त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था में उपेक्षित किसान/ घनश्याम कुशवाहा
भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था में उपेक्षित किसान/
भारत एक कृषि
प्रधान देश है। हमारे देश की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार कृषि ही है अथवा दूसरे
शब्दों में हम कह सकते हैं कि किसानों पर देश की अर्थव्यवस्था की प्रमुख
जिम्मेदारी है। जब भी हम एक किसान के बारे में सोचते हैं उसका चेहरा जो हमेशा
चिंता की लकीरों से सजी रहती है, हमारे आँखों के
सामने परिकल्पित होने लगता है। मिट्टी की उर्वरा शक्ति में अपनी पहचान और अस्मिता
को तलाशता किसान, सूरज की किरणों
से पहले जागना, शाम ढलने के बाद
तक अपने खेतों को सँवारने व फसलों की सुरक्षा की जुगत में लगा रहना, रात सोते आसमान की तरफ देखकर मौसम के अनुकूलन
की प्रार्थना करने के साथ ही न जाने कितने सारे अनगिनत प्रश्न उसके मन-मस्तिष्क
में उमड़ने लगते हैं मसलन अगली फसल के लिए बीज, खाद, पानी की चिंता,
बेटे-बेटी की पढ़ाई की चिंता, बेटी की शादी की चिंता, नेवता-हंकारी की चिंता, पिछला कर्ज चुकता करने की चिंता, परिवार की सकुशलता की चिंता इत्यादि अनगिनत प्रश्नों का
उत्तर ढूंढते न जाने कब सुबह हो जाती है तथा वह एकबार फिर अपनी खेतों की तरफ चल
देता। प्रेमचंद ने किसान को साहित्य का विषय बनाया। उनके कथा-साहित्य में भारत का
सबसे बड़ा वर्ग किसान रहा है। किसान भारत की कृषि-संस्कृति का मूलाधार है। किसान के
बिना भारतीय संस्कृति का कोई भी विश्लेषण अधूरा होगा। एक तरफ जहाँ भारतीय कृषि को
जीवन जीने का तरीका माना जाता था वही आज किसान को आत्महत्या तक पर मजबूर कर रहा
है। किसान आत्महत्या आज भारतीय समाज के लिए एक अभिशाप बन गया है। मशहूर
समाजशास्त्री और मानवशास्त्री इमाईल दुर्खीम आत्महत्या को परिभाषित करते हुए लिखते
हैं, “आत्महत्या वह स्थिति है
जिसमे व्यक्ति प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से जानता है कि वह(आत्महत्या करने
वाला) अपना शरीर नष्ट करने जा रहा है।” बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि आये दिन अखबार किसानों की आत्महत्या की खबरों
से पटे पड़े रहते हैं। आज भी हमारे देश के अधिकांश किसान निर्धनता की रेखा के नीचे
तंगहाल जीवन व्यतीत कर रहे हैं।आर्थिक सर्वेक्षण 2013-14 की रिपोर्ट के अनुसार जनगणना 2011के में लगभग54.6 प्रतिशत लोगकृषि व्यवसाय में संलग्न थे। वर्तमान समय में देखें तो काश्तकारों
की संख्या में अभूतपूर्व कमी आई है| जनगणना 2001 में जहाँ इनकी
संख्या 127 लाख थी वहीं 2011 में घटकर 118.7 लाख ही रह गई है।इस सर्वे के आंकलन के अनुसार कृषि क्षेत्र
में उत्पादन की विकास दर अंतर्राष्ट्रीय मानकों से काफी कम होने के साथ हीचावल और
गेहू का उत्पादन, वर्ष 1980 से हरित क्रांति के उपरांत लगातार घटा है।जिस
देश में 1.25 अरब के लगभग
आबादी निवास करती होउस देश में कृषि की गुणवत्ता तथा विकास के लिए कृषि शिक्षा के
विश्वविद्यालय और कॉलेज नाममात्र केहैं। जो गिने चुने शिक्षण संस्थान हैं उसमें भी
