प्रेमचंद का कथा साहित्यः भारतीय किसान की स्थिति/संदीप कौर

त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
प्रेमचंद का कथा साहित्यः भारतीय किसान की स्थिति/संदीप कौर
               
बीसवीं सदी के दूसरे तीसरे दशक में देश की औपनिवेशिक व्यवस्था में किसानों की जो दशा थी, आज़ादी के उनहत्तर साल बाद क्या हालत है, यह हमें रोज अखबार और टीवी से पता चल रहा है। मीडिया पर आज के दौर में पूँजीपति या औद्योगिक घरानों के भारी नियंत्रण के बाद भी पिछले पंद्रह सालों में देश के तीन लाख से भी अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं और आज भी उन्हे कोई राहत नहीं है, भले ही कोई हज़ार करोड़ मुआवजे बाँटे गए हैं। किसानों की आत्महत्या या देश का कृषि संकट देश की भ्रष्ट व्यवस्था के कारण आज भी कम होने की बजाय निरंतर बढ़ रहा है। इसका प्रभाव साहित्य के क्षेत्र पर भी पड़ा। हिन्दी साहित्य के उच्चकोटि के रचनाकार प्रेमचंद समाज के इस यथार्थ से अत्यधिक विचलित हुए, जिसका प्रभाव उनकी रचनाओं पर भी पडा। किसान जीवन की जितनी गहरी, प्रामाणिक और वास्तविक समझ प्रेमचंद के यहाँ जैसी थी, वैसी समझ हमें किसी और कथाकार के पास दिखाई नहीं पड़ती। किसानों के जीवन की त्रासदी को उन्होनें जैसे खुद तिल-तिल कर महसूस किया था, वैसा ही अपने कथा साहित्य में उतारा।

                प्रेमचंद के इस ओर झुकाव होने का एक राजनैतिक परिप्रेक्ष्य भी है। कांग्रेस के विभाजन(1907ई.) के बाद उसका प्रभाव और कार्यक्षेत्र धीरे-धीरे घटा। जब प्रथम विश्वयुद्ध 1914ई. में हुआ, जिसमें भारतीय फौजें भी गयी, किसान कांग्रेस के करीब आए। 1915ई. में कांग्रेस ने चम्पारन जिले में किसानों की कठिनाईओं की जाँच के लिए कमीशन बैठाने का प्रस्ताव किया। गांधी जी ने 1917ई. में चम्पारन जमींदारों के खिलाफ किसानों के आंदोलन को संगठित किया, उनका उद्देश्य किसानों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करना था। इसी कारण 1918 और 1919 को कांग्रेस में बहुत सारे किसान सम्मिलित हुए। 1919ई. में कांग्रेस अधिवेशन में किसान सभा ने एक क्रांतिकारी प्रस्ताव पास किया और सरकार से कहा गया कि सारे भारत में किसान ही जमीन का असली मालिक है। राजनैतिक प्रगति के समानान्तर साहित्यिक प्रगति की दिशा भी जनतांत्रिक होती जा रही थी।’’ 1917ई. में जब रूसी क्रांति हुई तो समस्त साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों के सामने नयी दुनिया का स्वरूप स्पष्ट होने लगा। इसके साथ ही प्रेमचंद के साहित्य में भी नया अलगाव आया। उनकी जीवन दृष्टि और रचना दृष्टि भी इस ओर लगी।

