त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
कविता, साहित्य की प्राचीनतम विधा है और किसानी एक प्राचीन पेशा है। कविता
अपने कलेवर में अपने इस पुराने साथी को सुखों – दुखों को अभिव्यक्त करती रही है।
वह अपनी यात्रा में किसानों की संवेदनाओं, उनके तत्कालीन परिस्थितियों का वहन करती
हुई, उनके सुखद भविष्य की कामना सदैव करती रही है। यहाँ आप पाठकों के लिए अपने समय
और समाज को अभिव्यक्त करती चंद प्रतिनिधि कविताएँ संकलित हैं। - संपादक
खेती न किसान को,
भिखारी को न भीख, भलि,
बनिक को बनिज न
चाकर को चाकरी,
जीविका-विहीन लोग
सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक ए न तो
कहा जाई, का करी.
तुलसीदास - कवितावली
धरनि धेनु चारितु
चरन प्रजा सुबच्छ पेन्हाइ।
हाथ कछू नहिं
लागिहै किएँ गोड़ गाइ।।
तुलसीदास – दोहावली
किसान /मैथिलीशरण
गुप्त
हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता
व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है
हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ
आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में
बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा
देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे
घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा
तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं
बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है
तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते
सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है
मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है
हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ
आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में
बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा
देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे
घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा
तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं
बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है
तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते
सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है
मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है
कुत्ता भौकने लगा /सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
आज ठंडक अधिक है
बाहर ओले पड़ चुके हैं ,
एक हफ्ते पहले पाला पड़ा था-
अरहर कुल –की –कुल मर चुकी
थी
हवा हाड़ तक बेध जाती है,
गेहूं के पेड़ ऐठे खड़े है,
खेतिहरों में जान नहीं,
मन मारे दरवाजे कौड़े ताप
रहे हैं
एक –दूसरे से गिरे गले
बातें करते हुए,
कुहरा छाया हुआ.
ऊपर से हवाबाज उड़ गया
जमींदार का सिपाही लट्ठ
कंधे पर डाले
आया और लोगों की ओर देखकर
कहा,
“डेरे पर थानेदार आए हैं,
डिप्टी साहब ने चंदा लगाया
है,
एक हफ्ते के अंदर देना है.
चलो बात दे आओ”
कौड़े से कुछ हटकर
लोगों के साथ कुत्ता खेतिहर
का बैठा था
चलते सिपाही को देखकर खड़ा
हुआ
और भौकने लगा,
करुणा से,बंधु खेतिहर को
देख-देख कर
उठ किसान ओ
/त्रिलोचन
उठ
किसान ओ, उठ किसान ओ,
बादल
घिर आए हैं
तेरे
हरे-भरे सावन के
साथी
ये आए हैं
आसमान भर गया देख तो
इधर
देख तो,
उधर देख तो
नाच
रहे हैं उमड़-घुमड़ कर
काले
बाल तनिक देख तो
तेरे प्राणों में भरने को
नए
राग लाए हैं
यह संदेशा लेकर आई