गुणवत्तापरक शिक्षा का अभाव ही है। भारतीय कृषकों के परिश्रमी होने के वावजूद इनके
पिछड़े होने के अनेक कारण हैं जिसमे निर्धनता और निरक्षरता प्रमुख है। निरक्षर होने
के कारण आज भी किसान खेती की उच्च तकनीकी ज्ञान से परिचित नहीं हैं, जिस कारण वह उच्च कोटि की उन्नत बीजों और
रासायनिक खाद के इस्तेमाल से अपरिचित, परंपरागत रुढ़िवादी तरीके से खेती करने को अभिशप्त है। इस बात से इनकार नहीं
किया जा सकता कि भारतीय कृषि मानसून का जुआ है।यही कारण है कि किसानों की मेहनत का
प्रतिफल हमेशा असमंजसता की स्थिति में होता है। किसान बाढ़, सूखा, अकाल जैसी
प्राकृतिक आपदाओं को झेलते हुए किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। इस प्रकार हम देखते
हैं कि एक किसान की मेहनत हमेशा मानसून के अधीन होती है जिसके सामने वहबेबस और
लाचार नजर आता है।
कृषि गणना 2010-11 के अनुसार:
• सीमांत किसान वह है, जिसकी कुल भूमि एक हेक्टेयर से कम हो,
• छोटा किसान जिसकी कुल भूमि एक हेक्टेयर या उससे
अधिक लेकिन दो हेक्टेयर से कम हो,
• मध्यम किसान जिसकी कुल भूमि दो हेक्टेयर या
उससे अधिक लेकिन दस हेक्टेयर से कम हो,
• बड़ा किसान जिसकी कुल भूमि दस हेक्टेयर या उससे
अधिक हो,
भारतीय किसानों
का अगर हम वर्गीकरण करें तो पाते हैं कि बड़ा, मध्यम, लघु, और सीमांत किसानों में लघु और सीमांत किसानों
की संख्या काफी अधिक है। इन किसानों की भूमि की जोत का आकार काफी छोटा होने के
कारण इसमें कृषि यंत्रों का सही इस्तेमाल नहीं हो पाता जिसके फलस्वरूप उत्पादकता
काफी घट जाती है।कृषि गणना 2010-11 के अनुसार जोत
का औसत आकार 1.15 हेक्टेयर रहने
का अनुमान लगाया गया है। जोत का औसत आकार 1970-71 के बाद से ही विभिन्न कृषि गणनाओं की तुलना में निरंतर कमी
आई है। ऐसे में भारतीय किसान के लिए “अन्नदाता” की उपमा कितनी
सार्थक रह जाती है इस पर भी विचार करने की जरुरत है। आज अन्नदाता दुखी और बेबस है
और ये कहानी पुरे देश की है, चाहे विदर्भ
क्षेत्र के किसान हों या गुजरात या फिर उत्तर प्रदेश के किसान।विगत वर्ष की उस
घटना नहीं भुलाया जा सकता जो दिल्ली के जंतर मंतर के पास उस समय घटित हुई जब वहां
एक जनांदोलन हो रहा था| इस आन्दोलन के
दौरान ही राजस्थान के एक किसान ने पेड़ से लटककर आत्महत्या कर ली हो या फिर विगत
दिनों मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में किसानों का आन्दोलन, जिसमें पुलिस फायरिंग के दौरान छः किसानों की मौत हो गई।
जहाँ पहले देश में किसानों की आत्महत्या की ख़बरें महाराष्ट्र के विदर्भ और आंध्र
प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र से ही आती थीं, वहीं अब इसमें नए इलाक़े जुड़ गए हैं। इनमें बुंदेलखंड जैसे
पिछड़े इलाक़े नहीं, बल्कि देश की
हरित क्रांति की कामयाबी में अहम भूमिका वाले हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर
प्रदेश जैसे क्षेत्र भी शामिल हैं। इसके अलावा औद्योगिक और कृषि विकास के आंकड़ों
में रिकॉर्ड बनाने वाले गुजरात के क्षेत्र भी शामिल हैं। आखिर ऐसे क्या कारण हैं
जो किसान को ‘आत्महत्या’
जैसी स्थिति में लाने पर मजबूर कर देता है?
