नागार्जुन कृत ‘युगधारा’ में चित्रित कृषक एवं श्रमिक वर्ग/विकल सिंह

त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
                   नागार्जुन कृत युगधारा में चित्रित  कृषक एवं श्रमिक वर्ग/विकल सिंह
  

                

नागार्जुन गरीबों और शोषितों के हिमायती कवि रहे हैं। उनकी अधिकांश कविताएँ कृषकों एवं श्रमिक वर्ग के जीवन की कठिनाइयों और पीड़ाओं की अभिव्यक्ति है। नागार्जुन का जन्म दीन-हीन कृषक कुल में हुआ था, उन्होंने गरीबी की यातना को बहुत ही करीब से देखा और यही कारण है कि कृषकों और श्रमिक वर्ग का दुःख-दर्द उन्हें अपनी ओर खींचता है। इस शोषित और पीड़ित वर्ग के प्रति नागार्जुन के जुड़ाव को उनकी कविताओं में सहज ही देखा जा सकता है। इस सन्दर्भ में नरेन्द्र सिंहकहते हैं- नागार्जुन जानते हैं कि वास्तव में इस दुनिया में दो दुनिया हैं, एक गरीबों की, एक अमीरों की, एक शोषितों की, एक शोषकों की। बहुत मामूली-सी लगने वाली बात आज भी सबसे महत्त्वपूर्ण बात है, सामाजिक आर्थिक विषमता को जितने जबर्दस्त और सीधे ढंग से नागार्जुन ने प्रस्तुत किया उतने जबर्दस्त और सीधे ढंग से और किसी ने नहीं। इसके लिए कौशल की उतनी जरूरत नहीं जितनी गरीबों के साथ मिली मुहब्बत और उनके हर दुःख में तड़प उठने की, अपार क्षमता की जरूरत है। यही चीज नागार्जुन जैसे कवियों की हड्डियों की ताकत बनी हुई है।”1 कवि स्वयं कृषक वर्ग से आया है, जीवन के अभावों और दुःख-दर्द को उसने भली-भाँति झेला है। कवि का सारा जीवन अभाव में ही व्यतीत हुआ है। साधारण लोगों के बीच में रहकर और अभावग्रस्त जीवन जीते हुए कवि ने उसी वर्ग की स्थितियों का चित्रण अपनी कविताओं में किया है।

             युगधारानागार्जुन का प्रथम काव्य-संग्रह है जिसका प्रकाशन 1953 ई. में हुआ। इस संकलन की अधिकांश कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। इस काव्य संग्रह की कविताओं में देश के पीड़ित और शोषित कृषक वर्गके प्रति नागार्जुन के गहरे लगाव को देखा जा सकता है। नागार्जुन एक ऐसे कवि रहे हैं, जो अपनी बात को सीधे एवं सहज रूप में पाठक वर्ग तक पहुँचा देते हैं। उनकी कविताओं में कृषक जीवन अपनी पूरी वास्तविकता के साथ मुखरित हुआ है। उनका खुद का जीवन दुःखों से भरा रहा है अपनी इसी स्थिति का चित्रण कवि ने रवि ठाकुरनामक कविता में किया है-

पैदा हुआ था मैं-
दीन-हीन-अपठित किसी कृषक कुल में
आ रहा हूँ पीता अभाव का आसव ठेठ बचपन से
   x        x       x        x        x
मेरा क्षुद्र व्यक्तित्व, रुद्ध है सीमित है-
आटा-दाल-नमक-लकड़ी के जुगाड़ में !2