सरस
मधुर, शीतल पूरवाई
तेरे
लिए, अकेले तेरे
लिए, कहाँ से चलकर आई
फिर वे परदेसी पाहुन, सुन,
तेरे
घर आए हैं
उड़ने वाले काले जलधर
नाच-नाच
कर गरज-गरज कर
ओढ़
फुहारों की सीत चादर
देख
उतरे हैं धरती पर
छिपे खेत में, आँखमिचौनी
सी
करते हैं
हरा खेत जब लहराएगा
हरी
पताका जब फहराएगा
छिपा
हुया बादल तब उसमें
रूप
बदलकर मुसकाएगा
तेरे सपनों के ये मीठे
गीत
आज छाए हैं
किसान /रमेश रंजक
हम धरती के बेटे बड़े कमेरे हैं ।
भरी थकन में सोते फिर भी —
उठते बड़े सवेरे हैं ।।
धरती की सेवा करते हैं
कभी न मेहनत से डरते हैं
लू हो चाहे ठण्ड सयानी
चाहे झर-झर बरसे पानी
ये तो मौसम हैं हमने
तूफ़ानों के मुँह फेरे हैं ।
हम धरती के बेटे बड़े कमेरे हैं ।।
खेत लगे हैं अपने घर से
हमको गरज नहीं दफ़्तर से
दूर शहर से रहने वाले
सीधे-सादे, भोले-भाले
रखवाले अपने खेतों के
जिनमें बीज बिखेरे हैं ।
हम धरती के बेटे बड़े कमेरे हैं ।।
हाथों में लेकर हल-हँसिया
गाते नई फ़सल के रसिया
धरती को साड़ी पहनाते
दूर-दूर तक भूख मिटाते
मुट्ठी पर दानों को रखकर
कहते हैं बहुतेरे हैं
हम धरती के बेटे बड़े कमेरे हैं ।।
भरी थकन में सोते फिर भी
उठते बड़े सवेरे हैं ।
भरी थकन में सोते फिर भी —
उठते बड़े सवेरे हैं ।।
धरती की सेवा करते हैं
कभी न मेहनत से डरते हैं
लू हो चाहे ठण्ड सयानी
चाहे झर-झर बरसे पानी
ये तो मौसम हैं हमने
तूफ़ानों के मुँह फेरे हैं ।
हम धरती के बेटे बड़े कमेरे हैं ।।
खेत लगे हैं अपने घर से
हमको गरज नहीं दफ़्तर से
दूर शहर से रहने वाले
सीधे-सादे, भोले-भाले
रखवाले अपने खेतों के
जिनमें बीज बिखेरे हैं ।
हम धरती के बेटे बड़े कमेरे हैं ।।
हाथों में लेकर हल-हँसिया
गाते नई फ़सल के रसिया
धरती को साड़ी पहनाते
दूर-दूर तक भूख मिटाते
मुट्ठी पर दानों को रखकर
कहते हैं बहुतेरे हैं
हम धरती के बेटे बड़े कमेरे हैं ।।
भरी थकन में सोते फिर भी
उठते बड़े सवेरे हैं ।
(कविता कोश से साभार)
किसान और
आत्महत्या /हरीशचंद्र पाण्डेय
उन्हें धर्मगुरुओं ने बताया था प्रवचनों
में
आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है
तब भी उन्होंने आत्महत्या की
क्या नर्क से भी बदतर हो गई थी उनकी खेती
वे क्यों करते आत्महत्या
जीवन उनके लिए उसी तरह काम्य था
जिस तरह मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष
लोकाचार उनमें सदानीरा नदियों की तरह
प्रवहमान थे
उन्हीं के हलों के फाल से संस्कृति की लकीरें
खिंची चली आई थीं
उनका आत्म तो कपास की तरह उजार था
वे क्यों करते आत्महत्या
वे तो आत्मा को ही शरीर पर वसन की तरह
बरतते थे
वे कड़ें थे फुनगियाँ नहीं
अन्नदाता थे, बिचौलिये नहीं
उनके नंगे पैरों के तलुवों को धरती अपनी संरक्षित
ऊर्जा से थपथपाती थी
उनके खेतों के नाक-नक्श उनके बच्चों की तरह थे
वो पितरों का ऋण तारने के लिए
भाषा-भूगोल के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में धँस गए
वो आरुणि के शरीर को ही मेंड़ बना लेते थे
मिट्टी का
जीवन-द्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गए
कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना
और दुर्नीति को नीति।
आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है
तब भी उन्होंने आत्महत्या की
क्या नर्क से भी बदतर हो गई थी उनकी खेती
वे क्यों करते आत्महत्या
जीवन उनके लिए उसी तरह काम्य था
जिस तरह मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष
लोकाचार उनमें सदानीरा नदियों की तरह
प्रवहमान थे
उन्हीं के हलों के फाल से संस्कृति की लकीरें
खिंची चली आई थीं
उनका आत्म तो कपास की तरह उजार था
वे क्यों करते आत्महत्या
वे तो आत्मा को ही शरीर पर वसन की तरह
बरतते थे
वे कड़ें थे फुनगियाँ नहीं
अन्नदाता थे, बिचौलिये नहीं
उनके नंगे पैरों के तलुवों को धरती अपनी संरक्षित
ऊर्जा से थपथपाती थी
उनके खेतों के नाक-नक्श उनके बच्चों की तरह थे
वो पितरों का ऋण तारने के लिए
भाषा-भूगोल के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में धँस गए
वो आरुणि के शरीर को ही मेंड़ बना लेते थे
मिट्टी का
जीवन-द्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गए
कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना
और दुर्नीति को नीति।
(कविता कोश से साभार)
एक किसान की रोटी /वंशीधर शुक्ल
यक किसान की रोटी,जेहिमाँ परिगइ तुक्का बोटी
भैया!लागे हैं हजारउँ ठगहार।
भैया!लागे हैं हजारउँ ठगहार।
हँइ सामराज्य स्वान से देखउ बैठे घींच दबाये हइँ
पूँजीवाद बिलार पेट पर पंजा खूब जमाये हइँ।
गीध बने हइँ दुकन्दार सब डार ते घात लगाये हइँ
मारि झपट्टा मुफतखोर सब चौगिरदा घतियाये हइँ।
सभापती कहइँ हमका देउ, हम तुमका खेतु देवाय देई
पटवारी कहइँ हमका देउ, हम तुम्हरेहे नाव चढाय देई।
पेसकार कहइँ हमका देउ, हम हाकिम का समुझाय देई
हाकिम कहइँ हमइँ देउ, तउ हम सच्चा न्याव चुकाय देई।
कहइँ मोहर्रिर हमका देउ, हम पूरी मिसिल जँचाय देई
चपरासी कहइँ हमका देउ, खूँटा अउ नाँद गडवाय देई।
कहइँ दरोगा हमका देउ, हम सबरी दफा हटाय देई
कहइँ वकील हमका देउ, तउ हम लडिकै तुम्हइ जिताय देई।
पंडा कहइँ हमइँ देउ, तउ देउता ते भेंट कराय देई
कहइँ ज्योतिकी हमका देउ, तउ गिरह सांति करवाय देई।
बैद! कहइँ तुम हमका देउ, तउ सिगरे रोग भगाय देई
डाक्टर कहइँ हमइँ देउ, तउ हम असली सुई लगाय देई।
कहइँ दलाल हमइँ देउ, हम तउ सब बिधि तुम्हँइ बचइबै,
हमरे साढू के साढू जिलेदार।
यक किसान की रोटी,जेहिमाँ परिगइ तुक्का बोटी
भैया!लागे हैं हजारउँ ठगहार।
(कविता कोश से साभार)
शाम-एक किसान
/सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
आकाश का साफ़ा बाँधकर
सूरज की चिलम खींचता
बैठा है पहाड़,
घुटनों पर पड़ी है नही चादर-सी,
पास ही दहक रही है
पलाश के जंगल की अँगीठी
अंधकार दूर पूर्व में
सिमटा बैठा है भेड़ों के गल्ले-सा।
अचानक- बोला मोर।
जैसे किसी ने आवाज़ दी-
'सुनते हो'।
चिलम औंधी
धुआँ उठा-
सूरज डूबा
अंधेरा छा गया।
सूरज की चिलम खींचता
बैठा है पहाड़,
घुटनों पर पड़ी है नही चादर-सी,
पास ही दहक रही है
पलाश के जंगल की अँगीठी
अंधकार दूर पूर्व में
सिमटा बैठा है भेड़ों के गल्ले-सा।
अचानक- बोला मोर।
जैसे किसी ने आवाज़ दी-
'सुनते हो'।
चिलम औंधी
धुआँ उठा-
सूरज डूबा
अंधेरा छा गया।
पैतृक संपत्ति / केदारनाथ अग्रवाल
जब
बाप मरा तब यह पाया,
भूखे
किसान के बेटे ने :
घर का मलवा, टूटी खटिया,
कुछ हाथ भूमि-वह भी परती |
चमरौधे जूते का तल्ला,
छोटी,
टूटी बुढ़िया औंगी,
दरकी
गोरसी बहता हुक्का,
लोहे
की पत्ती का चिमटा |
कंचन सुमेरु का प्रतियोगी
द्वारे का पर्वत घूरे का,
बनिया
के रुपयों का कर्जा
जो नहीं चुकाने पर चुकता |
दीमक, गोजर, मच्छर, माटा-
ऐसे हजार सब सहवासी |
बस यही नहीं, जो भूख मिली
सौगुनी
बाप से अधिक मिली |
अब
पेट खलाये फिरता है |
चौड़ा
मुँह बाये फिरता है |
वह
क्या जाने आजादी क्या ?
आजाद देश की बातें क्या ??