अगर हम भारतीय समाज की संरचना के अंतर्गत
किसानों की आर्थिक और राजनितिक परिदृश्य की बात करें तो पाते हैं कि भारत की
अर्थव्यवस्था मुख्यतया कृषि पर आधारित है या यूं कहें कि कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था
की रीढ़ की हड्डी है तो यह अतिश्योक्ति न होगी। प्रत्येक सरकार चाहे वो केंद्र में
हो या राज्य, कृषि हमेशा उनकी
प्राथमिकता में शामिल होती है बजाय उसके आज कृषि क्षेत्र सर्वथा उपेक्षित है इसके
फलस्वरूप हमारे किसानों की जो स्थिति आज सामने उभरकर आयी है वह किसी से छुपी नहीं
है।
किसानों की
प्रमुख समस्याओं में शामिल क़रीब पांच साल पहले कृषि लागत एवं मूल्य आयोग
(सीएसीपी) ने पंजाब में कुछ केस स्टडी के आधार पर किसान आत्महत्याओं की वजह जानने
की कोशिश की थी। इसमें सबसे बड़ी वजह किसानों पर बढ़ता कर्ज़ और उनकी छोटी होती
जोत बताई गई। इसके साथ ही मंडियों में बैठे साहूकारों द्वारा वसूली जाने वाली
ब्याज की ऊंची दरें बताई गई थीं। लेकिन यह रिपोर्ट भी सरकारी दफ़्तरों में दबकर रह
गई है। असल में खेती की बढ़ती लागत और कृषि उत्पादों की गिरती क़ीमत किसानों की
निराशा की सबसे बड़ी वजह है।
आंकड़े बताते हैं
कि 1995 से 31 मार्च 2013 तक 2,96,438 किसानों ने
आत्महत्या की है हालांकि जानकार इस सरकारी आकंडे को काफी कम कर आंका गया समझते
हैं।
30 दिसंबर 2016 को जारी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के
रिपोर्ट ‘एक्सिडेंटल डेथ्स एंड
सुसाइड इन इंडिया 2015’ आंकड़ों के अनुसार
सन 2015 में कुल 12602 किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों ने आत्महत्या
की, जिसमें से 8007 किसानों ने आत्महत्या की जबकि 4595 खेती से जुड़े मजदूरों ने आत्महत्या की थी। साल
2014 में आत्महत्या करने
वालों में किसानों की संख्या 5650 तथा खेती से
जुड़े मजदूरों की संख्या 6710 थी। यहाँ ध्यान
देने योग्य बात यह है कि किसानों की आत्महत्या के इन आंकड़ों में छोटे और सीमांत
किसानों की आत्महत्या मध्यम और बड़े किसानों की आत्महत्या से ज्यादा थी।एनसीआरबी के
रिपोर्ट के अनुसार किसानों और कृषि मजदूरों की आत्महत्या का कारण कर्ज, कंगाली, और खेती से जुड़ी दिक्कतें हैं। आंकड़ों के अनुसार
आत्महत्या करने वाले 73 फीसदी किसानों
के पास दो एकड़ या उससे कम जमीन थी।
फसल की बर्बादी
और ऋणों का बोझ किसानों को आत्महत्या के दहलीज पर पहुंचा देते हैं।2015 में जितने किसानों ने आत्महत्या की उनमें से
अधिकतर मामलों में कर्ज ना चुका पाना प्रमुख कारण था। मैग्सेसे अवार्ड विजेता पी.