                जब प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हुआ तो प्रेमचंद की जीवन दृष्टि साफ हुई। किसानों के प्रति आरंभ से ही उनके मन में सहानुभूति और जिज्ञासा का भाव था। प्रेमचंद के साहित्यिक जीवन का 1918 से 1930 तक का दौर रूसी क्रांति के प्रति तरफदारी, किसानों-मजदूरों के समर्थक और कांग्रेस के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि का दौर था। कुल मिलाकर प्रेमचंद और किसान अब करीब आ चुके थे। ऐसे साहित्यिक और राजनैतिक माहौल में उन्होंने 1918 में प्रेमाश्रमलिखा। इस उपन्यास में किसानों का दूसरे वर्ग के लोगों के साथ संबंध का वर्णन किया है। प्रेमाश्रममें किसान का पहला शोषक चपरासी गिरधर महाराज है। अधिकारियों के जब दौरे होते हैं, तब यही चपरासी गाँव के एकमात्र भाग्य विधाता बन जाते हैं। किसी की लकड़ियां उठा लाए, किसी का चारा, किसी का सामान उठा लाए। प्रेमचंद ने अवसर पाते ही चपरासियों के अत्याचारों का वर्णन किया है। किसानों का शोषण करने वाला दूसरा वर्ग जमींदार है। इस उपन्यास में लखनपुर का जमींदार गौस खाँ गाँव के बड़े किसानों को मिलाकर अन्य किसानों पर अत्याचार करता है। जमींदार के बाद किसानों का शोषण ब्रिटिश नौकरशाही करती है। भारत के किसानों का शोषण अकेले न तो जमींदार करता था और न सरकार करती थी। प्रेमचंद ने अनुभव किया कि इस देश के मुट्ठी भर अंग्रेज शासकों ने शोषकों की एक विशाल फौज खड़ी कर ली है और उसके स्वार्थ की तलवार किसानों की गर्दन पर सीधे पड़ी हुई है।”  गाँव के भोले भाले किसान दीन-दुनिया की खबर नहीं रखते, कानून का अधिकार नहीं जानते। उनके अपने बीच एकता नहीं है, वह संघ बल नहीं है कि अन्याय का प्रतिकार कर सकें। इसीलिए वह बड़ी आसानी से जमींदार और सरकार के मुलाजिमों द्वारा बिछाए हुए जाल में फँस जाते हैं। प्रेमचंद ने किसानों को इन परेशानियों से निकालने का एक तरीका बताया है, मानवतावादी लोग इकट्ठे हों और वह किसानों के बीच मिशनरी कार्य करें।

                ’रंगभूमिउपन्यास में शहर और देहात का संघर्ष है। यह संघर्ष  गाँव की चिरपुरातन सहकारी सभ्यता और आगत औद्योगीकरण के बीच है। रंगभूमि में भारतीय पूँजीवाद के शैशव का चित्रण है। इसमें पूँजीवाद अभी घुटनों के बल पर चल रहा है।”  उपन्यास के नायक सूरदास के पास दस बीघे ज़मीन थी, जिस पर मुहल्ले की गाय भैंसे चरती थीं, इस जमीन से उसे कोई आमदनी न थी। वह इसे मात्र इसलिए बचाए रखना चाहता है क्योंकि वह बाप-दादों की निशानी है। मि.जानसेवक उसकी जमीन छीननी चाहते हैं, भले ही उनके शहर में बड़े-बड़े बंगले हैं । परन्तु जानसेवक उसकी जमीन लेना चाहते हैं, जो सामन्ती सम्पत्ति का प्रतीक बन गई है। जानसेवक और सूरदास का यह संघर्ष वैयक्तिक नहीं रह जाता बल्कि वह पूंजीवाद और सामंतवाद का संघर्ष बन जाता है।

                प्रेमचंद के कर्मभूमिनामक उपन्यास की रचना भारतीय स्वातंत्रता आंदोलन के उस दौर के समय हुई, जब राष्ट्र ने स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए प्राणों की बाज़ी लगा दी थी। कर्मभूमिमें किसानों के प्रश्न को लेकर भी एक आन्दोलन चला है। कर्मभूमि में दो आन्दोलन हैं। एक शहर में, एक गाँव में। शहर का आन्दोलन म्यूनिसिपल के खिलाफ है, गाँव का जमींदार के खिलाफ।घोर आर्थिक संकट में पड़े हुए किसान अपने जमींदार महंत के लगान की रकम दे पाने के योग्य नहीं रह गए हैं। कर्मभूमि के महंत आसामियों ने जो लगानबंदी का आन्दोलन चलाया है, उसके साथ भी सरकार का प्रत्यक्ष संबंध तो नहीं है किन्तु उसमें सरकार कहीं न कहीं आ ही जाती है। किसानों की मांग है कि भयानक मंदी को देखते हुए लगान में छूट दी जाए। महंत ने अमरकान्त को बताया कि सरकार उनको जितनी मालगुजारी छोड़ देगी, वह भी किसानों को उतनी ही लगान छोड़ देगा। कर्मभूमिउपन्यास युग का यथार्थ चित्रण और युग के यथार्थ पर गहरा व्यंग्य है।