अभिशाप जग का/ केदारनाथ अग्रवाल
एक जोते
और बोए, ताक कर फसलें
उगायें,
दूसरा अपराध में काटे
उन्हें अपनी बनाए,
मैं इसे विधि का नहीं,
अभिशाप जग का जानता हूँ |
एक रोटी
के लिए तड़पे सदा अधपेट
खाए,
दूसरा घी-दूध-शक्कर का मज़ा
भरपेट पाए,
मैं इसे विधि का नहीं,
अभिशाप जग का जानता हूँ |
एक बल्कल
वस्त्र पहने लाज अपनी को
गँवाए,
दूसरा बहु वस्त्र पहने
छिद्र अपने सौ छिपाए,
मैं इसे विधि का नहीं,
अभिशाप जग का जानता हूँ |
एक विद्या
के लिए व्याकुल रहे,
पुस्तक न पाए,
दूसरी विद्या पढ़े, छल-छंद
से सोना कमाए,
मैं इसे विधि का नहीं,
अभिशाप जग का जानता हूँ |
मैं नया इंसान हूँ
अभिशाप को खंडित करूँगा |
शाप के प्रतिपालकों को न्याय से
दंडित करूँगा ||
वास्तव में/ केदारनाथ अग्रवाल
पंचवर्षी योजना की रीढ़ ऋण की शृंखला है,
पेट भारतवर्ष का है और चाकू डालरी है |
संधियाँ व्यापर की अपमान की
कटु ग्रंथियाँ हैं,
हाथ युग के सारथी हैं,
भाग्य-रेखा चाकरी है ||
110 का अभियुक्त/ केदारनाथ अग्रवाल
अभियुक्त 110 का,
बलवान, स्वस्थ,
प्यारी धरती का
शक्ति-पुत्र,
चट्टानी छातीवाला,
है खड़ा खंभ-सा आँधी में
डिप्टी साहब के आगे |
नौकरशाही के गुरगे,
अफसरशाही के मुरगे,
भू-कर उगाहने वाले,
दल्लाल दुष्ट पैसे के,
आना-गंडा के जमींदार;
लाला साहब पटवारी जी |
धरती माता के कुलांगार-
कटु दुःशासन के धूर्तराज;
थाने का चौकीदार नीच,
जो वफादार है, द्वारपाल
इस चरमर करते शासन का;
बनिया जो मालिक है धन का,
जो नफाखोर बन चूस रहा
जन जन का सारा रक्त-राग;
पंडित (धार्मिक कोढ़ी गँवार);
मादक चीजों के विक्रेता
जो नाशराज का है कलार;
आये थे सब के सब गवाह |
झूठी गंगा-तुलसी लेकर,
अंतर से बोले एक-एक :
“यह चोर, नकबजन आदी है;
इसकी ऐसी ही शोहरत है,
यह चोर टिकाता है घर में |”
अभिमन्यु क्रोध से पागल हो;
कर चला जिरह उन लोगों से;
जैसे गयंद चीरे कदली का
वन-का-वन,
जैसे जनता सामंतीगढ़ को करे ध्वस्त;
जैसे समुद्र की बड़ी लहर
मारे छापा,
छोटे जहाज को करे त्रस्त !
दे सका न उत्तर जमींदार,
वह व्यर्थ रहा करता टर-टर !
पटवारी जी भी गये बिगड़,
जैसे बिगड़े कोई मोटर |
चौकीदारी खा गयी हार,
जो सदा जीतती आयी थी |
बनिया रह गया छटंकी भर,
मन, सेर, पसेरी सब भूली |
पंडित खर के अवतार हुए !
विक्रेता मादक चीजों का
बक गया नशे में अर्र-बर्र !
कर चुका जिरह तब यों बोला :
“मैं चोर नहीं या सेंधमार |
मैं नहीं डकैतों का साथी !
धिक है, इन कोढ़ी कुत्तों को !
ये झूठ गवाही देते हैं !