साईनाथ का कहना है कि मौसम की मार, ऋणों के बोझ सहित
कई अन्य कारणों से देश में किसान आत्महत्या करते हैं।
स्वामीनाथन आयोग
की रिपोर्ट:
मुख्यत:
खाद्यान्न की आपूर्ति और किसान की आर्थिक हालत को बेहतर करने के दो मकसदों को लेकर
सन् 2004 में केंद्र सरकार ने डाक्टर एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता
में नेशनल कमीशन ऑन फार्मर्स का गठन किया। इसे आम लोग स्वामीनाथन आयोग कहते हैं।
इस आयोग ने अपनी पांच रिपोर्टें सौंपी। अंतिम व पांचवीं रिपोर्ट 4 अक्तूबर, 2006 में सौंपी गयी। रिपोर्ट ‘तेज व ज्यादा समग्र आर्थिक विकास’ के 11वीं पंचवर्षीय
योजना के लक्ष्य को लेकर बनी थी। सबको अच्छा भोजन उपलब्ध हो, उत्पादकता बढ़े, खेती से किसान को पर्याप्त लाभ हो, खेती में सतत विकास की विधियां अपनाई जाएं, किसानों को आसान व पर्याप्त ऋण मिले, सूखे, तटवर्ती एवं पहाड़ी क्षेत्रों में कृषि की विशेष प्रोत्साहन योजनाएं लागू हों,
कृषि लागत घटे और उत्पादन की क्वालिटी बढ़े,
कृषि पदार्थों के आयात की दशा में किसान को
सरकारी संरक्षण मिले तथा पर्यावरण संरक्षण के मकसद को पंचायतों के माध्यम से हासिल
किया जाए- उक्त सभी उद्देश्यों के साथ इस आयोग का गठन किया गया था। कृषि ज्ञान व
क्षमता को बढ़ाना, तकनीकी का खेती
में ज्यादा इस्तेमाल व विपणन की सुविधाएं बढ़ाना भी आयोग की प्राथमिकतों में शुमार
था। पानी की कमी दूर करने संबंधी योजनाओं को बढ़ावा देना भी उक्त कमीशन की मंशा
थी। एमएस स्वामीनाथन को भारत की हरित क्रांति का जनक माना जाता है जिसके जरिये
बढ़ती जनसंख्या को पर्याप्त अन्न मुहैया करवाना संभव हुआ। उनका लक्ष्य पूरी दुनिया
को भूख से निजात दिलाने के साथ ही खेती को पर्यावरण मित्र बनाना भी था।
भूमि सुधारों की
गति को बढ़ाने पर आयोग की रपट में खास जोर है। सरप्लस व बेकार जमीन को भूमिहीनों
में बांटना, आदिवासी
क्षेत्रों में पशु चराने के हक यकीनी बनाना व राष्ट्रीय भूमि उपयोग सलाह सेवा
सुधारों के विशेष अंग हैं। सिंचाई के लिए सभी को पानी की सही मात्रा मिले, इसके लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग व वाटर शेड
परियोजनाओं को बढ़ावा देने की बात रिपोर्ट में वर्णित है। इस लक्ष्य से पंचवर्षीय
योजनाओं में ज्यादा धन आवंटन की सिफारिश की गई। भूमि की उत्पादकता बढ़ाने के साथ
ही खेती के लिए ढांचागत विकास संबंधी भी रिपोर्ट में चर्चा है। मिट्टी की जांच व
संरक्षण भी एजेंडे में है। रिपोर्ट में बैंकिंग व आसान वित्तीय सुविधाओं को आम
किसान तक पहुंचाने पर विशेष ध्यान दिया गया। फसल ऋण सस्ती दरों पर, कर्ज उगाही में नरमी, किसान क्रेडिट कार्ड व फसल बीमा भी सभी किसानों तक पहुंचाने
