी संघर्ष का स्वरूप ग्रहण नहीं कर सके। इन आन्दोलनों की परिणति को
इतिहासकार विपिन चन्द्र इस प्रकार रेखांकित करते हैं-‘‘ 19वीं सदी के किसान आंदोलन की सबसे बड़ी कमी यह थी कि किसान
उपनिवेशवाद औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था को जानते-समझते नहीं थे। उनके पास न तो कोई
विचाराधारा थी और न कोई ठोस सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कार्यक्रम। किसान चाहे जितने
जुझारू रहे हों, उनका संघर्ष समाज
की पुरानी मान्यताओं और परंपराओं के दायरे में ही सिमटकर रह गया। किसी नए समाज की
परिकल्पना नहीं थी, एक ऐसी परिकल्पना
जो देश के तमाम नागरिकों को एक सामूहिक लक्ष्य के लिए संघर्ष करने को एकताबद्ध
करती, एक दीर्घकालीन राजनीतिक
आंदोलन को जन्म देती। कोई राष्ट्रीय स्तर का नेतृत्व, जिसके पास एक नए समाज के निर्माण की रूपरेखा हो, वही देश की तमाम जनता और किसानों को इकट्ठा कर
सकता था और राष्ट्रव्यापी राजनीतिक संघर्ष छेड़ सकता था। इस तरह का कोई नेतृत्व भी
नहीं था।’’(4)
20वीं सदी के किसान आन्दोलन स्वतन्त्रता संग्राम
में साम्मिलित हो रहे थे। इसका प्रमुख कारण था भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय
और महात्मा गाँधी का नेतृत्व प्राप्त होना। महात्मा गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका से
लौटकर सर्वप्रथम किसानों के चम्पारन सत्याग्रह में ही भाग लिया था। इस प्रकार
स्वतन्त्रता आन्दोलन की नींव एक किसान आन्दोलन पर ही खड़ी हुई। बीसवीं सदी के किसान
आन्दोलनों के महत्व को इतिहासकार बिपिन चन्द्र इस प्रकार रेखांकित करते हैं-’’
किसान आंदोलन और राष्ट्रीय आंदोलन का अटूट
रिश्ता कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण था। वस्तुतः किसान आंदोलन वहीं उभर सके,
जहाँ राष्ट्रीय आंदोलन की नींव डाली जा चुकी
थी। केरल, पंजाब, आंध्र, उ.प्र. और बिहार इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं थी,
क्योंकि राष्ट्रीय आंदोलन ने ही वह पृष्ठभूमि
तैयार की यानी किसानों में राजनीतिक चेतना का प्रसार तथा उनके संगठन एवं नेतृत्व
की जिम्मेदारी सँभालने के इच्छुक सक्षम राजनीतिक कार्यकर्ताओं का उदय, जिसमें संघर्ष संभव हो सका। किसान आंदोलन की
विचारधारा भी राष्ट्रीयता पर आधारित थी। इसके नेता और कार्यकर्ता वर्ग-आधार पर
किसानों के संगठन का संदेश ही नहीं फैला रहे थे, बल्कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने की जरूरत पर
भी बल दे रहे थे, जैसा कि पहले
लिखा जा चुका है, वे किसान सभा के
साथ-साथ कांग्रेस के भी सदस्य बनाते थे।’’(5)
स्वतन्त्रता आन्दोलन ने अपने में कई
सामाजिक-आर्थिक आन्दोलनों को समाहित किया। किसानों एवं अस्पृश्यता के विरुद्ध
आन्दोलन भी स्वतन्त्रता संग्राम में सम्मिलित हुए। राजनैतिक स्वतन्त्रता का प्रश्न