                प्रेमचंद के सशक्त व सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास गोदानका होरी भारतीय किसान का प्रतिनिधित्व करता है। प्रेमचंद ने इस उपन्यास में किसान का सहज-सरल आंतरिक जीवन-जैसा कि वह है, सामने रखने का प्रयास किया है। गोदान की शुरूआत किसान जीवन के लम्बे ऐतिहासिक आकलन पर आधारित है। गोदान का नायक न केवल उपन्यास का नायक है बल्कि भारतीय किसान का प्रतिनिधि चरित्र भी। वह व्यवहार-कुशल है, ईश्वरवादी है, भाग्यवादी है, परम्पराओं और रूढ़ियों को मानने वाला है, भीरू है तथा जरूरत पड़ने पर छल और चोरी भी करने वाला है।इस उपन्यास में प्रेमचंद का प्रयास जमींदार और किसानों के आंतरिक, भावात्मक और वैचारिक जीवन का चित्रण करना रहा है। प्रसंगवश भले ही सम्पूर्ण समाज का चित्रण कर दिया गया है, परन्तु उपन्यास की धुरी किसान का दैनिक जीवन  है। उपन्यास में युवा किसान के मन में कान्ति के बीज भी हैं। गोबर के व्यक्तित्व में वह कहीं-कहीं अंकुरित भी होता है। वह कहता है, “दादा का ही कलेजा है यह सब कुछ सहते हैं, मुझसे तो एक दिन न सहा जाए।इससे जाहिर है कि युवा किसान कहीं न कहीं अपनी परिस्थितियों की असलियत समझ रहा है और उन्हें क्या करना चाहिए, यह भी समझ रहा है। गोदान में गांव के साथ शहर का कथानक रखकर प्रेमचंद अपने समय के समाज का सम्पूर्ण चित्र पेश करना चाहते हैं। उनका लक्ष्य भारतीय जीवन की विशाल धारा को चित्रित करना है। गांव की पुरानी व्यवस्थाएं छिन्न-भिन्न हो रही हैं, किसान और जमींदार दोनों टूट रहे हैं। होरी न अपने मरजाद की रक्षा कर पाता है, न जमीन की। उसका बेटा गोबर शहर की शरण लेता है। जमींदार टूटती हुई सामंतवादी व्यवस्था में एक ओर गांव का शोषण करता है और स्वयं शहर के महाजनों द्वारा शोषित होता है।
                ‘सेवासदनउपन्यास प्रेमचंद की और सम्भवतः हिन्दी साहित्य की अद्भुत कृति है। इस उपन्यास में प्रेमचंद पुलिस, महन्त और जमींदार का जो खाका उपस्थित करते हैं, उसे उन्होंने   किसी न किसी रूप में अपनी अन्य कृतियों मे भी चित्रित किया है। इस उपन्यास में उन्होंने   चित्रित किया है कि सुरक्षा के लिए जिम्मेवार पुलिस सुरक्षा को, नैतिकता का आदर्श मठाधीश पाप को और किसानों के पोषक स्वामी जमींदार शोषण को अपने जीवन का कार्यक्रम बनाकर चलते हैं। उपन्यासकार समाज के इस स्वरूप को निर्भयता और निमर्मता से सामने रख देता है। जमींदार को चाहिए कि वह कृषक वर्ग का उदार करने की ओर कदम बढ़ाए किन्तु वह खुद पुलिस, प्रशासन, नेतागण के हाथ की कठपुतली ही है। सदन के शुद्ध मन के भीतर किसानों के लिए दुख दर्द है। वह उनकी सहायता करना चाहता है। लेकिन जैसे ही उस पवित्र भावना पर इस चेतना का आरोप हो जाता है कि वह खुद भी जमींदार है, वह अपनी दृढ़ता के पथ से विचलित होने लगता है।प्रेमचंद की जमींदारों को सलाह है कि वह किसान की सहायता करें जो उनके अस्तित्व के पीछे हैं अन्यथा किसान खत्म हो जाएगा। जिससे जमींदार के अस्तित्व को भी खतरा है।