की बात की गई। मिलेनियम डेवलपमेंट गोल 2015 के लक्ष्य को प्राप्त करने व प्रति व्यक्ति भोजन उपलब्धता बढ़े, इस मकसद से सार्वजनिक वितरण प्रणाली में आमूल
सुधारों पर बल दिया गया। कम्युनिटी फूड व वाटर बैंक बनाने व राष्ट्रीय भोजन गारंटी
कानून की संस्तुति भी रिपोर्ट में है। किसान आत्महत्या की समस्या के समाधान,
राज्य स्तरीय किसान कमीशन बनाने, सेहत सुविधाएं बढ़ाने व वित्त-बीमा की स्थिति
पुख्ता बनाने पर भी आयोग ने विशेष जोर दिया। किसानों की फसल के न्यूनतम समर्थन
मूल्य कुछेक नकदी फसलों तक सीमित न रहें, इस लक्ष्य से ग्रामीण ज्ञान केंद्र व मार्केट दखल स्कीम भी लांच करने की
सिफारिश रिपोर्ट में है। एमएसपी औसत लागत से 50 फीसदी ज्यादा रखने की सिफारिश भी की गई है ताकि छोटे किसान
भी मुकाबले में आएं। आज तक इस रिपोर्ट को राजनितिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते पूरी
तरह लागु नहीं की गई। सरकारें आती आती गईं लेकिन किसानो की स्थिति में कोई
गुणात्मक परिवर्तन नहीं आय।
दोषपूर्ण नीतियां
व महत्वपूर्ण उपाय:
किसानों की
बदहाली और आत्महत्याओं के लिए सरकारों की दोषपूर्ण नीतियां जिम्मेदार हैं। कृषि
अर्थव्यवस्था के जानकारों का कहना है कि हालात ऐसे भी बुरे नहीं है कि सरकार इसे
नियंत्रित ना कर पाए। लेकिन सरकार में इच्छाशक्ति का अभाव है। किसानों के लिए जो
सुविधाएं या सब्सिडी मिलती है वह काफी नहीं है। साख व्यवस्था में किसान को दो तरह
के ऋण प्राप्त होते हैं। पहला अल्पकालिक और दूसरा दीर्घकालीन। अल्पकालीन व्यवस्था
के अंतर्गत सरकार का विशेष ध्यान रहता है परंतु दीर्घकालीन ऋणों में किसान की
आवश्यकता पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। दीर्घकालीन ऋणों की ब्याज दरें अल्पकालीन
ऋण की तुलना में अधिक हैं। किसान की अन्य आवश्यकताओं के लिए ऋणों का कोई प्रावधान
दीर्घकालीन व्यवस्था में नहीं है जिससे एक ही किसान को दोहरे मापदण्डों का सामना
करना पड़ता है। इस व्यवस्था में बेहद सुधार की आवश्यकता है। परियोजना आधारित ऋण
वितरण को समाप्त कर ऋण सीमा स्वीकृत करते हुए सस्ती ब्याज दरों पर ऋण तथा किसान
क्रेडिट कार्ड उपलब्ध कराए जाने चाहिए। अक्सर सरकारी सुविधाओं का लाभ सिर्फ बड़े
किसानों को मिलता है। समृद्ध किसानों की सब्सिडियों को रोक कर छोटे, मझोले किसानों को मदद देना होगा।‘बेहतर ऋण व्यवस्था', दोष मुक्त फसल बीमा और ‘सिंचाई प्रणाली में सुधार' लाकर सरकार किसानों की स्थिति में सुधार ला सकती है।
किसानों के लिए
खेती का खर्च लगातार बढ़ रहा है और आमदनी कम हुई है। छोटे किसान आर्थिक तंगहाली की
सूरत में कर्ज के दुष्चक्र में पड़े है। जब किसान की फसलें तैयार हो जाती हैं
उन्हें अपने अनाज व् अन्य उत्पाद की वास्तविक कीमतें नहीं मिलती।
भारतीय कृषि की