ये नहीं चाहते : मैं पनपूँ,
इनको मेटूँ,
जनता हा जमघट मैं बाँघूँ,
इनको तोड़ूँ,
नौकरशाही-
अफसरशाही का सिर फोड़ूँ;
दुःशासन को कमजोर करूँ;
इनकी रोटी,
इनकी रोजी,
इनसे हर कर सबको दे दूँ ;
इससे ये मेरे बैरी हैं |”
इस पर भी डिप्टी साहब ने,
अफसरशाही के नायक ने-
नौकरशाही की स्याही से,
लिख दिये चटक काले अक्षर :
“यह भूमि-पुत्र है अपराधी |
यह चोर नकबजन है आदी |
यह चोर टिकाता है घर में
इससे समाज को खतरा है |”
किसान स्तवन / केदारनाथ अग्रवाल
तुम जो अपने हाथों में
विधि से ज्यादा ताकत रखती हो
मेहनत से रहते हो, खेतों
में जाकर खेती करते हो
मेड़ों को ऊँचा करते हो,
मेघों का पानी भरते हो
फसलों की उम्दा नसलें हर
साल नयी पैदा करते हो
लाठी लेकर रखवाली सबकी
करते हो
कजरारी गौऔं के थन से पय
दुहते हो
फिर भी मूँड़े पर गोबर लेकर
चलते हो
तुम जो धन्नासेठों के तलवे
मलते हो
तुम जो छाती पर पत्थर
रक्खे जीने का दम भरते हो
अन्याओं से जोर जुलुम से
मुट्ठी ताने लड़ मरते हो
तुम जो ठगते नहीं ठगे सब
दिन जाते हो
तुम जो सरकारी पेटी में
टैक्सों में पैसा भरते हो
अफसर के वेतन को अपने लोहू
देकर मोटा करते हो
थाने की ड्योढ़ी पर जाकर
बकरे जैस कट आते हो
मेहनत की मस्ती में ज्ञानी-विज्ञानी को
शरमाते हो
तुम जो मेहनत की गेहूँ जौ
की रोटी खाते हो
तुम जो मेहनत की भद्दर
गहरी निंदिया में सो जाते हो
तुम अच्छे हो तुमसे भारत
का भीतर-बाहर अच्छा है
तुम सच्चे, तुमसे भारत का
सुन्दर सपना सच्चा है
तुम गाते हो, तुमसे भारत
का कोना-कोना गाता है
तुमसे मुझको मेरे भारत को
जीवन का बल मिलता है
तुम पर मुझको गर्व बहुत
है, भारत को अभिमान बहुत है
यद्यपि शासन तुमको क्षण भर
का कोई मान नहीं देता है
तुम जो रूसी-चीनी-हिंदी
मैत्री के दृढ़ संरक्षक हो
तुम जो तिब्बत-चीन एकता के
विश्वासी अनुमोदक हो
तुम जो युद्धों के अवरोधक
शांति समर्थक युगधर्मी हो
मैं तो तुमको मान मुहब्बत
सब देता हूँ
मैं तुम पर कविता लिखता
हूँ
कवियों में तुमको लेकर आगे
बढ़ता हूँ
असली भारत पुत्र तुम्हीं
हो
असली भारत पुत्र तुम्ही हो
मैं कहता हूँ |
हल चलते हैं फिर खेतों में/ केदारनाथ अग्रवाल
हल चलते हैं फिर
खेतों में
फटती है फिर काली
मिट्टी
बोते हैं फिर बिया
किसान
कल के जीवन के
वरदान;
फिर उपजेगा उन्नत-मस्तक
सिंहअयाली नाज
फिर गरजेगी कष्ट-बिदारक धरती आवाज |
आग लगे इस राम-राज में / केदारनाथ अग्रवाल
आग लगे इस राम-राज में
ढोलक मढ़ती
है अमीर की
चमड़ी बजती
है गरीब की
खून बहा है राम-राज में
आग लगे इस राम-राज में
[2]
आग लगे इस राम-राज में
रोटी रूठी,
कौर छिना है;
थाली सूनी,
अन्न बिना है,
पेट धँसा है राम-राज
में
आग लगे इस राम-राज में:
कटुई का गीत / केदारनाथ अग्रवाल
काटो काटो काटो करबी
साइत और कुसाइत क्या है
जीवन से बढ़ साइत क्या है
काटो काटो काटो करबी
मारो मारो मारो हँसिया
हिंसा और अहिंसा क्या है
जीवन से बढ़ हिंसा क्या
है
मारो मारो मारो हँसिया
पाटो पाटो पाटो धरती
धीरज और अधीरज क्या है
कारज से बढ़ धीरज क्या है
पाटो पाटो पाटो धरती
काटो काटो काटो करबी
खेत का दृश्य
/केदारनाथ अग्रवाल
आसमान की
ओढ़नी ओढ़े
धानी पहने
फसल घँघरिया,
राधा बन कर
धरती नाची,
नाचा हँसमुख
कृषक सँवरिया ।
माती थाप
हवा की पड़ती,
पेड़ों की बज
रही ढुलकिया,
जी भर फाग
पखेरु गाते,
ढरकी रस की
राग-गगरिया !