                प्रेमचंद ने भारतीय किसान के समग्र यथार्थ का चित्रण अपने उपन्यासों में किया है। उन्होंने सिर्फ किसानों के आर्थिक शोषण का ही वर्णन नहीं किया बल्कि अपने साहित्य में उन्होंने भारतीय किसान की एक बोधगम्य पहचान कायम करने का प्रयास किया। प्रेमचंद ने उपन्यासों में किसान जमींदार, महाजन, नौकरशाही से संघर्ष करता हुआ दिखाई देता है। किन्तु किसान अपनी मरजाद की रक्षा आजीवन कष्ट सहकर भी करता है । इस श्रमजीवी वर्ग को चूसने के लिए शासन, जमींदारों, पूँजीपति, महाजन, पुरोहित धर्म सभी के मिले जुले षड्यंत्र हैं। किन्तु वह विकट परिस्थितियों का भी डटकर सामना करता है। प्रेमचंद ने भारतीय किसान की समग्र समस्याओं को अपने उपन्यासों में उतारा है।

                इसी के साथ ही प्रेमचंद ने विशाल कहानी साहित्य भी लिखा। प्रेमचंद ने सबसे अधिक कहानियां 1924 ई. में लिखी। इनकी कहानियों में विषय ही विविधता और संजीदगी है। किसान जीवन पर 1924 में  इन्होंने तीन महत्वपूर्ण कहानियां मुक्तिमार्ग’, ’मुक्तिधन’, और सवा सेर गेहूँलिखीं। मुक्तिमार्गमें किसान का साधारण और वास्तविक जीवन चित्रित किया गया है। इस कहानी में किसान और किसान का संबंध है। इस कहानी में यह भी स्पष्ट किया है कि खेत पकने से किसान में गर्व पैदा होता है किन्तु फसल नष्ट होने से वह मुरझा जाता है। मुक्तिधनकहानी में यह दिखाया है कि किसान के लिए खेती करना कितना कठिन होता जा रहा है। उनमें नैतिक चिंता भी बराबर विद्यमान थी कि किसानों को किस तरह बचाया जाए। इसके लिए बदहाली के कारणों को जानना जरूरी है। सवा सेर गेहूँउपन्यास में, “ बीस वर्ष तक गुलामी करने के बाद जब शंकर मरता है तो सवा सेर गेहूँ के कर्ज़ में 120 रूपए उसके सिर पर सवार थे। जिसके भुगतान के लिए उसके जवान बेटे की गर्दन पकड़ी जाती है। कहानी के अंत में प्रेमचंद इस ओर भी अपने पाठकों को सचेत कर देते हैं कि यह कोई कपोल कल्पित कहानी नहीं-यह सत्य घटना है। ऐेसे शंकरों और ऐसे विप्रों से दुनिया खाली नहीं।”  दोनों कहानियों के किसान अंत में मजदूर बन जाते हैं। सवा सेर गेहूँमें इसका कारण महाजन को बताया है, जो धर्म की आड़ में शोषण करता है।

                प्रेमचंद ने पूस की रात’ (1930ई.) में किसान की वास्तविक हालत की नाटकीय अभिव्यक्ति की है। इसकी पृष्ठभूमि में महामंदी की भूमिका है। किसान, विशेष रूप से छोटे किसानों की तबाही की दास्तान इसमें है। जाड़े के मौसम और सहना साहूकार के जुल्म की दोहरी मार के बीच छटपटाता हल्कू एक बहुत ही छोटा और गरीब किसान है। पूस के मौसम में रात को अपनी छोटी सी फसल की रक्षा के लिए खून जमा देने वाली ठंड में पहरा देने के लिए हल्कू को एक कंबल चाहिए। जिसे खरीदने के लिए उसकी पत्नी मुन्नी ने बमुश्किल तीन रूपया बचा के रखा था, पर सहना साहूकार की गाली और अपमान से बचने के लिए वह तीन रूपया उसे देना पड़ता है।”  किसान(हल्कू) कर्जदार है। उसने मजदूरी करके तीन रूपए कमाए हैं ताकि कंबल खरीदा जा सके, जिससे पूस की रात में खेत की रखवाली कर सके। उन रूपयों को महाजन ले गया। इस तरह हल्कू किसान से मज़दूर बन जाता है। प्रेमचंद की नज़र में, स्वयं हल्कू की नज़र में और ग्राम्य समाज की नजर में उसका पतन हो जाता है।