              नागार्जुन ने कृषक जीवन की पीड़ा के सम्पूर्ण रूप को बहुत करीब से देखा ही नहीं, बल्कि भोगा है। उपर्युक्त कविता में कवि ने अपने रूप में एक कृषक परिवार के अभावग्रस्त जीवन की वेदना को दिखाया है। वे जीवन भर एक आम आदमी की तरह जीते रहे इसलिए उनकी कविताएँ इस देश के आम आदमी से जुड़ी रहीं। भूख की पीड़ा उनकी कविताओं में बार-बार व्यक्त हुई है। इस देश की भूखी, पीड़ित और शोषित जनता की वेदना को जितनी गहराइयों से इन्होंने महसूस किया उतने ही स्वाभाविक रूप में उसका चित्रण अपनी कविताओं में किया। सम्भवतः तभी तो मैनेजर पाण्डेयकहते हैं- नागार्जुन अपने समय और समाज की सच्चाई कविता में लाकर उसे जन-मन में उतारते हैं।... नागार्जुन की काव्य-यात्रा उनकी जीवन-यात्रा से अलग नहीं है।3 इस प्रकार नागार्जुन का काव्य भोगा हुआ यथार्थ है। नागार्जुन उपर्युक्तपंक्तियों के माध्यम से बताना चाह रहे हैं कि किस प्रकार कृषक वर्ग पीड़ित है? किस प्रकार से अभावग्रस्त जीवन में उसके सपने एवं समझ सिर्फ रोटी-दाल की जुगाड़ करने तक में ही सीमित रह जाते हैं। इससे ज्यादा वह सोच ही नहीं पाता है। कवि की उपर्युक्त कविता यह सोचने पर विवश करती है कि सबके लिए अनाज उगाने वाला किसान आखिर खुद भूखा क्यों है? इतनी कड़ी मेहनत के बाद भी वह अपने परिवार का पालन-पोषण करने में असमर्थ क्यों है? कुछ ऐसे ही प्रश्न हैं, जिन्हें नागार्जुन अपनी कविताओं में बार-बार उठाते रहे हैं।

         जमींदार किस प्रकार से श्रमिक वर्ग पर अत्याचार करते रहे हैं, इसका चित्रण भी नागार्जुन ने अपनी कविताओं में किया है। स्वतंत्रता मिलने के बाद देश में जनता के हित के लिए अनेक कानून एवं परियोजनाएं चलाई गयीं, लेकिन ये सारी योजनाएं सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहीं। इससे कृषक एवं श्रमिक वर्ग की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। जमींदार अपने सामर्थ्य के बल पर किसानों-मजदूरों का शोषण करते रहे। कवि यह भली-भाँति जानता है कि स्वतंत्रता के पश्चात् किसानों और देश की प्रगति में बाधक पूँजीवादी व्यवस्था और सुविधा प्राप्त वर्ग ही हैं। इस तरह से अभावग्रस्त जीवन जी रहे लोगों में कभी-कभी तो भुखमरी तक की स्थिति आ जाती है। कृषक एवं श्रमिक वर्ग की इस स्थिति के लिए कवि ने इन भ्रष्ट सत्ताधारियों को ही जिम्मेदार ठहराया है। शोषण के इस यथार्थ रूप को स्वदेशी शासककविता में देखा जा सकता है-

हमारी जनता की भूखी आँतों को कब तक थामें ?
जय जय हे कोसी महरानी !
जय जय जयति मलरिया मइया !
जय जय हे काला बुखार, पेचिश, संग्रहणी !
जय जय हे यमदूत, दीनजन बन्धु दयासागर करुणामय !
तुम सुनते हो जब न कहीं कोई सुनता है !!
हमें, हमारे घरवालों को, पड़ोसियों को दो छुटकारा
शीघ्र मुक्ति दो इस रौरव से
जहाँ न भरता पेट, देश वह कैसा भी हो, महानरक है !4