इतना आवश्यक बन गया कि धार्मिक आन्दोलन यथा खिलाफत आन्दोलन की भी आवश्यकता महसूस
की गयी। परन्तु आजादी के बाद राजनैतिक परिवर्तन तो हुए और सभी अन्य आन्दोलनों को
विस्मृत कर यथास्थिति बनाये रखे जाने में राजनैतिक नेतृत्व सफल रहा।
आजादी के बाद भी किसानों की स्थिति जस की तस
बनी रही। उनकी उपज का वाजिब मूल्य भी उन्हें प्राप्त नहीं हो सका। विकास के नाम पर
किसानों की भूमि अधिग्रहण कर पूंजीपतियों को भेंट की जाने लगीं। सूदखोरों और कर्ज
के जंजाल से उन्हें मुक्ति नहीं मिल पायी। सरकारी प्रयासों से इतना अवश्य हुआ कि
उसे बैंकों से कम ब्याज पर पैसा जरूर मिला पर उस ऋण को स्वीकृत कराने में बैंको के
कई चक्कर लगाने पड़े। इसके अतिरिक्त सरकारी तन्त्र में व्याप्त भ्रष्टाचार ने उसे
रिश्वत देने के लिए बाध्य कर दिया। इस प्रकार कम ब्याज पर किसान को ऋण उपलब्ध
कराने का सरकारी प्रयास बैंक अधिकारियों व कर्मचारियों के व्यक्तिगत लाभ का सौदा
बन गया। आजादी के बाद की सरकारों ने किसानों की समस्याओं पर कोई ध्यान न देकर
पूंजीवाद आधारित नीतियों को प्रश्रय दिया। वर्तमान सन्दर्भ में मध्य प्रदेश के
किसान आन्दोलन पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि किसानों के प्रति वर्तमान
सरकारों का रवैया ब्रिटिशराज की तरह दमनकारी ही है और किसान कर्ज के बोझ से दबे जा
रहे हैं-’’ किसान तो यह आंदोलन
राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ और भारतीय किसान यूनियन के बैनर तले कर रहे थे, मुख्यमंत्री ने न सिर्फ इन संगठनों को बात करने
के लायक नहीं समझा, बल्कि
प्रेसवार्ता में इन संगठनों से जुड़े सवालों को टाल दिया, यही नहीं आंदोलन दबाने के लिए भारतीय किसान यूनियन के
महामंत्री अनिल यादव को गिरफ्तार कर लिया गया, हालांकि सरकार राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ के संस्थापक शिव
कुमार शर्मा ‘कक्काजी’ को गिरफ्तार करने की हिम्मत नहीं दिखा पाई
क्योंकि 2010 तक वे आरएसएस के
भारतीय किसान संघ के प्रदेश अध्यक्ष थे, दिसंबर 2010 और मई 2011 के उग्र किसान आंदोलन के बाद चैहान के इशारे
पर कक्काजी को संगठन से निकाल दिया गया था, लेकिन इस बार कक्काजी अपने बागी संगठन के दम पर पूरी ताकत
दिखाने को तैयार थे, उन्हें निमाड़
इलाके में भाजपा से जुड़े पाटीदार समाज का भी अच्छा सहयोग मिल रहा था, हड़ताल खत्म होने की घोषणा के बाद कक्काजी ने
इसे धोखेबाजी बताया, उन्होंने कहा,
‘‘शिवराज जब मुख्यमंत्री बने थे तब मध्य प्रदेश
के किसानों पर 2,000 करोड़ रु. का
किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) का कर्ज था, जो आज बढ़कर 44,000 करोड़ रु. हो गया
है, यह पूरी तरह किसान विरोधी
सरकार है।’’(6)
कृषि कार्य निरन्तर घाटे का सौदा होता जा रहा
है। ऐसी स्थिति में किसान जीविका के लिए दूसरे कार्यों को करना चाहता है। दिल्ली