सबसे बड़ी विडंबना है कि जब भी किसान का कृषि उत्पाद बाजार में आता है उसका मूल्य
निरंतर गिरने लगता हैं। मध्यस्थ सस्ती दरों पर किसान का उत्पाद खरीद लेते हैं
जिससे कृषि अभी तक घाटे का व्यवसाय बना हुआ है। दुर्भाग्य है कि संबंधित लोग
औद्योगिक क्षेत्रों के उत्पादन की दरें लागत, मांग और पूर्ति को ध्यान में रखते हुए निर्धारित करते हैं
किंतु किसान की फसलों तथा उत्पादों का मूल्य या तो सरकार या क्रेता द्वारा
निर्धारित किया जाता है उसमें भी तत्काल नष्ट होने वाले उत्पाद की बिक्री के समय
किसान असहाय दिखाई देता है। हाल ही ऐसी घटनाएँ ज्ञातव्य हुई हैं जब मध्य प्रदेश
में किसानों ने अपनी प्याज और टमाटर सड़कों पर फेंक दिए क्योंकि उनकी इन फसलों की
लागत तक नहीं मिल पा रही थी। ऐसी ही स्थिति महाराष्ट्र में हुई जब किसानों ने
विरोध स्वरुप अपने दूध के टैंक सड़कों पर बहा दिए। ऐसी दशा में क्रय-विक्रय
व्यवस्था को मजबूत और पारदर्शी बनाया जाना चाहिए और उसके उत्पाद का मूल्य भी मांग,
पूर्ति और लागत के आधार पर किसान को निर्धारित
कर लेने देना चाहिए। सर्वविदित है कि किसानों का कहीं उत्पाद इतना अच्छा होने के
बावजूद उसका उचित मूल्य न मिलने पर और लागत तक नहीं प्राप्त होने पर किसान उसे
फेंकने को मजबूर हो जाता है और कभी कभी उत्पाद इतना कम होता है कि उसे मध्यस्थ
सस्ती दरों पर क्रय कर उच्च दरों पर बिक्री कर बीच का मुनाफा ले लेता है और किसान
ठगा सा रह जाता है।
भारतीय किसानों
की दशा व दिशा सुधारने के लिए उनकी आय बढ़ाने हेतु कारगर व प्रभावशाली कदम उठाने की
जरुरत है। ग्रामीण रोजगार क्रांति की पहल करनी होगी। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि
आधारित उद्योग धंधों की स्थापना की जानी चाहिए जिनमें न्यूनतम प्रशिक्षण से
स्थानीय आबादी के व्यक्तियों को रोजगार मिल सके तथा किसानों के उत्पाद की उसमें
खपत हो सके जैसे फ्लोर मिल, राइस मिल,
तेल कोल्हू, फलों से बनने वाले विभिन्न सामान जैसे टमाटर का सॉस,
जैम, पापड़, मोमबत्ती, अगरबत्ती, बड़ियां, चिप्स एवं आचार,
मुरब्बा आदि के उद्योग लगने चाहिए तथा इसकी
विपणन की व्यवस्था की जानी चाहिए। ग्रामीण बेरोजगारों को ग्रामीण क्षेत्र में
रोजगार उपलब्ध कराने के लिए वहां के स्थानीय उत्पाद को ध्यान में रखते हुए लघु एवं
कुटीर उद्योगों की स्थापना भी की जानी चाहिए।
बाजार में
अनिश्चितता की स्थिति को समाप्त करने तथा एक राष्ट्रीय कृषि बाजार के निर्माण की
दिशा में सार्थक प्रयास करने होंगें, ताकि किसानों को बाजारों में उचित मूल्य मिल सकें। एक सामान्य राष्ट्रीय बाजार
की स्थापना के लिए आर्थिक सर्वेक्षण में एपीएमसी अधिनियम, भूमि किराएदारी अधिनियम, मुक्त व्यापार के लिए रूकावटों को दूर करना, सीधे विपणन, वैकल्पिक मार्केटिंग पहल जैसे उपायों के सुझाव दिए गए हैं।