मैंने ऎसा
दृश्य निहारा,
मेरी रही न,
मुझे ख़बरिया,
खेतों के
नर्तन-उत्सव में,
भूला तन-मन
गेह-डगरिया ।
धरती/ केदारनाथ अग्रवाल
यह धरती है उस किसान की
जो बैलों के कंधों पर
बरसात घाम में,
जुआ भाग्य का रख देता है,
खून चाटती हुई वायु में,
पैनी कुर्सी खेत के भीतर,
दूर कलेजे तक ले जाकर,
जोत डालता है मिट्टी को,
पांस डाल कर,
और बीज फिर बो देता है
नये वर्ष में नयी फसल के
ढेर अन्न का लग जाता है।
यह धरती है उस किसान की।
जो बैलों के कंधों पर
बरसात घाम में,
जुआ भाग्य का रख देता है,
खून चाटती हुई वायु में,
पैनी कुर्सी खेत के भीतर,
दूर कलेजे तक ले जाकर,
जोत डालता है मिट्टी को,
पांस डाल कर,
और बीज फिर बो देता है
नये वर्ष में नयी फसल के
ढेर अन्न का लग जाता है।
यह धरती है उस किसान की।
नहीं कृष्ण की,
नहीं राम की,
नहीं भीम की, सहदेव, नकुल की
नहीं पार्थ की,
नहीं राव की, नहीं रंक की,
नहीं तेग, तलवार, धर्म की
नहीं किसी की, नहीं किसी की
धरती है केवल किसान की।
नहीं राम की,
नहीं भीम की, सहदेव, नकुल की
नहीं पार्थ की,
नहीं राव की, नहीं रंक की,
नहीं तेग, तलवार, धर्म की
नहीं किसी की, नहीं किसी की
धरती है केवल किसान की।
सूर्योदय, सूर्यास्त असंख्यों
सोना ही सोना बरसा कर
मोल नहीं ले पाए इसको;
भीषण बादल
आसमान में गरज गरज कर
धरती को न कभी हर पाये,
प्रलय सिंधु में डूब-डूब कर
उभर-उभर आयी है ऊपर।
भूचालों-भूकम्पों से यह मिट न सकी है।
सोना ही सोना बरसा कर
मोल नहीं ले पाए इसको;
भीषण बादल
आसमान में गरज गरज कर
धरती को न कभी हर पाये,
प्रलय सिंधु में डूब-डूब कर
उभर-उभर आयी है ऊपर।
भूचालों-भूकम्पों से यह मिट न सकी है।
यह धरती है उस किसान की,
जो मिट्टी का पूर्ण पारखी,
जो मिट्टी के संग साथ ही,
तपकर,
गलकर,
जो मिट्टी का पूर्ण पारखी,
जो मिट्टी के संग साथ ही,
तपकर,
गलकर,
जीकर,
मरकर,
खपा रहा है जीवन अपना,
देख रहा है मिट्टी में सोने का सपना,
मिट्टी की महिमा गाता है,
मिट्टी के ही अंतस्तल में,
अपने तन की खाद मिला कर,
मिट्टी को जीवित रखता है;
खुद जीता है।
मरकर,
खपा रहा है जीवन अपना,
देख रहा है मिट्टी में सोने का सपना,
मिट्टी की महिमा गाता है,
मिट्टी के ही अंतस्तल में,
अपने तन की खाद मिला कर,
मिट्टी को जीवित रखता है;
खुद जीता है।
यह धरती है उस किसान की !