           किसी के दुःख-दर्द एवं पीड़ा को सही मायने में समझने के लिए उससे होकर गुजरना पड़ता है। सिर्फ महसूस करने से उस पक्ष की बारीकी का पता नहीं चल सकता है। नागार्जुन ने कृषक एवं श्रमिक वर्ग की इस पीड़ा को भोगा है, तभी तो उनकी कविताओं में इस वर्ग की पीड़ा का यथार्थ रूप चित्रित हुआ है। कवि ने ऐसे देश को महानरक घोषित किया है जहाँ भ्रष्टाचारी सत्ताधारियों के कारण श्रमिक-किसान दिन-रात की कड़ी मेहनत के बाद भी अपना पेट तक नहीं भर सकता। ऐसी स्थिति में यदि वह बीमार पड़ता है तो पैसे के अभाव में इलाज न करा पाने की स्थिति में मरना ही पसंद करता है। नागार्जुन की कविताएँ कृषक एवं श्रमिक वर्ग के जीवन की संवेदनाओं से हमें जोड़ती हैं। इसलिए वह आमजन के हिमायती कवि के रूप में जाने जाते हैं। इस सन्दर्भ में विश्वनाथप्रसाद तिवारीकहते हैं- नागार्जुन की कविता की शक्ति भारतीय निम्नमध्यवर्गीय जीवन को पूर्ण सहानुभूति के साथ चित्रित करने में है। वे एक कुंठाहीन कवि हैं। सहज जीवन के पक्षपाती, शोषण के चक्र में पिसती हुई भारतीय जनता का, उसके रुढ़िवादी-अन्धविश्वासी, धूमिल बदबूदार जीवन का तथा सत्ता और व्यवस्था के जनविरोधी चरित्र का, भारतीय राजनीति के छल, भ्रष्टाचार और पाखण्ड का जैसा चित्र नागार्जुन की कविता में मिलेगा वैसा शायद ही कहीं अन्यत्र मिले। उनकी कविता मुख्य रूप से यहीं से अपनी शक्ति और खुराक ग्रहण करती है।...नागार्जुन अपनी कविता में दलके साथ तो नहीं मगर जनके साथ बराबर बंधे रहे हैं।5  कृषक एवं श्रमिक वर्ग की तंगहाली और भुखमरी की स्थिति का वर्णन कवि ने अपनी ख़ाली नहीं और ख़ालीकविता में भी किया है। गरीब किसान-मजदूरों की इस पीड़ा को कवि ने व्यंग्यात्मक रूप से कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया है-

मकान नहीं ख़ाली है,
दुकान नहीं ख़ाली है,
स्कूल नहीं ख़ाली, ख़ाली नहीं कॉलेज,
x        x        x        x        x
ख़ाली नहीं ट्राम, ख़ाली नहीं ट्रेन,
ख़ाली नहीं माइंड, ख़ाली नहीं ब्रेन,
ख़ाली है हाथ, ख़ाली है पेट,
ख़ाली है थाली, ख़ाली है प्लेट !6

           उपर्युक्त पंक्तियों में कवि ने गरीब किसान एवं मजदूर के रूप में उन शोषित-पीड़ितों का बड़ा ही मार्मिक चित्र खींचा है, जिन्हें पूरे दिन कड़ी मेहनत-मशक्कत करने के बाद भी समय से उनकी मजदूरी न मिलने पर उन्हें भूखा ही सोना पड़ता है। यह श्रमिक वर्ग की बड़ी ही दुःखद स्थिति है। कवि ने इन शोषकों को अपनी कविताओं के माध्यम से करारा जवाब दिया है, वह जनसाधारण के साथ है और उनकी कुशलता की कामना करता है। नागार्जुन, मनोहरश्याम जोशी को दिए साक्षात्कार में कहते हैं- हम सर्वहारा के साथ हैं, अपनी राजनीति में, अपने साहित्य में, किन्तु हमें इस विषय में किसी की लगाई क़ैद मंजूर नहीं। हम गरीब किसान के साथ हैं, गरीब मज़दूर के साथ हैं, हरिजन के साथ हैं, इनका उद्धार हो ऐसा हम चाहते हैं।7 स्पष्ट है कि नागार्जुन जन साधारण के कवि हैं। उनकी चेतना में, श्रम में,साधना में, साहित्य में सब जगह गरीब किसान-मजदूरों से इस जुड़ाव को देखा जा सकता है। वे कृषक एवं श्रमिक वर्ग को स्वतंत्र अस्तित्व दिलाने के पक्षधर रहे हैं। अभावग्रस्त जीवन जी रहे गरीब किसान-मजदूरों के लिए शिक्षा व्यवस्थाभी एक समस्या बनी हुई है, जिसका वर्णन भी नागार्जुनने अपनी कविताओं में किया है। धन के अभाव में आमजन अपने बच्चों का दाख़िला किसी अच्छे स्कूल में करा ही नहीं पाता। इसी असमर्थता का चित्रण कवि ने जयानामक कविता में किया है-

कैसा असहा, कितना जर्जर
यह मध्यवर्ग का निचला स्तर !
मैंने झाँका तो यह देखा-
बाहर सफेद, अंदर धुँधला
क्या कर सकता वह बाप भला
बहरी-गूँगी उस बच्ची की शिक्षा-दीक्षा का इन्तजाम !8