                उनकी कफनकहानी ऐसी सामाजिक व्यवस्था की कहानी है जो श्रम के प्रति आदमी में हतोत्साह पैदा करती है, क्योंकि उसे श्रम की कोई सार्थकता दिखाई नहीं देती। बीस साल तक यह व्यवस्था आदमी को भर पेट भोजन के बिना रखती है। इसलिए आवश्यक नहीं कि अपने परिवार के ही सदस्य के मरने जीने से ज्यादा चिंता उन्हें पेट भरने की होती है। प्रेमचंद ने किसानों पर ज्योति(1933), नेउर(1933), दूध का दाम(1934) आदि कहानियां लिखीं। इनमें किसान परिवार की आन्तरिक मूल्य व्यवस्था का चित्रण है और उनके सामाजिक, धार्मिक शोषण की प्रक्रिया इसमें दिखाई गयी है। अतः प्रेमचंद की कहानियां भारतीय ग्रामीण जीवन का महाआख्यान हैं । उनके जीवन का कोई कोना उनकी नज़र से नहीं छूटा।

अतः प्रेमचंद ने अपने कथा-साहित्य में भारतीय किसान की स्थिति का बहुत ही सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। किसान की संघर्षशील स्थिति के पीछे अनेक कारण हैं, जिसमें कहीं न कहीं वह खुद भी जिम्मेवार है, जमींदार और सरकार द्वारा किए गए अधिकांश शोषण को किसान कानूनी मानता है। किसान ने विद्रोह तब किया जब शोषण की सीमा बहुत आगे बढ़ जाती है। किसान के जीवन की दुर्बलता और मन की दृढ़ता दोनों का समावेश कर प्रेमचंद ने किसान के जीवन के यथार्थ का यथा-अर्थ चित्रण किया है।  जिसमें वह अपनी परिस्थितियों से संघर्ष करता हुआ, टूटता हुआ, समझौता करते हुए भारतीय किसान का व्यक्तित्व प्रेमचंद की रचनाओं में उभर कर आता है। आज का किसान प्रेमचंद साहित्य से अपने अतीत को झाँक कर देख सकता है।

संदर्भ
1.   डॉ. रामबक्ष, ’प्रेमचन्द और भारतीय किसान’, वाणी प्रकाशन, दिल्ली(1982), पृ.34
2.  डॉ. सरोज प्रसाद, ’प्रेमचन्द के उपन्यासों में समसामयिक परिस्थितियों का प्रतिफलन’, रचना प्रकाशन, इलाहाबाद(1972), पृ.232
3. सं. डॉ. इन्द्रनाथ मदान, ’प्रेमचन्दः चिंतन और कलासरस्वती प्रेस, बनारस(प्रकाशन वर्ष अनोपलब्ध), पृ.53
4.  राजेश्वर गुरू, ’प्रेमचन्दः एक अध्ययन’, एस. चन्द एण्ड कम्पनी, नई दिल्ली(1965),    पृ.221
5. सं. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, ’प्रेमचन्द’, कीर्ति प्रकाशन, गोरखपुर(1980), पृ. 165
6. वही, 166               
7. वही, 149
8. वही, 191
9. देवेन्द्र दीपक (संप.) त्रिभूवननाथ शुक्ल (संप. ), साक्षात्कार, (मुंशी प्रेमचंद-पूस की रात), साहित्य अकादमी, भोपाल, (अंक 427, जुलाई 2015), , पृ. 29
                                                                              संदीप कौर,शोधार्थी,हिन्दी विभाग,पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला

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