किसान से / केदारनाथ अग्रवाल
जल्दी जल्दी हाक किसनवा
बैलों को हरियाए जा ।
युग की पैनी लौह कुसी को
‘भुई’ में खूब गड़ाए जा।।
पुरखों के हड्डी के हल को,
आगे आज बढ़ाये जा ।
वैभव को सूने खेतों की
छाती चीर दिखाए जा ।।
बीजों के धारण करने की,
पूरी साध जगाए जा ।
आगामी संतति के हित में,
कुड़ की राह बनाए जा ।।
अपना प्यारा खून पसीना
सौ –सौ बार चुआये जा ।
आजादी की हर तड़पन को,
बारंबार जिलाए जा ।।
अपनी कुरिया की चिनगी से
सबमें आग लगाये जा ।
जर्जर दुनिया के ढांचे को,
‘भभ’ ‘भभ’ आज जलाये जा ।।
शोषण की प्रत्येक प्रथा का
अंधियर गहन मिटाए जा ।
नये जनम का नया उजाला,
धरती पर
बरसाए जा ।।
गाँव-नगर बे-घर वालों के
लाखों –लाख बसाए जा।
मेहनत वालों के रहने को,
ऊँचे गेह उठाये जा ।।
हल,हंसिया का और हथौड़ा-
का परचम लहराए जा ।
अब अपनी सरकार बनाकर,
जीवन में मुसकाये जा ।
देश के बारे में
लिखे गए हजारों निबन्धों लिखा गया
पहला अमर वाक्य
एक बार फिर लिखता हूँ
भारत एक कृषि
प्रधान देश है
दुबारा उसे पढ़ने
को जैसे ही आँखे झुकाता हूँ
तो लिखा हुआ पाता
हूँ
कि पिछले कुछ
बरसों में डेढ़ लाख से अधिक किसानों ने
आत्महत्या की है
इस देश में
भयभीत होकर कागज पर से अपनी
आँखे उठाता हूँ
तो मुस्कुराती हुई दिखती है
हमारी सरकार
कोई शर्म नहीं किसी की आँख
में
दुःख या पश्चाताप की एक
झाईं तक नहीं चेहरे पर
परमाणु करार को आकुल –व्याकुल
सरकार
स्वाधीनता संग्राम के
इतिहास को अपने कीचड़ सने जूतों से
गंदा करती एक बड़े साम्राज्य
के राष्ट्राध्यक्ष को
कोर्निश बजाती नजर आती है
पत्रकारों और मिडियाकर्मी
के प्रश्नों को टालती हुई
कि जल्दी ही विचार करेगी
किसानों के बारे में....
गुस्से में बेसुध होकर
थूकता हूँ सरकार के चेहरे पर
पर वह सरकार नहीं सरकार की
रंगीन छवि है
और वह भी मेरे सिर से बहुत
ऊपर
थूक के छींटे मेरे ही चेहरे
पर गिरते हैं
खिसियाकर आस्तीन से अपने
चेहरे को पोंछता हूँ
तभी कोई कान में फुसफुसाता
है
एक किसान ने कुछ देर पहले
आत्महत्या कर ली
तुम्हारे अपने गाँव में ...
आत्महत्या के आकड़ों में अब
इसे कहाँ जोंडू ?
विकल/ राजेश जोशी
संकट बढ़ रहा है
छोटे –छोटे खेत अब नहीं
दिखेंगे इस धरती पर
कॉर्पोरेट आ रहे हैं
कॉर्पोरेट आ रहे हैं
सौंप दो उन्हें अपनी छोटी –छोटी
जमीनें
मर्जी से नहीं जबर्दस्ती
छीन लेंगे वे
कॉर्पोरेट आ रहे हैं
जमीनें सौंप देने के सिवा
कोई और विकल्प नहीं
तुम्हारे पास !
नहीं –नहीं, यह तो गलत
वाक्य बोल गया मैं
विकल्प ही विकल्प है
तुम्हारे पास
मसलन भाग सकते हो शहरों की
ओर
जहाँ न तुम किसान रहोगे न
मजदूर
घरेलू नौकर बन सकते हो वहां
जैसे महान राजधानी में
झारखंड के इलाकों से आई
लड़कियां कर रही हैं झाड़ू –बासन
के काम
अपराध जगत के दरवाजों पर
नोवैकेंसी का
कोई बोर्ड कभी नहीं रहा
अब भी लामबंद न होना
चाहो,लड़ना न चाहो अब भी
तो एक सबसे बड़ा विकल्प खुला
है
आत्महत्या का !
कि तुमसे पहले भी चुना है
यह विकल्प तुम्हारे भाई –बन्दों ने
लेकिन इतना जान लो ....