         कवि ने उपर्युक्त पंक्तियों में उस शिक्षा व्यवस्था का वर्णन किया है, जो केवल सुविधाभोगी वर्ग के लिए ही फल-फूल रही है। आज प्रायः जगह-जगह पर अनेक शिक्षण-संस्थान देखने को मिल जाते हैं, किन्तु उनकी महँगी फीस का भुगतान कर पाना श्रमिक वर्ग के लिए संभव ही नहीं हो पाता है। ऐसी स्थिति में श्रमिक वर्ग अच्छे शिक्षण-संस्थानों में अपने बच्चों का प्रवेश नहीं करा पाता। इस असमर्थता को कवि ने बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। कवि की यह पंक्ति- कैसा असहा, कितना जर्जर, यह मध्यवर्ग का निचला स्तर’, अत्यंत ही मार्मिक है। नागार्जुन की यही कला, यही कौशल एवं उनका श्रमिक वर्ग से जुड़ाव ही उनकी कविताओं की ताजगी का प्रमुख कारण है। इस सन्दर्भ में शिवकुमार मिश्रकहते हैं- नागार्जुन किसी कोण से बासी नहीं हैं, उनकी भाषा, उनकी कल्पना, उनकी अनुभूतियाँ तथा उनके विचार खिले टटके फूलों की तरह ताजे हैं क्योंकि जनता के जीवन से अपने निरंतर लगाव के तहत नागार्जुन को वह अक्षय जीवन रस प्राप्त है जो उन्हें तथा उनकी रचना को निरंतर तरोताजा रखता है।9  कवि में शोषितों के प्रति अपार प्रेम एवं लगाव है तो शोषकों के प्रति आक्रोश भी है। वह इन शोषकों को करारा जवाब देना चाहता है। इसके लिए वह इन शोषितों में अपनी कविताओं के माध्यम से चेतना का भाव पैदा करना चाह रहा है। शोषित एवं पीड़ित कृषक एवं श्रमिक वर्ग की दुःखद स्थिति देखकर कवि विह्वल हो उठा है। वह लोगों में चेतना का भाव भरते हुए उन पर हो रहे शोषण के विरुद्ध उन्हें एक साथ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित करता है। इसका एक उदाहरण पक्षधरकविता में देखा जा सकता है-

चाहते हो-
शान्ति, शाश्वत शान्ति,घन आनन्द
चिर कल्याण,अक्षय अमृत धारा
तो उठो-
मन और तन की समूची ताकत लगाकर
विघ्न-बाधा के पहाड़ों को गिरा दो, ढाह दो ।
x    x     x    x    x    x    x    x    x    x    
राह में रोड़े पड़े हैं अमित-अगणित
उन्हीं से अतलान्त गह्वर पाट डालो ।
अन्यथा-
कुछ भी नहीं तुम कर सकोगे ।10

कवि ने उपर्युक्त पंक्तियों के माध्यम से शोषित वर्ग में चेतना भरने का प्रयास किया है। वह इस वर्ग को चेताते हुए कहता है कि यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो अपने हक़ एवं अधिकारों के लिए पूरे मनोवेग से उठ खड़े हो और अपनी राह में आने वाली समस्त रुकावटों को ध्वस्त कर दो, तभी तुम्हारा कल्याण हो सकेगा अन्यथा तुम इसी तरह शोषित रहोगे और अपने विकास के मार्ग की ओर कभी अग्रसर नहीं हो पाओगे। इन शोषकों के प्रति कवि आक्रोशित है।कवि जब आक्रोशित होकर लिखता है तो और भी निखरा हुआ रूप उनकी कविताओं में देखने को मिलता है। विजय बहादुर सिंह को दिए अपने एक साक्षात्कार में नागार्जुनने कहा था- कविताएँ जब गुस्सा आता है तब लिखता हूँ और तब बहुत मूड में होता हूँ।11 यह बात किसी से छिपी नहीं है कि श्रमिक वर्ग का हमेशा से शोषण होता आया है इसी से उसके अधिकारों का हमेशा ही हनन हुआ है। सुविधाभोगी वर्ग श्रमिक वर्ग का शोषण कर ऐश की ज़िंदगी गुजारता रहा है। कवि ने व्यंग्यात्मक रूप में इस शोषण को अपनी वजट-वार्त्तिककविता में प्रस्तुत किया है-