स्थायी व्यापार नीति की स्थापना जिसमें टैरिफ आधारित तथा गैर-टैरिफ व्यापार
प्रतिबंधों का उल्लेख किया गया है। पर्याप्त कृषि उत्पादन तथा भंडारों के वर्तमान
परिप्रेक्ष्य में सरकार को खाद्यान उत्पादन तथा इसके वितरण के सभी पहलुओं पर
गंभीरता के साथ विचार करना होगा।
किसानों की
आत्महत्या रोकने का कार्य सरकार कई किसान कल्याण एवं कृषि विकास की योजनाओं द्वारा
कर सकती है। साथ ही सरकार को फसल बीमा एवं कई अन्य प्रकार की सहायता जैसे सहकारी
बैंकों से कम ब्याज दर पर ऋण की उपलब्धता कराना एवं उच्च गुणवत्ता वाले बीज,
उच्च स्तर के खाद, कीटनाशक, उत्तम कृषि यंत्र
प्रदान करना एवं भूमिहीन किसानों को भूमि उपलब्ध कराना आदि उपायों के द्वारा सरकार
किसानों की आत्महत्या को रोकने में कामयाब हो सकती है।फसल बीमा, फसलों का उच्च समर्थन मूल्य एवं आसान ऋण की
उपलब्धता सरकार को सुनिश्चित करनी होगी तभी किसानों की स्थिति सुधरेगी और उन्हें
आत्महत्या करने से रोका जा सकेगा।
सन्दर्भ
1. Cobrapost.com-January
3, 2017
2. Desa। A.R., Rural Soc।ology ।n ।nd।a, Popular Prakashan,1994.
3. Durkhe।m, Em।le, Su।c।de, translated, Par।s, 1942.
4. https://data.gov.।n/catalog/acc।dental-deaths-su।c।des-।nd।a-2015 http://www.ncrb.gov.।n/
5. भारतीय किसान और उनकी मूलभूत समस्याएं: नवल
किशोर, कुरुक्षेत्र, दिसंबर 2011.
6. http://p।b.n।c.।n/news।te/h।nd।release.aspx?rel।d=28738
घनश्याम कुशवाहा
सहायक प्राध्यापक (समाजशास्त्र),राजकीय डिग्री कॉलेज,पचपेडवा, बलरामपुर, उत्तर प्रदेश
मेवाड़ की धरती और मेवाड़ के आन बान और शान के धनी जैसे महाराणा सांगा,महाराणा प्रताप,त्यागमूर्ति पन्नाधाए , वीरयोद्धा गोरा बादल और महारानी पद्मिनी जैसे अनेक भरे पड़े हैं .मेवाड़ के अलावा शेष राजस्थान के राजपुतों के पास ऐसा एक भी उदहारण नहीं है जो मेवाड़ की बराबरी कर सके .क्योंकि शेष राजस्थान के राजपूतों ने मेवाड़ जैसे आन बान वाले कार्य न करके पंडितों के बहकावे में आकर शासन से चिपके रहने की खातिर अपनी बहन बेटियों को मुगलों को देने में ही वीरता समझी .उस वीरता का परिणाम यह हुआ कि मेवाड़ के राजपूत शेष राजस्थान के जाजपूतों को निम्न श्रेणी का समझते हैं ,इसलिए इन राजपूतों में रिस्तेदारी करने से भी परहेज करते हैं .
जवाब देंहटाएंअब मजे की बात देखिये मेवाड़ ने जिन्हे निम्न श्रेणी का समझा वे हे मेवाड़ का सहारा लेकर एक फिल्म के नाम पर राजनैतिक और अन्य लाभ लेने का प्रयास कर रहे हैं .अगर मेरी बात सत्ये नहीं है तो वे स्वयं बतलायें कि बिना फिल्म की कहानी जसने और बिना फिल्म देखे किस आधार पर फिल्म का विरो
ध किया गया ?
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