स्थित सेण्टर फार स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सी0एस0डी0एस0) के वर्ष 2014 के सर्वेक्षण के
अनुसार भारत में खेती से जुडे़ 76 प्रतिशत नौजवान कोई दूसरा काम करना चाहते हैं और 60 प्रतिशत से ज्यादा शहर में नौकरी कर आजीविका
चलाना चाहते हैं। परन्तु कृषि कार्य पर लिए गए ऋण को अदा न कर पाने के कारण वह ऐसा
करने में भी विवश हैं। ऐसी स्थिति में किसान चाहता है कि उसके द्वारा लिए गए ऋण की
माफी हो जाए तो वह अपने को स्वतन्त्र महसूस करे। परन्तु अर्थशास्त्री किसानों की
ऋण माफी के खिलाफ हैं। इस सन्दर्भ में ‘आउटलुक’ पत्रिका में
प्रकाशित अजीत सिंह की रिपोर्ट दृष्टव्य है-’’ भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल, स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की चेयरमैन अरुंधति
भट्टाचार्य और कई अर्थशास्त्री किसानों की कर्ज माफी के खिलाफ माहौल बनाने में
जुटे हैं। बैंक ऑफ़ अमेरिका के मौरिल लिंच ने एक रिपोर्ट में 2019 के आम चुनाव से पहले राज्यों द्वारा जीडीपी के
दो फीसदी (करीब 2.57 लाख करोड़ रुपये)
के बराबर कृषि ऋण माफी की उम्मीद जताई, जिससे बैंकों की बैलेंस शीट पर बुरा असर पड़ेगा। आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल ने
किसानों की कर्ज माफी को ‘ नैतिक त्रासदी ’
करार दिया है जबकि एसबीआई की प्रमुख अरुंधति
भट्टाचार्य ने इसे कर्ज अनुशासन बिगाड़ने वाला कदम बताया। तीन साल में कार्पोरेट
जगत को मिले करीब 17.5 लाख करोड़ रुपये
के फायदों, जान-बूझकर बैंकों को करीब
56 हजार करोड़ रुपये का कर्ज
दबाने वाले 5,275 डिफाल्टरों और
बैंकों के करीब 6.8 लाख करोड़ रुपये
के डूबते कर्ज को देखते हुए इन अर्थशास्त्रियों का किसानों के प्रति एकदम
विरोधाभासी रुख सामने आता है। तब न तो कर्ज अनुशासन का मुद्दा उठता है और न ही
बैंकों की बैलेंस शीट की फिक्र होती। कृषि नीति के विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कृषि ऋण
माफी को लेकर अर्थशास्त्रियों के दोहरे मानदंड पर लगातार सवाल उठा रहे हैं। उनका
कहना है कि यदि कार्पोरेट्स का कर्ज माफ करना आर्थिक समझदारी है तो फिर किसानों के
कर्ज माफ करना गलत कैसे हो सकता है।‘‘(7)
कर्ज के बोझ, फसल का वाजिब मूल्य न मिल पाने और निरन्तर घाटे में चल रहा
किसान आज आत्महत्या को विवश है। कार्पोरेट जगत, राजनेता और बैंक तन्त्र के चंगुल से निकलने का किसानों का
प्रयास असफल होता जा रहा है। ऐसी निरीह स्थिति में किसान आत्महत्या को विवश हैं।
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के किसान आन्दोलनों में किसान शहरों की ओर पलायन कर रहे
थे या सरकारों से संघर्ष कर मुक्ति का मार्ग खोज रहे थे। परन्तु वर्तमान स्थिति
इतनी भयावह है कि किसान, आत्महत्या करने
को मजबूर हैं। इस सन्दर्भ में ‘आउटलुक’ पत्रिका में प्रकाशित ‘हरवीर सिंह’ का आलेख ‘बदल रहा है किसान’ का अंश दृष्टव्य है-’’ वैश्विक बाजार में कृषि उत्पादों की कीमतों में गिरावट ने