निम्न वर्ग की आँतकपच कर
नसे दूह कर मिडिल क्लास की
रखो ठीक बैलेंस, बल्कि कुछ बचत दिखाओ
x        x        x        x        x
गंगा-यमुना के कछार में
आ-आकर अंडे देंगी अब
दुनिया-भर की जोकें
रामराज की सरल प्रजा का तरल रक्त
कितना सस्ता है !!12

कवि ने उपर्युक्त पंक्तियों में उस सुविधाभोगी वर्ग पर व्यंग्य किया हैजो वर्षों से श्रमिक वर्ग का शोषण कर अपनी जेब और तिजोरियाँ भरता रहा है।कवि ने जिस नाटकीयता के साथ इन शोषकों पर व्यंग्य किया है वह बहुत ही प्रभावपूर्ण है। नागार्जुन के काव्य की इसी नाटकीयता से प्रभावित होकर राजेश जोशीकहते हैं- कभी-कभी लगता है जैसे नागार्जुन, नज़ीर और भारतेन्दु के मिले-जुले उत्तराधिकारी हों। वहाँ सीधी सहज सम्प्रेषणीयता भी है और अद्भुत क़िस्म की नाटकीयता भी। उनके इस नाटक में व्यंग्य है, हँसी है, गुस्सा है, शरारत है, चुहल है। लेकिन सारा कुछ बेहद जाग्रत राजनीतिक चेतना के साथ। उनकी हँसी महज हँसी नहीं है। वह बेहद साहस भरी हँसी है जो अभिजात को छेड़ती है, जो अन्यायी का मज़ाक उड़ाती है। मजाक उड़ाने का, उस पर हँसने का साहस देती है।13 वर्षों से श्रमिक वर्ग उपेक्षित रहा है।इसका प्रमुख कारण उसका अभावग्रस्त जीवन ही है। आज हम समाज में प्रायः देखते हैं कि उन्हीं लोगों को मान-सम्मान मिलता है, जो आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं। अभावग्रस्त जीवन जी रहे लोगों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। उन्हें सुविधाभोगी वर्ग द्वारा जगह-जगह पर अपमानित किया जाता है। इस सन्दर्भ में एक मित्र को पत्रनामक कविता को देखा जा सकता है-

क्योंकि हमको स्वयं भी तो तुच्छता का भेद है मालूम
कि हम पर सीधे पड़ी है गरीबी की मार
सुविधा-प्राप्त लोगों ने सदा समझा हमें भू-भार ।14

       कवि ने उपर्युक्त पंक्तियों में उपेक्षित श्रमिक वर्ग की स्थिति का चित्रण किया है। कवि जानता है कि ये सुविधाभोगी वर्ग श्रमिक वर्ग को कीड़े-मकोड़े से ज्यादा कुछ नहीं समझता है। वे उन्हें धरती का बोझ मात्र समझते हैं। वह अपनी जेब एवं तिजोरी भरने के लिए श्रमिक वर्ग की दो वक्त की रोटी तक को छीन लेना चाहता है। श्रमिक वर्ग का यह दर्द कवि को अपना दर्द लगता है। इसलिए नागार्जुन की कविताओं में जगह-जगह पर भूख, लाचारी, गरीबी, असमर्थता, महँगाई, ख़ाली पेट और दाल-रोटी-नमक का जिक्र बार-बार हुआ है। गरीब किसान-मजदूरों के प्रति नागार्जुन के इसी लगाव को देखते हुए डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना कहते हैं- उनका सर्वाधिक झुकाव उस जन-जीवन की ओर रहा है, जो अभावों एवं विषमताओं की चक्की में पिस रहा है, जो निरन्तर कठिनाइयों से जूझ रहा है, जो आपत्तियों का डटकर मुकाबला कर रहा है, जो शोषण का शिकार बना हुआ है, जो पूँजीवादी दैत्यों के चंगुल में फँसा हुआ कराह रहा है, जो साम्राज्यवादी बुलडोजरों के द्वारा धाराशायी किया जा रहा है, जो भ्रष्ट एवं व्यभिचारी नेताओं की वासना-तृप्ति का साधन बन रहा है, जो धर्म और संस्कृति की चकाचौंध से अन्धा बन गया है और जिसे पग-पग पर ठुकराया जा रहा है।15