मृत्यु सिर्फ मर गए आदमी के
दुःख और तकलीफें दूर करती है
लेकिन बचे हुओं की तकलीफों
में हो जाता है
थोड़ा इजाफा और .....!
यह उन्नीस सौ
बहत्तर की बीस अप्रैल है या
किसी पेशेवर हत्यारे का दायाँ हाथ या किसी जासूस
का चमडे का दस्ताना या किसी हमलावर की दूरबीन पर
टिका हुआ धब्बा है
जो भी हो -इसे मैं केवल एक दिन नहीं कह सकता !
जहाँ मैं लिख रहा हूँ
यह बहुत पुरानी जगह है
जहाँ आज भी शब्दों से अधिक तम्बाकू का
इस्तेमाल होता है
आकाश यहाँ एक सूअर की ऊँचाई भर है
यहाँ जीभ का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ आँख का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ कान का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ नाक का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ सिर्फ दाँत और पेट हैं
मिट्टी में धँसे हुए हाथ हैं
आदमी कहीं नहीं है
केवल एक नीला खोखल है
जो केवल अनाज माँगता रहता है-
एक मूसलधार बारिश से
दूसरी मूसलाधार बारिश तक
यह औरत मेरी माँ है या
पाँच फ़ीट लोहे की एक छड़
जिस पर दो सूखी रोटियाँ लटक रही हैं-
मरी हुई चिड़ियों की तरह
अब मेरी बेटी और मेरी हड़ताल में
बाल भर भी फ़र्क़ नहीं रह गया है
जबकि संविधान अपनी शर्तों पर
मेरी हड़ताल और मेरी बेटी को
तोड़ता जा रहा है
क्या इस आकस्मिक चुनाव के बाद
मुझे बारूद के बारे में
सोचना बंद कर देना चाहिए?
क्या उन्नीस सौ बहत्तर की इस बीस अप्रैल को
मैं अपने बच्चे के साथ
एक पिता की तरह रह सकता हूँ?
स्याही से भरी दवात की तरह-
एक गेंद की तरह
क्या मैं अपने बच्चों के साथ
एक घास भरे मैदान की तरह रह सकता हूँ?
वे लोग अगर अपनी कविता में मुझे
कभी ले भी जाते हैं तो
मेरी आँखों पर पट्टियाँ बाँधकर
मेरा इस्तेमाल करते हैं और फिर मुझे
सीमा से बाहर लाकर छोड़ देते हैं
वे मुझे राजधानी तक कभी नहीं पहुँचने देते हैं
मैं तो ज़िला -शहर तक आते-आते जकड़ लिया जाता हूँ !
सरकार ने नहीं-इस देश की सबसे
सस्ती सिगरेट ने मेरा साथ दिया
बहन के पैरों के आस-पास
पीले रेंड़ के पौधों की तरह
उगा था जो मेरा बचपन-
उसे दरोग़ा का भैंसा चर गया
आदमीयत को जीवित रखने के लिए अगर
एक दरोग़ा को गोली दागने का अधिकार है
तो मुझे क्यों नहीं ?
जिस ज़मीन पर
मैं अभी बैठकर लिख रहा हूँ
जिस ज़मीन पर मैं चलता हूँ
जिस ज़मीन को मैं जोतता हूँ
जिस ज़मीन में बीज बोता हूँ और
जिस ज़मीन से अन्न निकालकर मैं
गोदामों तक ढोता हूँ
उस ज़मीन के लिए गोली दागने का अधिकार
मुझे है या उन दोग़ले ज़मींदारों को जो पूरे देश को
सूदख़ोर का कुत्ता बना देना चाहते हैं
यह कविता नहीं है
यह गोली दागने की समझ है
जो तमाम क़लम चलानेवालों को
तमाम हल चलानेवालों से मिल रही है।
-
नई खेती/ रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’
मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले ! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।
(किसान कविता संकलन -सौरभ कुमार,जितेन्द्र यादव)
किसानों पर लिखी कविताओं का बहुत ही अच्छा संकलन। शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता
जवाब देंहटाएंअच्छा संकलन। मैं,श, गुप्त और निराला की कविताएं जिस संकलन से ली गयी हैं, उनका नामोल्लेख होता तो और अच्छा होता। यों, सभी कवियों की कविताओं के स्रोत अंकित होने चाहिए।
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