हालत खराब की, जबकि सरकार का
जोर महंगाई रोकने पर लगा रहा, जिसके चलते फसलों
के समर्थन मूल्य में मामूली बढ़ोतरी की गई। सरकारी खरीद की सुविधा बढ़ाने के बजाय
कमोडिटी एक्सचेंजों में वायदा कारोबार और निजी क्षेत्र पर भरोसा किया गया।
उसके बाद तो देश के कई हिस्सों से सिर्फ
किसानों के कर्ज के जाल में फंसने और खुदकुशी करने की खबरें ही आती रहीं।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक 1995 से करीब 3 लाख 40 हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इनमें ज्यादातर छोटे और सीमांत किसान हैं।
हाल के कुछ वर्षों में उद्योगों और गैर-कृषि क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों के
घटने से खेत-मजदूरों की खुदकुशी भी बढ़ने लगी है। केन्द्र सरकार के मई 2017 में सुप्रीम कोर्ट में रखे गए आंकड़ों के
मुताबिक हर साल कृषि क्षेत्र में 12,000 से ज्यादा लोग आत्महत्या कर रहे हैं। सरकारी
आंकड़ों के मुताबिक 2015 में कृषि
क्षेत्र में कुल 12,602 लोगों ने
आत्महत्या की है, जिनमें 8,007 किसान और 4,595 कृषि मजदूर हैं। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 4,291 किसानों ने जान दी है। उसके बाद कर्नाटक में 1,569,
तेलंगाना में 1,400, मध्यप्रदेश में 1,290, छत्तीसगढ़ में 954, आंध्रप्रदेश में 916 और तमिलनाडु में
606 किसानों ने आत्महत्या की
है। किसानों की आत्महत्याओं से जुडे़ 87.5 फीसदी मामले इन्हीं सात राज्यों में सामने आए हैं।’’(8)
कार्पोरेट जगत को अपने उत्पादन के लिए किसानों
की सस्ती जमीन और उनका सस्ता श्रम चाहिए जिससे उनके उत्पादों की लागत कम हो और
उन्हें बेचकर अच्छा मुनाफा कमाया जा सके। यदि कृषि कार्य में लाभ होगा तो किसानों
का पलायन गावों से शहर की ओर नहीं होगा। भूमि अधिग्रहण विधेयक ने किसानों को
स्थायित्व प्रदान किया है। पहले सरकार द्वारा किसानों की भूमि अधिग्रहीत होने पर
किसान अत्यन्त दुखी होता था परन्तु इस विधेयक द्वारा किसानों को उनकी भूमि का उचित
मुआवजा मिलने से वह आजीविका के दूसरे साधन ढूंढ़ सकता है। दूसरा भ्रष्टाचार के
पश्चात् भी मनरेगा ने गाँव से शहर की ओर पलायन रोका है। यही दो योजनाएं कार्पोरेट
जगत के मुख्य निशाने पर हैं। कार्पोरेट जगत द्वारा संचालित कई मीडिया संस्थानों
द्वारा इन्हीं दो योजनाओं पर सर्वाधिक प्रहार किये जाते हैं।
ऐसी स्थिति में किसानों को दयनीय स्थिति में
लाने का एक ही विकल्प है कि किसानों को उनकी उपज का कम मूल्य मिले तभी वह ऋण के
बोझ से दब सकेगा और उसका पलायन शहर की ओर होगा। यह पलायित जन कार्पोरेट जगत को
सस्ते श्रम के रूप में उपलब्ध होगा। इसीलिए पूंजीपति, सरकार और कार्पोरेट द्वारा संचालित मीडिया एवं उनके समर्थक
अर्थशास्त्री किसानों की ऋण माफी का विरोध करते हैं। जबकि दूसरी ओर यही तन्त्र