हम कह सकते हैं कि नागार्जुनकी कविताएँ मनोरंजन की विषयवस्तु नहीं है, उनकी कविताओं का एक मात्र ध्येय कृषक एवं श्रमिक वर्ग के जीवन की पीड़ाओं से पाठक वर्ग का साक्षात्कार कराना है। उनकी कविताओं में एक आक्रोश है, एक हुंकार है उन भ्रष्ट सत्ताधारियों के प्रति, उन शोषकों के प्रति जो वर्षों से गरीब किसान-मजदूरों का खून चूसते आए हैं। नागार्जुन ने युगधाराकाव्य-संग्रह में अभावग्रस्त कृषक एवं श्रमिक जीवन के विभिन्न रूपों को उद्घाटित किया है। उनकी कविताएँ शासक एवं नेताओं की भ्रष्टनीति, किसानों की समस्याएँ, मजदूरों का शोषण और उनकी व्यथा आदि को सरलता से चित्रित करती हैं। कवि ने इस संग्रह में गाँव की ऊबड़-खाबड़ भाषा का प्रयोग किया है, जिससे भाषा की दृष्टि से यह थोड़ा क्लिष्ट जान पड़ता है, किन्तु रचनात्मक एवं उद्देश्यपरक दृष्टि से यह संग्रह सफल प्रतीत होता है। बादल को घिरते देखा है’, ‘प्रेत का बयान’, ‘जया’, ‘छोटे बाबूऔर रवि ठाकुरइत्यादि ऐसी कविताएँ हैं, जो इस संग्रह को कालजयी बनाती हैं।

सन्दर्भसूची-

1 सिंह, नरेन्द्र, साठोत्तरी हिन्दी कविता में जनवादी चेतना, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, आवृत्ति संस्करण- 2012, पृष्ठ सं.- 156

2. नागार्जुन, युगधारा, यात्री प्रकाशन, दिल्ली, षठम् संस्करण- 2008, पृष्ठ संख्या- 13-14

3.पाण्डेय, मैनेजर, आलोचना की सामाजिकता, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2005,पृष्ठ संख्या- 185-186

4.नागार्जुन, युगधारा, यात्री प्रकाशन, दिल्ली, षठम् संस्करण- 2008, पृष्ठ संख्या- 93

5.तिवारी, विश्वनाथप्रसाद, समकालीन हिन्दी कविता, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण- 2014, पृष्ठ संख्या- 49

6.नागार्जुन, युगधारा, यात्री प्रकाशन, दिल्ली, षठम् संस्करण- 2008, पृष्ठ संख्या- 104

7.उद्धृत- जोशी, राजेश, एक कवि की नोटबुक, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2004, पृष्ठ संख्या- 43

8.नागार्जुन, युगधारा, यात्री प्रकाशन, दिल्ली, षठम् संस्करण- 2008, पृष्ठ संख्या- 109

9. मिश्र, शिवकुमार, दर्शन साहित्य और समाज, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण- 2000,पृष्ठ संख्या- 61
10. नागार्जुन, युगधारा, यात्री प्रकाशन, दिल्ली, षठम् संस्करण- 2008, पृष्ठ संख्या-73-74

11. सिंह, विजय बहादुर, नागार्जुन संवाद, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण- 2009, पृष्ठ संख्या- 20
12. नागार्जुन, युगधारा, यात्री प्रकाशन, दिल्ली, षठम् संस्करण- 2008, पृष्ठ संख्या- 99

13. जोशी, राजेश, एक कवि की नोटबुक, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2004, पृष्ठ संख्या- 37

14. नागार्जुन, युगधारा, यात्री प्रकाशन, दिल्ली, षठम् संस्करण- 2008, पृष्ठ संख्या-66

15. सक्सेना, डॉ. द्वारिका प्रसाद, हिन्दी के आधुनिक प्रतिनिधि कवि, श्री विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा, संस्करण-2013, पृ. सं.- 446


विकल सिंह (शोधार्थी),
गुजरात केन्द्रीय  विश्वाविद्यालय, सेक्टर- 29, गाँधीनगर- 382030
ईमेल- vikalpatel786@gmail.com,मो: 07897551642

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