उद्योगपतियों की ऋण माफी का समर्थन करता है और उन्हें छूट दिलाकर उस धनराशि में
अपना हिस्सा बंटाकर स्विस बैंक में जमा करता है। उसका बोझ भारतीय नागरिकों पर
डालकर अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित कर लेता है। राजनेता जनता को धर्म और जाति के
मुद्दों में उलझाकर इन पूंजीपतियों से धन प्राप्त कर अपनी कुर्सी बचाए रखते हैं।
इस सन्दर्भ में ‘आउट लुक’ पत्रिका में प्रकाशित अजीत सिंह की रिपोर्ट
दृष्टव्य है-‘ अकसर कृषि ऋण
माफी का विरोध इस आधार पर किया जाता है कि ऐसा होने से किसान कर्ज चुकाना ही बंद
कर देंगे। लेकिन आरबीआई के आंकड़े अलग ही तस्वीर पेश करते हैं। आंकड़ों के मुताबिक,
वर्ष 2015-16 में कृषि क्षेत्र का 7.4 फीसदी कर्ज दबाव में है, यानी जिन्हें लौटाना मुश्किल हो रहा है। औद्योगिक क्षेत्र
में ऐसा कर्ज 19.4 फीसदी है यानी
कर्ज लौटाने के मामले में किसान का रिकार्ड उद्योगपतियों के मुकाबले कहीं बेहतर
है। आरबीआई के आंकड़ों के अनुसार, मार्च 2016 में केवल छह फीसदी कृषि कर्ज में डिफ़ॉल्ट हुआ,
जबकि कंपनियों ने 14 फीसदी कर्जों में डिफ़ॉल्ट किया। इसमें संदेह नहीं है कि इस
साल बंपर पैदावार और नोटबंदी के बाद जिस तरह आलू, प्याज, टमाटर, सोयाबीन, मूंग, अरहर, मक्का जैसी फसलों के दाम थोक मंडियों में
धराशायी हुए हैं, उससे बहुत से
किसानों के लिए कर्ज लौटाना मुश्किल हो जाएगा, इसलिए वे राहत के तौर पर सरकार से कर्ज माफी की उम्मीद लगाए
बैठे हैं।‘ (9)
उन्नीसवीं सदी में जहाँ किसानों के आन्दोलन
विद्रोह पर केन्द्रित थे वहीं इक्कीसवीं सदी के किसान आत्महत्या करने को विवश हैं।
आज किसानों को अपनी मुक्ति का कोई मार्ग दिखायी नहीं दे रहा है। खाद्य पदार्थों की
आयात-निर्यात नीति का निर्धारण सरकार द्वारा किसानों के हितों पर आधारित न होकर
उद्योगपतियों के लाभ पर आधारित है। अतः किसान अपने जीवन को बनाए रखने के लिए आजादी
के इतने समय के पश्चात् भी आन्दोलनरत हैं।
सन्दर्भ
1- बिपिन चन्द्र, भारत का स्वतन्त्रता संघर्ष, पृष्ठ 21, हिन्दी माध्यम
कार्यान्वय, निदेशालय,
दिल्ली विश्वविद्यालय, 10, केवेलरी लाइन, दिल्ली- 110007, 32वां पुनर्मुद्रण 2010
2- अयोध्या सिंह, भारत का मुक्ति संग्राम, पृष्ठ 71, ग्रंथ शिल्पी
(इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड, बी.7, सरस्वती कामप्लेक्स, सुभाष चैक, लक्ष्मी नगर,
दिल्ली 110092, पुनर्मुद्रण 2012
3- वही, पृष्ठ 71
4- बिपिन चन्द्र, भारत का स्वतन्त्रता संघर्ष, पृष्ठ 31
5- वही, पृ ष्ठ 345
6- इंडिया टुडे, अंक- 21 जून,
2017, पृष्ठ 41, पीयूष बबेले और शुरैह नियाजी की रिपोर्ट
7- आउटलुक, अंक- 3 जुलाई 2017,
पृष्ठ 32-33
8- वही, पृष्ठ 23
9- वही, पृष्ठ 33
डॉ.इकरार अहमद
सोसिएट प्रोफेसर,
हिन्दी विभाग, विवेकानन्द ग्रामोद्योग महाविद्यालय
दिबियापुर-औरैया,
मो0-09412068566
एक टिप्पणी भेजें